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Saturday, August 22, 2009

क्रिकेट के मैदान में अधूरा भारत क्यों दिखता है?

दिलीप मंडल

विनोद कांबली का टीम से बाहर होना क्या किसी नस्लभेदी या जातिवादी साजिश की वजह से हुआ था? एक टीवी कार्यक्रम में इस ओर संकेत कर विनोद कांबली ने बेहद संवेदनशील मुद्दा छेड़ दिया। लेकिन एक व्यक्ति के टीम में होने या न होने या निकाले जाने से बड़ा एक मुद्दा है, जिसपर बात होनी चाहिए। वो है क्रिकेट के मैदान में पूरे देश की इमेज नजर न आना। आखिर ये शायद अकेला टीम स्पोर्ट है जिसकी भारतीय टीम में नॉर्थ ईस्ट से कोई नहीं होता, कोई आदिवासी नहीं होता, कोई दलित नहीं होता, पिछड़े जाति समूहों के खिलाड़ी आम तौर पर नदारद होते हैं। यानी तीन चौथाई से ज्यादा हिंदुस्तान भारतीय क्रिकेट टीम में नजर ही नहीं आता। और ये साल दर साल से चला आ रहा है।

24 साल की उम्र में विनोद कांबली की टेस्ट क्रिकेट से विदाई से कुछ असहज सवाल तो खड़े होते ही हैं। विनोद कांबली ने 1992-93 में इंग्लैंड के खिलाफ सिरीज से टेस्ट करियर की शुरुआत की और उन्होंने 17 मैचों में 1084 रन बनाए। उन्होंने इस दौरान 4 सेंचुरी और 3 हाफ सेंचुरी बनाई। उनका टॉप स्कोर 227 रहा और बैटिंग एवरेज रहा 54.20 (सचिन तेंडुलकर का एवरेज है 54.58)। आखिर के चंद टेस्ट मैच में कांबली जरूर ढलान पर रहे। लेकिन अगर अजित आगरकर लगातार पांच टेस्ट इनिंग्स मे जीरो बनाकर भी इंडियन टीम में रह सकते हैं और कई खिलाड़ियों (सचिन और गांगुली समेत) की खराब फॉर्म के बाद टीम में वापसी होती रही है तो ये सवाल उठता ही है कि कांबली जैसे टैलेंटेड खिलाड़ी को प्रदर्शन सुधारने का टेस्ट मैच में एक भी मौका क्यों नहीं मिला। तेज शॉर्ट पिच गेंदों को खेलने की उनकी जिस कमजोरी की बात की जाती है वो तो गांगुली समेत देश के कई बैट्समैन के साथ रही है। तकनीक में सुधार का मौका मिलने में कई बैट्समैन ने इस कमजोरी को सुधार भी लिया। ये सुविधा कांबली को नहीं मिली और इसे ही संभवत: वो भेदभाव कह रहे हैं।

बहरहाल विनोद कांबली की टीम से विदाई के बाद ये सवाल एक बार फिर सामने आ गया है कि भारतीय टीम में पूरा भारत क्यों नहीं दिखता। ऑस्ट्रेलिया के एक खेल पत्रकार ने साइमंड्स और हरभजन विवाद के समय भारतीय क्रिकेट में ब्राह्मण वर्चस्व के बारे में पूछा था तो क्रिकेट जगत में जबर्दस्त विवाद खड़ा हो गया था। किसी को ये सवाल जातिवादी, सैक्टेरियन, विभाजनकारी और मॉडर्निटी विरोधी लग सकती है लेकिन ऐसी बहस तो इस समय लगभग पूरी दुनिया में चल रही है और लगभग सभी विकसित देश एक के बाद एक ये मान रहे हैं कि राष्ट्र की विविधता राष्ट्रजीवन के तमाम अंगों में उसी खूबसूरती से नजर आना देश और नागरिकों के हित में है।

ऐसे देशों में अमेरिका (जहां अब एक अश्वेत राष्ट्रपति है), फ्रांस, कैनेडा, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। ये सभी देश डायवर्सिटी को अपना रहे हैं। ब्रिटेन की क्रिकेट टीम में चेन्नई का जन्मा एक मुसलमान नासिर हुसैन कैप्टन बनता है और फ्रांस अपनी फुटबॉल टीम की कमान अफ्रीकी मूल के जिनाडिन जिडान को सौंप सकता है। हॉलैंड की फुटबॉल टीम में लगभग आधा दर्जन अश्वेत नजर आते हैं। एक और मिसाल के तौर पर साउथ अफ्रीका की क्रिकेट टीम को ही लीजिए। वहां के क्रिकेट बोर्ड के डायवर्सिटी प्लान के तहत टीम में लगभग आधे खिलाड़ी ब्लैक या मिली जुली नस्ल के होते हैं और इसमें भारत समेत एशियाई मूल के खिलाड़ी भी शामिल हैं।

