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Thursday, September 23, 2010

सामाजिक न्याय के मुकाबले फिर मंदिर

दिलीप मंडल

अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनाने के मुद्दे को फिर से झाड़-पोंछकर खड़ा किया जा रहा है। विश्व हिंदू परिषद के महासचिव प्रवीण तोगड़िया ने कहा है कि अयोध्या में मंदिर निर्माण का काम दिसंबर तक पूरा कर लिया जाएगा। मंदिर निर्माण के लिए लोगों को आंदोलित करने का विश्व हिंदू परिषद ने व्यापक कार्यक्रम बनाया है। जोधपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय बैठक में इस कार्यक्रम को स्वीकृत किया गया है। विहिप 16 अगस्त से अयोध्या से हनुमान शक्ति जागरण अभियान छेड़ चुकी है। इस कार्यक्रम में देश के दो लाख गांवों में ले जाया जाएगा। देश भर में हिंदू भक्त कार्यकर्ताओं की भर्ती का काम चल रहा है। राम रथ यात्रा और राम शिला पूजन के बाद यह विश्व हिंदू परिषद के सबसे व्यापक कार्यक्रमों में से एक है।

ये राजनीतिक गतिविधियां ऐसे समय में हो रही हैं, जब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का फैसला आने वाला है। इस संभावित फैसले को लेकर उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के कई हिस्सों में तनाव बढ़ाने की कोशिशें चल रही हैं। ऐसे नाजुक समय में मीडिया इस बात को लेकर सर्वे कर रहा है कि हिंदू मकान मालिक मुसलमानों को किराए पर अपना मकान नहीं देते हैं (गोया यह कोई नई बात हो)। मंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं के बयान एक बार फिर से प्रमुखता से आने लगे हैं। सरकार बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान चलाकर लोगों से शांति बनाए रखने की अपील कर रही है। शहरों में शांति बनाए रखने के लिए पुलिस की चौकसी बढ़ा दी गई है और उत्तर प्रदेश के कई शहरों में अर्धसैनिक बल तैनात किए गए हैं। पूरा माहौल ऐसा है मानो तूफान से पहले की शांति हो।

विश्व हिंदू परिषद ने राममंदिर आंदोलन का यह चरण इसलिए शुरू किया है ताकि “विराट हिंदू समाज” को एकजुट किया जा सके। सवाल उठता है कि क्या हिंदू समाज की एकता खतरे में है। और अगर हिंदू एकता को सचमुच खतरा है तो वह खतरा किस वजह से है? हिंदू समाज अपनी संरचना और अंतर्वस्तु में एक विभाजित समाज है। यह विभाजन किसी बाहरी षड्यंत्र की वजह से नहीं है। जिसे हम हम हिंदू समाज कहते हैं, वह दरअसल ऊंचे और निचले स्तरों पर मौजूद अलग-अलग समुदायों का गठबंधन है। हिंदुओं के सभी धार्मिक ग्रंथ निर्विवाद रूप से ऊंच और नीच के इस विभाजन को स्थापित और स्वीकार करते हैं। यह विभाजन अंग्रेजों की साजिश नहीं है, जैसा कि कुछ लोग बताने की कोशिश करते हैं। अंग्रेजों के आने से बहुत पहले इस देश में ऋग्वेद, श्रीमद्भाग्वतगीता और तमाम स्मृतियां लिखी जा चुकी थीं।

भारत का संविधान भी जातिभेद का अंत करने की घोषणा नहीं करता। जाति के आधार पर भेदभाव कानूनी अपराध भी नहीं है। हर हिंदू कम से कम दो पहचान रखता है। एक उसी धार्मिक पहचान है और दूसरी उसकी जातीय पहचान है। विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस जैसी संस्थाओं को इस बात से ऐतराज नहीं है कि हर हिंदू की दो पहचान है। वर्ण और जाति की विभेदकारी व्यवस्था से इन संस्थाओं को शिकायत नहीं है। इन्हें शिकायत सिर्फ तभी होती है जब वर्णक्रम में नीचे के स्तरों पर मौजूद समुदाय अपनी जातीय पहचान को आर्थिक और शैक्षणिक अंतर्संबंधों के साथ जोड़ते हैं। मिसाल के तौर पर कोई मझौली या दलित जाति अगर यह मांग उठाती है कि देश के संसाधनों और अवसरों में उसे पूरा हिस्सा नहीं मिल रहा है, तो यह विश्व हिंदू परिषद या आरएसएस के लिए एक असहज स्थिति है, लेकिन किसी जाति का दलित या पिछड़ा होना इन संगठनों के लिए चिंता का कारण नहीं है। जब एक साथ कई पिछड़े या दलित समुदाय अपनी हिस्सेदारी की बात करते हैं तो इन संगठनों को हिंदू एकता खतरे में जान पड़ती है।

