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Wednesday, July 29, 2009

Magic of medieval Patriarchy in a democratic state

Anil sinha
It was a Sunday evening। Just before going out to the local market I wanted to update myself on day’s happenings. It landed me up in front of the most objective of the news channels, the NDTV. But it came to be a very disappointing experience of the day. The channel was running a program on young voices of newly elected parliament.

Youngistan was the name given to the program and it was an outdoor exercise in the Garden restaurant in Delhi. All the participants were significant in the sense that they not only represented their constituencies but they are carrying forward the legacy of their families. The carefully chosen group was representing all the important regions of the country- Hamidulla Sayeed (Lakshadweep), Jayant Cahudhary (Mathura), Harsimrat Kuar-badal (Punjab) and Kalikesh Singhdeo (Orissa). Hamidulla is the youngest MP of the country. He is the son of PM Sayeed, former Deputy Speaker of LokSabha. Jyant Chaudhary is the son of Ajit Singh and a grandson of Chuadhary Charan Singh, former Prime Minister of India. Harsimrat is the daughter-in-law of Punjab Chief Minister Prakash Singh Badal and the wife of Deputy Chief Minister of Punjab, Mr. Sukhbir Singh बदल

Junior Sayeed was talking of developing Lakshadweep। Jayant was vowing for rising the issue of farmers. Incidentally he does not have any background of farming except for the fact that his father belongs to a landowning dominant caste of western UP. He has studied in London. Harsimrat was talking of fighting against the practice of female foeticide rampant among the middle and upper middle class of Punjab. Kalikesh is the grand son of a former Chief Minister of Orissa and belongs to a famous royal family of Orissa. He was talking of development though his region is one of the most backward regions of the country despite being rich in resources and his forefathers have ruled the area.

I have given these details to make my point about the appropriation of issues to legitimize their position as the leader of the society and the role of media in establishing their their identity as social leaders। Media has seized questioning. Interestingly, all the participants of this program belong to the families who has been ruling the area since the country became independent. If their areas are backward who is responsible for that?

Unfortunately, the reporter did not ask this question lest it would have destroyed the whole exercise of legitimizing them as social leaders। Harsimarat was step ahead of her co-participants. She has chosen a subject that could make other feel that she is modern and secular and different from her Akali counterparts. The exercise is old one and Bhartiya Janata Party stalwart Mr. Atal Bihari Vajpai has done it long ago.

This ‘benevolent’ politics of Indian elites is the most favorite theme for Indian Media। Medieval patriarchy is being revived to garb the real face of Indian politics. Most of the leaders have transferred their legacies to their sons or daughters or to their family members. The list is very big and it starts from the royal Gandhi family and goes down to local MPs and MLAs.

Media is adding to the confusion created by the new patriarchy evolved after nurturing the vested interests during the post-independence Indian politics। The most dangerous of it is the appropriation of issues of masses. These leaders talk of issues related to the poor people but in reality they serve the interest of rich class. They favor SEZ for development and raise issue of impoverishment of rural people. This dichotomy is conveniently ignored by our media.

The story on Nandigram would add to the points I have raised above। The story was run on IBN7. It was done to depict the changes Nandigram has witnessed in the local power equations after the victory of Trinmool Congress. The issue of land was not mentioned even for a single time and the whole story centered on the power equations affecting the local bureaucracy and political workers of CPM and TNC.

Media is now the biggest tool in raising the issue out of its context and creating confusion among the oppressed classes। The fight between two political and social forces became a quarrel between political parties.

Same evening, Big Bachhan was recalling his days on Times Now. I am sure, he can not recall his contributions in derailing Indian cinema to the extent of making it Lawaris. It is to his credit that Indian cinema got a theme where gangsters became heroes and fighting against the system was an individual endeavor not a social effort. The culmination of the entire struggle was in becoming a tyrant yourself to oppress others. The tradition of Phir Subah Hogi or Jagte Raho or for that matter Boot Polish was lost in a cinematic trend inspired by Hollywood movies. His personal association with Amar Singh speaks volumes about him and his political behavior.
(courtesy : 'communism', the monthly magazine)