नहीं ये कोई कोटा सिस्टम नहीं है। अगर वंचित तबकों को आगे लाने का मतलब मेरिट की अनदेखी होता, तो फ्रांस और हॉलैंड की फुटबॉल टीम कमजोर टीमों की गिनती में आती और साउथ अफ्रीका की क्रिकेट टीम दुनिया की सबसे कमजोर टीम होती। लेकिन ऐसा नहीं है। अश्वेतों की भागीदारी ने साउथ अफ्रीका की टीम को कमजोर नहीं किया। आईसीसी की वन डे रैंकिंग में फिलहाल वह नंबर वन है। हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि 1983 में जिस क्रिकेट टीम में विश्वकप जीता था, उसमें भारतीय समाज की विविधता शायद अब तक सबसे बेहतरीन शक्ल में नजर आई थी। दरअसल खेल में डायवर्सिटी का एक ही मतलब है और वो है टैलेंट पूल को बड़ा करना और ज्यादा से ज्यादा लोगों तो खेलों को ले जाना। क्रिकेट तो वैसे भी 12 देशों का खेल है। अगर भारत को स्पोर्ट्स सुपरपावर बनना है, ओलिंपिक्स में मेडल लाने हैं तो देश में टैलेंट पूल को कई गुना बढ़ाना होगा।

अब जबकि आईपीएल के रूप में इतना अधिक क्रिकेट खेला जा रहा है और इतने ज्यादा खिलाड़ी मैदान में हैं कि टैलेंट को दबा पाना आज उस तरह संभव नहीं है जैसा कि आज से 20 या 50 साल पहले हो सकता था। आज तो किसी छोटे शहर का धोनी, प्रवीण कुमार, हरभजन सिंह या आरपी सिंह तमाम बाधाओं को पार कर टीम में जगह बना लेता है। साधारण परिवार से आने वाले अमित मिश्रा के टेलेंट की अनदेखी आज मुश्किल है।

इसके बावजूद क्रिकेट में अगर हॉकी या फुटबॉल या एथेलेटिक्स जैसी विविधता वाली टीम नजर नहीं आती तो इसकी वजह क्रिकेट के इतिहास और इस खेल के स्वरूप में है। आजादी से पहले तक क्रिकेट टीम में ज्यादातर राजा-महाराजा हुआ करते थे। उसके बाद भी क्रिकेट जिमखाना संस्कृति से अरसे तक मुक्त नहीं हुआ। साथ ही क्रिकेट का एक और केंद्र वो स्कूल और कॉलेज रहे जहां अच्छे मैदान थे, नेट पर क्रिकेट के गुर सिखाने वाले अच्छे कोच थे और इन स्कूलों में प्रवेश हर किसी को नहीं मिल सकता था। इसलिए क्रिकेट का एक एलीट चरित्र हमेशा से रहा।

क्रिकेट के बारे में कई समाजशास्त्रियों ने ये बात लिखी है कि ये खेल मूल रूप से भारतीय स्वभाव के अनुकूल है। इसमें शारीरिक संपर्क न्यूनतम है और ये छुआछूत मानने वाली भारतीय जाति परंपरा के भी हिसाब से फिट खेल है।

लेकिन वक्त के साथ क्रिकेट भी बदल रहा है। अब ट्वेंटी-ट्वेंटी फॉर्मेट में स्टैमिना का महत्व काफी बढ़ गया है। खेल का चरित्र बदलने के साथ ही खेलने वाले भी बदल रहे हैं। कांबली की शिकायत उनके समय के हिसाब से सही हो भी सकती है लेकिन 2009 के भारतीय क्रिकेट के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। आने वाले दिनों में किसी कांबली को शायद ये शिकायत करने का मौका नहीं मिलेगा कि जाति की वजह से उसे टीम से निकाल दिया गया

Tuesday, August 18, 2009

किसके नाम पर जलाएं उम्मीद के दीये



शुरुआत पूजा प्रसाद की इन पंक्तियों से...

