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Thursday, March 27, 2008

नॉरसिसस बनने से बचाते हैं बेनामी

बेनामी बंधुओं का मुझसे खास प्रेम रहा है। खासकर जाति व्यवस्था जैसे नाजुक विषय पर बात शुरू करते ही जाने किस किस जगह से बाहर आ जाते हैं। कभी भाषा से कभी कथ्य से तो कभी तकनीकी औजारों से अक्सर पहचान लिए जाते हैं और यही है सारी समस्या की जड़। समस्या
की जड़ ये है कि हममें से ज्यादातर ब्लॉगर एक दूसरे को जानते-पहचानते हैं। अभी भी हिंदी ब्लॉगिंग एक छोटे से क्लब की तरह है। इसलिए झगड़े भी बिल्कुल क्लब या हाउसिंग सोसायटी के अंदाज में होते हैं।

ब्लॉग के झगड़ों को देखिए। जो लोग झगड़ते दिख रहे हैं वो सब एक दूसरे के परिचित है। दो अनजान ब्लॉगरों का झगड़ा दुर्लभ बात है। झगड़ रहे ब्लॉगर बात पर बात करते दिखते जरूर हैं, लेकिन ये लड़ाई व्यक्तियों के बीच होती है। ऐसी लड़ाई की तीक्ष्णता व्यक्तियों के अंतर्संबंधों के डायनामिक्स से तय होती है।

जो ब्लॉगिंग में ज्यादा लगे हैं, उन्हें यहां के मान-असम्मान की परवाह कुछ ज्यादा होती है। ब्लॉगिंग में जिस तरह की "इज्जत" के उछलने से लोग परेशान हैं, वो थोड़ी पुरानी सी सोच लगती है। उसे सामंतवाद कह लीजिए, या किसान या ग्रामीण या पिछड़ी मानसिकता या कोई और नाम दे दीजिए। बात बात पर इज्जत खराब होना कोई अच्छी बात नहीं है।

मेरी निजी राय है कि ब्लॉगिंग में बेनामी तो रहेंगे। कुछ कमेंटकर्ताओं ने सिर्फ कमेंट करने के लिए ब्लॉग बना लिए हैं। वे बेनामी ब्लॉगर हैं। अगर बेनामियों से किसी को एतराज है तो वो अपने मंच पर इसकी इजाजत न दे। लेकिन बेनामियों को अपनी आत्मा का अहेरी मानिए, तो फिर उनसे कोई समस्या नहीं होगी।

ये वो प्रजाति है जो आपकी आलोचना करती है, आपको वलनरेबल होने का एहसास दिलाती है। हमें आत्मतुष्टि के कीचड़ में धंसने से बचाती है। हमें नॉरसिसस बनने से रोकते हैं बेनामी आलोचक। हमें तथ्यों को लेकर परफेक्ट होने के लिए धकेलते हैं बेनामी। हमें नया पढ़ने और जानने के लिए उकसाते हैं और हमारा ही भला करते हैं ये लोग। निंदक नियरे राखिए की बात इन पर फिट बैठती है।


रिजेक्टमाल पर हम बेनामी कमेंट की छूट देते हैं, उनके कमेंट पढ़ते हैं, पब्लिश या रिजेक्ट करने के लिए हम अपने विवेक का इस्तेमाल करते हैं। जो मंच ज्यादा लोकतांत्रिक और साहसी हो पाते हैं वहां बेनामी कमेंट की भी छूट है और कमेंट मॉडरेशन भी नहीं है।

हमारे बारे में कोई निजी या चुभती हुई बात तो हमें जानने वाला ही करता है। हमें चोट पहुंचाने में किसी अनजाने को क्या फायदा? इसलिए बेनामियों को अपना जानिए। वो आपके करीब के लोग हैं। अगर कोई आपका क्षद्म रचकर कोई बात कहता है तो ये चिंता की बात है। लेकिन कोई बात अगर किसी के समग्र व्यक्तित्व से अलग रूप में कही जाएगी तो उसकी विश्वसनीयता नहीं होती। मेरा रूप धरकर कोई अगर ब्राह्मणवाद की तारीफ करेंगा तो आप क्या यकीन करेंगे? किसी दारूबाज मित्र के बारे में ही तो ये अफवाह चल सकती है कि पीकर नाली में पड़ा था। हर अफवाह को पंख नहीं लगते। अफवाह का भी एक आधार होना चाहिए, तभी वो आगे बढ़ती है। ऐसी अफवाह नहीं चल सकती कि मुकेश अंबानी ने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी है या कि अमिताभ बच्चन बुढ़ापा बिताने के लिए बाराबंकी चले आए हैं। इसलिए अपनी विश्वसनीयता पर यकीन कीजिए।

बहरहाल, इटरनेट के मुक्त माध्यम में बेनामियों की अपनी सत्ता है और उस सत्ता की जरूरत भी है और उसका अपना महत्व है। हिंदी ब्लॉगिंग को इस सच का साक्षात्कार करने के लिए वयस्क होना पड़ेगा।

Tuesday, March 25, 2008

'अमेरिकी साम्राज्यवाद' बतर्ज 'इस्लामी आतंकवाद'

प्रणव प्रियदर्शी
'इस्लामी आतंकवाद' शब्द के प्रयोग पर सबसे तीखी आपत्ति अमूमन वामपंथी पार्टियाँ ही करती हैं. आपत्ति जायज भी है. यह प्रयोग जाने-अनजाने आतंकवाद और इसलाम को मिला देता है. संघ परिवार से जुडे लोग इसीलिए बार-बार इस प्रयोग को दोहराते हैं. संघ मानसिकता के ही ज्यादा कुशाग्र बुद्धि के लोग यह सवाल उठाते हैं कि हर मुसलमान आतंकवादी नही है, लेकिन हर आतंकवादी क्यों मुसलमान है? प्रकारांतर से इससे भी वही भाव स्थापित होता है कि इसलाम और आतंकवाद मे शायद सचमुच कोई संबंध है.

बहरहाल, 'इस्लामी आतंकवाद' को लेकर सतर्क रहने वाले वामपंथी दलों से जुडे नेता और बुद्धिजीवी ऐसे ही एक अन्य प्रयोग को लेकर न केवल उदासीन हैं बल्कि इस मामले मे करीब-करीब वैसी ही भूमिका निभा रहे हैं जैसी 'इस्लामी आतंकवाद' पर संघ परिवार के लोग निभाते हैं. वह शब्द है 'अमेरिकी साम्राज्यवाद.'

दो राय नही कि मौजूदा एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था मे अमेरिका सबसे बडे दादा के रूप मे उभरा है. इसीलिए मुख्य धारा की मीडिया उसे मुख्य खलनायक के रूप मे दुनिया भर मे पेश कर रही है. आश्चर्यजनक रूप से अधिकतर वामपंथी नेता और बुद्धिजीवी भी मुख्य धारा की मीडिया की इसी राय को मजबूती देते दिखते हैं. 'अमेरिकी साम्राज्यवाद' शब्द का बार-बार प्रयोग इसी धारणा की पुष्टि करता है. जरा गौर करें 'अमेरिकी साम्राज्यवाद' के मुकाबले फ्रांसीसी साम्राज्यवाद, ब्रितानी साम्राज्यवाद, रूसी साम्राज्यवाद, चीनी साम्राज्यवाद जैसे शब्दों के प्रयोग आपने कितनी बार देखे हैं.

अमेरिकी साम्राज्यवाद शब्द के बारम्बार प्रयोग के जरिये कई उद्देश्य साधे जा रहे हैं. आम लोगों की नज़र मे इससे अमेरिका सभी बुराइयों की जड़ के रूप उभरता है. आप पूछेंगे इसमे हर्ज क्या है? हर्ज अन्य किसी दृष्टि से नही. हर्ज सिर्फ यह है कि इससे वाम दलों के दृष्टिकोण मे ऐसा विकार आता है जो उन्हें निष्प्रभावी बनाता है.