Sunday, July 19, 2009

उदयप्रकाश विवाद का सबऑल्टर्न पाठ और हिंदी साहित्य में टीआरपी की व्यवस्था

-दिलीप मंडल

अच्छा होता अगर योगी आदित्यनाथ के हाथों उदयप्रकाश कोई सम्मान न लेते। लेकिन उतना ही अच्छा होता अगर तमाम प्रगतिशील पत्रिकाओं में बीजेपी और कांग्रेसी और वामपंथी सरकारों के विज्ञापन न छपते (क्या ये बताने की जरूरत है कि भारत में सरकारों का चरित्र क्या होता है)। और शायद उससे भी अच्छा होता कि उदयप्रकाश के आदित्यनाथ से सम्मान लेने के खिलाफ गोलबंदी दिखाने वाले साहित्यकारों ने लालगढ़ में आदिवासियों के संहार के खिलाफ या नंदीग्राम और सिंगुर में राजकीय हिंसा के खिलाफ “भी” ऐसा ही एक वक्तव्य जारी किया होता (मैं जानता हूं कि ये बेहद अश्लील और सांप्रदायिक फासीवादी किस्म की अलोकतांत्रिक मांग है)।

उदयप्रकाश के गलत काम की निंदा में सक्रिय होने वाले साहित्यकारों से ये पूछने का कोई औचित्य नहीं है कि उन्होंने अपने निजी जीवन में कितने ताल-तिकड़म किए हैं। इस लिस्ट में अच्छे-बुरे दोनों होंगे। समानता का बिंदु इनमें सिर्फ ये है कि वो एक मुद्दे पर सहमत हैं। वैसे, उदयप्रकाश या किसी की भी आलोचना के लिए आलोचना करने वाले को 24 कैरेट का होना पड़ेगा, इस तर्क से मैं सहमत नहीं हूं। ऐसी शर्त लगा दें कि पापी पर पहला पत्थर वो मारे, जिसने पाप ना किया हो तो फिर किसी बात की या किसी व्यक्ति की आलोचना ही संभव नहीं है। हम आमतौर पर एक दूसरे को कम या ज्यादा मिलावट के साथ ही स्वीकार कर सकते हैं।

ये पूछना भी बेमानी और बेवकूफी है कि उदयप्रकाश के खिलाफ हस्ताक्षर करने वालों में से कितनों ने कितने रिश्तेदारों और चेलों को कहां फिट कराया है, कितने पुरस्कार किनसे लिए और किनको दिलाए हैं। कितने को और क्यों सबसे प्रतिभाशाली करार दिया है और किसे किस तरह खारिज करने की कोशिश की है। पुस्तक समीक्षाओं और लाइब्रेरी में किताबें लगवाने आदि की अंतर्कथा जानने में भी अपनी दिलचस्पी नहीं है। न किसी से ये पूछने का कोई कारण है कि जिन लोगों को उन्होंने साहित्य में आगे बढ़ाया, उनमें से कितने स्वजातीय थे, कितने चेले थे। ये पूछना भी सरासर बेवकूफी है कि पिछले 10-15 साल में सबसे ज्यादा बिकने वाले दलित साहित्य के रचयिता हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकारों की श्रेणी में स्थान कब पाएंगे। ऐसे सारे सवाल बेमानी हैं।

ये अगर बीमारियां हैं तो ये हिंदी साहित्य का स्थायी भाव भी है। उदयप्रकाश प्रकरण से इसका कोई लेना-देना नहीं है। न ही मेरी दिलचस्पी इस गणना में है कि उदयप्रकाश के खिलाफ हस्ताक्षर करने वाले 60 परसेंट ब्राह्मण-कायस्थ हैं (ऐसी गिनती ब्लॉग पर किसी ने करने की कोशिश की है) या 90 परसेंट सवर्ण हैं। ऐसी गिनती उदयप्रकाश के चेले ही करें। हिंदू समाज की सत्ता संरचना अगर उसी रूप में हिंदी साहित्य में नजर आ रही है तो इस पर अचरज करने का कोई कारण नहीं है। इसके पीछे साजिश ढूंढने वालों को हिंदी और हिंदू समाज की रचना में इसके मूल ढूंढने चाहिए। हस्ताक्षर अभियान में महिलाओं की लगभग गैरमौजूदगी के आधार पर जैसे आप ये नहीं कह सकते कि उदयप्रकाश के खिलाफ पुरुष मिलकर साजिश कर रहे हैं वैसे ही ये नहीं कहा जा सकता कि उनके खिलाफ कोई खास जाति वाले षड्यंत्र कर रहे हैं। महिलाएं यहां भी लगभग गैरमौजूद इसलिए हैं क्योंकि हिंदी साहित्य में ही उनकी मौजूदगी कम है।