आइये उम्मीद जगाएं

ईश्वर के नाम पर जलाएं कुछ दीये
और इन दीयों से असंख्य देहरी टिमटिमाने की
आस बनाएं...
आइये उम्मीद जगाएं।


कविता आगे बढ़ती है, पूरी कविता आप उनके ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं, पर यहाँ मैं आपका ध्यान इस पर आयी अनुराग अन्वेषी की टिप्पणी की तरफ़ खींचना चाहता हूँ :

गुम हुए हजारों नट और सपेरे की तरह ही हो गए हैं आस्था और भरोसा। और अफसोस है कि मिनट भर का करतब दिखाने वाले ईश्वर (वैसे अबतक उसका कोई करतब देखा नहीं हूं, सिर्फ सुनता आया हूं दूसरों के मुंह से) के नाम पर ही दीये जलाए जाते हैं। आइए, आस्था और भरोसे के साथ हम इनसान बने रहने की कसम खाते हुए दिये जलाएं। :-)

अपनी बात मैं अनुराग जी की टिप्पणी से शुरू करना चाहता हूँ। उनका यह अफ़सोस समझ में आता है कि दीये ईश्वर के नाम पर ही जलाये जाते हैं। अफ़सोस ज्यादा गहन इसलिए भी हो जाता है यह पहल पूजा प्रसाद जैसे लोगों की तरफ़ से होती है। उम्मीद के दिए जलाना हर समाज के लिए जरूरी होता है। हर दौर में और हर तरह की परिस्थिति में यह एक जरूरी काम होता है। स्थिति जितनी प्रतिकूल हो उम्मीद के दीये जलाना उतना ही महत्वपूर्ण हो जाता है। यह समाज के लिए संजीवनी का काम करता है, उसे मुर्दा बन जाने से रोकता है।

कहने की जरूरत नही कि ऐसी महत्वपूर्ण भूमिका समाज का वही हिस्सा अपने हाथ में लेता है जो उसका सबसे संवेदनशील, सबसे समझदार और सबसे जिम्मेदार हिस्सा होता है। मौजूदा दौर में पूजा प्रसाद जैसे थोड़े से लोग इस भूमिका में दिख रहे हैं। यह हम सब के लिए सुकून देने वाली बात है कि घनघोर निराशा के इस दौर में भी कुछ लोग उज्जवल भविष्य की तरफ़ हमारा ध्यान खींच कर हमें आगे बढ़ने की ताकत दे रहे हैं। लेकिन यही वह बिन्दु है जहाँ अनुराग जी का अफ़सोस सामने आता है और पूरे औचित्य के साथ आता है। अनुराग अन्वेषी का सवाल यह है कि आख़िर दीये ईश्वर के नाम पर ही क्यो जलाए जाते हैं।

अफ़सोस की वजह यह है कि हमारे समाज का सबसे संवेदनशील, समझदार और जिम्मेदार हिस्सा भी इंसानी समाज को इस लायक नही मानता कि उसके नाम पर, इंसानियत के नाम पर उम्मीद के दीये जलाए। उसे इंसानियत नाकाफी लगती है, भरपूर रौशनी वाले उम्मीद के दीये के लिए उसे एक काल्पनिक ही सही, पर ईश्वर चाहिए। ऐसा ईश्वर जिसे इंसानी समाज का सशर्त नही, पूर्ण समर्पण चाहिए होता है। उसे यानी ईश्वर को इंसान का ऐसा मन -मस्तिष्क चाहिए जो सवाल न करता हो, तर्क न करता हो, संदेह न करता हो। जो बस इस बात को अन्तिम सत्य के रूप में स्वीकार कर चुका हो कि ईश्वर जो करता है (और सब कुछ ईश्वर ही करता है ) वह अच्छा ही करता है।


संदेश साफ़ है यह पूरी दुनिया ईश्वर की है, पत्ता भी खड़क रहा है तो उसकी मर्जी से खड़क रहा है। इसीलिये आपको समझ में आए या न आए वह आपके और हर व्यक्ति के भले के लिए ही हो रहा है। तो अब अगर आप उससे असंतुष्ट हैं तो यह या तो आपकी नासमझी है या फ़िर ईश्वर में आपके भरोसे की कमी। दोनों ही स्थितियों में दोष आपका है।

