Custom Search

Tuesday, November 17, 2009

रिजर्वेशन: उम्र में छूट किसे चाहिए?


दिलीप मंडल

(ये लेख नवभारत टाइम्स के संपादकीय पन्ने पर मुख्य लेख के रूप में छप चुका है। आप भी देखिए।)
यूपीएससी और कई और सरकारी संस्थान तथा एजेंसियां नौकरियों में खास समुदायों को उम्र में छूट देती है। ऐसी ही छूट एंट्रेंस और कंपिटिटिव एक्जाम के लिए अटैंप्ट में भी मिलती है। यूपीएससी के सिविल सर्विस एक्जाम में दलित और आदिवासी कैंडिडेट को अपर एज लिमिट में पांच साल की और ओबीसी कैंडिडेट्स को तीन साल की छूट मिलती है। जबकि जनरल कटेगरी का कैंडिटेट 30 साल की उम्र पूरी करने के बाद ये परीक्षा नहीं दे सकता। दलित और आदिवासी कैंडिडेट के लिए सिविल सर्विस एक्जाम में अटैंप्ट्स की कोई सीमा नहीं है जबकि ओबीसी के कैंडिडेट सात बार इस परीक्षा में बैठ सकते हैं। वहीं जनरल कटेगरी के कैंडिडेट चार बार ही ये परीक्षा दे सकते हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में इस बात पर सवाल उठाया गया है कि दलित, आदिवासी और ओबीसी कैंडिटेट्स को यूपीएससी सिविल सर्विस एक्जाम के लिए ज्यादा अटैंप्ट की इजाजत क्यों दी जाती है। अब सुप्रीम कोर्ट ने यूपीएससी से पूछा है कि ओबीसी कैंडिडेट को सात बार ये परीक्षा देने की इजाजत क्यों मिलनी चाहिए। दरअसल हाई कोर्ट ने इस पिटिशन को ये कहकर खारिज कर दिया था कि पिछड़े वर्गों को ज्यादा अटैंप्ट्स के लिए मौका देना गलत नहीं है क्योंकि संविधान की धारा 16(4) का मकसद ही ये है कि अवसर की समानता सुनिश्चित की जाए और सामाजिक कारणों से जो समुदाय पीछे रह गए हैं उन्होंने सरकारी नौकरियों में पर्याप्त मौके दिए जाएं।
पहली नजर में तो ये व्यवस्था दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ों वर्गों के हित में दिखती है कि उन्हें ज्यादा बार परीक्षा देने के मौके मिलते हैं, ज्यादा उम्र होने तक मौके मिलते रहते हैं। इस मामले में भारतीय राज्य व्यवस्था उनके प्रति उदारता बरतती दिखती है। लेकिन क्या सचमुच ये व्यवस्था उन समुदायों के हित में है? दरअसल इस व्यवस्था का नतीजा क्या होता है? क्या उम्र और अटैंप्ट में छूट से वंचित समुदायों का वाकई भला हो रहा है? और अगर ऐसी कोई छूट न दी जाए तो क्या वंचित समुदायों का नुकसान हो जाएगा?
सबसे पहले अगर आखिरी सवाल पर विचार करें तो इस छूट के न होने पर भी इन समुदायों से चुनकर आने वाले कैंडिडेट्स की कुल संख्या पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मिसाल के तौर पर इस साल सिविल सर्विस एक्जाम के बाद अगर 580 कैंडिडेट का सलेक्शन होना है तो संवैधानिक प्रावधानों के हिसाब से ये तय है कि इनमें से कितने कैंडिडेट दलित, आदिवासी या ओबीसी कटेगरी के होंगे। इस संख्या पर इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कितने कैंडिडेट ने किस उम्र में ये एक्जाम दिया है या फिर उनका ये कौन सा अटैंप्ट था। दलित, आदिवासी या ओबीसी कटेगरी में टैलेंट पूल अब उतना बड़ा है कि हर साल हजारों कैंडिडेट इस परीक्षा को पास कर सकते हैं। लेकिन सीट सीमित होने के कारण उनमें से जिनका परफॉर्मेंस बेहतर है, उनका सलेक्शन होता है। यानी अगर इन समुदायों के कैंडिडेट्स को उम्र या अटेंप्ट में कोई छूट न मिले तो भी सिविल सर्विस में इनकी संख्या पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
लेकिन उम्र और अटैंप्ट में छूट से एक फर्क पड़ता है। वो फर्क ये है कि इन समुदाय के अफसर अगर सर्विस को बड़ी उम्र में ज्वाइन करते हैं तो उनके लिए ब्यूरोक्रेसी के टॉप पदों पर पहुंच पाना असंभव है। भारत सरकार में रिटायरमेंट की उम्र 60 साल है और इस मामले में दलित, आदिवासी, ओबीसी या जनरल कटेगरी में कोई फर्क नहीं किया गया है। यानी अलग अलग उम्र में सर्विस ज्वाइन करने वाले अफसर एक ही उम्र में रिटायर होंगे। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि अगर कोई दलित अफसर 35 साल की उम्र में सर्विस ज्वाइन करता है तो उसके पास नौकरी करने के लिए सिर्फ 25 साल होंगे। जबकि जनरल कटेगरी के कैंडिडेट के पास नौकरी के कम से कम 30 साल होंगे क्योंकि वो 30 साल की उम्र के बाद यूपीएससी सिविल सर्विस की परीक्षा नहीं दे सकता।
नौकरशाही में आखिर के पांच साल की सिनियॉरिटी बेहद महत्वपूर्ण होती है क्योंकि कैबिनेट सचिव से लेकर मंत्रालयों के सचिव और राज्यों के प्रमुख सचिव जैसे सबसे बड़े पदों पर एक एक साल की सिनियॉरिटी से फर्क पड़ जाता है। सही उम्र में सिविल सर्विस ज्वाइन करना टॉप पर पहुंचने के लिए बेहद जरूरी है और उम्र में मिलने वाली छूट चाहे पहली नजर में लुभावनी नजर आए, लेकिन इसका कुल असर ये होता है कि ब्यूरोक्रेसी के शिखर पर वंचित समुदायों के लोगों की उपस्थिति कम होती है।
क्या ये किसी साजिश का हिस्सा है? इसका कोई प्रमाण नहीं है। हालांकि ये भी सच है कि आंबेडकर से लेकर किसी भी दलित चिंतक ने नौकरियों में उम्र की छूट मांगी हो, इसका प्रमाण नहीं मिलता। ये छूट क्यों शुरू हुई और इसके पीछे तर्क क्या रहे होंगे ये शोध का विषय है। ये संभव है कि आजादी के तुरंत बाद इन समुदायों का टेलेंट पूल छोटा होगा और इस वजह से ये छूट देनी पड़ी हो। लेकिन अब तो ये स्थिति नहीं है। मिसाल के तौर पर 14 जुलाई को राज्य सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में मानव संसाधन मंत्रालय की ओर से जवाब दिया गया कि इस साल आईआईटी में 1493 ओबीसी, 1265 दलित और 659 आदिवासी चुने गए। आईआईटी जैसी मुश्किल परीक्षा पास करने वालों के लिए यूपीएससी का इम्तेहान पास करना मुश्किल नहीं हो सकता। और ये संख्या सिर्फ आईआईटी की है। इसके अलावा आईआईएम से लेकर केंद्रीय और राज्यों के विश्वविद्यालयों और तकनीकी शिक्षा संस्थानों में अब इन समुदायों के लाखों छात्र हाइयर एजुकेशन हासिल कर रहे हैं और प्रोफेसर से लेकर नामी इंस्टिट्यूट में डायरेक्टर तक बन रहे हैं। ऐसे में केंद्रीय नौकरियों में उम्र और अटैंप्ट की छूट इन समुदायों के कैंडिडेट का मनोबल कम करती है। जाति से अगर टेलेंट तय नहीं होता और असमानता सिर्फ इस वजह से है कि सबको समान अवसर नहीं मिले तो फिर रिजर्वेशन सिर्फ उस असमानता को दूर करने का माध्यम होना चाहिए। जाति के आधार पर दी जाने वाली कथित सुविधा अगर टैलेंट को दबाने का जरिया बन जाए, मनोवैज्ञानिक बाधा बन जाए या तरक्की में अड़चन बन जाए तो उससे छुटकारा पाने की कोशिश होनी चाहिए। शायद हम ये समझ सकते हैं कि उस कैंडिडेट की मानसिक स्थिति कैसी होती होगी जो सातवीं बार या उससे भी ज्यादा बार एक इम्तेहान दे रहा हो और हर बार रेस में पीछे रह जाता हो? ये अनुभव किसी को भी मनोवैज्ञानिक स्तर पर कमजोर और लाचार बना सकता है।
जाहिर है एज लिमिट और अटैंप्ट मे छूट का कोई तर्क अगर पहले कभी था भी तो उनका आधार खत्म हो चुका है। अब ये छूट इन समुदायों के गले का फंदा ही साबित हो रही है। अगर ये छूट खत्म होती है तो ब्यूरोक्रेसी के ऊंचे पदों पर भी दलित, आदिवासी और ओबीसी की उपस्थिति बेहतर होगी।