आखिर भारत-अमेरिका परमाणु करार पर लेफ्ट की आपत्ति का मूल आधार क्या है? यही न कि इससे भारत अमेरिका का पिछलग्गू बन जायेगा या दूसरे शब्दों में भारत सामरिक तौर पर अमेरिका से जुड़ जायेगा?
सवाल है, वाम दल अमेरिका से भारत के जुडाव का विरोध आखिर क्यों करते हैं? वाम दलों के ही मुताबिक इसका कारण यह है कि अमेरिका सभी बुराइयों की जड़ है. आज जरूरत अमेरिका से जुड़ने की नही उससे जूझने की, उसे चुनौती देने की है. इसीलिए वाम दल चाहते हैं कि भारत अमेरिका से न जुडे बल्कि रूस और चीन के साथ मिल कर एक अमेरिका विरोधी धुरी बनाने की पहल करे.
यानी कांग्रेस और अन्य वाम विरोधी दलों का यह आरोप बेबुनियाद नही कि अगर ऐसा ही परमाणु समझौता चीन के साथ हो रहा होता तो वाम दल उसका प्रबल समर्थन कर रहे होते.
चीन के पक्ष मे झुकने के आरोप को वामपंथी नेता और कार्यकर्त्ता अन्य मुद्दों पर अपने स्टैंड से भी विश्वसनीयता प्रदान करते हैं. तिब्बत का सवाल इसका सबसे ताजा उदाहरण है. जब सारी दुनिया के लोग चीन मे तिब्बतियों के बर्बरतापूर्ण दमन पर शोक संतप्त हैं सीता राम येचुरी फरमाते हैं कि तिब्बत चीन का आंतरिक मामला है. भाई साहब आप एक लाइन मे यह तो बताते कि चीन वहाँ सही कर रहा है या गलत? तिब्बत क्या अलग राष्ट्रीयता का सवाल नही है? कूटनीतिक वजहों से आप खुल कर इस मुद्दे को नही उठा सकते तो मानवाधिकार का सवाल उठा कर, दमन की शिकायतों की जांच की मांग कर तिब्बतियों के साथ अपनी पक्षधरता तो दिखा सकते हैं? लेकिन नही. इस बिंदु पर आज भी चीन 'कम्यूनिस्ट' है.

अपने ऐसे अजीबोगरीब स्टैंड से वामपंथी दलों से जुडे नेता और बुद्धिजीवी न केवल अपने देशवासियों की नज़रों मे खुद को अविश्वसनीय बनाते हैं बल्कि उन्ही साम्राज्यवादी शक्तियों को मजबूती देते हैं जिनके खिलाफ लड़ने-मरने की वे कसमें खाते रहते हैं.
गौर कीजिए एक साम्राज्यवादी देश के खिलाफ दूसरे साम्राज्यवादी देश का पक्ष लेकर वे उस संभावित साम्राज्यवादी युद्ध को औचित्य प्रदान कर देते हैं जो विश्व कामगार वर्ग के लिए सिर्फ विपत्तियाँ ही ला सकता है. जिस साम्राज्यवादी युद्ध को कभी कोई कम्यूनिस्ट जसटीफाई करने की सोच भी नही सकता उसे ये वैधता प्रदान कर देते हैं.

अगर वामपंथी शब्दावली इस्तेमाल की जाये तो विश्व साम्राज्यवाद और विश्व कामगार के मुख्य अंतर्विरोध को गौण और साम्राज्यवादी शक्तियों के आपस के गौण अंतर्विरोध को मुख्य बनाने का काम ये वामपंथी दल खुद कर देते हैं. इस कठिन काम को अंजाम देने के लिए क्या ये साम्राज्यवादी शक्तियां इन वामपंथी नेताओं की शुक्रगुजार नही होंगी?

Monday, March 24, 2008

केंद्र सरकार के कर्मचारियों के मुंह में जीरा

एक कर्मचारी के हिस्से हर महीने 1476 रुपए की बढ़ोतरी


ये वो रकम है जो वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने पर औसतन हर कर्मचारी को प्रति माह अतिरिक्त मिलेगी। 1476 रुपए की मासिक औसत बढ़ोतरी पर सरकार और कांग्रेस इतरा रही है और अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि मुद्रास्फीति बढ़ जाएगी। इस आंकड़े तक पहुंचने के लिए हिसाब ये जोड़ा गया है कि देश में केंद्र सरकार के 45 लाख कर्मचारी हैं और वेतन आयोग का कहना है कि रिपोर्ट लागू करने पर इस साल 7975 करोड़ रुपए से कुछ ज्यादा का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। देखें वेतन आयोग की रिपोर्ट के हाइलाइट्स का अंतिम बिंदु।

तीन गुना
नहीं, दो गुना भी नहीं, डेढ़ गुना भी नहीं। देश में अर्थव्यवस्था 9 परसेंट की रफ्तार से बढ़ रही हो, जहां महंगाई दर 5 परसेंट की सालाना दर से और वास्तविक महंगाई उससे भी तेजी से बढ़ रही हो, वहां ये बढ़ोतरी कुछ भी नहीं है। केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए बने छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट का यही सच है।


अभी केंद्र सरकार के जिस कर्मचारी का बेसिक 2550 रुपए है वो बढ़कर 6600 रुपए (बेसिक 4860+ग्रेड पे 1800) हो जाएगा। पहली नजर में बढ़ोतरी ढाई गुना लगती है। लेकिन अभी कर्मचारी बेसिक के अलावा डीए-डीपी भी लेकर जाता है और कुल मिलाकर ये रकम 5700 रुपए बैठती है। यानी वास्तविक बढ़ोतरी है सिर्फ 900 रुपए की।

12 साल बाद आई वेतन आयोग की रिपोर्ट ने कर्मचारियों की ऊंची उम्मीदों पर बर्फबारी कर दी है। सीटू के नेता एम के पंधे से आज बात हुई तो उन्होंने भी यही कहा कि ग्रुप डी और सी के कई कर्मचारियों के कुल वेतन में एक हजार रुपए से भी कम का फर्क पड़ेगा और वो वेतन आयोग की रिपोर्ट से निराश हैं। ऐसा लगता है कि वेतन आयोग की रिपोर्ट कांग्रेस और यूपीए सरकार के लिए बहुत बुरे समय पर आई है क्योंकि चुनाव से ठीक पहले आई इस रिपोर्ट को लेकर कर्मचारियों ने काफी उम्मीदें लगाई थीं।

वेतन आयोग की रिपोर्ट में कुछ अच्छी बातें हैं

- अधिकतम दो बच्चों के लिए प्रति बच्चा 1,000 रुपए शिक्षा खर्च सरकार उठाएगी। पहले ये रकम 50 रुपए थी।

- रिपोर्ट में मैटरनिटी लीव को 135 दिन से बढ़ाकर 180 दिन करने की सिफारिश की गई है। इस छुट्टी को एक साल तक और जारी रखने की व्यवस्था है, जिसे बढ़ाकर दो साल करने की बात की गई है।

- डिफरेंटली एबल लोगों के लिए 12 दिन सीएल, बाकी लोगों के लिए ये आठ दिन है। उनके लिए 4 परसेंट के सस्ते दर पर कर्ज देने की भी सिफारिश की गई है।

और इस रिपोर्ट में जो सबसे बुरी बात हुई है वो ये कि केंद्र सरकार अपने कर्मचारियों की सेहत की चिंता से पल्ला झाड़ने लगी है। रिपोर्ट में ये कहा गया है कि अब जो भी नया कर्मचारी आएगा उसे सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम यानी सीजीएचएस की सुविधा नहीं मिलेगी। उसे स्वास्थ्य बीमा योजना से जुड़ना होगा। वर्तमान कर्मचारियों को भी बीमा योजना में शामिल होने का विकल्प दिया गया है। बीमा योजना में प्रीमियम का एक तिहाई हिस्सा कर्मचारी को भरना होगा। यानी अब तक जो स्वास्थ्य सुविधा मुफ्त मिलती थी, उसके दिन गए।

पी चिदंबरम ने अपने बजट में सीजीएचएस पर खर्च के लिए 369 करोड़ रुपए ही रखे हैं, जो पिछले साल के वास्तविक खर्च से 30 करोड़ रुपए कम हैं। ऐसे में साफ है कि वेतन आयोग की रिपोर्ट केंद्र सरकार की पूरी नीति का एक हिस्सा ही है।

Sunday, March 23, 2008

दुनिया से नाराज एक लेखक की इच्छा मृत्यु

"मैं एक ऐसा आदमी हूं जो, जैसा चल रहा है उससे, नाखुश है। दुनिया जैसी है, उसे उसी रूप में हम स्वीकार नहीं कर सकते। जिस तरह से अन्याय हो रहे हैं, उसे देखते हुए हमें हर सुबह एक नाराज इंसान के तौर पर आंखें खोलनी चाहिए।"

सॉरो ऑफ बेल्जियम के मशहूर लेखक ह्यूगो क्लॉस ने 78 साल की उम्र में अपने लिए इच्छा मृत्यु चुन ली। वो एल्जाइमर्स से पीड़ित थे। इच्छामृत्यु को बेल्जियम में कानूनी मान्यता प्राप्त है।

ह्यूगो क्लॉस बेल्जियम समाज और खासकर चर्च और व्यक्ति के अन्यायपूर्ण संबंधों बारे में लगातार तीखा लेखन करते रहे। उनके बारे में आप यहां जानकारी ले सकते हैं।

Thursday, March 20, 2008

थैक यू, मिस तस्लीमा, नाउ स्माइल प्लीज!