और अगर आप हद से ज्यादा पीड़ित हैं तो उसकी शरण में जाइए, उससे अपनी प्रार्थना बताइये। अगर आप उसके सच्चे भक्त हैं तो वह कभी आपको निराश नही करेगा। यानी पहली बात तो यह कि जो उसके भक्त हैं उन्ही की सुनवायी होगी। जो उसे चुनौती देते हैं उनकी शिकायत का कोई मतलब ही नही बनता। और इस करुणा सागर के दरबार में पहुँच कर भी अगर आपकी शिकायत सुनने लायक नही मानी गयी तो भी आप सर्वशक्तिमान ईश्वर का कोई दोष साबित नही कर सकते। इसका मतलब सिर्फ़ यह होता है कि आप उसके सच्चे भक्त नही हैं। यानी दोष एक बार फ़िर आपका।

मतलब यह कि इस परम परमेश्वर की व्यवस्था में इंसान के अस्तित्व का मतलब सिर्फ़ इतना है कि जो कुछ हो रहा है उसे ईश्वर का आदेश मान चुपचाप स्वीकार करते जाओ। बस उसके गुण गाओ, उसकी तारीफ में कसीदे पढो, हर बात में उसकी शान देखो। भूल कर भी किसी बात पर सवाल मत करो, न ही संदेह करो। और उसके आदेश की अवज्ञा? ऐसा तो सोचो भी मत।
कमाल तो यह है कि इस व्यवस्था को स्वीकारने वाले भक्तों को भी हम मानसिक और भावनात्मक गुलाम नही मानते बल्कि उन्हें ईश्वर का करीबी और इस नाते शक्तिशाली मानते हैं।


मगर यह मूल तर्क के ख़िलाफ़ नही है। चूंकि इस व्यवस्था में ईश्वर सर्वशक्तिमान है और हर तरह की ताकत का स्रोत वही है इसीलिये ताकतवर उसे ही माना जाएगा जो उसका करीबी होगा। और, स्वाभाविक रूप से करीबी वही होगा जो उसकी व्यवस्था को ज्यों का त्यों स्वीकार करेगा।


सोचने समझने वाले जो लोग यह कहते हैं कि आख़िर ईश्वर या धर्म पर सवाल उठाना क्यो जरूरी है, और यह कि धर्म और ईश्वर से टकराए बगैर या दूसरे शब्दों में भारत की श्रद्धालु जनता की आस्था को चोट पहुंचाए बगैर भी तो काम किया जा सकता है, उनके लिए निवेदन है कि यहाँ सवाल किसी की आस्था को चोट पहुंचाने का नही है, सवाल सिर्फ़ यह है कि हमारा इंसानी समाज कैसा होगा, इंसान कैसा होगा। जैसा इंसान होगा इंसानी समाज भी वैसा ही होगा।


ऊपर कही गयी बातों से हमारी यह मान्यता तो स्पष्ट हो ही जाती है कि ईश्वरीय व्यवस्था को पूर्णतया समर्पित, कमजोर बल्कि मानसिक और भावनात्मक तौर पर गुलाम इंसान ही भाते हैं।


हमारी आपत्ति इसी बात को लेकर है। और इसमे बीच का कोई रास्ता नही हो सकता। इंसान या तो स्वतंत्र रूप से सोचने समझने वाला, बिना झिझक सवाल पूछने वाला, तर्क और तथ्य के आधार पर सही उत्तर तलाशने वाला होगा या फ़िर बिना कोई सवाल किए दूसरों की कही बातों को मान लेने वाला, कुछ ख़ास धर्मग्रंथो में दिए गए उत्तरों पर सोचने का भी जोखिम न उठाते हुए ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेने और ज़िन्दगी भर स्वीकार किए रहने वाला।


बस यही दोनों विकल्प हैं और इन्हीं दो में से कोई एक हमें चुनना है। धर्म और आस्था ने पहले से बता रखा है कि उसे कैसा इंसान चाहिए। तर्क ने भी पहले से बता रखा है कि वह कैसा इंसानी समाज चाहता है। हमें और आपको तय करना है कि हम दो में से कौन सा रास्ता चुनते हैं। अगर हम में से कुछ लोग किसी भी एक रास्ते को छोड़ने का जोखिम नही लेना चाहते तो यह उनकी निजी समस्या है जिसका हल ख़ुद उन्हें ढूँढना होगा। (प्रसंगवश, अनुराग जी की टिप्पणी का यह हिस्सा कि आइये आस्था और भरोसे के साथ हम इंसान बने रहने की कसम खाते हुए दीये जलाएं ज्यादा सतर्कता की मांग करता है। अनुराग जी को जितना मैं समझ पाया हूँ उसमे उनका यह मतलब कतई नही होगा, लेकिन इससे ऐसा आभास होता है कि शायद दोनों रास्तो पर एक साथ चलना सम्भव है।)

Monday, August 3, 2009

प्रेमचंद और प्रेमचंद की परंपरा में आदिवासी कहाँ हैं?


