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Thursday, September 30, 2010

खबरों को सांप्रदायिक बनने से रोकें, प्रेस कौंसिल के दिशा-निर्देश

20) Covering communal disputes/clashes

i) News, views or comments relating to communal or religious
disputes/clashes shall be published after proper verification of facts and
presented with due caution and restraint in a manner which is conducive to
the creation of an atmosphere congenial to communal harmony, amity and
peace. Sensational, provocative and alarming headlines are to be avoided.
Acts of communal violence or vandalism shall be reported in a manner as
may not undermine the people's confidence in the law and order machinery of
the State. Giving community-wise figures of the victims of communal riot, or
writing about the incident in a style which is likely to inflame passions,
aggravate the tension, or accentuate the strained relations between the
communities/religious groups concerned, or which has a potential to
exacerbate the trouble, shall be avoided.

ii) Journalists and columnists owe a very special responsibility to their
country in promoting communal peace and amity. Their writings are not a
mere reflection of their own feelings but help to large extent in moulding the
feelings and sentiments of the society at large. It is, therefore, of utmost
importance that they use their pen with circumspection and restrain.

iii) The role of media in such situations (Gujarat Carnage/Crisis) is to be
peacemakers and not abettors, to be troubleshooters and not troublemakers.
Let the media play their noble role of promoting peace and harmony among
the people in the present crisis in Gujarat. Any trend to disrupt the same
either directly or indirectly would be an anti-national act. There is a greater
moral responsibility on the media to do their best to build up the national
solidarity and to re-cement the communal harmony at all levels remembering
the noble role they had played during the pre-independence days.

iv) The media, as a chronicle of tomorrow’s history, owes an undeniable duty
to the future to record events as simple untailored facts. The analysis of the
events and opinion thereon are a different genre altogether. The treatment of
the two also thus has necessarily to be different. In times of crisis, facts
unadorned and simply put, with due care and restraint, cannot be reasonably
objected to in a democracy. However, a heavy responsibility devolves on the
author of opinion articles. The author has to ensure that not only are his or
her analysis free from any personal preferences, prejudices or notions, but
also they are based on verified, accurate and established facts and do not tend
to foment disharmony or enmity between castes, communities and races.

v) While the role and responsibility of the media in breaking down
communal fences and promoting harmony and national interest should not be
undermined it is also essential to allow the citizens their freedom of speech.
The press of India has necessarily to judge and balance the two.

21. Headings not to be sensational/provocative and must justify the
matter printed under them

i) In general and particularly in the context of communal disputes or clashes
a. Provocative and sensational headlines are to be avoided;
b. Headings must reflect and justify the matter printed under them;
c. Headings containing allegations made in statements should either identify
the body or the source making it or at least carry quotation marks.

22. Caste, religion or community references

i) In general, the caste identification of a person or a particular class
should be avoided, particularly when in the context it conveys a sense or
attributes a conduct or practice derogatory to that caste.

ii) Newspapers are advised against the use of word 'Scheduled Caste' or
'Harijan' which has been objected to by some.

iii) An accused or a victim shall not be described by his caste or
community when the same does not have anything to do with the offence or
the crime and plays no part either in the identification of any accused or
proceeding, if there be any.

iv) Newspaper should not publish any fictional literature distorting and
portraying the religious or well known characters in an adverse light
offending the susceptibilities of large sections of society who hold those
characters in high esteem, invested with attributes of the virtuous and lofty.

(v) Commercial exploitation of the name of prophets, seers or deities is
repugnant to journalistic ethics and good taste.

vi) It is the duty of the newspaper to ensure that the tone, spirit and
language of a write up is not objectionable, provocative, against the unity and
integrity of the country, spirit of the constitution seditious and inflammatory
in nature or designed to promote communal disharmony. It should also not
attempt to promote balkanisation of the country.

vii) One of the jobs of the journalists is also to bring forth to the public
notice the plight of the weaker sections of society. They are the watchdogs
on behalf of the society of its weaker sections.

Thursday, September 23, 2010

सामाजिक न्याय के मुकाबले फिर मंदिर

दिलीप मंडल

अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनाने के मुद्दे को फिर से झाड़-पोंछकर खड़ा किया जा रहा है। विश्व हिंदू परिषद के महासचिव प्रवीण तोगड़िया ने कहा है कि अयोध्या में मंदिर निर्माण का काम दिसंबर तक पूरा कर लिया जाएगा। मंदिर निर्माण के लिए लोगों को आंदोलित करने का विश्व हिंदू परिषद ने व्यापक कार्यक्रम बनाया है। जोधपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय बैठक में इस कार्यक्रम को स्वीकृत किया गया है। विहिप 16 अगस्त से अयोध्या से हनुमान शक्ति जागरण अभियान छेड़ चुकी है। इस कार्यक्रम में देश के दो लाख गांवों में ले जाया जाएगा। देश भर में हिंदू भक्त कार्यकर्ताओं की भर्ती का काम चल रहा है। राम रथ यात्रा और राम शिला पूजन के बाद यह विश्व हिंदू परिषद के सबसे व्यापक कार्यक्रमों में से एक है।

ये राजनीतिक गतिविधियां ऐसे समय में हो रही हैं, जब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का फैसला आने वाला है। इस संभावित फैसले को लेकर उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के कई हिस्सों में तनाव बढ़ाने की कोशिशें चल रही हैं। ऐसे नाजुक समय में मीडिया इस बात को लेकर सर्वे कर रहा है कि हिंदू मकान मालिक मुसलमानों को किराए पर अपना मकान नहीं देते हैं (गोया यह कोई नई बात हो)। मंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं के बयान एक बार फिर से प्रमुखता से आने लगे हैं। सरकार बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान चलाकर लोगों से शांति बनाए रखने की अपील कर रही है। शहरों में शांति बनाए रखने के लिए पुलिस की चौकसी बढ़ा दी गई है और उत्तर प्रदेश के कई शहरों में अर्धसैनिक बल तैनात किए गए हैं। पूरा माहौल ऐसा है मानो तूफान से पहले की शांति हो।