- दिलीप मंडल

अच्छा किया, तुम भारत से दफा हो गई। हम वसुधैव कुटुंबकम वाले हैं। क्या अपना-क्या पराया। भारत में रहो या स्वीडेन में। एक ही तो बात है। चलो अच्छा हुआ एक मुसीबत टली। वाममोर्चा की ओर से तुम्हें खास तौर पर धन्यवाद। तुम्हारा कोलकाता में होना हमें शर्मिंदा कर रहा था। तुम्हारा भारत में होना हमारे लिए मुसीबत बन गया था।

तस्लीमा तुम जानती ही हो। इस बूढ़े रजिंदर सच्चर ने ऐसी रिपोर्ट दे दी है कि हमारी मुसीबत हो गई है। हमारी सरकार ने सच्चर को सूचना दी कि पश्चिम बंगाल में 25 फीसदी मुसलमान हैं और राज्य सरकार की नौकरियों में उनकी संख्या 2.1 फीसदी है। सच्चर ने ये रिपोर्ट छाप दी तो हमारे राज्य में मुसलमान नौकरी मांगने लगे। नंदीग्राम में भी तो ज्यादातर मुसलमान बर्गादार हैं। वो जमीन का ऊंचा मुआवजा मांगने लगे। ये भी कोई बात है। हम उन्हें सुरक्षा दे रहे हैं। उन्हें दंगों से होने वाली मौत से आजादी दिला दी। अब वो भूख से होने वाली मौत से आजादी चाहते हैं। ये भी कोई बात है।

तस्लीमा तुम तो जानती ही हो कि हम मुसलमानों को नौकरियां नहीं दे सकते। लेकिन उन्हें कुछ तो देना ही था। पंचायत चुनाव सिर पर हैं। मुसलमानों को ट्रॉफी के तौर पर हमने तुम्हारा राज्य निकाला और फिर देश निकाला दे दिया। वो भी खुश, हम भी खुश। उनका मजहब बच गया, हमारी राजनीति बच गई।

तस्लीमा तुम भी हंसो ना। स्माइल प्लीज।

Wednesday, March 19, 2008

उत्तम वाणिज्य, मध्यम चाकरी

अधम खेती, भीख निदान

जी हां, इक्कीसवीं सदी के भारत का, लगता है, यही सच है। खेती का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा घटकर 17.5 फीसदी रह गया है। लेकिन अभी भी काम करने वाले देश के आधे लोग लोग खेती में ही जुटे हैं। मतलब आमदनी अठन्नी, खाने वाले ढेर सारे। नतीजा है गांवों में तेजी से बढ़ती बदहाली और उससे भी तेजी से गांवों से शहरों में हो रहा पलायन। मुंबई से लेकर पंजाब और देश के कई और हिस्सों में तनाव का इससे सीधा नाता है। विवाद के कई पहलू हैं। पढ़िए अमर उजाला के संपादकीय पन्ने पर मेरा एक लेख, जो आज ही छपा है।

Tuesday, March 18, 2008

1000 करोड़ का कफ सिरप पी जाते हैं इस देश के लोग

कफ सिरप यानी वो दवा जिससे दुनिया की किसी बीमारी का इलाज नहीं होता। दुनिया का हर डॉक्टर जानता है कि खांसी-जुकाम जल्द ठीक करने में कफ सिरप की कोई भूमिका नहीं है। ओवर द काउंटर कफ सिरप लेना खासकर बच्चों के लिए खतरनाक हो सकता है। यूएस एफडीए कह चुका है कि दो साल से छोटे बच्चों को देना उनके लिए जानलेवा हो सकता है।

यूएस एफडीए की 17 जनवरी 2008 को जारी वार्निंग पढ़ें-

"The FDA strongly recommends to parents and caregivers that OTC cough and cold medicines not be used for children younger than 2," said Charles Ganley, M.D., director of the FDA's Office of Nonprescription Products. "These medicines, which treat symptoms and not the underlying condition, have not been shown to be safe or effective in children under 2."


2 साल से बड़े बच्चों के बारे में एफडीए की स्टडी का नतीजा आना है लेकिन उसकी साफ राय है कि

"Understand that these drugs will NOT cure or shorten the duration of the common cold"


भारत में सेहत को लेकर अज्ञान और डॉक्टर को बिना वजह भगवान मानने की प्रवृत्ति इतनी प्रबल है कि इस बारे में सवाल भी नहीं उठता कि जिस देश में हर साल साढ़े तीन लाख लोग टीबी से मरते हैं वहां सबसे ज्यादा बिकने वाली दवा का नाम कोरेक्स क्यों है। देश में एक महीने में कोरेक्स की सेल से फाइजर को साढ़े तेरह करोड़ रुपए मिलते हैं। दवा की मासिक सेल की रिपोर्ट इसी हफ्ते आई है। कोरेक्स है तो प्रेस्क्रिप्शन ड्रग पर इसे आम तौर पर लोग ओवर द काउंटर ही खरीदते हैं।

क्या इस स्थिति को बदलने में भारत सरकार की इसमें कोई भूमिका हो सकती है। मेरी राय है - नहीं। इस बारे में मेरा एक लेख आप दैनिक जागरण में पढ़ सकते हैं।

Monday, March 17, 2008

आइए हाथ उठाएँ हम भी

-आर. अनुराधा




खबर संक्षेप में यह कि दिल्ली में दो बहनें शनिवार को सुबह अपने काम पर जाने के लिए निकलीं तो गली के तीन लड़कों ने उनके साथ शर्मनाक बर्ताव किया, लोगों के बीच उनके कपड़े तक फाड़ डाले। ये लड़के रोज़ उनमें से एक लड़की को छेड़ते, परेशान करते थे। लेकिन उस घटना के रोज़ उनमें से एक, जो कराटे जानती थी, ने विरोध जताया जिससे बिफरे लड़कों ने उन पर हमला ही बोल दिया।

खबर पढ़ने के बाद मेरे जेहन में जो बात सबसे पहले दर्ज हुई वो ये कि उस दिन कराटे जानने वाली लड़की ने रोज़ रोज़ सताए जाने का विरोध (पहली बार?) किया। नतीजतन लड़के जो अब तक अपने आनंद के लिए उन्हें रास्ते में आते-जाते सताया करते थे, नाराज हो गए। लड़की, तेरी ये मजाल कि हमारे आनंद में खलल डाले! ये ले आगे के लिए सबक। लेकिन इन लड़कियों ने ऐसा कोई सबक सीखने की बजाए उन लड़कों को ही उनके इंसान होने के सबक याद दिलाने की कोशिश की। नतीजे में उनके कपड़े फाड़ डाले गए, बेइज्जत किया गया।

लेकिन लड़कियों, विश्वास करो, इस हाल में भी जीत तुम्हारी हुई है क्योंकि तुमने विरोध किया है। तुम दोनों अपनी लड़ाई लड़ती रहीं औ पच्चीसों लोग तमाशा देखा किए। उस अभद्र व्यवहार, कमजोर पर अत्याचार को देखकर एक भी व्यक्ति आगे नहीं आया- इसका भी खयाल न करना। क्योंकि उन तमाशबीनों का जमीर उन्हें कभी-न-कभी इस बात के लिए जरूर कुरेदेगा भले ही इसके लिए उन्हें अपनी मां-बहन-बीवी के साथ यह होने तक इंतजार करना पड़े।

तुम शायद डर रही होवोगी कि वो तीनों गिरफ्तार होने के बावजूद जल्द ही छूट जाएंगे और फिर शायद और भी बुरे तरीके से बदला लेने की कोशिश करेंगे। यह डर तो हमें भी है क्योंकि इसे हटाने का उपाय भी तो आसान और छोटा नहीं है न! मौजूदा व्यवस्था हमें इतना भरोसा कहां देती है कि बीसियों चश्मदीद गवाहों के सामने दिन-दहाड़े हुए इस अनाचार में शामिल जाने-पहचाने, हमारे अपने लोकल अपराधियों को जल्द और पूरी सज़ा मिल पाएगी ताकि समाज में उन जैसे लोग फिर ऐसा कुछ करने से डरें और पीड़ितों को पूरा न्याय मिले।

इसके बावजूद तुम्हें विश्वास रखना होगा अपने पर, अपने जैसों पर। और इस विश्वास को अपने तक सीमित रखने की बजाए, मैं तो कहती हूं, अब वक्त आ गया है, इसे बढ़ाने का, जोड़ने का, जुड़ने का। व्यक्ति के खिलाफ व्यक्ति अपनी लड़ाई चाहे लड़ और जीत पाए, संगठित हुए बिना व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई नहीं जीती जा सकती। इसके अल्पकालिक नतीजे भले ही मिल जाएं, पर इसके जारी रहने और दीर्घकालिक परिणाम पाने के लिए ज्यादा-से ज्यादा लोगों को जुड़ना पड़ेगा।