(झारखंड के प्रमुख संस्कृतिकर्मी पंकज का ये लेख ई-मेल से मिला है। कई पुराने मठो और मूर्तियों के विखंडन के इस दौर में पढ़िए पंकज को।)

2009 की 31 जुलाई के एक दिन बाद जब सारे हिंदी साहित्यकार प्रेमचंद जयंती आयोजनों की थकावट दूर कर चुके होंगे, मैं अपना यह सवाल उनके सामने रखना चाहता हूँ कि प्रेमचंद और प्रेमचंद की परंपरा में आदिवासी समाज कहाँ हैंविनम्र निवेदन यह है कि इस सवाल को ‘आरोप’ नहीं माना जाए और न ही मैं असंदिग्ध रूप से भारत के प्रगतिशील साहित्यकारों में सर्वश्रेष्ठ प्रेमचंद को कठघरे में खड़ा करना चाह रहा हूँ। यह सिर्फ आदिवासी विषय पर सक्रिय एक विद्यार्थी की जिज्ञासा है।

वह इसलिए कि प्रेमचंद की रचनाएँ 1903 से 1936 तक के कालखण्ड में फैली हुई हैं और उन्होंने भारत की उत्पीड़ित जनता के शोषण व यथार्थ को 300 से अधिक कहानियों, एक दर्जन उपन्यासों तथा अनगिनत सामाजिक- राजनीतिक लेखों और समाचारों में समर्थ लेखकीय कौशल के साथ उद्घाटित किया है। वे साहित्य, पत्राकारिता और सांस्कृतिक आंदोलन के मोर्चों पर आजीवन युद्धरत रहे। सामंती और औपनिवेशिक गुलामी के विरूद्ध उन्होंने भारतीय प्रायद्वीप के एक बड़े क्षेत्रा की भाषा हिंदी-उर्दू में हमारा नेतृत्व किया और उनकी कालजयी रचनाएँ एवं विचार आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं। परंतु, प्रेमचंद के संपूर्ण लेखन से गुजरने के बाद भी (शायद कुछ छूट भी गया हो) मेरी यह जिज्ञासा शांत नहीं हो पा रही है कि उनके साहित्य से आदिवासी दुनिया अदृश्य क्यों है? कम से कम उनके बहुचर्चित किसी कहानी, उपन्यास, नाटक या आलेख में तो नहीं ही है।

इस प्रेमचंद जयंती के कुछ दिन पहले मैंने अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए कई मित्रों से बातचीत की। अनेक साहित्यकारों, आलोचकों और पाठकों से यह जानने की कोशिश की कि क्या सचमुच में प्रेमचंद के साहित्य में आदिवासी कहीं नहीं हैं? सबका उत्तर यही था ‘नहीं है’। कई लोग तो यह सवाल सुनकर ही बिगड़ उठे। तुम्हारा/आपका यह सवाल संकीर्णतावादी, गैर-वर्गीय, इलाकावादी और विखंडनवादी है। आम जन के इतने महान लेखक जिनकी कलम की रोशनी से आज भी भारतीय साहित्य (विशेषकर हिंदी) और समाज का मार्गदर्शन हो रहा है, उस पर अंगुली उठाना तुम्हारी/आपकी तुच्छता ही बताती है। लेखक, कलाकार, साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी को ऐसे संकीर्ण सोच से देखना कहीं से भी उचित नहीं है। कई लोगों ने कहा - प्रेमचंद तो हमेशा बनारस, इलाहाबाद आदि शहरों में ही ज्यादा रहे। शायद उन्हें आदिवासी समाज को देखने का मौका नहीं मिला होगा।

