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Monday, May 18, 2009

आर्थिक मंदी : आख़िर रास्ता किधर है


कुलदीप नाथ शुक्ला
(जब भी मौजूदा हालात की गंभीरता का सवाल शिद्दत से उठता है तो पहला सवाल यह सामने आता है कि इसका हल क्या है। सवाल लाजिमी है, लेकिन अक्सर यह इस तत्परता से और इस अंदाज़ में किया जाता है कि हालात की गंभीरता का मुद्दा उठाने वाला ही ख़ुद को कटघरे में महसूस करने लगता है। इलाज नही मालूम था तो सवाल क्यों उठाया? बहरहाल, हालात की गंभीरता को महसूस करते हुए और यह समझते हुए कि इसका कोई एक सर्वमान्य हल या नुस्खा रातो-रात नही निकाला जा सकता, हम शुक्लाजी के लेख की अगली कड़ी यहाँ पेश कर रहे हैं जिसमे उनहोंने हल के संभावित विकल्पों पर विचार किया है। )



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करीब दो दशक पहले जब सोविएत संघ का पतन हुआ था तब सोविएत मोडल की विफलता का शोर पूरी दुनिया में मचाया गया था। गौर करने की बात है कि सोविएत संघ का विघटन न तो वहाँ की जनता के आतंरिक विद्रोह का नतीजा था और न ही बाहरी हमले का। यह उस मोडल की आतंरिक विसंगति की स्वाभाविक गति का परिणाम था। घोषित पूंजीवादियों ने उसे समाजवाद के पतन का नाम देते हुए समाजवाद को अप्रासंगिक करार दिया। शीत युद्ध की समाप्ति की घोषणा के साथ ही अमेरिका के नेतृत्व में एक ध्रुवीय विश्व की परिकल्पना पेश की गयी और पूंजीवादी व्यवस्था को एकमात्र प्रासंगिक और शाश्वत व्यवस्था के जामे में प्रस्तुत किया जाने लगा।




इस प्रकरण से सभी पाठक अच्छी तरह परिचित हैं। यहाँ इस सम्बन्ध में सिर्फ़ इतना ही बताना काफ़ी होगा कि सोविएत संघ का स्वघोषित पतन एवं विघटन समाजवाद का नही बल्कि राजकीय एकाधिकार पूँजीवाद का पतन एवं विघटन था। इस बारे में वैज्ञानिक समाजवाद की सामान्य जानकारी रखने वाले लोगों को भी कोई संदेह न था और न है।

तो सोविएत संघ के इस स्वघोषित पतन के साथ पूँजीवाद का एक महत्वपूर्ण मोडल - राजकीय एकाधिकारी पूँजीवाद का मोडल ध्वस्त हो गया। उसे यानी सोविएत संघ को राजकीय एकाधिकार पूंजीवाद से निजी एकाधिकार पूँजीवाद की तरफ़ संक्रमण करना पड़ा।

आज आप सब देख रहे हैं कि पूंजीवाद का स्वर्ग कहे जाने वाले अमेरिका में उसका क्लासिकल मोडल - निजी एकाधिकारी पूंजीवाद का मोडल - अपनी आतंरिक विसंगतियों के चलते अमेरिका में तो ध्वस्त हो ही रहा है पूरी पूंजीवादी दुनिया को ही हिला कर रख दे रहा है। मंदी से उबरने के असफल प्रयास में दुनिया कीसभी सरकारें सरकारी खजाना खोले दे रही हैं। जिन बड़ी कंपनियों का दिवाला पिट चुका है उन्हें राजकीय मालिकाने में लिया जा रहा है। दीवालियेपन की कगार पर खड़ी कंपनियों को सरकारी आर्थिक पॅकेज के जरिये बचाने के साथ-साथ उनमे राजकीय हिस्सेदारी बढ़ाईजा रही है। संक्षेप में बात यह कि निजी एकाधिकार पूँजीवाद की इस ढहती दीवार को सरकारी सहयोग एवं संरक्षण की जरूरत पड़ गयी है। दूसरे शब्दों में निजी एकाधिकारी पूंजीवादी मोडल स्वतः राजकीय एकाधिकारी मोडल की तरफ़ संक्रमित होने को मजबूर हो रहा है।

भारत जैसे मिश्रित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वाले मोडल की जड़ें भी बुरी तरह हिल चुकी हैं। यह कछुआ अपनी गर्दन अपनी खोल में समेटने को विवश हो रहा है। यहाँ इस बात पर ध्यान अवश्य दिया जाना चाहिए कि दूसरे विश्व युद्ध में विजयी तथा पराजित दोनों तरह की साम्राज्यवादी शक्तियां इस महामंदी से सर्वाधिक प्रभावित हुयी हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद स्वाधीन हुए नवोदित साम्राज्यवादी देशों पर इस मंदी का असर अभी अपेक्षाकृत कम मालूम पड़ रहा है। इसका प्रमुख कारण इनके अर्थतंत्र की तथाकथित मजबूती में नही बल्कि इसका सारा बोझ इन देशों की आम मेहनतकश जनता के कन्धों पर डाल देने की सरकारी साजिश में निहित है। मगर इस लगातार बढ़ते बोझ से दबते मेहनतकश अवाम में भी अब इस संकट का सारा बोझ बर्दाश्त करने क्षमता नही रह गयी है। उसके अन्दर बेचैनी बढ़ती जा रही है जिसका विस्फोटक स्वरुप कभी भी सामने आ सकता है।

तथ्यों की गवाही से स्पष्ट है कि पूँजीवाद का प्रत्येक मोडल - राजकीय एकाधिकार वाला मोडल, निजी एकाधिकार वाला मोडल और मिश्रित एकाधिकार वाला मोडल - बुरी तरह असफल साबित हो चुका है। पूंजीवाद के अन्दर संकटों का निदान संकट का बोझ शोषित-पीड़ित-मेहनतकश जनता के कन्धों पर डालते जाने में ही निहित है। प्रतिद्वंदी साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा एक दूसरे को नष्ट कर के स्वयं को संकट से निकलने का जो प्रयास करती हैं और उसकी वजह से जो विनाशकारी युद्ध होते हैं उनका खामियाजा भी आम जनता को ही भुगतना पड़ता है।

बहरहाल, जब पूँजीवाद के सारे मोडल असफल साबित हो चुके हों तब अगर संकट का हल उसी दायरे में खोजने की बाध्यता कोई अपने ऊपर लादे रहे तो उसका कूछ नही किया जा सकता। अगर इस सीमित दायरे से बाहर निकल कर देखें और समाजवाद से जुड़े पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर खुले दिलो-दिमाग से विचार कर सकें तो ऐसे संकटों से सर्वथा मुक्त समाज का लक्ष्य देख पाना मुश्किल नही है। जहाँ तक उस लक्ष्य की ओर बढ़ने का सवाल है है तो यहाँ मै लेनिन के इन शब्दों को याद दिलाना काफ़ी समझता हूँ कि 'अवसरवाद के ख़िलाफ़ निर्मम संघर्ष के बिना साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष असंभव है।'

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