हम सब पढ़ लिख गई है। पढ़ती भी रहती हैं- पढ़ाई के अलावा अखबार-किताबें भी। टीवी-सिनेमा देखती हैं और बहुत कुछ जानती भी हैं, सिर्फ ज्ञान से नहीं हुनर, अभ्यास से भी। विषय की जानकारी होना एक बात है, उसके बारे में सचेत और जागरुक होना इसके आगे की बात। तो क्यों न अपने ज्ञान को जागरुकता के स्तर पर ले आएँ, आपस में बांटें और पा ले अपने लिए वह सब जो हमारा हक है, जो हमेशा मारा गया है, जो हमें मिला भी तो दया या अहसान की तरह। जो हमें उम्मीदें सजाने का कारण दे, सपने पूरे करने का रास्ता दे और दे एक भरपूर जिंदगी देने का मौका।

आइए हाथ उठाएँ हम भी/
हम जिन्हें हर्फ़े दुआ याद नहीं/
हम जिन्हें सोज़े मोहब्बत के सिवा/
कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं

दो पीढ़ियों की औरतों की कहानियां

आर. अनुराधा

नाना-नानी जब भी साथ घर से निकलते - हाट-बाजार, नाते- रिश्त्दार या अस्पताल। नाना आगे चलते जाते बिना एक बार भी पीछे देखे। नानी जैसे एक डोर में बंधी चलती जातीं उनके पीछे-पीछे। नाटी नानी चाहे सुनसान सड़क पर हों या भीड़ के बीच, स कुछ परे हटाती, ठेलती जैसे बढ़ती जातीं उस भूरी 'चांद' का पीछा करते हुए। यह उनकी जिम्मेदारी होती कि तांगे में जुते घोड़े की तरह नजर जमाए रखें और 50 फीट आगे चल रहे तेज चाल नाना का अनुसरण करती जाएं। दाहिने-बाएं दुनिया होती है नानी को नहीं मालूम था। उन्हें मालूम थी तो बस वह बार-बार भीड़ में गुम होती-फिर मिलती चांद जो पूरे रास्ते एकमात्र लक्ष्य होती और एकमात्र सहारा भी। 40 साल से ज्यादा उस घर में रहीं वो लेकिन पास के बाजार से घर आने के रास्ता उन्हें कभी पता नहीं चला।

एक बार बाजार के किसी मोड़ पर नाना मुड़ गए और भीड़ में गुम हो गए। नानी सीधी सड़क चलती गईं। जब कुछ देर बाद लगा कि गायब हुई चांद तो दोबारा दिख ही नहीं रही है तो वे बौखला गईं, डर गईं। सूखे मुंह हर किसी से कहती रहीं- "मुझे घर जाना है। मुझे अपने घर जाना है। कोई पहुंचा दो।" उन्हें घर जाना नहीं आता था। कोई आधा घंटा वो उस गहरे समुद्र में फेफड़ा-भर सांस को छटपटाई होंगी। इधर नाना घर पहुंचे और मां को बोले- " देखो, तुम्हारी मां बाजार में ही कहीं रह गई। उसे इतना भी शऊर नहीं कि मेरे पीछे-पीछे आती रहे। जाओ उसे ढूंढ लाओ। " नाना की बताई जगह से काफी दूर, बाजार के परले सिरे पर बदहवास नानी को हैरान-परेशान मां ने पाया। एक-दूसरे को देखते ही दोनों कस कर गले मिलीं और फूट-फूट कर रो पड़ीं।

घर आने पर नानी को सांत्वना की जगह फिर एक झिड़की मिली मूर्ख, अज्ञानी होने की। उसके बाद से नानी ने बाजार जाना बंद कर दिया। घरेलू सामान, साड़ियां नाना खुद ला देते। और धीरे-धीरे नानी ने सामान मंगवाना भी छोड़ दिया। और लोग कहते हैं वो पागल हो गईं।

मां बड़ी हुईं और उनकी भी शादी हुई। शादी तक तो किसी को समझ में नहीं आया पर शादी के बाद मां भी सबको पागल लगतीं। एकदम नासमझ थीं वो दुनियादारी को लेकर। अपने पैर की मोच निसंकोच दादाजी को दिखातीं और उनसे आयुर्वेदिक तेल-मालिश करवातीं। देवरों से खूव खातिर करवातीं। दादी को लगता जरूर कोई जादू-टोना जानती है तभी ऐसे उजड्ड लड़के भी अपनी भाभी की हर बात झट मान लेते हैं। साइकिल पर उनके पीछे बैठ कर मेला देख आतीं। और फिर एक दिन पता चला उन्होंने साइकिल चलानी भी सीख ली है। दादी बहु झल्लाईं। लाज-शर्म सब बेच खाई है क्या? दुनिया के सामने हमारी नाक कटा रही है। घर बैठ कर चुपचाप चूल्हा-चौका नहीं होता तुझसे? लेकिन ये नहीं हुआ उनसे, मतलब चुपचाप नहीं हुआ। घर पहुंचने वाली हिंदी अंगरेजी-हिंदी सब तरह की पत्रिकाएंढ़तीं, यहां कर कि दादाजी की आयुर्वेद की किताबें भी।

बीस-इक्कीस की उम्र में वो अपने पति और सास-ससुर के साथ तिरुपति घूमने गईं। बस में पहाड़ी रास्ते पर लंबा सफर। उनके पेट में दर्द उठा जो बढ़ता ही गया। किसी ने ध्यान नहीं दिया, कोई उनके लिए नहीं रुका और उन्हें भी धर्मशाला में अकेले नहीं रुकने दिया गया। मंदिर के गेट से लंबी पैदल यात्रा, सब तरफ 'गोविंदा-गोविंदा ' का शोर , भीड़-भाड़, गर्मी, पसीने के बीच गर्भगृह के पास तक आते-आते मां को अचानक समझ में आया कि वह मां बनने वाली हैं। वो धम्म से वहीं किनारे बैठ गईं। दर्द असहनीय हो गया, शरीर सफेद और ठंडा पड़ने लगा, साड़ी भीगने लगी। दादी को समझ में आया तो वो दादाजी के कान में फुसफुसाईं। अब तो कोई वहां बैठने नहीं दे सकता था- अपना खून बहाती, तिरुपति बालाजी के मंदिर को अपवित्र करती उस महिला को। और उस हालत में बैठी मां दर्द की तड़प में दोहरी सी होकर लेट गईं। किसी ने कहा- पागल हुई है क्या?

तमाशा बन गया। उस हालत में कोई मदद करता, डॉक्टर बुलाता। इसके बजाए कहा गया - पवित्र मंदिर से निकलो फौरन, सफाई भी करनी पड़ेगी। उन्होंने उठने से साफ मना कर दिया। लेकिन पिताजी और एक अन्य पुरुष ने उन्हें बाजुओं के सहारे उठाया और जबर्दस्ती बाहर ले गए। कुछ देर सुस्ताने के बाद उठ कर चलना ही था। और मां के साथ जो हुआ वह भले ही उनके साथ पहली बार हुआ लेकिन थी तो आम बात ही।

मंदिर के मुख्य दरवाजे के बाहर रास्ते में मां को एक डॉक्टर के नाम का बोर्ड दिखा और वह सीधे अंदर चली गईं। दादी लाख कहती रहीं कि यह तो पुरुष डॉक्टर है, इसं कैसे दिखाएगी, और यह भी कि सफर में इतने पैसे खर्च करने की क्या जरूरत है। दो दिन बाद घर पहुंच ही जाएंगे, तब वहां दाई को दिखवा लेंगे। लेकिन मां ने किसी की नहां सुनी। वह डॉक्टर सहृदय निकला। उसने एक लेडी डॉक्टर को बुलवाया और बिना ज्यादा फीस लिए पूरा जरूरी इलाज किया।

घर वापसी पर कुछ दिन शांति से बीते। फिर एक दिन दादी को मां के पैरों की अंगुलियों से चांदी के बिछुए गायब मिले। ये तो शादीशुदा होने की निशानी हैं। ऐसे कैसे कोई इन्हें निकाल कर रख सकती है। लेकिन बड़ा सदमा तो सबको तब लगा जब मां ने इसका कारण बताया। वो अपने बिछुए सुनार को बेच आई थीं और मिले पैसे तिरुपति के उसी डॉक्टर के नाम मनीऑर्डर से भेज दिए। चिट्ठी में लिखा कि रुपए भेज रही हूं ताकि उन जैसी तकलीफ की मारी, पैसे से लाचार औरतों का इलाज जारी रखने में डॉक्टर को मदद मिले।

इसके बाद तो जिसने यह किस्सा सुना, एक ही बात कही- "पागल है ये "।

(यह लेख पहले चोखेर बाली पर दिया था। वहां मिली प्रतिक्रियाओं के लिए देखें यह लिंक)

Saturday, March 15, 2008

मानवाधिकार

(सफी आबदी की यह कविता सुंदर लगी तो आप सबके साथ बांट रही हूं। एक छोटे हिस्से का अनुवाद भी मैंने किया है। उसके नीचे अंग्रेजी में पूरी कविता दे रही हूं। - आर. अनुराधा)

…वो कहते हैं, न्याय मांगना नहीं है गुनाह
सुनता हूं आप जो करते हैं मानवाधिकार की बात...
मैं नहीं मांगता धरती की
आधी संपत्ति अपने लिए
नहीं चाहता बादशाहत
किसी विशाल जागीर की
न ही मुझको है
स्वर्गारोहण की चाह
मैंने हमेशा मांगी है तो बस,
अपने हिस्से की ठंडी छांव...
(मूल कविता – सफी आबदी की ह्यूमन राइट्स)

Human Rights


..............A phrase in journals foreign
Embroidered
To seek justice's not a crime, I'm told
Yours a human rights issue, so I hear.