जैसे कि किसी जाति का होने से कोई जातिवादी नहीं हो जाता, वैसे ही ब्राह्मणवादी यानी वर्णवादी होने के लिए ब्राह्मण होना कतई जरूरी नहीं है। ठाकुर ही क्यों कई मझौली जातियां अपने उग्र जातिवादी तेवर से कई बार ब्राह्मणों के कान काटती हैं। दलितों का नरसंहार करने में मझौली जातियां सवर्ण जातियों से आगे रही हैं। और उदयप्रकाश जिस जाति के हैं वो तो इस खेल में बराबर की टक्कर देनेवाली जाति मानी जाती है। उपनिषद काल से ही हिंदी वर्णव्यवस्था की दो शीर्ष जातियों की लड़ाई चल रही है। बाकी देश में जब आधुनिकता और अंतर्जातीय विवाहों की आंधी में जाति खत्म हो चुकी होगी और इसकी शुरुआत हो चुकी है, तो भी मेरा अपना अंदाजा है (गलत हो तो खुशी होगी) हिंदी साहित्य के फॉसिल्स में वर्णवाद सबसे प्रभावी तत्व के रूप में मौजूद होगा।

बहरहाल मुद्दे की बात सिर्फ इतनी है कि उदयप्रकाश ने हममे से ज्यादातर की नजर में एक ऐसा काम किया जो हमें नागवार गुजरा है। इसलिए शायद हर लोकतांत्रिक व्यक्ति को इस पर एतराज होगा और इस नाते हमारी नाराजगी उन्हें झेलनी चाहिए। उदयप्रकाश को ये संदेह नहीं करना चाहिए कि अनिल यादव ने किसी जातिवादी साजिश के तहत अमर उजाला में छपे गोरखपुर के समारोह की कटिंग कबाड़खाना ब्लॉग में पेस्ट की थी। अनिल यादव किसी साजिश में शामिल हैं, ऐसा प्रमाण किसी ने अब तक पेश नहीं किया है।

लेकिन एक बात मुझे खटक रही है। उदयप्रकाश ने बेहद तेज नजर पाई है। उनके ऑब्जर्वेशंस के कायल लोगों की कमी नहीं है। जब वो आदित्यनाथ के हाथों सम्मानित हो रहे होंगे तो उन्हें अच्छी तरह मालूम होगा कि वो क्या कर रहे हैं। इतने भोले तो वो नहीं हैं कि इसके असर के बारे में उन्हें अंदाजा नहीं रहा होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि साहित्य में जिस ब्राह्मण-अब्राह्मण विभेद की वो चर्चा करते रहे हैं, उसी धुरी पर वो इस समय पूरे हिंदी साहित्य को नचाने की कोशिश कर रहे हैं। आदित्यनाथ के हाथों सम्मानित होते समय उदयप्रकाश के मन में ये बात रही होगी या नहीं ये कहना तो मुश्किल है लेकिन अब विवाद जहां आ पहुंचा है, वो एजेंडा उदयप्रकाश का ही ज्यादा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि जाने अनजाने में हम सब उस एजेंडे के पक्ष या विपक्ष में खड़े हो गए हैं जो उदयप्रकाश ने सेट किया है। वरना इससे पहले आखिरी बार इस बात की गणना कब हुई थी कि साहित्यकारों के किसी समूह में जाति विशेष के कितने लोग हैं।

ये विवाद ब्लॉग और नेट पर तो फास्ट फूड की तरह निबट जाएगा। लेकिन हिंदी के मंथर गति से रेंगते कई साहित्यकारों को अब अगले छह महीने या कई साल तक की जुगाली का माल मिल गया है। इस मामले में आखिरी अध्याय लिखा जाना अभी बाकी है।