जातीय भेदभाव दूर करने या जाति विभाजनों को कमजोर करने के लिए कोई भी कोशिश न करने वाली विहिप और आरएसएस जैसी संस्थाओं को नीचे से होने वाला हर जातीय उभार चिंतित करता है। देश के सभी मंदिरों के पुजारी एक विशेष जाति के हों, यह बात विहिप और आरएसएस को सहज लगती है, लेकिन इस देश में ओबीसी जातियों को आरक्षण दिया जाए, तो उसे दिक्कत होने लगती है। ये संगठन आरक्षण को एक विभेदकारी तत्व मानते हैं और हमेशा इसका विरोध करते हैं।

राममंदिर आंदोलन के पहले दौर को देखें तो वह देश में पिछड़ा उभार का भी समय था। मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की मांग जिस दौर में तेज हो रही थी, उसी दौर में विश्व हिंदू परिषद ने राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू किया। उत्तर भारत में पिछड़ा उभार और रामजन्मभूमि आंदोलन साथ साथ चले। जब 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा की, तो उसके फौरन बाद लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा निकाली। यह रथयात्रा हिंदुओं को एकजुट करने और जातीय पहचान के सवालों को कमजोर करने में सफल रही क्योंकि इस आंदोलन में पिछड़ी जाति के लोग बड़ी तादाद में शामिल हुए। पिछड़ों को सबल बनाने के सवाल को हिंदू बनाम मुसलमान के ज्यादा उग्र और हिंसक आंदोलन के भार तले दबा दिया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि मंदिर आंदोलन के कई नेता जैसे उमा भारती, कल्याण सिंह, नरेंद्र मोदी, विनय कटियार, सुंदरलाल पटवा, सुशील मोदी, शिवराज सिंह चौहान, साक्षी महाराज आदि पिछड़ी जातियों के हैं।

सवाल उठता है कि मंडल आयोग लागू होने के 20 साल बाद अब जबकि जाति जनगणना के सवाल पर एक बार फिर से राजकाज से लेकर आर्थिक गतिविधियों में विभिन्न समुदायों की हिस्सेदारी के सवाल पर चर्चा शुरू हो गई है तो क्या एक बार फिर से मंदिर आंदोलन के जरिए इन सवालों को दबाने और हिंदू समाज को सांप्रदायिक आधार पर एकजुट करने की कोशिश की जाएगी? क्या पिछड़ी जातियां एक बार फिर से अपने तबकाई सवालों को पीछे छोड़कर धार्मिक मुद्दे पर व्यापक हिंदू पहचान के तहत एकजुट हो जाएंगी? हनुमान शक्ति जागरण अभियान के जरिए विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस इसकी कोशिश जरूर करेंगे। जाति जनगणना के सवाल पर आरएसएस कितना गंभीर है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि संसद में इस सवाल पर चर्चा के फौरन बाद आए आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने विरोध में संपादकीय लिखा। अगस्त महीने में ऑर्गनाइनजर का एक ऐसा अंक आया जिसमें जाति जनगणना के खिलाफ पांच आलेख आए। इस सवाल पर आरएसएस के सरसंघचालक से लेकर विहिप के प्रमुख नेता अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया तक के बयान आ चुके हैं।

विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस को जाति जनगणना के विरोध के सवाल पर अगड़े मुस्लिमों का भी समर्थन मिल रहा है। आरिफ मुहम्मद खान जाति जनगणना के विरोधियों में अग्रणी हैं। मुसलमानों की अगड़ी बिरादरी के नेता नहीं चाहेंगे कि पसमंदा (पीछे छूट गए) मुसलमानों के सवाल सामने आएं। विहिप जिस तरह चाहता है कि हिंदू अपनी जातीय पहचान के साथ आर्थिक और शैक्षणिक सवालों को न जोड़ें, वही मंशा मुसलमानों की अगड़ी बिरादरी वालों की भी है। मंदिर के आंदोलन के विरोध में होने वाली प्रतिक्रिया मुसलमानों को भी जातीय पहचान भूलने को मजबूर कर सकती है। लिहाजा आने वाले दिनों में दोनों ओर से तीखी और भड़काने वाली बयानबाजी सुनने को मिल सकती है। तमाम भेदभाव के साथ हिंदू सिर्फ हिंदू और मुसलमान सिर्फ मुसलमान रहें और आर्थिक, शैक्षणिक और अवसर संबंधी भेदभाव के सवाल न उठाएं, यह दोनों ही धर्मों के प्रभुत्वशाली समुदायों के हितों में है। इस पृष्ठभूमि में आने वाले दिनों में हमें रामजन्मभूमि आंदोलन में नई तेजी दिख सकती है।

