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Sunday, October 7, 2007

नादानों के लिए नही होता लोकतंत्र

पुनीत

शीर्ष अदालत के बंद संबन्धी हालिया निर्देश के बाद एक बार फिर यह बात जोर देकर कही जाने लगी है कि बंद का समर्थन करने वाले स्वार्थी और विकास विरोधी हैं. इनकी बातों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए. बंद और हड़ताल आज की तारीख मे बेकार ही नही हानिकारक साबित हो चुके हैं. जापान का उदाहरण सामने है. वहाँ हड़ताल नही होती. जब विरोध करना होता है तो कर्मचारी काली पट्टी लगा कर काम करते हैं. आखिर हड़ताल के दौरान जो राष्ट्रीय क्षति होती है उसका क्या?

वैसे तो पहला सवाल यही किया जा सकता है कि जिस देश मे किसानो की आत्महत्याएँ कृषि नीति मे कोई बदलाव न ला पा रही हो उस देश मे काली पट्टी भला क्या कर लेगी, लेकिन ऐसे निरर्थक तर्कों मे उलझने का कोई मतलब नही. ऐसे तर्क देने वालों की मंशा को समझना ज्यादा जरूरी है.

ध्यान देंगे तो साफ होते देर नही लगेगी कि ऐसे तमाम लोग वही हैं जो अच्छे संस्थानों मे ऊंचे पदों पर बैठे हैं. इन तर्को के जरिये वे असल मे अपने आकाओं को यह संदेश देना चाहते है कि वे उनके हितों की रक्षा मे पूरी मुस्तैदी से तैनात हैं. मूलतः यह तर्क सेलेक्ट समूह (यानी वह समूह जो मुनाफा कमाने के लिए दूसरों का श्रम खरीदता है) का है जिसे रेजेक्ट समूह (यानी वह समूह जो अपनी आजीविका के लिए श्रम बेचता है) पर लादने का काम ये लोग करते हैं जो तकनीकी रूप से तो रेजेक्ट समूह के होते हैं लेकिन मन, मस्तिष्क और विचारों से खुद को सेलेक्ट का हिस्सा मानते हैं. ऐसे लोगों की असलियत को पहचानना आज की सबसे बड़ी जरूरत है.

अगर रेजेक्ट और सेलेक्ट समूहों की बात छोड कर लोकतंत्र की बात की जाये तब भी यह सवाल तो सामने आता ही है कि बंद या हड़ताल से जनता को परेशानी होने की बात का क्या मतलब है? बंद, हड़ताल आदि का आह्वान करने वाले या उसमे शिरकत करने वाले लोग क्या मंगल ग्रह के प्राणी होते हैं? वे भी तो इसी जनता का हिस्सा होते हैं. अगर स्कूल शिक्षक हड़ताल करें तो बैंक कर्मी, आटो चालक, विद्युत कर्मी आदि तमाम लोग परेशान होने वाली जनता होते हैं. जब बैंक वाले हड़ताल पर हो तो स्कूल शिक्षक जनता का हिस्सा हो जाते हैं. ऐसे मे इन तबकों को साझा मांगें तैयार कर सामूहिक रूप से आन्दोलन मे उतरने की बात सोचनी चाहिए. यह आज की जरूरत भी है.

लेकिन जब तक ऐसा नही होता तब तक जनता के विभिन्न हिस्सों को आपस मे लडाने वालो का मकसद क्या होगा यह समझने मे भी हमे देर नही करनी चाहिए.

निश्चित रूप से हमे लोकतंत्र और अदालतों का सम्मान करना चाहिए. लेकिन अदालत के नाम पर कोई अपना एजेंडा हम पर लादने की कोशिश करे और हम उस कोशिश को सफल हो जाने दें इतना नादान होना भी अच्छा नहीं.

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