यहां एक सवाल उठता है कि क्या हिंदी साहित्य को जातिवाद और ऐसे ही तमाम पोंगापंथी विचारों से मुक्त करने का कोई रास्ता है। क्या इसका एक रास्ता ये हो सकता है कि अंग्रेजी या दुनिया की कई और भाषाओं की तरह हिंदी में भी ये बात सार्वजनिक की जाए कि बेस्टसेलर कौन है? कम से कम तिमाही या छमाही आधार पर अगर प्रकाशकों से उनकी सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों की लिस्ट के आधार पर टॉप 20 या टॉप 100 जैसी कोई लिस्ट बनाई जाए तो शायद कई समस्याओं का समाधान हो जाएगा। दुनिया को ये पता चलेगा कि हिंदी में ज्यादा क्या बिक रहा है। पाठकों के लिए किताबें चुनना आसान हो जाएगी। इसके लिए फिक्शन और नॉन फिक्शन की कटेगरी बनाई जा सकती है। रॉयल्टी की चोरी भी इससे रुकेगी क्योंकि कोई भी प्रकाशक सिर्फ रॉयल्टी बचाने के लिए अपनी किताबों को कम बिकने वाली नहीं बताएगा। सिर्फ लाइब्रेरी में चंद सौ किताबें लगवाकर महान बनने वाले कई सेटिंगबाज साहित्यकारों की इस तरह पोल भी खुल जाएगा। प्रकाशकों की संस्था बेस्टसेलर की लिस्ट बनाने का जिम्मा अपने ऊपर ले सकती है। क्या हिंदी साहित्य और साहित्यकारों में है इतना दम?

औरत- एक वजूद!

- सीमा स्वधा


औरत
धीरे-धीरे उतरती है
मर्द की जिंदगी में
और शुमार हो जाती है
आदत की तरह.

कभी खौलती है
वजूद में/चाय की तरह
कभी बिखरती है/हर कश के साथ
धुयें की मानिंद.

बहती है कभी रंगों में
जिंदगी की सच्चाई बन
दहक-लाल-गर्म.

थरथराती है कभी/सांसों में
इच्छाओं की
ज्वार भाटा बन.

गोया
पत्नी वजूद नहीं
एक वस्तु हो/जिसे गढा हो
भले ही इश्वर ने
पर/इतना लचीलापन भी जरूरी है
कि मर्द ढाल सके
वक्त-बेवक्त/अपनी सुविधा
और कायदे के सांचे में.

Sunday, July 5, 2009

टाइम मशीन में लालगढ़ और एसपी सिंह

लालगढ़ ने मीडिया के सामने कुछ सवाल खड़े किए हैं। इस बारे में hoot में सेवंती नैनन ने लिखा है। पक्ष और पक्षपात की सवाल मीडिया को लेकर न पहली बार उठे हैं न आखिरी बार। हाल ही में हमने पत्रकार एसपी सिंह की 12वीं बरसी मनाई है। एसपी सिंह की स्मृति में दिल्ली में हुई एक सभा में पत्रकार रामबहादुर राय ने ये सवाल उठाया कि एसपी सिंह अगर आज जिंदा होते तो लालगढ़ को लेकर क्या उस धारा में वो बह रहे होते, जिस धारा में मीडिया बह रहा है। उनके मुताबिक एसपी सिंह इस समय लालगढ़ में संघर्ष कर रहे लोगों का अभिनंदन करते और उनके दमन में जुटी सरकार के विरोध में खड़े होते।

यहां हम एक ऐसे न्यूजरूम की कल्पना करते हैं जहां टाइम मशीन में डालकर लालगढ़ के संघर्ष और एसपी सिंह को एक साथ इकट्ठा कर दिया गया हो। इस घटना के पात्र वास्तविक हो सकते हैं, सिर्फ नाम बदल दिए हैं क्योंकि इससे पूरी बात पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।


जून 2009 के आखिरी हफ्ते का कोई दिन
स्थान-एक न्यूज चैनल का दफ्तर


"लालगढ़ में पुलिस के खिलाफ सभा कर रहे 10,000 लोगों को कल आतंकवादी किसने लिखा था?" एसपी की संयत लेकिन थोड़ी तीखी आवाज के साथ ही न्यूजरूम में सन्नाटा छा गया। सुबह साढ़े 9 बजे का समय था। कनॉट प्लेस में टीवी चैनल के एक दफ्तर में रात की शिफ्ट वाले जा रहे थे और अगली शिफ्ट वाले आ रहे थे। हर ओर हलचल मची थी। एसपी सिंह 3 दिन शहर से बाहर रहकर लौटे थे। ज्यादातर लोगों को तो पहली बार में समझ में ही नहीं आया कि लालगढ़ में पुलिस से लड़ रहे लोगों को आतंकवादी नहीं तो और क्या लिखा जाएगा। पूरा मीडिया तो लालगढ़ में जो हो रहा है उसे माओवादी आतंकवादी बनाम सुरक्षा बलों के संघर्ष के तौर पर देख रहा है। ऐसे में एसपी आखिर कहना क्या चाहते हैं।

