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Sunday, September 30, 2007

वो आए हैं अंग्रेज बहादुरों की जीत का जश्न मनाने



-दिलीप मंडल

वो आए। मेरठ, दिल्ली, लखनऊ गए। गदर में अंग्रेजों ने जो जुल्म ढाए थे, उसका उन्हें कोई अफसोस न था। मेरठ में वो पत्थर पर बना प्रतीक चिह्न लगाना चाहते थे जिस पर लिखा था- 60वी किंग्स रॉयल राइफल कोर की पहली बटालियन ने 10 मई और 20 सितंबर 1857 के दौरान जो साहसिक और अभूतपूर्व साहस दिखाया, उसके नाम।



1857 के दौरान लखनऊ में कहर ढाने वाले कुख्यात सर हेनरी हेवलॉक का एक वंशज भी उस टोली में है, जो गदर के समय अंग्रेजों की बहादुरी को याद करने भारत आयी है। उसके मुताबिक- अंग्रेजी राज भारत के लिए अच्छा था, और भारत में लोकतंत्र इसलिए चल रहा है क्योंकि यहां अंग्रेजी राज रहा।
क्या आपको ये सुनकर कुछ याद आ रहा है। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ब्रिटेन यात्रा के दौरान ठीक यही बात तो कही थी।

हमें इस बात पर आश्चर्य नही होना चाहिए, कि 1857 के दौरान अंग्रेजों की बहादुरी का जश्न मनाने के लिए भारत आने वालों को सरकार वीसा देती है और उन्हें लोगो के गुस्से से बचाने के लिए उन्हें सुरक्षा दी जाती है।

वैसे मेरठ से खबर है कि ये अंग्रेज जिस चर्च में अपना स्मृति चिह्न लगाना चाहते थे, वहां के पादरी ने इसकी इजाजत नही दी।

Friday, September 28, 2007

उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा

(सच है कि शहीदे आजम भगत सिंह को याद करने के लिए किसी बहाने की जरूरत नही, मगर यह याद कर लेना भी गुनाह नहीं कि आज भगत सिंह के जन्म को १०० साल पूरे हो रहे हैं. २८ सितंबर १९०७ को भगत सिंह ने इस देश की मिट्टी को गौरवान्वित किया था. प्रस्तुत है भगत सिंह के एक लेख का अंश जिसका एक-एक शब्द घोल कर पी जाने लायक है.)

भगत सिंह

इस संसार को मिथ्या नहीं मानता. मेरा देश, न परछाई है, न ही कोई मायाजाल. ये एक जीती-जागती हकीकत है. हसीन हकीकत और मैं इससे प्यार करता हूं. मेरे लिए इस धरती के अलावा न तो कोई और दुनिया है और न कोई स्वर्ग. यह सही है कि आज थोड़े से व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को नर्क बना दिया है. लेकिन इसके साथ ही इसे काल्पनिक कह कर भागने से काम नहीं चलेगा. लुटेरों और दुनिया को गुलाम बनानेवालों को खत्म करके हमें इस पवित्र धरती पर वापिस स्वर्ग की स्थापना करनी होगी.

पूछता हूं कि सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, लूट-पाट, ऊंच-नीच, गुलामी, हिंसा, महामारी और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता? इन सबकों खत्म करने की ताकत होते हुए भी वह मनुष्यों को इन शापों से मुक्त नहीं करता, तो निश्चय ही उसे अच्छा भगवान नहीं कहा जा सकता और अगर उसमें इन सब बुराइयों को खत्म करने की शक्ति नहीं है, तो वह सर्व शक्तिमान नहीं है.

वह ये सारे खेल अपनी लीला दिखाने के लिए कर रहा है, तो निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि वह बेसहारा व्यक्तियों को तड़पा कर सजा देनेवाली एक निर्दयी और क्रूर सत्ता है और जनता के हित से उसका जल्द-से-जल्द खत्म हो जाना ही बेहतर है.

मायावाद, किस्मतवाद, ईश्वरवाद आदि को मैं चंद लुटेरों द्वारा साधारण जनता को बहलाने-फुसलाने के लिए खोजी गयी जहरीली घुट्टी से ज्यादा कुछ नहीं समझता. दुनिया में अभी तक जितना भी खून-खराबा धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने किया है, उतना शायद ही किसी और ने किया होगा. जो धर्म इनसान को इनसान से अलग करे, मोहब्बत की जगह एक-दूसरे के प्रति नफरत करना सिखाना, अंधविश्वास को उत्साहित करके लोगों के बौद्धिक विकास को रोक कर उनके दिमाग को विवेकहीन बनाना, वह कभी भी मेरा धर्म नहीं बन सकता.

हम भगवान, पुनर्जन्म, स्वर्ग, घमंड और भगवान द्वारा बनाये गये जीवन के हिसाब-किताब पर कोई विश्वास नहीं रखते. इन सब जीवन-मौत के बारे में हमें हमेशा पदार्थवादी ढंग से ही सोचना चाहिए. जिस दिन हमें भगवान के ऊपर विश्वास न करनेवाले बहुत सारे स्त्री-पुरुष मिल जायें जो केवल अपना जीवन मनुष्यता की सेवा और पीड़ित मनुष्य की भलाई के सिवाय और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते. उसी दिन से मुक्ति के युग का शुभ आरंभ होगा.

मैंने अराजकतावादी, कम्युनिज़्म के पितामह कार्ल मार्क्स, लेनिन, ट्राटस्की और अन्य के लिखे साहित्य को पढ़ा है. वो सारे नास्तिक थे. सन 1922 के आखिर तक मुझे इस बात पर विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परमात्मा की बात, जिसने ब्रह्मांड की संरचना की है, संचालन किया है, एक कोरी बकवास है.


जैसे लडोगे, वैसे लड़ेंगे
(इसके साथ ही हम यहाँ वरिष्ठ और प्रतिबद्ध पत्रकार अनिल चमड़िया की यह उक्ति भी प्रस्तुत करना चाहेंगे जो हमे भगत सिंह के ऊपर दिए गए लेखांश के साथ ई मेल से मिला)

हम भगत सिंह को हरियाणा के उस दलित नौजवान की तरह समझते हैं जो कहता है कि जैसे लड़ोगे, वैसे लड़ेंगे. दरअसल जो लोग संघर्ष के बारे में यह प्रश्न उठाते है कि वह हिंसात्मक होगा या अहिंसात्मक वे लोग सत्ता के साथ खड़े होते है. भगत सिंह का पूरा दर्शन कहीं भी और कभी भी नहीं कहता है कि हिंसा ही एक रास्ता है. उन्होंने बम भी फेंका और अनशन भी किये. बुनियादी परिवर्तन करनेवाले सूत्र भगत सिंह के दर्शन में मिलते हैं.
-अनिल चमड़िया

ताकि छेड़खानी करने वालों का मनोबल न टूटे

-दिलीप मंडल
उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी कैंपस इलाके में लड़कियों के साथ छेड़खानी की। उन्होंने लड़कियो के साथ जबर्दस्ती की कोशिश की। लेकिन वो हमारी आपकी सुरक्षा के लिए दिल्ली पुलिस में भर्ती होंगे। सरकार उनके साथ है। इसलिए आप चाहें या न चाहें, वो हमारी सुरक्षा करेंगे। वो हमारे लिए हमारे साथ सदैव रहना चाहते हैं।