1 comment:

Rangnath Singh said...

नमस्ते। आपका स्टैण्ड अनोखा है। उससे सहमति भी है। लेकिन आपके तर्क पूरी तरह समझ नहीं आए हैं। उम्मीद है आपने यूपीएससी के सालाना गजेटियर का अध्ययन करने के बाद ही ऐसा मत बनाया होगा। मैंने तो कभी सपने में भी यूपीएससी की परीक्षा नहीं दी। उम्र अभी भी बाकि ही है। यूपीएससी करना ही कौन चाहता है ? इसका भी आपको अंदाजा होगा। इस देश के मोस्ट एजूकेटेड क्लस्टरों में यूपीएससी में जाने का कितना आकर्षण है इसे भी आप तो जानते ही होंगे। क्या आश्चर्य है कि देश के सबसे पीछड़े इलाकों उर्फ हिन्दी पट्टी में ही इसका सर्वाधिक जुनून पाया जाता है।

उत्तर भारत में सर्वाधिक प्रतिष्ठित जेएनयू में लड़कों के बीच यूपीएससी का बढ़ता नशा और उसी संस्थान की शिक्षा और शैक्षणिक माहौल में गिरती स्थिति के बीच के समानुपातिक संबंध की भी जांच की जा सकती है। बहुत से मामले हैं। जिनकों सोचना है वो तो सोचते नहीं।

Custom Search