"भाई ऐसा है कि 10,000 लोग अगर आतंकवादी हो गए हैं और 140 गांवों की पूरी जनता आतंकवादी हो गई है तब तो उन्हें गिरफ्तार करना होगा या मारना होगा", एसपी बोले, " आप सब लोग पत्रकार हैं और इस नाते समझदार भी, क्या ये संभव है।"

न्यूजरूम का सन्नाटा और गहरा हो गया क्योंकि बुलेटिन में आतंकवादी शब्द कई बार आया था और ये खबर कई हाथों से गुजरी थी, जिसमें सीनियर लोग भी शामिल थे। न्यूजरूम की सबसे युवा सदस्य सुनयना ने पूछा, "सर, आतंकवादी नहीं तो क्या लिखें? बंदूक तो उनके पास होती है। हमारे पास जो फुटेज आ रहे हैं उनमें आदिवासियों के हाथों में कुल्हाड़ी, लाठी और दो-चार बंदूकें भी दिखती हैं। उन्होंने लैंडमाइन ब्लास्ट भी तो किए हैं।"

"देखिए अगर हथियार होने से कोई आतंकवादी होता है तो देश में सबसे ज्यादा हथियार तो पुलिस और सेना के पास हैं। उनके काम करने का तरीका भी हिंसक ही होता है। आपकी परिभाषा से तो देश में आतंकवादियों का सबसे बड़ा गिरोह सेना और पुलिस हो गई। मेरे ख्याल से लालगढ़ में जो हो रहा है वो एक पॉपुलर आंदोलन हैं, जिसमें कुछ माओवादी भी घुसे हुए हैं। आप हद से हद इन्हें माओवादी या उग्रवादी या अतिवादी कहें। हिंसक तौर तरीके अपनाने वाले भगत सिंह को ब्रिटेन का इतिहास आतंकवादी कहता है और हम क्रांतिकारी कहते हैं। यानी भाषा के ऐसे सवाल इस बात से तय होते हैं कि आप किस पक्ष में खड़े हैं। मेरी राय है कि पत्रकारों में इस लड़ाई में जनता के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। देखिए आप जैसे ही अपना पक्ष तय करेंगे आपकी भाषा और आपके शब्दों का संस्कार तय हो जाएगा, " एसपी की बात अब कुछ लोगों को समझ में आने लगी थी।

लेकिन सुनयना के जेहन में अभी भी कई सवाल आ रहे थे। वो बोली, "सर, ये लोग सरकार को नहीं मानते, पुलिस को इलाके में घुसने नहीं देते, ऐसे लोगों को आतंकवादी और देशद्रोही क्यों नहीं माना जाए।

एसपी अब गहरी सोच में डूब गए। सुनयना को बाकी सीनियर्स समझाने में जूट गए। कई तरह के तर्क वितर्क होते रहे। अचानक एसपी बोले, सुनयना आपकी राय में लालगढ़ में हंगामा कब शुरू हुआ है। सुनयना के साथ ही कई और लोग बोले लगभग 15-20 दिनों से।

एसपी ने कहा, यही तो हमारे पेशे के लोगों की मुश्किल है। सब कुछ इंस्टेंट होता है आप लोगों के लिए। देखिए अगर पश्चिम बंगाल और देश की बड़ी खबरों पर आपकी नजर होगी तो आपको याद होगा कि पिछले साल नवंबर महीने में इसी इलाके में एक माइन ब्लास्ट हुआ था, जिसमें पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और उस समय के केंद्रीय स्टील मंत्री रामविलास पासवान बाल बाल बचे थे। वो इलाके में एक स्टील प्लांट के निर्माण का उद्घाटन करने जा रहे थे। इस प्लान्ट के लिए बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण होना है और पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगुर के अनुभव के बाद कोई भी किसान सरकार को निजी प्रोजेक्ट के लिए सरकारी कीमत पर जमीन बेचने के तैयार नहीं है। खैर आप सबने भी अपने ही चैनल पर खबर चलाई थी ब्लास्ट के बाद बड़े पैमाने पर लोगों की गिरफ्तारी हुई थी। इस घटना को जाने बगैर आप लालगढ़ के बारे में अगर लिखेंगे या बोलेंगे तो खबर के साथ और साथ ही उस इलाके की जनता के साथ अन्याय करेंगे। लालगढ़ माओवाद का नहीं जमीन अधिग्रहण और विरोध का मुद्दा है।

इस चर्चा के दौरान दिन की शिफ्ट के ज्यादातर लोग ऑफिस पहुंच चुके थे। कॉन्फ्रेंस रूम में न्यूजमीटिंग के लिए लोग जुटने लगे। चाय के साथ खबरें तय करने का सिलसिला शुरू हुआ...