पहले किस्म के जवाब पर मुझे कुछ नहीं कहना है क्योंकि यह सर्वविदित है कि जब भी वंचित समाज और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ अपनी सांस्कृतिक अस्मिता और मुक्ति का सवाल उठाती हैं, उनका दमन इसी सोच के साथ किया जाता है। जो दूसरा जवाब है कि प्रेमचंद शहरों में ही रहे इसलिए वे आदिवासियों के बारे में नहीं जान पाए होंगे, उनको एक संवदेनशील सजग लेखक-पत्राकार के रूप में देखते हुए भी और उनके बनारस व इलाहाबाद में रहने पर भी सही नहीं मालूम होता है। औपनिवेशिक शासन के दिनों में समाचार-सूचना लेने-देने के पेशे से प्रतिबद्धता के साथ जुड़ा समाचार-पत्र का कोई संपादक और आंदोलनकारी पत्राकार कैसे आदिवासी विषय से अनभिज्ञ रह सकता है? वह भी 1900 में जब झारखंड के रांची जिला का दक्षिणी हिस्सा एक बड़े आदिवासी विद्रोह ‘उलगुलान’ से अंग्रेजी शासकों की नींद हराम किये हुए था। इतिहास प्रसिद्ध आदिवासी नायक बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ यह उलगुलान कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले उस समय के अंग्रेजी अखबारों की सुर्खियों में था। और यह भी कि 1899 में प्रेमचंद पहली बार आजीविका के लिए लमही से बाहर निकले थे।

18 रुपये प्रतिमाह पर उन्होंने शिक्षक की पहली नौकरी मिर्जापुर जिला के चुनार में की थी। एक मिशन स्कूल में। विंध्याचल पर्वत श्रृंखलाओं के बीच बसा मिर्जापुर और चुनार प्राकृतिक रूप से आदिवासियों का स्वाभाविक इलाका है। वैसे भी, बनारस से लेकर इलाहाबाद तक विंध्याचल के जंगल-पहाड़ों का जो विस्तार है, उसमें अगरिया, भील, कोरवा, गोंड, कोल, चेरो आदि आदिवासी समुदायों का पारंपरिक निवास है। चुनार में प्रेमचंद ज्यादा समय तक नहीं रहे, परंतु बनारस से चुनार तक की यात्रा और चुनार के अल्प प्रवास में क्या उन्होंने आदिवासी समाज के बारे में कुछ भी नहीं देखा-सुना और जाना होगा? चुनार के बाद प्रेमचंद इलाहाबाद के नजदीक प्रतापगढ़ चले आए थे। जहां वे दो साल रहे। इलाहाबाद से प्रतापगढ़ तक का इलाका भी आदिवासी आबादी से विहीन नहीं है। फिर भी देश-दुनिया का साहित्य पढ़ने तथा पत्राकारिता में रहने का बावजूद उनके साहित्य में आदिवासी जीवन से कहीं मुठभेड़ नहीं होती है।

ध्यान देने की बात है कि बीसवीं सदी की शुरुआत में समाज, राजनीति और साहित्य में सक्रिय सभी लोगों ने दलितों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के हितों की बात तो की, लेकिन किसी ने भी आदिवासियों के बारे में सोचने की जहमत नहीं उठायी। समाज सुधारक, लेखक और राजनीतिज्ञ, किसी ने भी उन लोगों की सुध लेने की आवश्यकता नहीं महसूस की, जिनकी बेदखली, लूट और नरसंहारों पर नये औद्योगिक भारत की नींव रखी जा रही थी। स्वतंत्राता के पहले भी और स्वतंत्राता के बाद भी। कोयला, लोहा, बाॅक्साइट, लकड़ी और अन्य सभी प्राकृतिक संसाधन जहां से आ रहे थे, इन संसाधनों के जो नैसर्गिक स्वामी थे, उनके साथ क्या हो रहा था यह जानने की कोशिश ही नहीं की गई। क्यों हमारी दृष्टि चार वर्णों तक ही संकुचित है। हमें अपनी ही तरह बलशाली दूसरे धर्म-संप्रदाय तो दिखते हैं, लेकिन वह प्रकृति पूजक एवं आदि धर्मानुयायी आदिवासी नहीं दिखता है। जिसकी आवश्यकताएं सबसे न्यूनतम है और जो सर्वाधिक भाषाओं व संस्कृतियों के बीच बिना किसी टकराव या रक्तरंजित साम्राज्यवादी खेल के आनंद से जीता है। चूंकि अपनी संख्या बल और रिहाइश के आधार पर दलित एवं अल्पसंख्यक समुदाय वोट की राजनीति को प्रभावित करते हैं, इसीलिए उनको अनदेखा नहीं किया जा सका। बाबा साहेब अम्बेडकर की उपस्थिति और दमदार दलित आंदोलनों के कारण भी शासक वर्ग को दलितों की बात सुननी पड़ी। यह अलग बात है कि आज तक व्यवहार में उसका क्या हश्र हुआ। पर हम सभी जानते हैं कि फूले, अम्बेडकर, राजा राम मोहन राय और गाँधी जी जैसे समाज सुधारकों और विचारकों ने दलित, अल्पसंख्यक एवं स्त्री मुक्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर समाज को आंदोलित किया। चाहे जिसकी जैसी भी जातीय-धार्मिक सीमा या राजनीतिक नीयत रही हो। पर सबने इन शोषित-वंचित समुदायों के लिए कुछ न कुछ कहा। कुछ न कुछ किया।