डीयू की लड़कियां कितनी गैरवाजिब मांग उठा रही हैं। वो चाहती है कि छेड़खानी करने वाले लफंगे जिस बैच में शामिल हों, उस बैच को नौकरी पर न रखा जाए। वो चाहती है कि दिल्ली पुलिस और केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल उनकी मांग मान लें। जिस एनएसयूआई को डीयू ने खूबसूरत पोस्टर और संगठन का जलवा देखकर हाल ही मे जिताया है और जिसके नेताओं ने सोनिया गाधी के साथ तस्वीरे खिचाई थी, वो खामोशी साधे हुए है। डीयू स्टूडेंट यूनियन की प्रेसिडेट लड़की, दिल्ली की मुख्यमंत्री महिला, देश चलाने वाली एक महिला - और सभी कांग्रेसी, जिसका हाथ आम आदमी के साथ है, लेकिन डीयू की लड़कियों की एक मामूली सी और बिल्कुल सही मांग के समर्थन में कोई नही आ रहा है।


लेकिन इस मसले पर आप किस ओर खड़े है?

Tuesday, September 25, 2007

उत्तर भारत में ओबीसी पॉलिटिक्स का अवसान

-दिलीप मंडल
1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है ? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।


दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वो तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। खासकर इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बात पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी। अब जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न ही जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि दलित उत्पीड़न से लेकर मुसलमानों के खिलाफ दंगों में पिछड़ी जातियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती दिखती हैं। ऐसा गुजरात में हुआ है, उत्तर प्रदेश में हुआ है और बिहार से लेकर हरियाणा और मध्यप्रदेश तक में आपको ऐसे केस दिख जाएंगे।


1990 का पूरा दशक उत्तर भारत में पिछड़े नेताओं के वर्चस्व के कारण याद रखा जाएगा। मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, देवीलाल (दिवंगत), ओम प्रकाश चौटाला, कल्याण सिंह, उमा भारती, अजित सिंह जैसे नेता पूरे दशक और आगे-पीछे के कुछ वर्षों में राजनीति के शिखर पर चमकते रहे हैं। इस दौरान खासकर प्रशासन में और सरकारी ठेके और सप्लाई से लेकर ट्रांसपोर्ट और कारोबार तक में पिछड़ों में से अगड़ी जातियों को उनका हिस्सा या उससे ज्यादा मिल गया है। ट्रांसफर पोस्टिंग में इन जातियों के अफसरों को अच्छी और मालदार जगहों पर रखा गया। विकास के लिए ब्लॉक से लेकर पंचायत तक पहुंचने वाले विकास के पैसे की लूट में अब इन जातियों के प्रभावशाली लोग पूरा हिस्सा ले रहे हैं। लेकिन इन जातियों के प्रभावशाली होने में एक बड़ी कमी रह गई है। वो ये कि शिक्षा के मामले में इन जातियों और उनके नेताओं ने आम तौर पर कोई काम नहीं किया है। इस मामले में उत्तर भारत की पिछड़ा राजनीति, दक्षिण भारत या महाराष्ट्र की पिछड़ा राजनीति से दरिद्र साबित हुई है।


विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी। इसका असर आपको पिछले साल चले आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान दिखा होगा। अपनी सीटें कम होने की चिंता को लेकर जब सवर्ण छात्र सड़कों पर थे और एम्स जैसे संस्थान तक बंद करा दिए गए, तब पिछड़ी जाति के छात्रों में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। जब सरकार ने आंदोलन के दबाव में ओबीसी रिजर्वेशन को संस्थानों में सीटें बढ़ाने से जोड़ दिया और फिर आरक्षण को तीन साल की किस्तों में लागू करने की घोषणा की, तब भी पिछड़ी जाति के नेताओं से लेकर छात्रों तक में कोई प्रतिक्रिया होती नहीं दिखी। और फिर जब अदालत में सरकार ओबीसी आरक्षण का बचाव नहीं कर पाई और आरक्षण का लागू होना टल गया, तब भी पिछड़ों के खेमे में खोमोशी ही दिखी।


इसकी वजह शायद ये है कि पिछड़ी जातियों में कामयाबी के ज्यादातर मॉडल शिक्षा में कामयाबी हासिल करने वाले नहीं हैं। पिछड़ी जातियों में समृद्धि के जो मॉडल आपको दिखेंगे उनमें ज्यादातर ने जमीन बेचकर, ठेकेदार करके, सप्लायर्स बनकर, नेतागिरी करके, या फिर कारोबार करके कामयाबी हासिल की है। दो तीन दशक तक तो ये मॉडल सफल साबित हुआ। लेकिन अब समय तेजी से बदला है। नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।


ऐसे में उम्मीद की किरण कहां है? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए आपको इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि समाज में बदलाव की जरूरत किसे है। उत्तर भारतीय समाज को देखें तो उम्मीद की रोशनी आपको दलित, अति पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के बीच नजर आएगी। भारतीय लोकतंत्र में ये समुदाय अब भी वंचित हैं। यथास्थिति उनके हितों के खिलाफ है। संख्या के हिसाब से भी ये बहुत बड़े समूह हैं और चुनाव नतीजों के प्रभावित करने की इनकी क्षमता भी है। वैसे जाति और मजहबी पहचान की राजनीति की बात करते हुए हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आने वाले समय में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने के साथ शायद आदिम पहचान के दम पर चल रहे भारतीय लोकतंत्र का भी चेहरा भी बदलेगा। वैसे भी लोकतंत्र जैसी आधुनिक शासन व्यवस्था का जाति और कबीलाई पहचान के साथ तालमेल स्वाभाविक नहीं है।

Saturday, September 22, 2007

बोलो, कि चुप रहोगे तो अपराधी कहलाओगे

दिलीप मंडल

1974 में पत्रकारों और लेखकों के बड़े हिस्से ने एक गलती की थी। उसका कलंक एक पूरी पीढ़ी ढो रही है। इमरजेंसी की पत्रकारिता के बारे में जब भी चर्चा होती है तो एक जुमला हर बार दोहराया जाता है- पत्रकारों को घुटनों के बल बैठने को कहा गया और वो रेंगने लगे। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अपवाद उस समय कम थे, जिन्होंने अपना संपादकीय खाली छोड़ने का दम दिखाया था। क्या 2007 में हम वैसा ही किस्सा दोहराने जा रहा हैं?