...न्यूजरूम में लालगढ़ और एसपी सिंह

न्यूज मीटिंग में सभी ब्यूरो से आए आइडिया की लिस्ट और एएनआई और दूसरी समाचार एजेंसियों के दिन के एजेंडे की सूची बांट दी गई। चूंकि लालगढ़ से बेहद एक्साइटिंग विजुअल आ रहे थे। इसलिए ये सब समझ रहे थे कि ये खबर ही आज बिकेगी। लेकिन एसपी ने आतंकवाद और उग्रवाद के बीच फर्क को लेकर जिस तरह अपनी बातें रखीं थी, उससे साफ जाहिर था कि लालगढ़ अब वैसे कवर नहीं होगा, जिस तरह से उसे पिछले तीन-चार दिनों से कवर किया जा रहा था।

एसपी ने बांग्ला के एक अखबार में छपी एक फोटो लोगों को दिखाई। "देखिए ये चार फोटो हैं हमारी आज की सबसे बड़ी स्टोरी।" इसके साथ छपी खबर को पढ़ने के लिए उन्होंने अखबार छवि विश्वास की ओर बढ़ाया। छवि ने जो खबर पढ़ी उसके मुताबिक चूंकि सुरक्षा बलों के पास लैंडमाइन डिटेक्टर सिर्फ दो ही हैं, इसलिए वो आदिवासियों को लोहे की छड़े पकड़ा देते हैं और सुरक्षा बलों के आगे आगे चलने को मजबूर करते हैं। उन्हें कहा जाता है कि वो जमीन को बीच बीच में कोंचकर देखते रहें कि कोई बारूदी सुरंग तो नहीं है।

एसपी ने कहा मुझे कोलकाता से किसी ने बताया है कि वहां के लोकल चैनल के पास इसकी फुटेज है। चैनल के संपादक से मेरी बात हो गई है। कोलकाता की रिपोर्टर से कहिए कि वहां से फुटेज ले आए। इस फुटेज पर बांग्ला चैनल का एक्सक्लूसिव जरूर चलाएं। साथ ही एक रिपोर्टर को फुटेज के साथ मानवाधिकार आयोग भेजिए और वहां से रिएक्शन लाइए। बंगाल के मुख्यमंत्री या चीफ या होम सेक्रेटरी जहां भी मिले उन्हें पकड़िए और सवाल के जवाब में जो भी कहें या चुप रहें, उसे दिखाइए। कोई बात न करे तो रिपोर्टर को राइटर्स बिल्डिंग के बाहर खड़ा कीजिए और उसके रिएक्शन लेने के प्रयासों के बारे में पीटीसी करवाइए। मानवाधिकार आयोग और मुख्यमंत्री कार्यालय में अगले एक घंटे में फैक्स भेजकर रिएक्शन मांगिए।

पिछले तीन दिनों से होम मिनिस्ट्री से आ रहे बयानों और बाइट के आधार पर लालगढ़ की रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर प्रकाश चंद्रा को समझ में आ रहा था कि अब उसके आराम के दिन गए। एसपी ने प्रकाश की ओर मुड़कर कहा, "मंत्री और सेक्रेटरी तो बहुत बयान दे रहे हैं। इस बारे में उनसे सवाल पूछिए। जो भी वो कहते हैं उसे स्टोरी के हिस्से के तौर पर डालिए। सरकार असहज सवाल पूछने वालों को ही पूछती है। इसलिए जरा डटकर पूछिए। भरोसा रखिए आपका सोर्स खराब नहीं होगा"