कांग्रेस के लिए भी यह अच्छी स्थिति है। पिछड़ा उभार और पिछड़ा-मुस्लिम एकता कांग्रेस के लिए ऐतिहासिक रूप से खतरनाक साबित हुई है। इस वजह से हिंदी प्रदेश के दो प्रमुख राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में वह लगभग दो दशक से सत्ता से बाहर है। हिंदू-मुस्लिम टकराव उसके लिए अपेक्षाकृत छोटी समस्या है। जिन राज्यों में पिछड़ा उभार नहीं है वहां घूम-फिरकर सत्ता में उसकी वापसी होती रही है। ऐसे राज्यों में राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा आदि शामिल हैं। इसलिए कांग्रेस हर कीमत पर चाहेगी कि पिछड़ी जाति के लोग अपनी पहचान को राजनीतिक रूप से अभिव्यक्त न करें। पिछड़ा उभार होने की स्थिति में कांग्रेस के लिए महिला आरक्षण विधेयक को लागू करना भी मुश्किल हो जाएगा। इस विधेयक के जरिए कांग्रेस संसद और विधानसभाओं की सामाजिक संरचना को बदलना चाहती है।

यहां यह सवाल उठता है कि क्या इस देश के वंचित तबके एक बार फिर से अपने हितों के खिलाफ मंदिर मुद्दे को लेकर सांप्रदायिक पहचान के साथ खड़े हो जाएंगे। सांप्रदायिक दंगों में दंगों में पिछड़ी और दलित जातियों को हमेशा आगे किया जाता है। राम जन्मभूमि आंदोलन में पिछड़ों ने अपनी जातीय पहचान के मुकाबले धार्मिक पहचान को ज्यादा महत्व दिया। इस वजह से मंडल आयोग से मिलने वाले लाभ को पिछड़ी जाति के लोग काफी हद तक गंवा चुके हैं। अदालतों से लेकर नौकरशाही के रुख के कारण मंडल आयोग की रिपोर्ट ढंग से लागू नहीं हो पाई। केंद्र सरकार की नौकरशाही में पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी आज भी 7 फीसदी है। देश की आधी से अधिक आबादी होने के बावजूद ऊंचे पदों पर पिछड़े लगभग नदारद हैं। पिछड़ा आरक्षण लागू होने के 17 साल बाद यह स्थिति है। जाहिर है मंडल कमीशन को विफल बना दिया गया है।

अब जबकि जाति जनगणना के आधार पर यह जानने की मांग हो रही है कि देश के संसाधनों और अवसरों पर किसकी कितनी हिस्सेदारी है तो सरकार ने जनगणना से जाति को बाहर कर दिया है। अलग से जाति गिनने का केंद्र सरकार का फैसला जातियों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति को छिपाने के लिए है, जिसपर 2000 करोड़ रुपए फूंक दिए जाएंगे। जनगणना से अलग जाति की गणना एक निरर्थक कवायद है। एक तरफ तो केंद्र सरकार ने जाति जनगणना की मांग ठुकरा दी है, वहीं अयोध्या आंदोलन के बहाने हिंदू और मुसलमान पिछड़ों को सांप्रदायिक आधार पर गोलबंद करने के लिए कोशिशें तेज हो गई हैं। मंडल-एक को नाकाम करने के लिए शुरू किया गया मंदिर-एक आंदोलन कामयाब हो गया था। मंदिर-एक के आंदोलन को पिछड़ों ने अपने कंधों पर ढोया था। क्या इस बार भी इतिहास खुद को दोहराएगा?

(यह आलेख संपादन के बाद दैनिक जनसत्ता के संपादकीय पेज पर 23 सितंबर, 2010 को छपा है)

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