मिडडे में छपी कुछ खबरों से विवाद की शुरुआत हुई, जिसके बारे में खुद ही संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने मिड डे के चार पत्रकारों को अदालत की अवमानना का दोषी करार देते हुए चार-चार महीने की कैद की सजा सुनाई है। इन पत्रकारों में एडीटर एम के तयाल, रेजिडेंट एडीटर वितुशा ओबेरॉय, कार्टूनिस्ट इरफान और तत्कालीन प्रकाशक ए के अख्तर हैं। अदालत में इस बात पर कोई जिरह नहीं हुई कि उन्होंने जो लिखा वो सही था या गलत। अदालत को लगा कि ये अदालत की अवमानना है इसलिए जेल की सजा सुना दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले की सुनवाई रोकने की अपील ठुकरा दी है। कार्टूनिस्ट इरफान ने कहा है कि चालीस साल कैद की सजा सुनाई जाए तो भी वो भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्टून बनाते रहेंगे।



मिडडे ने भारत के माननीय मुख्य न्याधीश के बारे में एक के बाद एक कई रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट तीन चार स्थापनाओं पर आधारित थी।
- पूर्व मुख्य न्यायाधीश सब्बरवाल के सरकारी निवास के पते से उनके बेटों ने कंपनी चलाई।
- उनके बेटों का एक ऐसे बिल्डर से संबंध है, जिसे दिल्ली में सीलिंग के बारे में सब्बरवाल के समय सुप्रीम कोर्ट के दिए गए आदेशों से फायदा मिला। सीलिंग से उजड़े कुछ स्टोर्स को उस मॉल में जाना पड़ा जो उस बिल्डर ने बनाया था।
- सब्बरवाल के बेटों को उत्तर प्रदेश सरकार ने नोएडा में सस्ती दर पर प्लॉट दिए। ऐसा तब किया गया जबकि मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के मुकदमे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे थे।


ये सारी खबरें मिड-डे की इन लिंक्स पर कुछ समय पहले तक थी। लेकिन अब नहीं हैं। आपको कहीं मिले तो बताइएगा।
http://mid-day.com/News/City/2007/June/159164.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159165.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159169.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159168.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159163.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159172.htm


अदालत के फैसले से पहले मिड-डे ने एक साहसिक टिप्पणी अपने अखबार में छापी है। उसके अंश आप नीचे पढ़ सकते हैं।
-हमें आज सजा सुनाई जाएगी। इसलिए नहीं कि हमने चोरी की, या डाका डाला, या झूठ बोला। बल्कि इसलिए कि हमने सच बोला। हमने जो कुछ लिखा उसके दस्तावेजी सबूत साथ में छापे गए।
हमने छापा कि जिस समय दिल्ली में सब्बरवाल के नेतृत्व वाले सुप्रीम कोर्ट के बेंच के फैसले से सीलिंग चल रही थी, तब कुछ मॉल डेवलपर्स पैसे कमा रहे थे। ऐसे ही मॉल डेवलपर्स के साथ सब्बरवाल के बेटों के संबंध हैँ। सुप्रीम कोर्ट आदेश दे रहा था कि रेसिडेंशियल इलाकों में दफ्तर और दुकानें नहीं चल सकतीं। लेकिन खुद सब्बरवाल के घर से उनके बेटों की कंपनियों के दफ्तर चल रहे थे।
लेकिन हाईकोर्ट ने सब्बरवाल के बारे में मिडडे की खबर पर कुछ भी नहीं कहा है।
मिड डे ने लिखा है कि - हम अदालत के आदेश को स्वीकार करेंगे लेकिन सजा मिलने से हमारा सिर शर्म से नहीं झुकेगा।


अदालत आज एक ऐसी पत्रकारिता के खिलाफ खड़ी है, जो उस पर उंगली उठाने का साहस कर रही है। लेकिन पिछले कई साल से अदालतें लगातार मजदूरों, कमजोर तबकों के खिलाफ यथास्थिति के पक्ष में फैसले दे रही है। आज हालत ये है कि जो सक्षम नहीं है, वो अदालत से न्याय पाने की उम्मीद भी नहीं कर रहा है। पिछले कुछ साल में अदालतों ने खुद को देश की तमाम संस्थाओं के ऊपर स्थापित कर लिया है। 1993 के बाद से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका खत्म हो चुकी है। माननीय न्यायाधीश ही अब माननीय न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में अंतिम फैसला करते हैँ।पूरी प्रक्रिया और इस सरकार की राय आप इस लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं। बड़ी अदालतों के जज को हटाने की प्रक्रिया लंगभग असंभव है। जस्टिस रामास्वामी के केस में इस बात को पूरे देश ने देखा है।


और सरकार को इस पर एतराज भी नहीं है। सरकार और पूरे पॉलिटिकल क्लास को इस बात पर भी एतराज नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में जोडी़ गई नवीं अनुसूचि को न्यायिक समीक्षा के दायरे में शामिल कर दिया है। ये अनुसूचि संविधान में इसलिए जोड़ी गई थी ताकि लोक कल्याण के कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाया जा सके। आज आप देश की बड़ी अदालतों से सामाजिक न्याय के पक्ष में किसी आदेश की उम्मीद नहीं कर सकते। सरकार को इसपर एतराज नहीं है क्योंकि सरकार खुद भी यथास्थिति की रक्षक है और अदालतें देश में ठीक यही काम कर रही हैँ।


कई दर्जन मामलों में मजदूरों और कर्मचारियों के लिए नो वर्क-नो पे का आदेश जारी करने वाली अदालत, आरक्षण के खिलाफ हड़ताल करके मरीजों को वार्ड से बाहर जाने को मजबूर करने वाले डॉक्टरों को नो वर्क का पेमेंट करने को कहती है। और जब स्वास्थ्य मंत्रालय कहता है कि अदालत इसके लिए आदेश दे तो सुप्रीम कोर्ट कहता है कि इन डॉक्टरों को वेतन दिया जाए,लेकिन हमारे इस आदेश को अपवाद माना जाए। यानी इस आदेश का हवाला देकर कोई और हड़ताली अपने लिए वेतन की मांग नहीं कर सकता है। ये आदेश एक ऐसी संस्था देती है जिस पर ये देखने की जिम्मेदारी है कि देश कायदे-कानून से चल रहा है।


अदालतों में भ्रष्टाचार के मामले आम है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशन की इस बारे में पूरी रिपोर्ट है। लगातार ऐसे किस्से सामने आ रहे हैं। लेकिन उसकी रिपोर्टिंग मुश्किल है।


तो ऐसे में निरंकुश होती न्यापालिका के खिलाफ आप क्या कर सकते हैँ। तेलुगू कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता वरवर राव ने हमें एक कार्यक्रम में बताया था कि इराक पर जब अमेरिका हमला करने वाला था तो वहां के युद्ध विरोधियों ने एक दिन खास समय पर अपने अपने स्थान पर खड़े होकर आसमान की ओर हाथ करके कहा था- ठहरो। ऐसा करने वाले लोगों की संख्या कई लाख बताई जाती है। इससे अमेरिकी हमला नहीं रुका। लेकिन ऐसा करने वाले बुद्धिजीवियों के कारण आज कोई ये नहीं कह सकता कि जब अमेरिका कुछ गलत करने जा रहा था तो वहां के सारे लोग बुश के साथ थे। क्या हममे है वो दम?

Tuesday, September 18, 2007

क्यों करनी चाहिए खेत मजदूरों का वेतन बढाने की मांग

मालंच
वाम दल खुश हैं कि उन्हें मनमोहन सिंघ की अमेरिका परस्ती साबित करने का मौका मिल गया है. कॉंग्रेस खुश है कि परमाणु समझौते को मुद्दा बना कर वाम दलों का चीन मोह उजागर किया जा सकेगा. भाजपा खुश है कि राम मंदिर मुद्दे पर उसकी खोखली बातों से निराश हिंदुओं को फिर से अपने पीछे लामबंद करने का एक औजार राम सेतु मुद्दे के रूप मे मिल गया है. अब किसी को और कोई मुद्दा नही चाहिए.
मगर रेजेक्ट समूह के लिहाज से देखें तो इन् सबसे बड़ा मुद्दा है जिस पर किसी पार्टी का ध्यान नहीं है. मुद्दा यह है कि सरकार ने खेतिहर मजदूरों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक समिति का गठन किया था अर्जुन सेन गुप्ता समिति. इस समिति ने अपनी सिफारिशों में कहा है कि -

१) खेतिहर मजदूरों से आठ घंटे से ज्यादा काम ना लिया जाये.