एसपी ने एसाइनमेंट हेड नवीन कुमार से पूछा-लालगढ़ कौन कवर कर रहा है। जवाब मिला कोलकाता की रिपोर्टर श्रुति वहां गई है। वो सुरक्षा बलों के साथ लगातार लगी हुई है और हर पल की खबर चैनल को मिल रही है। इस मामले में हमारा चैनल किसी भी चैनल से पीछे नहीं है।

एसपी ने कहा- अगर सभी चैनलों के रिपोर्टर सुरक्षा बलों के साथ लगे हैं और सारी सूचनाएं सुरक्षा बलों से ही मिल रही है तो कोई भी चैनल पीछे कैसे हो सकता है। लेकिन मुश्किल ये है कि कोई भी चैनल आगे भी नहीं हो सकता। वहां हमारे कम से कम तीन रिपोर्टर और कैमरा टीम होनी चाहिए। एक श्रुति को सुरक्षा बलों से साथ रहने दीजिए। पटना से आशीष और दिल्ली से छवि विश्वास को लालगढ़ भेजिए। दोनों को बांग्ला आती है। ये दोनो रिपोर्टर गांववालों के साथ रहकर उनके नजरिए को सामने लाएंगे। इस तरह हम न सिर्फ बैलेंस रिपोर्टिंग कर रहे होंगे बल्कि बाकी चैनलों को जब तक ये बात समझ में आएगी तब तक हम लीड ले चुके होंगे। हमारे पास अलग तरह के फुटेज होंगे अलग तरह की साउंड बाइट होगी।

एसपी सिंह इस पूरी बातचीत के दौरान बांग्ला और कोलकाता से छपने वाले बाकी अखबारों को पढ़ते भी जा रहे थे। उन्होंने कहा- ये जो खबर इस बांग्ला अखबार में छपी है, इसे देखिए। गांव वाले सुरक्षा बलों को खाने पीने का सामान नहीं बेच रहे हैं। सुरक्षा बलों को उनके साथ जबर्दस्ती करनी पड़ रही है। ये स्टोरी बताती है कि लोगों को सुरक्षा बलों को लेकर कितनी नाराजगी है और दिल्ली के अखबारों में जो छप रहा है कि गांव वालों ने सुरक्षा बलों का स्वागत किया, उसकी हकीकत क्या है।

इसके बाद एसपी डेस्क के लोगों की ओर मुड़े और कहा- देखिए लालगढ़ को पूरे कॉन्टेस्ट में देखिए। ये सिर्फ कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है। जमीन अधिग्रहण को लेकर देश भर में जो गुस्सा है, उसके हिस्से के तौर पर भी लालगढ़ को देखा जाना चाहिए। आप लोग कोलकाता के अखबारों को जरूर देखें। उससे आपको ज्यादा पक्षों को समझने में आसानी होगी। दिल्ली में बैठकर आपको ये कैसे अंदाजा लग पाएगा कि वहां के ज्यादातर स्कूलों में फौज भरी है। जीवन अस्तव्यस्त है। वहां लगभग युद्ध जैसे हालात हैं। अपने ही देश की सबसे गरीब जनता के विरुद्ध युद्ध। मैं निजी तौर पर हिंसा के खिलाफ हूं। लेकिन हर तरह की हिंसा का। सरकारी हिंसा का समर्थन मैं नहीं कर सकता। किसान की जमीन मनमानी कीमत पर लेकर उसे उद्योगपतियों को जबरन सौंप देना हिंसा है। दुनिया भर में उद्योगपति खुद जमीन खरीदते हैं। जबरन जमीन ले लेने का ये कानून अंग्रेजों के समय बना। लेकिन आजाद भारत की सरकारें इसका इस्तेमाल करती रहती हैं। ये कानून जनता और किसानों के खिलाफ हिंसा है। हिंसा का विरोध करना है तो इस सरकारी हिंसा का भी विरोध करना चाहिए। ये आश्चर्यजनक है कि सरकार की बंदूकें ऐसे मामलों में हमेशा किसानों के खिलाफ ही चलती हैं। यूरोप या अमेरिका जैसे विकसित लोकतंत्र में इसकी कल्पना आप नहीं कर सकते। ये हमारे जैसे अविकसित देशों में ही हो सकता है।

इस बातचीत को बहुत देर से खामोशी से सुन रहा अभिषेक थोड़ा बेचैन दिख रहा था। अभिषेक ने कहा, "लेकिन सर, माओवादियों को सरकार बैन कर चुकी है। बाजार की ताकतें उनके खिलाफ हैं ही। ऐसे में क्या आपको लगता है कि हमारे जैसा मीडिया इस मुद्दे पर जनता के पक्ष में स्टैंड ले सकता है।"