But my reality's unfairness applauded

Freedom and honor are words spoken…
A lullaby sang to ears ready for sleep.

Though I am only a human
Chasing a dream denied
My dilemma is tossed around
Circles mighty unwise
And my reality's noted
In resolutions unfeasible.

I ask not that I be given half
The earth's resources
I ask not that I be anointed a king
Presiding over a grand empire
I ask not that I be transported
To a heavenly abode.

All I ever wanted
Was the shade of an olive tree
Uprooted from a courtyard nabbed
But I am booed like a clown gone sour:

What's with him that he won't celebrate
And sing along? I am teased.
What's with me that I dare to die
Before the rockets land on
My bared back?
What's with me that I can't lie still
And be relaxed in my chambers of hell?
What's with me that I can't digest
The flavor of the mighty gun?
Why isn't he smiling at the bullet
In the face pointed?


What's wrong with being subjected
To tyranny premeditated?
Why doesn't he just call it a day?

- Safi Abdi (Palestine, 2004)

ऑस्ट्रेलिया से भारत वाया अमेरिका

आज के नवभारत टाइम्स में छपे इस लेख को देखें।

Friday, March 14, 2008

कोई शहीद होता है, कोई मारा जाता है!

युद्ध, तनाव और पत्रकारिता की भाषा पर कुछ नोट्स

(महाभारत के संजय को पहला पत्रकार कहा गया था क्योंकि उसने धर्मेक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में जो हुआ, उसे धृतराष्ट्र को उसी रूप में सुनाया। मान्यता है कि संजय ने दिव्यदृष्टि से जो देखा, उसका आंखोदेखा हाल सुनाया होगा। यही उम्मीद पाठक दर्शक शायद आज के पत्रकारों से करता है। लेकिन क्या जो होना चाहिए, वो ही है। भरोसे से ये बात कहना आसान नहीं है। भारत के संदर्भ में गांव-शहर, पिछड़ा प्रदेश-अगड़ा प्रदेश, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, हिंदीभाषी-अहिंदीभाषी, सवर्ण-अवर्ण, स्त्री-पुरुष, स्लम-पॉश जैसे विभाजनों से पत्रकारिता मुक्त नहीं हुई है। यहां पर चर्चा करते हैं इजराएल-फिलस्तीन संघर्ष के बारे में इजराएली मीडिया में हो रही रिपोर्टिंग की। ये संदर्भ इसलिए कि तनाव के क्षणों में ही पक्षपात ज्यादा सघन रूप में सामने आता है, वरना तो सब कुछ ठीक ठाक ही चलता नजर आता है। - दिलीप मंडल)

- इजराएली मीडिया के लिए इस संघर्ष में दो पक्ष हैं। एक इजराएली सेना और दूसरा फिलस्तीनी हमलावर या आतंकवादी।
- इजराएली सेना हमेशा किसी खबर को कन्फर्म करती है जबकि फिलस्तीनी हमेशा दावा करते हैं। मिसाल के तौर पर खबर छपती है कि - फिलस्तीनी पक्ष ने दावा किया है कि इजराएली फौज की फायरिंग में एक बच्चे की मौत हो गई है।
- इजराएली फौज जब फिलस्तीन में घुसकर किसी फिलस्तीनी को पकड़ लाती है तो इजराएली मीडिया उसे गिरफ्तारी बताता है। भारतीय संदर्भ में आप कल्पना कीजिए कि पाकिस्तानी फौज हमारी सीमा के अंदर आकर किसी को पकड़ ले जाती है तो क्या उसे गिरफ्तारी कहेंगे।
- इजराएली फौज ने 2006 में फिलस्तीनी सीमा में घुसकर सत्ताधारी पार्टी हमास के 60 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया था। उनमें 30 सांसद और आठ मंत्री थे। इन सबको उनके घरों से रात में उठा लिया गया था।
- इजराएली फौज जब फिलस्तीनी क्षेत्र में घुसकर फायरिंग करती है तो मीडिया इसे हमेशा जवाबी कार्रवाई के तौर पर रिपोर्ट करता है। जबकि फिलस्तीनी जब इजराएली क्षेत्र में घुसकर हमला करते हैं तो ये हमेशा आंतकवादी कार्रवाई के तौर पर रिपोर्ट होता है।
- इजराएली मीडिया के हिसाब से उसकी फौज कभी हत्या नहीं करती है। इस शब्द को फिलस्तीनी हमलों के लिए सुरक्षित रखा गया है।
- मीडिया रिपोर्टिंग के मुताबिक, इजराएली फौज कभी भी हमले की शुरुआत नहीं करती, वो हमले का जवाब देती है। वो आत्मरक्षा में हमला करती है। लेकिन फिलस्तीन की फौज कभी भी आत्मरक्षा में हमला नहीं करती। वो हमेशा हमले की शुरुआत करती है।
-इजराएली हमले में जो भी मरता है, वो हमास का महत्वपूर्ण पदाधिकारी होता है। इजराएली फौज ने एक हमले में मारे गए जिस शख्स को हमास के मिलिटरी विंग का गाजा चीफ बताया था वो कैदियों के क्लब का सेक्रेटरी था।

तो खबरें हमेशा वो नहीं होतीं जो बताई जाती हैं। इस जानकारी का स्रोत counterpunch.org पर आप देख सकते हैं। वैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया एजेंसी जिस तरह की खबरें हम तक फीड करती हैं उसमें भी ये पक्षपात नजर आता है। देखनेवालों को दिख जाता है। जो भोले हैं वो खुश रहते हैं।

Thursday, March 13, 2008

वो कहते हैं हमसे...(भाग-2)

भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत आने वाली दूसरी मीडिया इकाइयों की तरह इसमें भी रिक्रिएशन क्लब है। यह सालाना खेल-कूद कार्यक्रमों का आयोजन भी करता है। क्लब का चंदा तो महिला-पुरुष से बराबर ही वसूला जाता है लेकिन महिलाओं के लिए इनमें भाग लेने के मौके न के बराबर ही होते हैं।

तो, जब पुरुषों ने अपने बैडमिंटन मैचों के लिए अभ्यास करना शुरू किया तो देख कर दो-एक उत्साही महिलाओं को भी जोश आया और अब तक वंचित रही उस कोर्ट भूमि पर महिलाओं की चरण-धूलि भी पड़ ही गई। उन्हें कोर्ट में देख कुछ और महिलाएं प्रेरित हुईं और आज स्थिति यह है कि रोजाना लंच टाइम के पहले आधे घंटे में महिलाएं खेलती हैं, तभी पुरुषों की बारी आती है।

विभाग की महिलाओं की ओर से यह एक अच्छी शुरुआत रही। लेकिन यहां तक पहुंचने के दौरान उन्हें पुरुषों की खूब टिप्पणियां सुनने को मिलीं-

" एक ही दिन में ज्यादा मत खेलो। घर जाकर खाना भी बनाना है।"
" शॉट मार रही हो या किसी के गाल सहला रही हो।"
" चिड़िया को चिड़िया मारे, ये भी कोई खेल हुआ!"
इत्यादि।

-आर. अनुराधा

Tuesday, March 11, 2008

वो कहते हैं हमसे...(भाग-1)

(यह लघुकथा मैंने 1987 में लिखी थी। आज के समय और माहौल में कितनी रेलेवेन्ट है, ये आप बताएं- आर. अनुराधा)

दृष्य एक: " नीलू बेटे, आज तुम्हारा नतीजा निकला है। अपना रोल नंबर तो लाना अखबार से मिलान कर लूं। फर्स्ट, सैकेंड, थर्ड- तीनों लड़कियां। भई वाह! लड़कियां तो लड़कों को हर मोर्चे पर मात दे रही हैं।"
" पापा मैं पत्रकारिता में प्रवेश लेना चाहती हूं।"
"अरे भई, एम एस सी करो, पी एच डी करो और ठाठ से कॉलेज में पढ़ाओ। पत्रकारों को बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ती है। यह तुम्हारे बस की बात नहीं। इसे तो लड़कों के लिए ही रहने दो।"
दृष्य दो: " नीलू, जरा दुकान से मेरी दवाएं तो ला दे। "
" भैया को भेज दो न मां, मैं अकेले नहीं जाना चाहती"
"आजकल तो औरतें मर्दों के सारे काम करती हैं, और तुझे अकेले बाजार तक जाने में हिचक हो रही है। चल उठ फटाफट। बहानों की जरूरत नहीं है। "
दृष्य तीन: "कहां जा रही हो? "
"यहीं, सरिता के घर तक। "
" भैया को साथ ले जाना, जमाना बहुत खराब है आजकल।"

Monday, March 10, 2008

सौ को मारो और फिर थोड़ा सुस्ता लो, फिर सौ को मारो...