२) ज्यादा काम लेने पर उनके लिए ओवर टाइम की व्यवस्था हो.

३) चार घंटे काम लेने के बाद उन्हें आधे घंटे का विश्राम दिया जाये.

मौजूदा संप्रग सरकार ने ये सभी सिफारिशें ठुकरा दीं हैं. उसका कहना है कि ये सिफारिशें व्यावहारिक नही हैं.
क्यों व्यावहारिक नही हैं, पता नही. कम से कम अखबारों को सरकार ने यह नही बताया है. लेकिन फिर भी हम समझ सकते हैं कि सरकार इन सिफारिशों को क्यों अव्यावहारिक मानती है. पहला और सबसे बड़ा कारण यह है कि इसका सीधा नुकसान सेलेक्ट समूह (यानी वह समूह जो श्रम खरीदता है) को होने वाला है. अगर खेतिहर मजदूरों को ओवर टाइम देने की व्यवस्था होगी तो उन बडे किसानो या ज़मींदारों को नुकसान होगा जो खेतहीन मजदूरों से न्यूनतम संभव मजदूरी पर अधिक से अधिक काम लेते हैं.

दूसरी बात यह कि अगर सरकार अपनी तरफ से ऐसा कोई प्रावधान करती है तो वह कथित मुक्त अर्थव्यवस्था के प्रावधानों का उल्लंघन होगा.
मुक्त अर्थव्यवस्था कहती है कि बाजार को खुला छोड दो. वह खुद वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य निर्धारित कर लेगा. चूंकि देश के श्रम बाजार मे खेतहीन मजदूरों की संख्या अधिक है और उनसे काम कराने वाले ज़मीन्दार गिने-चुने हैं, स्वाभाविक रूप से बाजार के नियम श्रम का मूल्य कम रखते हैं. गरजू होने के नाते मजदूर विश्राम या ओवर टाइम की सुविधा भी नही मांग सकते.
ऐसे मे अगर सरकार हस्तक्षेप करती है तो वह सेलेक्ट समूह को नाराज करेगी. यह खतरा वह बेमतलब नही उठाना चाहती. बेमतलब इसीलिये क्योकि दस करोड़ खेतिहर मजदूर भी अपनी इन सुविधाओं को लेकर सचेत नही है. ८५ करोड़ रेजेक्ट समूह (यानी वे तमाम लोग जो अपनी आजीविका के लिए किसी भी रूप मे और किसी भी कीमत पर अपना श्रम बेचने को मजबूर है.) का अन्य हिस्सा भी जो आम तौर पर अपने अधिकारों को लेकर संवेदनशील रहता है इस मुद्दे पर उदासीन है.
कारण शायद यह है कि उसे इस बात का एहसास नही कि खेतहीन मजदूरों की इस मांग से खुद उसका भविष्य भी जुड़ा है. अगर सरकार एक तरफ मजदूरी बढाती है तो वह इस तर्क का स्वीकार होगा कि इस देश के नागरिक बाजार मे बिकने वाले उत्पाद नही है कि उन्हें बाजार की शक्तियों के भरोसे छोड दिया जाये (वैसे बाजार को भी बाजारू ताकतों के भरोसे छोड़ना कितना ठीक है यह विचारणीय है).

साफ है कि यह मुद्दा रेजेक्ट और सेलेक्ट समूह के बीच सीधी जोर आजमाइश की स्थितियां बनाता है. सेलेक्ट समूह अपने हितों को लेकर अति संवेदनशील है और साम, दाम, दण्ड भेद - यानी सभी उपायों से अपने हितों की रक्षा को कृत संकल्प है. जबकि रेजेक्ट समूह अपने हितों के प्रति जागरूकता का कोई संकेत नही दे रहा, इसीलिये सरकार की पक्षधरता सेलेक्ट समूह की तरफ स्पष्ट है. यह स्थिति बदलेगी भी नही अगर रेजेक्ट समूह ऐसे ही सोया रहा.

Monday, September 10, 2007

न्यूयॉर्क की टैक्सी हड़ताल से आखिर आपको क्यों मतलब होना चाहिए

-दिलीप मंडल

न्यूयॉर्क
के टैक्सी ड्राइवरों का आंदोलन
चल रहा है। इस आंदोलन से आपको इसलिए मतलब हो सकता है कि न्यूयॉर्क में टैक्सी चलाने वालों में ज्यादातर भारतीय और पाकिस्तानी हैं। या फिर कुछ ऐसी ही चीजें भारत में भी हो रही हैं। न्यूयॉर्क टैक्सी ड्राइवर्स एलायंस ने 6 और 7 सितंबर को हड़ताल की और अपना विरोध जताया। मुद्दा ये है कि न्यूयॉर्क का नगर प्रशासन इन टैक्सियों में जीपीएस यानी ग्लोबल पॉजिशनिंग सिस्टम वाला ट्रेकिंग सिस्टम लगाना चाहता है। इसके अलावा टैक्सियों में टच स्क्रीन मॉनिटर और क्रेडिट कार्ड रीडर मशीन लगाना भी जरूरी कर दिया गया है।

ड्राइवरों की शिकायत है कि ये सब इक्विपमेंट बनाने वाली कंपनियों के हित में किया जा रहा है। साथ ही सरकार विज्ञापन एजेंसियों को भी खुश करना चाहती है, क्योंकि पीछे की सीट पर लगने वाले स्क्रीन पर लगातार विज्ञापन और फिल्मों के ट्रेलर चलते रहेंगे। इन उपकरणों को लगाने पर 4,000 डॉलर का खर्च आएगा जिसे टैक्सी ड्राइवरों को उठाना होगा। जीपीएस सिस्टम भी कोई नेविगेशन सिस्टम नहीं है और ये कस्टमर या ड्राइवर को कहीं पहुंचने में मदद नहीं करेगा। या सिर्फ गाड़ी की स्थिति बताएगा। ये व्यवस्था 1 अक्टूबर से शुरू हो रही है। इसलिए टैक्सी ड्राइवर आंदोलन पर हैं। आंदोलनकारियों के नेता भैरवी देसाई के मुताबिक उनकी हड़ताल सफल रही है। ये खबर आप विस्तार से काउंटरपंच साइट पर पढ़ सकते हैं।

Saturday, September 8, 2007

महिला वाली बहस पर कुछ और

प्रणव प्रियदर्शी

अविनाश जी के मोहल्ले मे आज कल महिलाओं पर बड़ी अच्छी बहस चल रही है. इस बार भी बहस शुरू कराने का श्रेय दिलीप मंडल को ही जाता है. जिन पाठकों ने वह बहस नहीं देखी है, उनकी जानकारी के लिए यहाँ इतना बता देना ठीक रहेगा कि दिलीप का लेख 'देख ले..आंखो मे आँखें डाल देख ले' मीडिया मे महिलाओं की बढती भागेदारी पर केंद्रित था.

