Custom Search

Tuesday, December 4, 2007

'दुबेजी की लैट्रिन' से 'नच ले' के मोची तक

प्रणव प्रियदर्शी

क्या सचमुच यह सिर्फ संयोग है कि 'आजा नच ले' विवाद पर शुरूआती चुप्पी के बाद जब सफ़ाई देना जरूरी लगा तो गीतकार पीयूष मिश्र ही नहीं, सेंसर बोर्ड की चेयर परसन शर्मिला टैगोर तक ने यही स्पष्टीकरण दिया कि मोची और सोनार से मतलब जाति नही पेशा था? हम इस बहस मे नही जायेंगे कि फिल्म के निर्देशक अनिल मेहता और गीतकार पीयूष मिश्र से शर्मिला टैगोर की भी मिलीभगत है या नही और सबका स्पष्टीकरण एक जैसा क्यों और कैसे है? एक जैसा स्पष्टीकरण संयोग हो सकता है. अंगरेजी मे ऐसे संयोगों को महान मस्तिष्क और मूढ़ मगज दोनों से जोड़ने वाली कहावतें मौजूद हैं. इसीलिए सुधी पाठक अपनी सोच और सुविधा के मुताबिक मनपसंद कहावत खुद चुन सकते हैं.
यहाँ विचारणीय बिंदु यह है कि आखिर सभी सम्बद्ध पक्षों को बचाव का रास्ता यही क्यों लगा कि 'हमने जाति का नही पेशे का जिक्र किया था?'
गीत की पंक्ति ' ये मोहल्ले मे कैसी मारामार है, समझे मोची भी खुद को सोनार है' अपने आप मे यह स्पष्ट नही करती कि इसे पेशे के अर्थ मे लिया जाना है. विभिन्न क्षेत्रों से जो आपत्तियां आयीं वे इन्हें जातिवादी अभिव्यक्ति मान कर ही की गयीं. पिछले सौ-पचास वर्षों मे देश मे खास कर पिछड़ी जातियों मे जो जातीय चेतना फ़ैली है उसका एक अच्छा असर तो यह है ही कि अमूमन अब ऐसी सार्वजनिक टिप्पणियाँ कर आप बगैर जवाबी वार झेले नही निकल सकते. हालांकि अनेक ऐसे मौके आते हैं जब ऐसी अपमानजनक टिप्पणियाँ 'जान बूझ कर' नही की गई होती हैं. वे 'सहज विचार प्रक्रिया' का परिणाम होती हैं.
ऐसे ही सहज पूर्वाग्रह युक्त एक कलम से निकली ये पंक्तियाँ एक के बाद एक तमाम बाधाओं को सहज ही पार करती चली गयीं. अब इसका क्या किया जाये कि यह कलम एक मिश्र की थी तो उसे देखने वाली निर्देशकीय नज़र एक मेहता की. इन सब के ऊपर सेंसर बोर्ड के शिखर पर बैठा व्यक्तित्व तो दो-दो धर्मों की सवर्ण परम्परा से युक्त था. ऐसे मे इन पंक्तियों पर दलितों की प्रतिक्रिया का पूर्वाभास इन्हें न हो पाना 'सहज' ही कहलायेगा.
मगर, इस 'सहज स्वाभाविक' स्थिति पर दलितों ने ऐसी कड़ी प्रतिक्रिया दी जिसे सहजता से स्वीकार करना मुश्किल था. आखिर फिल्म पर प्रतिबन्ध लग जाये तो किसी भी बात का क्या फायदा? सारी बातों की अन्तिम सार्थकता तो इसी मे थी कि फिल्म हिट हो जाये! सो अविलम्ब माफ़ी मांगने की मुहिम शुरू हो गई. जल्दबाजी मे क्या तर्क लाया जाये? यही सूझा कि जाति नहीं पेशे की बात की गयी थी.
आखिर समता मूलक दृष्टि से तो कुछ लेना-देना है नही! फिर यह कैसे सूझे कि जाति के आधार पर कहें या वर्ग यानी पेशे के आधार पर - भेदभाव इंसान को छोटा करते हैं. मकसद तो फिल्म को विवादों के भंवर से सुरक्षित निकालना भर था. वह मकसद पूरा हुआ क्योंकि देश मे जातीय चेतना तो फिर भी थोडी-बहुत विकसित हुयी है, वर्गीय चेतना आरंभिक अवस्था मे ही है. ज्यादा सटीकता से बात करें तो सेलेक्ट समूह (यानी वे जो अधिकतम संभव लाभ प्राप्त करने के लिए दूसरों का श्रम खरीदते हैं) मे चेतना की कमी भले न हो रिजेक्ट समूह (यानी वे जो अपनी आजीविका के लिए अपना श्रम बेचने को मजबूर होते हैं) मे इस चेतना का घोर अभाव है.
गौर करने की बात है कि मोहल्ला और रिजेक्ट माल पर भी जो बहस आजकल जोरदार ढंग से चल रही है (संदर्भ : दुबे जी लैट्रिन साफ कर दीजिये) उसमे जातीय चेतना के धूमिल पड़ने की बात तो रेखांकित हो रही है, लेकिन वर्गीय चेतना का उल्लेख भी नहीं. क्या यह भी कोई संकेत है?