उरी एवनेरी

कहानी पुरानी है। जार की सेना का एक यहूदी सैनिक तुर्कों के खिलाफ युद्ध के लिए जा रहा था। उसकी मां ने उसे विदा करते हुए कहा- बेटा, ज्यादा थकान से बचना। एक तुर्क को मार कर थोड़ा सुस्ता लेना। फिर एक और तुर्क को मारकर फिर सुस्ता लेना।

बेटे ने पूछा - लेकिन मां, अगर तुर्क फौजियों ने मुझे मार डाला तो?

मां बोली- क्या बात करते हो, वो तुम्हें क्यों मारेंगे? तुमने उनका क्या बिगाड़ा है?

ये कोई मजाक नहीं है। ये मनोविज्ञान है। इजराएल-फिलस्तीन के बीच अभी जो चल रहा है अगर उसे युद्ध मान लें तो इस युद्ध में इजराएल के दो सैनिक और एक नागरिक की मौत हुई है। जबकि इजराइली हमलों में 120 से ज्यादा फिलस्तीनी जानें गई हैं। इनमें ज्यादातर बच्चे और नागरिक हैं। इजराएली प्रधानमंत्री ओलमार्ट को शिकायत है कि इजराइली स्कूल में फायरिंग से हुई मौत पर गाजा में फिलस्तीनियों ने जश्न क्यों मनाया। सचमुच क्या भोलापन है? सचमुच हर मौत की बराबर कीमत नहीं होती।

इजराएल में यही हो रहा है। वो सौ फिलस्तीनियों को मारते हैं, फिर सुस्ताते हैं। इस बीच कोई फिलस्तीनी हमला होता है और दो-चार इजराएली मारे जाते हैं। और इजराइल के लोगों को शिकायत है कि वो हमें क्यों मार रहे हैं।

(लेखक इजरायली नागरिक हैं और शांति आंदोलन के कार्यकर्ता हैं। सामग्री का स्रोत - काउंटरपंच)

Sunday, March 9, 2008

अमेरिकी मीडिया ओबामा के खिलाफ चुनाव लड़ रहा है?

(कहते हैं कि अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में मीडिया ने जॉर्ज डब्ल्यू बुश के लिए चुनाव लड़ा था। वहां के सबसे पॉपुलर न्यूज चैनल फॉक्स ने रिपब्लिकन पार्टी के लिए खुलकर अभियान चलाया था। इस बार भी ऐसा ही कुछ देखने को मिल रहा है। हालांकि इस बार मीडिया का एक हिस्सा सचेत रूप से ऐसे किसी भी दुष्प्रचार से दूर रहने की कोशिश रहा है। नीचे यूट्यूब का एक वीडियो है। इसे देखिए। अपनी राय बनाइए-बदलिए-या उसे और मजबूत कीजिए। भारत के लिए इसका संदर्भ ढूंढिए। -दिलीप मंडल)

Saturday, March 8, 2008

काले हैं तो क्या हुआ ओबामा हैं!

-दिलीप मंडल

नीचे लगे दोनों वीडियो को देखिए। दोनों यूट्यूब पर हैं। दोनों में एक प्रमुख किरदार बराक ओबामा हैं। अमेरिकी ब्लॉग जगत में इन दिनों बहस छिड़ी है कि क्लिंटन ने जो एड जारी किया है, उसमें ओबामा को क्या जानबूझकर ज्यादा काला दिखाया गया है। क्या ये मानवीय भूल है या जानबूझकर की गई शरारत या कोई साजिश?



ओबामा के चमड़े का रंग, उसके पिता का अश्वेत होना, नाम में हुसैन का होना, उनकी माता के चरित्र का पोस्टमार्टम - ये सब मिलकर एक पूरा कोलाज बनता है। क्या अमेरिका अपने नस्लवादी अतीत से पीछा छुड़ा पाया है?


क्या भारत के लिए इस चर्चा का कोई संदर्भ है। मायावती की राष्ट्रीय राजनीति में हैसियत बढ़ती है तो क्या वो ऐसे ही सवालों से रूबरू नहीं होंगी? मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने वाले सीताराम केसरी का किस्सा याद है आपको? और जगजीवन राम? अजित जोगी, शिबू सोरेन? तहलका कांड से बंगारू लक्ष्मण का राजनीति कैरियर खत्म हो गया, लेकिन जया जेटली-जॉर्ज फर्नांडिस तो फिर से नैतिकता की बात करने लगे हैं। वी पी सिंह और अर्जुन सिंह का मीडिया में विलेन बनना क्या अपने आप हो गया?


वाजपेयी के चरित्र की मीमांसा मीडिया में क्यों नहीं होती। नरसिंह राव का निजी जीवन भी निजी ही रह गया। सार्वजनिक जीवन जी रहे तमाम लोगों को निजी जीवन जीने की ऐसी ही खुली छूट क्यों नहीं मिलती। सुरेश राम का स्कैंडल उछालते समय क्या मीडिया के सामने ये सवाल नहीं था कि ये किसी का निजी मामला है। हवाला कांड में 40 से ज्यादा नेता फंसे लेकिन आडवाणी और शरद यादव का क्या एक तरह का मीडिया ट्रायल हुआ। प्रमोद महाजन जैसे नेता की कमीज उजली की उजली कैसे रह जाती है। लालू यादव जब तक सवर्ण न्यायपालिका और अफसरशाही के सामने दंडवत नहीं हो गए तब तक उनकी कैसी दुर्दशा होती रही?


मेरे पास किसी नतीजे तक पहुंचने के लिए न पूरे तथ्य हैं न तर्क। लेकिन ये बात मैं पक्के तौर पर जानता हूं कि देश में जो नेता सर्वाधिक भ्रष्ट हैं, उनकी छवि सबसे बुरी नहीं है। मीडिया में हर पाप एक तराजू पर नहीं तुलता। कहीं कुछ तो घपला है।

Thursday, March 6, 2008

ब्रांडेड भिखारियों की दुकान


- सौरभ के. स्वतंत्र

पटना का हर्ताली चौक हो या दिल्ली का जंतर-मंतर ! इसके आगोश मे आने के बाद कार वाले लोग बेकार और बेकार लोग आबाद हो जाते हैं. एक दिन मैं भी बेकार के मानिंद जंतर-मंतर पहुँचा. जिन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारों से गूंजता वातावरण बड़ा ही रमणीय लगा. कहीं लोग धरना देते वायलिन, ढोलक की थाप पार धुन निकल कर आपना समय काट रहे थे तो कहीं सोकर .

तभी मेरी मुलाकात एक बम्बैया बाबू से हुई. अभी जीवन के १७-१८ बसंत देखे होंगे जनाब ने. पर इरादा एकदम बुलंद था. इनकी मांग थी की रेहड़ी-पटरी पर सब्जी बेचने वालों के साथ न्याय किया जाए. जब मैंने पूछा की भइया इ सब्जी बेचने वालों को कौन सी न्याय की जरुरत आन पड़ी. तब उसने विस्तार से बताया- बम्बई मे सब्जी की दुकान थी साहब..बहुत अच्छी चल रेली थी. दो टाइम का रोटी भी आराम से मिल जाता था. भाई लोगो का हफ्ता भी चुकता हो जाता था साहब..लाइफ एकदम स्मूथ चल रेला था ... साहेब प्रॉब्लम तब आया जब ये मोबाइल बेचने वाले मामू लोग ने सब्जी का बड़ा-बड़ा दुकान खोल लिया...दुकान बोले तो एकदम झकास...एकदम सीसा-वीसा लगाके..

...जब वही फ्रेश-फ्रेश सब्जी उधर मामू लोग एयर कन्डीसन दुकान मे हमारे ही दम मे बेच रेला है तब हमारे कस्टमर लोगो को भी उधर ही जाने को मांगता है....तब हमारे पेट पर लात पड़ने का है न साहब....तब मैंने सोचा कमाई-धमायी तो सब चौपट ही गया. अब भाई लोगो को फोकट मे हफ्ता देने से बढ़िया ...न्याय के लिए आवाज़ उठाई जाए ...तभी से मैं इधर जंतर-मंतर पर एक साल से धरना दे रहा है.. पर इधर कोई सुनने को मांगता ही नही .