उसके जवाब मे जो लेख आये उनसे कई नए सवाल उठे. मनीश जीं की टिप्पणी पर हमारी सहकर्मी पूजा प्रसाद भी उद्वेलित हुयी.

उन्होने जो जवाब भेजा उस पर मनीश की जवाबी टिप्पणी भी आयी उसका शीर्षक था 'बात को समझने की कोशिश कीजिये पूजा जी.' फिर दिलीप का पूजा के नाम ख़त आ गया जिसका शीर्षक था 'पूजा, मत समझना'. इसके बाद जो टिप्पणी आयी वह थी अमित आनंद की. उनकी टिप्पणी का शीर्षक था 'गम्भीर विषयों पर बहस करना सीखिए'.

इन टिप्पणियों से गुजरना अलग अनुभव है, लेकिन ये शीर्षक भी बहुत कुछ बता जाते हैं। यहां इस पूरी बहस को फिर से प्रस्तुत करना संभव नही, लेकिन अपने नज़रिये से इसके कुछ महत्वपूर्ण, प्रासंगिक हिस्सों पर दोबारा दृष्टि डाली जायेगी.

पूजा ने मनीश की टिप्पणी पर अपना पक्ष तार्किक ढंग से रखा. अलग संदर्भ मे मनीश की बातें सही थीं, लेकिन उनके कहने के अंदाज मे जो समझाने का भाव था वह यह संकेत दे रहा था कि पूजा को उनके तथ्यों और तर्को की वजह से नही बल्कि इसीलिये उनकी बात मान लेनी चाहिए कयोंकि वे कह रहे हैं. अमूमन जब भी 'जानकार' लोग हमे 'समझाने' लगते हैं तो ऐसा ही होता है. इसी प्रवृत्ति को लक्ष्य करते हुये दिलीप ने कहा पूजा तुम मत समझना. और हो सके तो 'कम समझदार लोगों' का एक मोर्चा बनाना. (रेजेक्ट माल ऐसे ही 'कम समझदार लोगों' का मंच बनने की कोशिश कर रहा है.)

समझदारों के खतरे का एक उदाहरण मोहल्ले की इस बहस मे भी इस रूप मे सामने आया कि जो सज्जन गम्भीर मुद्दों पर बहस का सलीका सिखाने को सबसे अधिक बेकरार थे उनकी टिप्पणी मे सबसे अधिक दोहराव और उलझनें थीं.बहराहाल , इस बहस पर रेजेक्ट समूह (यानी वे लोग जो अपनी आजीविका के लिए अपना श्रम बेचने को मजबूर हैं) के नज़रिये से विचार करें तो कुछ नए सवाल सामने आते हैं.

आइये ऐसे ही कुछ अनछुए पहलुओं को छूने की कोशिश करें.पूजा प्रसाद को ही लेते हैं. जब वे मोहल्ले से गुज़र रहीं थीं उससे ठीक पहले रेजेक्ट माल पर गोहाना मे दलित युवक की हत्या का विश्लेषण देख चुकी थी. उस पर भी अपनी प्रतिक्रिया देना चाहती थीं. मगर, जब मोहल्ले पर महिलाओं वाली बहस देखी तो सोचा कि पहले इस पर टिप्पणी देनी चाहिए.

गौर करने की बात है पूजा महिला हैं और दलित पृष्ठभूमि की भी हैं. उनकी कई और पहचान है. वे एक हिंदू हैं. वे भारतीय नागरिक भी हैं. वे एक पत्रकार है. वे रेजेक्ट समूह की सदस्य भी हैं. गोहाना वाली बहस के बदले महिला वाली बहस पर टिप्पणी करने के उनके फैसले से इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि वे दलित होने से पहले एक महिला हैं. लेकिन सवाल यह है कि इन तमाम पहचानों मे से उनकी किस पहचान को संबोधित किया जाना चाहिए.

यह सवाल उठाना इसलिये जरूरी है कि ये अलग-अलग पहचाने या अलग-अलग चेतनाएं परस्पर विरोधी हैं. एक चेतना मज़बूत होती है तो दूसरी कमजोर पडने लगती है. इसीलिये राजनीतिक विचारों संगठनों मे घोषित-अघोषित संघर्ष मुद्दों को लेकर भी चलता रहता है.

याद कीजिये मंडल कमीशन के जरिये वी पी सिंह ने दलित चेतना को उभारने का काम किया था. अगर वह मुद्दा पूरी तरह चल जाता तो देश भर के मतदाता अगडे और पिछड़े के रूप मे गोलबंद हो जाते. नतीजा यह निकलता कि भाजपा को अपनी दूकान बंद करनी पड़ती. इसीलिये आडवानी ने सरकार की चिन्ता छोड तत्काल राम रथयात्रा शुरू कर हिंदू चेतना को उभारने का जवाबी प्रयास किया.

जहां (उदाहरण बिहार) दलित चेतना उभरी वहाँ भाजपा की स्थिति कमजोर हुयी और जहाँ हिंदू चेतना उभरी वहाँ दलित राजनीति पिछड़ गयी. पूजा या पूजा जैसी अथवा जैसे किसी भी व्यक्ति की किस चेतना को उभरने का प्रयास हमें करना चाहिए इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि हमारा मकसद क्या है.

रेजेक्ट समूह के नज़रिये से देखें तो दूसरी कोई भी पहचान उसे इस समूह से दूर करेगी. उदहारण के लिए अगर देश के नागरिक की बात करें तो उसमे रेजेक्ट और सेलेक्ट (श्रम खरीदने वाले) दोनो समूह के लोग साथ खडे नज़र आते हैं और उन्हें अलग करने वाली रेखा धुंधली पडती है.आख़िरी सवाल यह कि आखिर रेजेक्ट समूह पर ही इतना जोर क्यों? एक बड़ा कारण यह है कि बाकी सारी पहचाने भावनात्मक हैं जबकि रेजेक्ट समूह की पहचान रोटी, कपडा, मकान जैसी ठोस बुनियादी ज़रूरतों से जुडी है.