लेकिन आदिवासी समुदायों के बारे में एक लम्बी चुप्पी इतिहास से वर्तमान तक अजगर की तरह पसरा हुआ है। दुर्गम क्षेत्रों में अपने निवास स्थलों और नगरीय जीवन से अलगाव के कारण आदिवासी आज भी दलितों-अल्पसंख्यकों की तुलना में भारतीय राजनीति पर दवाब डालने की स्थिति में नहीं हैं, पर निःसंदेह वे भारतीय विकास की रीढ़ हैं। उनके संसाधनों पर कब्जा करके ही आधुनिक भारत का विकास संभव हो सका है।

सभी लोग यह स्वीकार करते हैं कि भारत में सबसे ज्यादा खोने और सबसे कम पाने वाला समाज आदिवासियों का ही है। इतिहास में मुक्ति की सबसे ज्यादा लड़ाईयां आदिवासी समुदायों ने ही लड़ी हैं। उन्होंने भारत के किसी भी समुदाय से सबसे ज्यादा त्याग और बलिदान किया है। प्राकृतिक संसाधनों की लूट और दोहन के लिए वे औपनिवेशिक काल में भी मारे जा रहे थे और आज के स्वतंत्रा भारत में भी मारे जा रहे हैं। कोयलकारो, नेतरहाट, कलिंग नगर, सिंगूर, नंदीग्राम और लालगढ़ इक्कीसवीं सदी के सबसे नये आदिवासी मृत्यु क्षेत्र हैं। लेकिन उनकी चर्चा न तो भारत के मुख्यधारा के समाज में है, न इतिहास में है। हिंदी साहित्य में तो है ही नहीं। जो है वह ‘सॉरी’ बोलने लायक जितना भी नहीं है। यह आदिवासी जिज्ञासा प्रेमचंद से ज्यादा उन लोगों से है, जो अपने आपको उनकी परंपरा का वाहक बताते हैं। जो प्रेमचंद के साहित्य में स्त्री, प्रेमचंद के साहित्य में दलित, प्रेमचंद के साहित्य में अल्पसंख्यक, प्रेमचंद के साहित्य में किसान आदि-आदि विषय सामने लाते हैं और उन्हें भारतीय समाज का सबसे प्रमुख प्रतिनिधि साहित्यकार घोषित करते हैं। प्रेमचंद से छूट गया आदिवासी आज भी उनकी परंपरा से क्यों बहिष्कृत है? प्रेमचंद की परंपरा के लोगों को ‘प्रेमचंद के साहित्य में आदिवासी’ भी लिखना चाहिए। आदिवासी भारत को बहिष्कृत कर कोई कैसे संपूर्ण भारतीय समाज का प्रतिनिधि कहला सकता है? अगर प्रेमचंद की परंपरा और आज के भारतीय साहित्य, समाज और राजनीति में आदिवासी समाज के लिए कोई स्थान नहीं है, फिर तो देश भर के आदिवासी इलाके जिन्हें पूरी तरह से माओवादियों या नक्सलियों के नियंत्राण में बताया जा रहा है, जहाँ पिछले तीन सौ वर्षों से आदिवासी अपने अस्तित्व- अधिकार की अंतिम निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं, वे आपके साहित्य, समाज और राजनीति को क्यों नहीं खारिज कर दें।

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A. K. Pankaj
Editor, Johar Sahiya
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