एसपी के माथे पर चिंता की लकीरें नजर आने लगीं। वो चुप रहे। ऐसा लगा कि वो इस सवाल का जवाब नहीं देना चाहते। वो धीरे से बोले, "अभिषेक दरअसल आप वो सवाल उठा रहे हैं जो मैं अपने आप से अक्सर पूछता हूं। देखिए आप यहां इतने महीनों से काम कर रहे हैं। चैनल के जनता के या कमजोरों के पक्ष में खड़े होने से आपको शायद ही कभी रोका गया होगा। लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि जिसने इस चैनल के चलाने के लिए पैसे खर्च किए हैं वो धर्मार्थ चैनल नहीं चला रहा है। उसे अपने निवेश पर मुनाफा चाहिए। हमें उसने काम पर इसलिए रखा है कि हम उसके लिए मुनाफा कमाएं। इसके लिए जरूरी है कि ढेर सारे लोग हमारा चैनल देखें। अगर आप जनपक्षीय होकर भी दर्शक जुटा पा रहे हैं तो शायद ही आपको कभी टोका जाएगा। बिजनेसमैन की पहली और आखिरी प्राथमिकता पैसे कमाना है। इस गणित को हमें समझना होगा। बिजनेस मैन के पैसे से चल रहे चैनल को हम माओवादियों का मुखपत्र या लघुपत्रिका बनाना चाहेंगे तो वो ऐसा नहीं करने देगा। वो इस चैनल को सरकार का भोंपू भी नहीं बनने देगा अगर ऐसा करने पर दर्शक हमें छोड़ जाएं। इस समय की असली चुनौती है कि कैसे जनपक्षीय होते हुए भी पॉपुलर बने रहा जाए। ये काम कठिन है। लेकिन मुमकिन है। गणेश जी को दूध पिलाने वाली घटना को अंधविश्वास के तौर पर दिखाकर भी दर्शक जुटाए जा सकते थे और अंधविश्वास का खंडन करके भी। हमने मोची के औजार को दूध पिलाकर अंधविश्वास का खंडन किया और पॉपुलर भी बने रहे। ये पत्रकारों के सामने मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है।

अभिषेक बीच में ही बोल पड़ा, " लेकिन सर, अगर हमारी रिपोर्टिंग ज्यादा ही जनपक्षीय हो गई तो क्या सरकार और देश के सत्ता इसकी इजाजत देगी। एसपी अब और परेशान नजर आ रहे थे। उन्होंने कहा- "मैं जानता हूं कि इसकी इजाजत संस्थागत मीडिया में नहीं है। मैं संस्थानों के अंदर लोकतांत्रिक और जनपक्षीय स्पेस के लिए गुरिल्ला लड़ाई लड़ रहा हूं। लेकिन ये भी सच है कि महीने के आखिर में मिलने वाली तनख्वाह और संस्थान में होने से आने वाला रुतबा और दबदबा भी शायद मुझे प्रिय है। ये मेरे अंदर का अंतर्विरोध है। कभी कभी मन करता है कि सब छोड़कर चल दूं और अपने मन का काम करूं। लेकिन जो कुछ भी हासिल हो रहा है वो मुझे पीछे खींचता है। इसलिए कई बार मैं समझौते करता हूं। कई बार नहीं करता। कई बार जनता के लिए लड़ रहे संगठनों को पैसे देकर अपना अपराधबोध मिटाता हूं। लेकिन आखिरकार मैं इसी व्यवस्था के अंदर का एक पत्रकार हूं। अपना सच और अपनी सीमाएं मैं जानता हूं। अपनी सीमाएं मैं बढ़ाने की कोशिश में लगा रहता हूं। लेकिन एक लिमिट है, जिसे मैं पार नहीं करता। मुझे कृपया आप लोग इस कमजोरी या सीमा के साथ ही स्वीकार करें।

सुबह की चमक अब एसपी के चेहरे से पूरी तरह गायब हो गई थी। वो थके हुए दिख रहे थे। न्यूजरूम में अब अफरातफरी शुरू हो चुकी थी। इस भाषणबाजी के चक्कर में लगभग डेढ़ घंटे "खराब" हो चुके थे।
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