Friday, September 7, 2007

शर्त एक प्याली कड़क चाय की, लोकसभा चुनाव कब होंगे

-दिलीप मंडल

एक प्याली चाय-पत्ती ज्यादा, दूध और चीनी कम। तो लगी शर्त। अब मेरी समझ बता दूं। मेरे हिसाब से चुनाव जल्द होंगे। अगले साल की पहली छमाही में। यानी सरकार का कार्यकाल पूरा करने से एक साल पहले। अब मेरे आकलन के पीछे के राजनीतिक ज्ञान/अज्ञान का जायजा लीजिए। वैसे पॉलिटिकल रिपोर्टिंग छूटे कई साल हो गए हैं। सो, परदे के पीछे के कई खेल अब आसानी से मालूम नहीं होते। लेकिन आपके पैसे की चाय पीने का लालच है, इसलिए हार के खतरे के बावजूद जीत की पूरी उम्मीद के साथ शर्त लगा रहा हूं।

-लेफ्ट पार्टियां वास्तविक अर्थों में विपक्ष की भूमिका में आ गई हैँ। अगला चुनाव वो विपक्षी की तरह लड़ना चाहती हैं। ये कुछ वैसा ही है, जैसे कि वाल्मीकि के केस में हुआ था। वाल्मीकि ने जब अपने परिवार वालों से पूछा था कि अपराध कर्म करके मैं तुम सबको पाल रहा हूं। क्या तुम सब मेरे पाप में हिस्सा बंटाओगे। जवाब आप सब जानते हैं। उनके पाप में हिस्सा बंटाने को कोई तैयार नहीं हुआ। उसी तरह लगभग सवा तीन साल तक सरकार की मलाई खाने के बाद अब लेफ्ट पार्टियां कह रही हैं कि सरकार के पाप में उनका हिस्सा नहीं है।
इसलिए तय मानिए कि लेफ्ट पार्टियां इस सरकार से अब गईं या तब गईं। लेफ्ट के बाहर आने के बाद सरकार अल्पमत में हो जाएगी।

-दूसरी बात ये कि ये सरकार अपने कार्यकाल में ढेर सारी अलोकप्रियता बटोर चुकी है। इस सरकार के संगी-साथी भी अब सरकार से कटने की कोशिश कर रहे हैं। वैसे कांग्रेस आखिरी दिन तक सरकार चलाते रहने की कोशिश करेगी।

-कांग्रेस के विधानसभा चुनावों में हारने का सिलसिला थमता नजर नहीं आता। अगली खेप के विधानसभा चुनाव में भी उसके लिए किसी अच्छी खबर की उम्मीद नहीं है। इन नतीजों के आने के बाद सरकार शायद ही चल पाएगी। सरकार के संगी साथी भी दरअसल इन चुनावों के नतीजों का ही इंतजार कर रहे हैं। उसके बाद सरकार में भगदड़ मच सकती है।

तो अब देखने की बात है कि चाय के तीन रुपए आप देते हैं या मैं। लगी शर्त?

Tuesday, September 4, 2007

कीमत

राजीव रंजन

सुबह-सुबह
खपरे की दरारों से
घुस आती थी
सूरज की किरणें
रात को छन कर
गिरती थी चांदनी
इन्हीं दरारों से
लेट कर ताकता रहता था
इन्हीं दरारों को

सूरज मुझे जगाता था
चांदनी सुलाती थी
मगर अब यह सब
गुज़रे वक़्त की बात है

बंद हो गई हैं दरारें
राजधानी के कमरे में
ईंट, गिट्टी और सरिये से
नींद खुलती है अब
घड़ी के अलार्म से
आंख लगते-लगते
बीत जाता है
रात का तीसरा पहर

महत्वाकांक्षाओं की कीमत
चुकानी पडी है
सूरज, चांदनी और नींद से

Monday, September 3, 2007

लारा को क्यों मरना पड़ा

-गोहाना से लौटकर दिलीप मंडल

लारा अगर दलित न होता तो शायद मारा ना जाता। अगर लारा विनम्र दीन-हीन गरीब दलित होता तो भी शायद मारा न जाता। लारा तब भी शायद न मारा जाता अगर वो पुलिस से डरने वाला दलित होता। अगर लारा गोहाना के दलितों का हीरो न होता तो भी शायद उसकी जान बच जाती। कुल मिलाकर लारा अगर लारा न होता तो शायद वो जिंदा होता। प्रभावशाली लोगों की नजरों में लारा में कई ऐब थे, इसलिए उसे मरना पड़ा। हरियाणा में सोनीपत जिले के गोहाना के वाल्मीकियों ने सिर उठाकर चलने की गलती की थी। उन्हें सबक तो सिखाया ही जाना था। इसलिए लारा मारा गया।


राकेश उर्फ लारा की 27 अगस्त को भीड़भाड़ भरे बाजार के पास गोलियों से भूनकर हत्या कर दी गई। उस समय वो अकेला था। लेकिन उसकी मौत का शोक सामूहिक था। लेकिन उसकी मौत के बाद उसके गम में गोहाना ही नहीं आसपास के कई गावों और जिलों के लोग शरीक हुए। शोक इस बात का कि जातीय उत्पीड़न के खिलाफ उठी एक आवाज असमय चुप करा दी गई। इस शोक में एक दिन हरियाणा बंद रहा। तीन दिनों तक गोहाना के बाजार नहीं खुले। तब से लेकर गोहाना के समता चौक पर लगातार धरना चल रहा है। धरने पर जवान, बूढ़े, बच्चें और औरतें सभी शामिल होती हैं।


पचास हजार की आबादी वाले गोहाना कस्बे में वाल्मीकि बस्ती छोटी सी है। लगभग 150 घरों की। लेकिन इस बस्ती की खास बात ये है कि दलितों के बारे में आम धारणा को ये गलत साबित करने वाली बस्ती है। गोहाना वैसे भी पढ़े-लिखे लोगों का कस्बा है। यहां की साक्षरता दर 67 फीसदी है जो राष्ट्रीय औसत 59 फीसदी से ज्यादा है। गोहाना की इस वाल्मीकि बस्ती में ज्यादातर लोग पढ़े-लिखे हैं। यहां के हर परिवार में कोई न कोई सदस्य सरकारी नौकरी में है। लारा के ही परिवार को लें तो उसके पिता सरकारी नौकरी से हाल ही में रिटायर हुए हैं। उसकी बहन म्युनसिपैलिटी में नौकरी करती हैं। भाई ड्राइवर है और लारा खुद ठेकेदारी करता था। गोहाना की वाल्मीकि बस्ती दलितों के बारे में आम छवि से उलट है। वहां साफ सुथरी गलियां हैं, अच्छे दलान हैं। खुद लारा का घर किसी शहरी उच्च मध्यवर्गीय घरों को टक्कर देता है। उस घर की फ्लोर मार्बल की है और दीवारों पर बेहतरीन रंग रोगन है। बढ़िया सोफा सेट से लेकर सारे साजोसामान उस घर में मौजूद हैं। इस बस्ती के लगभग सारे बच्चे स्कूल जाते हैं और नौजवानों के हाथों में आपको महंगे मोबाइल दिख जाएंगे। बस्ती में मोटरसाइकिल से लेकर कार तक हैं।


लारा की हत्या का दिन यानी 27 अगस्त, 2007 खास है। इससे ठीक दो साल पहले यानी 27 अगस्त 2005 को गोहाना में एक सवर्ण युवक बलजीत सिंह की दलित युवकों ने झगड़े के दौरान हत्या कर दी थी। झगड़ा इस बात का था कि सवर्ण युवकों ने फोटो पहचान पत्र बनाने पहुंची दलित महिलाओं के अपशब्द कहे थे, जिसे लेकर बात बढ़ गई। इसी दौरान किसी ने बलजीत को चाकू मार दिया। पुलिस ने फौरन कार्रवाई करते हुए कई दर्जन वाल्मीकि युवकों को गिरफ्तार कर लिया। इसमें से 12 लोग अब तक जेल में हैं। लारा भी इस मामले में अभियुक्त था, लेकिन सीबीआई की जांच में वो बरी हो गया। वैसे बलजीत की हत्या की एक खास समुदाय में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। उनकी पंचायत हुई और फिर एक बड़ी भीड़ ने गोहाना की दलित बस्ती पर कहर बरपा कर दिया। 50 से ज्यादा घरों को आग लगा दी गई और सारे कीमती सामान या तो तोड़ दिए गए या फिर लूट लिए गए। इस घटना की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हुई और मामला सीबीआई को सौंप दिया गया। वैसे दलितों के घर जलाए जाने के मामले में सारे लोग जमानत पर छूट चुके हैं और मामला कहीं पहुंचा नहीं है।