5 comments:

Unknown said...

माफी मांगने की जल्दबाजी स्पष्ट है.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

पहली तो बात यह कि जाति व्यवस्था अपने मूल रूप में वर्ण व्यवस्था का रूढ़ रूप है और वर्ण व्यवस्था पेशे पर ही आधारित थी. जहाँ तक सवाल मोची जाति का है मेरी जानकारी के अनुसार इसे एक जाती विशेष से जोड़ कर जरूर देखा जाता है पर वह है एक पेशा ही. मेरी जानकारी के मुताबिक मोची कोई जाति नहीं है.
लेकिन असली बात किसी के जाति या धर्म होने या न होने को लेकर नहीं है. असल में जो सवाल उठाया जाना चाहिए वह तो उठा ही नहीं. सवाल यह है कि अगर यह पेशे को लेकर ही कहा गया है तो क्या मोची का पेशा सुनार से कहीं कमतर है? व्हाईट कालर पेशों को लेकर यह जो नए किस्म का ब्राह्मणवाद खडा हो रहा है, इस बरे में आप क्या सोचते हैं? क्या आपको लगता है कि अखबार निकलने में मशीनमैन की भूमिका संपादक से कहीं कम है? या कि देश की व्यवस्था बनाए रखने में सफाई कर्मी की भूमिका प्रधानमंत्री से कहीं कम है?

pranava priyadarshee said...

धन्यवाद इष्टदेवजी. आपने ठीक कहा. मूल सवाल यही है. मुझे लगता है कि मोची या मशीनमैन की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी प्रधान मंत्री या संपादक की. मुझे यकीन है कि आपको भी ऐसा ही लगता है. लेकिन मेरे या आपके लगने से क्या होता है? मूल बात यह है कि यह पूरी व्यवस्था लोगों की ज़रूरत के आधार पर नही बल्कि पैसे के आधार पर चल रही है. बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलने की बात हो या बूढे माँ-बाप के अच्छे इलाज की - सब पैसे पर निर्भर करता है. और आप संपादक के पचास हजार प्रति माह वेतन के मुकाबले मशीनमैन को आठ-दस हजार पर निपटाते रहें तो दोनों काम को समान महत्व समाज मे कैसे मिलेगा? संपादक के बच्चे अच्छे स्कूलों मे पढें, महंगी कार मे घूमें, अच्छे कपडे पहन इतराएँ, उनके बीमार होने पर बडे से बड़ा डॉक्टर घर आ जाये और मशीन मैन के बच्चे जैसे-तैसे पलें. इसके बावजूद अगर हम दोनों के काम को समान घोषित करें या यह कहें कि हम दोनों मे कोई अंतर नही मानते तो क्या इसका कुछ अर्थ है? क्या यह वैसी ही घोषणा नही होगी जैसी कि किताबों मे होती है कि कानून के सामने सभी समान हैं?

pranava priyadarshee said...
This comment has been removed by the author.
Anonymous said...

"सारी बातों की अन्तिम सार्थकता तो इसी मे थी कि फिल्म हिट हो जाये! सो अविलम्ब माफ़ी मांगने की मुहिम शुरू हो गई"...
भई जिसने फिल्म में पैसा लगाया है, वो तो विवाद से बाहर निकलने की हर संभव कोशिश् करेगा, लेकिन जब २ महीने से गाना सब और बज रहा था, तब क्यों आपत्ति नही की गई। जिस दिन फिल्म रिलीज हुई उसी दिन ऐसी आपत्ति क्यों?

Custom Search