अब मैं भी क्या कहता बम्बैया भाई से....सांत्वना देना ही उचित समझा और उसकी पीडा़ सुन मैं यह कहने को विवश हो गया की तेरी मांग एकदम उचित है...बोले तो एकदम उचित .

अभी मैं इन जनाब की व्यथा सुन आगे बढ़ा ही था कि एक भिखारी मेरे पीछे पड़ गया...और कहने लगा- साब दे दो ना साब बच्चा भूखा है...साब एक रुपया दे दो... मैं भी थोड़ा बम्बैया बन बैठा और उसी लहजे मे उस से कहा अभी तेरे को इधर से निकलने का...और बड़ा साहब लोगो से पैसा नही मांगने का...बड़ा साहब तेरे हाथ मे इतना चिल्लर पैसा देख लिया न तब समझो तेरा कम फिनिश.

...फिर बड़ा साहब लोग रोड पर अपना ब्रांडेड भिखारी परफ्यूम लगाके दौड़ाने लगेगा .फिर तेरे को कौन भीख देगा... तेरे शरीर से तो बदबू आ रेली है बाप..फिर तू भी इस बम्बैया बाबू के माफिक इधर जंतर-मंतर और हर्ताली चौक पर धरना देता नजर आएगा..इसलिए इधर से अभी निकल लेने का..वो देखो बड़ा साहब आ रेला है .. और भिखारी तेज कदमों से वहा से निकल गया ...

Tuesday, March 4, 2008

अविनाश: कम्युनिटी ब्लॉग के कुशल संपादक

अविनाश की ताकत ये है कि आप उसके बनाए ब्लॉग पर जाकर उसे गाली दे सकते हैं, उसकी भर्त्सना कर सकते हैं और फिर भी उस ब्लॉग पर बने रह सकते हैं। ब्लॉग का लोकतंत्र अपने सबसे मौलिक रूप में जिस एक जगह नजर आता है, वो जगह अविनाश ने बनाई है। मोहल्ला भी ऐसा जिसमें एक दूसरे से 180 डिग्री की दिशा में सोचने वाले साथ साथ एक दूसरे को चाहते हुए भी और कोसते हुए भी रह सकते हैं। अविनाश के लिए असहमति अश्लील शब्द नहीं है।

शंकर की बारात सजाने का दम कम लोगों में होता है। अविनाश में है। उनका बनाया मोहल्ला ऐसा है जहां अक्सर कोई बेनामी आकर ऐसी हरकत कर देता है, जिसे शायद ही कोई और ब्लॉग मॉडरेटर बर्दाश्त करे। लेकिन अविनाश के बनाए हम सबके मोहल्ला में कमेंट मॉडरेशन नहीं है। बहुत ही अझेल हुआ तभी अविनाश कमेंट के साथ संपादकी दिखाते हैं। उन्हें ऐसा करते मैंने इतने दिनों में सिर्फ एक बार देखा है।

अविनाश ने जिन लोगों को ब्लॉगिंग के शुरुआती गुर सिखाए हैं, उनमें से कुछ आज उनके प्रशंसक हैं तो कुछ उनसे सहज मानवीय स्वभाव के तहत जलते-कुढ़ते हैं। अविनाश वनिला नहीं है। अविनाश के बारे में आपकी राय ये नहीं हो सकती कि - हैं कोई। आप उन्हें पसंद या नापसंद करने को मजबूर होते हैं। सामयिक विषयों पर उनकी प्रखर राय है। लेकिन उनकी राय से असहमत होकर भी जब आप मोहल्ला पर कुछ लिखते हैं तो अविनाश आपसे टकराते नहीं हैं, बल्कि आपके लिखे को सजाते हैं, उसमें से चर्चा के सूत्र निकालते हैं। ठीक उसी तरह जैसा कि किसी संपादक को करना चाहिए।

अविनाश दास नाम के आदमी को मैं जुलाई 2007 से पहले नहीं जानता था। मेरा बिहार/झारखंड पहले ही पीछे छूट गया था। फिर प्रिंट की पत्रकारिता से संपादकीय और फीचर पन्नों पर लेखन के अलावा ज्यादा रिश्ता नहीं रहा। टीवी में नौकरी करता हूं, पर इस दुनिया से भी कभी एकाकार नहीं हो पाया। इसलिए अविनाश को न जानना कुछ अस्वाभाविक भी नहीं है। अब तक मैं अविनाश से सिर्फ दो बार मिला हूं। एक बार राजकिशोर जी के निवास पर और दूसरी बार अशोक पांडे के अस्थायी निवास पर। दोनों बार कुछ मिनट के लिए। लेकिन संपादक के जो गुण मुझे अविनाश में दिखे हैं उससे मुझे थोड़ी जलन सी होती है। कई लोग मोहल्ला में अविनाश जैसे संपादक की वजह से ही लिखते हैं। दिलीप मंडल उनमें शामिल हैं।

BITCHOLOGY

Here is an interesting poem, in English though, I came across very recently. This poem, that crossed several e-mail boxes before reaching me, was originally sent by FunAndFunOnly group on Yahoo!. Nevertheless, this caught my attention and I thought of sharing it with all of you, so that more women can feel strong identifying themselves with the protagonist of the poem and more men can realize what women in their lives may be going through, inside and outside, in this world.

-R. Anuradha



When I stand up for
myself and my beliefs,
they call me a
bitch.

When I stand up for
those I love,
they call me a
bitch.

When I speak my mind, think my own thoughts
or do things my own way, they call me a
bitch.

Being a bitch
means I won't
compromise what's
in my heart.
It means I live my life MY way.
It means I won't allow anyone to step on me.

When I refuse to
tolerate injustice and
speak against it, I am
defined as a
bitch.

The same thing happens when I take time for
myself instead of being everyone's maid, or when I act a little selfish.

It means I have the courage and strength to allow myself to be who I truly am and won't become anyone else's idea of what they think I "should" be.
I am outspoken,
opinionated and determined. I want what I want and there is nothing wrong with that!
So try to stomp on me,
try to douse my inner flame, try to squash every ounce of beauty I hold within me.
You won't succeed.

And if that makes me a bitch ,
so be it.
I embrace the title and
am proud to bear it.

B - Babe
I - In
T - Total
C - Control of
H - Herself

B = Beautiful
I = Intelligent
T = Talented
C = Charming
H = Hell of a Woman

B = Beautiful
I = Individual
T = That
C = Can
H = Handle anything

Sunday, March 2, 2008

आखिर ये आपकी सेहत का मामला है!

-दिलीप मंडल

आप पहले ये देख चुके हैं कि जिस एड्स से साल में दो हजार से कम लोग मरते हैं और साल दर साल जिससे मरने वालों की संख्या लगभग स्थिर है उस एड्स से देश में लगभग सवा लाख से ज्यादा सेल्फ हेल्प ग्रुप लड़ रहे हैं। एड्स का कारोबार चलता रहे इसमें तमाम एनजीओ की दिलचस्पी है। एड्स का कारोबार चलता रहे इसमें एनजीओ के अलावा फार्मा सेक्टर की काफी दिलचस्पी है। ऐसी ही एक दिलचस्पी की कहानी आपके लिए यहां पेश है।

एड्स की दवा का अनुसंधान करने वाली दुनिया की एक प्रमुख कंपनी है जायलीड साइसेंस। इस कंपनी की वेबसाइट पर जाइए तो आपको कुछ रोचक चीजें दिखेंगी।



इस कंपनी को अमेरिकी में राजनतिक रूप से सबसे प्रभावशाली कंपनी माना जाता है। डॉनल्ड रम्सफेल्ड अमेरिका के रक्षा मंत्री बनने से पहले इस कपनी के चेयरमैन थे। देखिए रम्सफेल्ड की इस पद पर नियुक्ति की प्रेस रिलीज । रम्सफेल्ड के पास अब भी इस कंपनी के शेयर हैं। इस कंपनी के बोर्ड को देखिए। इसमें जॉर्ज शुल्ज हैं जो अमेरिका के विदेश मंत्री रहे हैं। बोर्ड में हैं कार्ला एंडरसन हिल हैं जो जॉर्ज बुश के पिता के राष्ट्रपति रहने के दौरान अमेरिका की ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव थी और नॉर्थ अमेरिका ट्रेड ट्रिटी यानी नाफ्टा में अपने देश की मुख्य वार्ताकार थीं। जायलीड के बोर्ड में शामिल गायले विलसन कैलिफोर्निया के पूर्व गवर्नर पीट विल्सन की पत्नी हैं। एटीने एफ डेविगनॉन सुएज ट्रेक्टेबेल के वाइस चेयरमैन हैं और बुश के राष्ट्रपति पद के अभियान में उन्होंने काफी सहयोग किया था। कुल मिलाकर कंपनी के बोर्ड पर कंजर्वेटिव पार्टी के नेताओं का दबदबा है।