बलजीत की हत्याकांड की दूसरी बरसी के दिन लारा की हत्या को वाल्मीकि समुदाय अलग थलग घटना के तौर पर देखने को तैयार नहीं है। उनका कहना है कि इससे पहले वाल्मीकि बस्ती में एक मंदिर बनाने को लेकर हुए विवाद में एक डीएसपी की भीड़ ने पिटाई कर दी थी। उस समय से ही पुलिस का रुख वाल्मीकि समुदाय के खिलाफ था। पुलिस को लेकर दलितों में अविश्वास इस कदर है कि राज्य सरकार को उनकी मांग मानते हुए इलाके में सीआरपीएफ की तैनाती करनी पड़ी। दलितों को पुलिस से कई शिकायतें है। उनका कहना है कि गोली लगने के बाद पुलिस लारा को लेकर अस्पताल नहीं गई बल्कि बिरादरी वालों को ही ये जिम्मा उठाना पड़ा। लारा को लेकर रोहतक के अस्पताल पहुंचे युवकों को पुलिस ने वहीं गिरफ्तार कर लिया। अगले दिन पुलिस पोस्टमार्टम के बाद लाश छोड़ने लारा के घर तक नहीं पहुंची बल्कि लाश को एक गाड़ी में लावारिश छोड़कर चली गई। दलितों की ये भी शिकायत है कि पुलिस लारा हत्याकांड के दोषियों तक नहीं पहुंचना चाहती और सीबीआई जांच की घोषणा के बाद भी ये दावा कर रही है कि मामला सुलझा लिया गया है।

दरअसल
सोनीपत के एसपी ने ये बयान जारी किया है कि लारा की हत्या हफ्तावसूली को लेकर हुए झगड़े की वजह से हुई है और इस मामले को दो दोषियों को पकड़कर मामला सुलझा लिया गया है। दरअसल अब पुलिस और प्रशासन की सारी कोशिश इस मामले को अपराध और कानून-व्यवस्था के मामले के तौर पर देखने की है। घटना के पीछे के सामाजिक संदर्भ का सामना करना प्रशासन से लेकर राज्य सरकार तक के लिए असहज है। क्योंकि ऐसा करने से समाज के दबंग लोगों के साथ प्रशासन की साठगांठ के किस्से खुल सकते हैँ।


हरियाणा में 19.4 फीसदी आबादी दलितों की है। यानी हर पांचवां हरियाणवी दलित है। लेकिन पुराने पंजाब, जिससे काटकर हरियाणा को अलग किया गया है, में अंग्रेजों के समय बने एक कानून की वजह से दलितों की खेतीबारी में बुरी हालत है। पंजाब लैंड एलिनिएशन एक्ट, 1900 के तहत गैर किसान जातियों को खेत खरीदने का अधिकार नहीं था। ये कानून 1951 तक बना रहा। पंजाब की खास जातियों की स्वामिभक्ति हासिल करने के लिए बनाए गए कानून का सबसे बुरा असर दलितों पर पड़ा और नतीजा ये हुआ कि पंजाब और हरियाणा के ज्यादातर दलितों के पास खेत नहीं हैँ। 1991 की जनगणना के मुताबिक हरियाणा के 81 फीसदी दलितों के पास आधे एकड़ से कम जमीन है। लेकिन ध्यान देने की बात है कि जिन दलितों ने गांव छोड़ दिया उनकी हालत बेहतर है। गांवों में लगभग आधे दलित गरीबी रेखा से नीचे हैं जबकि शहरों में 23 फीसदी दलित ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। शहरों में आने के बाद शिक्षा के अवसर बढ़ने और सरकारी नौकरियों में हिस्सा मिलने से दलितों की हालत बेहतर हो रही है। लेकिन दलितों की हालत में सुधार से सदियों से चला आ रहा सामाजिक संतुलन बदल रहा है।


पुराना सामाजिक ढांचा इस बदलाव को मान नहीं पा रहा है। इसलिए लारा को मरना पड़ा और इस तरह की ये आखिरी घटना है, ऐसा दावा करने की हालत में आज कोई नहीं है। लेकिन ऐसी हत्याओं से समाज में हो रहा बदलाव रुक जाएगा, इसका भ्रम भी शायद ही किसी को होगा।

Saturday, September 1, 2007

दो बातें वेणु गोपाल विवाद पर

पुनीत

अनुराधाजी, दिलीपजी, प्रणब जी सबसे पहले तो आप तीनो को बधाई और आपका हार्दिक अभिनन्दन. हिंदी ब्लॉगों से गुजरने की आदत के वशीभूत भडास देखते हुये 'रेजेक्ट माल' पर नज़र पडी. पढ़ कर इतना खुश हो गया कि तुरंत आपके ब्लौग पर जा पहुँचा. रेजेक्ट माल का concept तो शानदार है ही, उस पर माल भी आपने अच्छा दिया है. पूजा प्रसाद की कविता से ज्यादा अच्छी और सच्ची लगी उनकी टिप्पणी.
दिलीपजी ने कामरेड के कान के जरिये कम्युनिस्टों के जातिवाद पर अच्छा प्रहार किया है. एम्स सचमुच सामाजिक अन्याय की प्रयोगशाला बन गया है. इसका तगडा विरोध भी होना चाहिए. इस मुद्दे को उठा कर आपने अच्छा काम किया है.
मगर जाति के सवाल पर एक अलग दृष्टिकोण से भी विचार होना चाहिए. वैसे मैं यह नहीं मानता कि आप लोगों को ये बातें मालूम नहीं होंगी, फिर भी मौजूदा बहस के संदर्भ मे याद दिलाने के लिए कह रहा हूँ. और सबसे अच्छा तरीका अपनी बात कहने का वही है जो आपने बताया है यानी रेजेक्ट लोगों या रेजेक्ट समुदाय की बात करें (उन लोगों की जो अपनी आजीविका के लिए श्रम बेचने को मजबूर हैं). दो राय नहीं कि इस समूह का भी बड़ा हिस्सा उन्हीं लोगों का है जो पिछड़ी जातियों से संबंध रखते हैं. लेकिन इन जातियों का छोटा ही सही पर एक हिस्सा ऐसा भी है जो रेजेक्ट समूह मे नहीं आता. उदाहरण के लिए कई राजनेता, व्यापारी और बडे किसान भी पिछड़ी जातियों से आते हैं. खुद आपने 'रेजेक्ट माल क्या और क्यों' मे कहा है और बिल्कुल ठीक कहा है कि रेजेक्ट लोगों के हित ही नहीं उनकी समस्याएं और चुनौतियाँ भी साझा हैं. मैं बिहार के अपने ही गांव की बात करूं तो एक यादव परिवार के पास चालीस एकड़ खेत है. मुसहर, मुसलमान, कुछ यादव भी और कुछ अन्य जातियों के लोग उस परिवार के खेतों मे जन (खेत हीन मजदूर) के रूप मे काम करते हैं. अब अगर यहाँ जाति का सवाल उठाएं तो श्रम खरीदने वालों और बेचने वालो के हित साझा मानने पड़ेंगे जिससे आपकी बात ग़लत साबित होती नज़र आएगी. तथ्य यह है कि आपकी बात सौ फीसदी सच है. अगर आप मजदूरी बढाने की मांग करें या काम के घंटे कम करने की मांग करें तो सिर्फ इसी गांव के नही देश भर मे फैले रेजेक्ट समूह के सभी लोग (चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हो) लाभान्वित होंगे. लेकिन अगर जाति का सवाल उठाते है तो खेत हीन यादव खुद को जमींदार यादव के साथ खडा पायेंगे. यानी रेजेक्ट लोगों के समूह मे फूट पडेगी.
अब आप ही तय करें कि जाति के सवाल को किं स्थितियों मे और कहाँ तक उठाना जायज है.
बहरहाल रेजेक्ट माल जैसा ब्लोग बनाने के लिए आप लोगों को एक बार फिर बधाई.

कहानी शिबू सोरेन की-2

सोबरन मांझी का बेटा गुरुजी कैसे बना?


कहानी के पहले हिस्से में आपने जाना कि सोबरन मांझी ने किस तरह अन्याय के विरोध की कीमत अपनी जिंदगी देकर चुकाई और किस तरह एक दिन सूरज निकलने से पहले उनकी गरदन पर सूदखोरों की कुल्हाड़ी चल गई। हत्या उस वक्त हुई जब सोबरन मांझी पास के कस्बे में पढ़ रहे अपने दो बेटों के लिए चावल की बोरी लेकर जा रहे थे। उन दो बेटों में छोटे का नाम था शिबू। अब कहानी को आगे बढ़ाते हैं।

समय और इतिहास व्यक्तियों को लेकर अक्सर बेहद निर्मम होता है। लेकिन निर्मम होते वक्त इतिहास लेखक चुनता है किसके प्रति नरम होना है और किसके प्रति निर्मम और किसके प्रति बेहद ही निर्मम। इसलिए किसी व्यक्ति या घटना का मूल्यांकन सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं होता कि किस व्यक्ति या किस घटना का मूल्यांकन किया जा रहा है। बल्कि ये इस बात पर भी निर्भर है कि मूल्यांकन कौन कर रहा है। ये इस बात पर भी निर्भर होता है कि मूल्यांकन जिस समय किया जा रहा है, उस समय की प्रभावशाली धारा कौन सी है, और समाज में किसकी चलती है और किसकी कम चलती है और किसकी बिल्कुल नहीं चलती।

इस बात का एक बेहतरीन उदाहरण भारत और पाकिस्तान में स्वतंत्रता आंदोलन पर किया गया इतिहास लेखन है। भारत की पाठ्यपुस्तकों में खलनायक बताए गए मुहम्मद अली जिन्ना सरहद पार पहुंचकर महानायक हो जाते हैं। वहीं पाकिस्तान की किताबों में हिंदू राष्ट्रवाद के अगुवा बताए गए मोहनदास करमचंद गांधी सीमा के इस पार आते ही राष्ट्रपिता बन जाते हैं। इस रोचक परिघटना का पूरा ब्यौरा जानने के लिए एनसीआरटी के मुखिया कृष्ण कुमार की किताब प्रिज्युडिस एंड प्राइड को देखिए। साथ ही देखिए अंग्रेजी राज के बारे में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की पाकिस्तान में छपी बर्क और कुरैशी की किताब (इंटरनेशनल ट्रेड फेयर में हर साल पाकिस्तानी किताबों का स्टाल लगता है, जहां आपको मिल जाएगी)। एक ही घटनाएं, ईश्वी सन, तारीख, स्थान, पात्र सभी कुछ एक। लेकिन घटनाओं का विवरण अलग। घटनाओं का चयन अलग। घटनाओं का महत्व अलग और नायक और खलनायक अलग। इसलिए हमारा सच आपका भी सच हो ये जरूरी नहीं है।

शिबू सोरेन पर इस सिरीज में हम इस पात्र को वहां से देखने की कोशिश करेंगे, जहां से उन्हें समय की मुख्यधारा या कहें प्रभावशाली धारा देखने को तैयार नहीं है। यहां हम ये साफ कर दें कि शिबू सोरेन का मूल्यांकन करते हुए ये लेख निर्मम भी होगा और उनके साथ इसलिए कोई रियायत नहीं बरतेगा कि वो समाज के कमजोर तबके का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन ऐसा करते हुए हम ये याद रखने की कोशिश करेंगे कि किसी आदमी का मूल्यांकन एक खास कालखंड से तय नहीं होता और बुरा वही है जो एक खास मापदंड के हिसाब से गलत है। इसलिए हम अपराधियों की हिंसा, राजकीय हिंसा और क्रांतिकारियों की हिंसा को एक तराजू पर नहीं तोलते। यहां हम अपराध और दंड में दोस्तोवस्की के नायक के उस विचार से सीखने की कोशिश करेंगे जो मानता है कि समाज खास समय में खास तरीके से तय करता है कि अपराध क्या है और उसके लिए क्या दंड दिया जाना चाहिए।

बहरहाल शिबू सोरेन की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। शिबू सोरेन संथाल हैं। ये आदिवासी समुदाय झारखंड के अलावा, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बिहार में मौजूद है। इसका मुख्य काम खेती और वनोपज का संग्रह है। आदिवासियों में ये समुदाय अपने प्रतिरोध की परंपरा के कारण मशहूर रहा है। अंग्रेजों के शासन काल में सिद्धू और कान्हू संथाल विद्रोह की लंबी परंपरा रही है। सिधू और कान्हू के नेतृत्व हुए उस विद्रोह ने अंग्रेजों के लिए और झारखंड के जमींदारों के लिए काफी मुश्कलें खड़ी की थीं। मौजूदा समय में बाकी आदिवासी समुदायों की तरह ही संथालों को भी एक खास तरह के अलगाववाद का शिकार बनना पड़ रहा है। कुछ दशक पहले तक झारखंड के आदिवासियों में उत्पादन की मध्यकालीन पद्धितियां ही प्रचलित थी। उनमें गोत्र तो हैं पर जातियां नहीं। यानी कर्म का जन्म से कोई संबंध नहीं है, जैसा कि हिंदू धर्म में होता है। पैत्रिक संपत्ति का कोई संस्थागत रूप नहीं है और इस वजह से यौन संबंधों के बंधन भी रूढ़ नहीं हुए हैं। संपत्ति के संग्रह की प्रवृत्ति उनमें कमजोर है। इसलिए आपको आदवासी जमींदार नहीं मिलेंगे। इसे रोमांटिक तरीके से ना देखें, लेकिन ये सच है कि आदिवासियों में संपत्ति के आधार पर दूरी कम है। ऐसे ही आदवासी समाज से आने वाले शिबू सोरेन को जब मुख्यधारा अपनाती है तो चंद वर्षों में ही वो पैसा बनाने के लिए हर तरह के कुचक्र रचने लगते हैं।

ये सब कैसे हुआ और इससे पहले के कालखंड में कैसे थे शिबू, ये हम आपको आगे बताएंगे।
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