इसके बाद आप जायलीड के शेयरों का कारनामा देखिए। 1997 में जब रम्सफेल्ड जायलीड के चेयरमैन बने तो इस कंपनी के शेयर थे सात डॉलर पर। अभी ये शेयर 45 से 50 डॉलर के बीच ट्रेड कर रहे हैं। कंपनी के शेयर में बढ़त ऐसे दौर में हुई है जब बाकी अमेरिकी इंडेक्स बेहद सुस्त चाल से चले हैं। इस कंपनी का मार्केट कैपिटलाइजेशन 40 अरब डॉलर यानी 16,000 करोड़ रुपए है। ये कितनी बड़ी कंपनी है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि इस साल के बजट में भारत सरकार का स्वास्थ्य पर कुल खर्च 16,534 करोड़ रुपए है। देखिए चिदंबरम के बजट भाषण का प्वांयट 30। और एड्स की दवाओं का कारोबार कर रही जायलीड दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी नहीं है। ऐसी बड़ी कंपनियां ही दुनिया भर में सरकारों के लिए स्वास्थ्य का एजेंडा तय कर रही हैं। हमारी आपकी हैसियत इस खेल में कितनी है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।

Saturday, March 1, 2008

राज ठाकरे ने तो वक्त को पहचान लिया, हम कब पहचानेंगे?

प्रणव प्रियदर्शी

राज ठाकरे और राज ठाकरे जैसों का इस्तेमाल करने वाले जिस सच को समझ कर अपनी रणनीति मे जरूरी बदलाव कर रहे हैं, उस सच को हम क्यों नही पहचान पा रहे? बाल ठाकरे के समय ट्रेड यूनियनों के पास ताकत हुआ करती थी, इसीलिए उस ताकत को छिन्न-भिन्न करने की जरूरत थी. अब परिस्थिति बदल गयी है. युनियने बेकार सी हो गयी हैं. मजदूरों के लिए नयी रियायतें हासिल करना तो दूर, कठिन संघर्ष के बाद हासिल पुरानी सुविधाएं भी एक-एक कर छिनती जा रही हैं और युनियने कुछ बोलने तक की स्थिति मे नही रह गयी हैं. ऐसे मे यूनियनों की शक्तिहीनता, उनकी बेचारगी जगजाहिर है. फिर भला मरे हुए को मारने की किसी को भी क्या पडी है.

राज ठाकरे भी जानते हैं कि उस काम के लिए उन्हें कोई शाबाशी नही देगा जिसकी जरूरत ही नही है. इसीलिए उन्होने अपने लिए नया काम सोचा. उन्हें मालूम था कि सरकार और कंपनियों के पास अब नौकरियां नाम मात्र को ही हैं. लेकिन बेरोजगार युवक यह बात मानने को तैयार नही. उन्हें तो हर हाल मे नौकरी चाहिए. स्वाभाविक रूप से सरकार और कंपनियों के खिलाफ बेरोजगार लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. सो राज ठाकरे ने इस गुस्से को दूसरी तरफ मोड़ने का काम अपने हाथ मे लिया. उन्होने सरकार और कंपनियों को नौकरिया क्रियेट करने की जिम्मेदारी से मुक्त करते हुए यह कहा कि उनकी पार्टी मराठी युवकों को खुद रोजगार देगी. फिर उत्तर भारतीयों को विभिन्न रोजगारों से बेदखल कर उनके रोजगार अपने हाथ मे ले लेने का आह्वान मराठी युवकों से किया. (देखिए पिछला पोस्ट : बाल ठाकरे से आगे बढ़ गए है राज ठाकरे)

नतीजा सामने है. सरकार और कंपनिया एक तरफ है. नौकरियों के लिए जनता आपस मे ही एक दूसरे को मार काट रही है. वही जनता जो अगर सबको नौकरी की मांग पर संयुक्त आन्दोलन छेड़ देती तो सरकार और उद्योग के कर्ता-धर्ताओं के हाथ-पाँव फूल गए होते. लेकिन भगवान् भला करे राज ठाकरे और उनकी राजनीति का, अब ये लोग चैन की सांस लेते हुए और दो-चार जगह 'सेज' के प्रस्ताव लाकर जमीन अधिग्रहण करवा सकते हैं. जनता उनके खिलाफ नही उठने वाली. वह पर प्रान्तीयों को खदेड़ने मे लगी है.

बहरहाल, बात यह हो रही थी कि यह तथ्य हम कब समझेंगे? हम जो जनता की समस्याओं को उठाने का दावा करते है, समस्याओं का विश्लेषण करते हैं. हम यह क्यों नही समझते कि मूल प्रश्न सबको बुनियादी जरूरते बिना शर्त पूरी करने की गारंटी देने का है. हर तरह के भेदभाव मिटाने का है. और यह काम 'प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व' से नही होगा. नौकरियों मे हर जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र, भाषा की सांकेतिक उपस्थिति या आनुपातिक उपस्थिति सुनिश्चित करने से नही होगा.

इसके लिए हर जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र, भाषा के वंचितों, पीडितों को एक साथ साझा लड़ाई लड़नी और जीतनी होगी.

सच है कि यह एक बेहद लम्बी लड़ाई है जो अभी ढंग से शुरू भी नही हुयी है. अभी एक तरफा हमलों का दौर है. इन हमलों से ही दूसरा पक्ष उठने, संगठित होने और लड़ने की प्रेरणा लेगा.

सवाल है कि तब तक क्या किया जाये? जवाब भी सीधा, सहज है. दूसरे पक्ष को उस लम्बी निर्णायक लड़ाई के लिए तैयार किया जाये. यह बताया जाये कि जरूरत आपसी भेदभाव भूल कर हाथ से हाथ जोड़ कर श्रृंखला बनाने मे है. यह तर्क फूहड़ है कि जब तक दुश्मन हमला नही कर देता और फौज उस लड़ाई मे नही उलझ जाती तब तक सैनिको को आपस मे ही थोडी मार-काट कर लेने दी जाये.

(अगली किस्त : कितना जरूरी है जाति का सवाल?)

लविंग की जीत और अमेरिका का प्रायश्चित

-दिलीप मंडल

सीनेटर ओबामा अश्वेत पिता और श्वेत मां की संतान हैं। अमेरिका अपने इतिहास के एक रोचक मोड़ पर खड़ा है। ये लगभग तय हो चला है कि वहां का राष्ट्रपति या तो मिली जुली नस्ल का होगा या फिर एक महिला। ये शायद अमेरिका का पश्चाताप है या फिर प्रायश्चित।

ऐसे समय में बात करते हैं रिचर्ड लविंग और मिलड्रेड जेटर की। एक श्वेत और एक अश्वेत। दोनों ने लगभग उसी कालखंड (1958) में शादी की थी जब ओबामा के माता-पिता की शादी हुई थी। लविंग और जेटर वर्जीनिया में शादी नहीं कर सकते थे क्योंकि वहां अलग अलग नस्ल के लोगों के बीच शादी पर पाबंदी थी। उस समय अमेरिका के 22 राज्यों में नस्लीय शुद्धता के सख्त कानून थे। पर ये शादी हुई। दोनों ने भागकर कोलंबिया में शादी की और लौटकर वर्जीनिया आए।

यहां पुलिस उनका इंतजार कर रही थी। घर पर छापा पड़ा। नवविवाहित जोड़ा गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चला। पांच साल तक कैद की सजा का प्रावधान था। लविंग दंपति को कहना पड़ा कि उससे भूल हुई है। दोनों को एक साल कैद की सजा सुनाई गई। बाद में रहमदिल जूरी ने उन्हें राज्य से बाहर जाने की सजा सुनाई और आदेश दिया कि वो 25 साल तक वर्जीनिया नहीं लौटेंगे। इस परिवार को वाशिंगटन में बसना पड़ा।

देखते हैं कि जूरी ने लविंग दंपति के खिलाफ किस आधार पर फैसला सुनाया:

( Almighty God created the races white, black, yellow, malay and red, and he placed them on separate continents. And but for the interference with his arrangement there would be no cause for such marriages. The fact that he separated the races shows that he did not intend for the races to mix.)

लेकिन लविंग का मुकदमा सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और आज से लगभग तीस साल पहले अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया की नस्लीय शुद्धता के ऐसे कानून गैरकानूनी हैं।

अमेरिकी जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 2005 में वहां 84 लाख से ज्यादा लोग ऐसे हैं जिन्होंने नस्ल का ख्याल किए बगैर शादियां की हैं। इस जानकारी का स्रोत।
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