विश्व हिंदू परिषद ने राममंदिर आंदोलन का यह चरण इसलिए शुरू किया है ताकि “विराट हिंदू समाज” को एकजुट किया जा सके। सवाल उठता है कि क्या हिंदू समाज की एकता खतरे में है। और अगर हिंदू एकता को सचमुच खतरा है तो वह खतरा किस वजह से है? हिंदू समाज अपनी संरचना और अंतर्वस्तु में एक विभाजित समाज है। यह विभाजन किसी बाहरी षड्यंत्र की वजह से नहीं है। जिसे हम हम हिंदू समाज कहते हैं, वह दरअसल ऊंचे और निचले स्तरों पर मौजूद अलग-अलग समुदायों का गठबंधन है। हिंदुओं के सभी धार्मिक ग्रंथ निर्विवाद रूप से ऊंच और नीच के इस विभाजन को स्थापित और स्वीकार करते हैं। यह विभाजन अंग्रेजों की साजिश नहीं है, जैसा कि कुछ लोग बताने की कोशिश करते हैं। अंग्रेजों के आने से बहुत पहले इस देश में ऋग्वेद, श्रीमद्भाग्वतगीता और तमाम स्मृतियां लिखी जा चुकी थीं।

भारत का संविधान भी जातिभेद का अंत करने की घोषणा नहीं करता। जाति के आधार पर भेदभाव कानूनी अपराध भी नहीं है। हर हिंदू कम से कम दो पहचान रखता है। एक उसी धार्मिक पहचान है और दूसरी उसकी जातीय पहचान है। विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस जैसी संस्थाओं को इस बात से ऐतराज नहीं है कि हर हिंदू की दो पहचान है। वर्ण और जाति की विभेदकारी व्यवस्था से इन संस्थाओं को शिकायत नहीं है। इन्हें शिकायत सिर्फ तभी होती है जब वर्णक्रम में नीचे के स्तरों पर मौजूद समुदाय अपनी जातीय पहचान को आर्थिक और शैक्षणिक अंतर्संबंधों के साथ जोड़ते हैं। मिसाल के तौर पर कोई मझौली या दलित जाति अगर यह मांग उठाती है कि देश के संसाधनों और अवसरों में उसे पूरा हिस्सा नहीं मिल रहा है, तो यह विश्व हिंदू परिषद या आरएसएस के लिए एक असहज स्थिति है, लेकिन किसी जाति का दलित या पिछड़ा होना इन संगठनों के लिए चिंता का कारण नहीं है। जब एक साथ कई पिछड़े या दलित समुदाय अपनी हिस्सेदारी की बात करते हैं तो इन संगठनों को हिंदू एकता खतरे में जान पड़ती है।

जातीय भेदभाव दूर करने या जाति विभाजनों को कमजोर करने के लिए कोई भी कोशिश न करने वाली विहिप और आरएसएस जैसी संस्थाओं को नीचे से होने वाला हर जातीय उभार चिंतित करता है। देश के सभी मंदिरों के पुजारी एक विशेष जाति के हों, यह बात विहिप और आरएसएस को सहज लगती है, लेकिन इस देश में ओबीसी जातियों को आरक्षण दिया जाए, तो उसे दिक्कत होने लगती है। ये संगठन आरक्षण को एक विभेदकारी तत्व मानते हैं और हमेशा इसका विरोध करते हैं।

राममंदिर आंदोलन के पहले दौर को देखें तो वह देश में पिछड़ा उभार का भी समय था। मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की मांग जिस दौर में तेज हो रही थी, उसी दौर में विश्व हिंदू परिषद ने राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू किया। उत्तर भारत में पिछड़ा उभार और रामजन्मभूमि आंदोलन साथ साथ चले। जब 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा की, तो उसके फौरन बाद लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा निकाली। यह रथयात्रा हिंदुओं को एकजुट करने और जातीय पहचान के सवालों को कमजोर करने में सफल रही क्योंकि इस आंदोलन में पिछड़ी जाति के लोग बड़ी तादाद में शामिल हुए। पिछड़ों को सबल बनाने के सवाल को हिंदू बनाम मुसलमान के ज्यादा उग्र और हिंसक आंदोलन के भार तले दबा दिया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि मंदिर आंदोलन के कई नेता जैसे उमा भारती, कल्याण सिंह, नरेंद्र मोदी, विनय कटियार, सुंदरलाल पटवा, सुशील मोदी, शिवराज सिंह चौहान, साक्षी महाराज आदि पिछड़ी जातियों के हैं।

सवाल उठता है कि मंडल आयोग लागू होने के 20 साल बाद अब जबकि जाति जनगणना के सवाल पर एक बार फिर से राजकाज से लेकर आर्थिक गतिविधियों में विभिन्न समुदायों की हिस्सेदारी के सवाल पर चर्चा शुरू हो गई है तो क्या एक बार फिर से मंदिर आंदोलन के जरिए इन सवालों को दबाने और हिंदू समाज को सांप्रदायिक आधार पर एकजुट करने की कोशिश की जाएगी? क्या पिछड़ी जातियां एक बार फिर से अपने तबकाई सवालों को पीछे छोड़कर धार्मिक मुद्दे पर व्यापक हिंदू पहचान के तहत एकजुट हो जाएंगी? हनुमान शक्ति जागरण अभियान के जरिए विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस इसकी कोशिश जरूर करेंगे। जाति जनगणना के सवाल पर आरएसएस कितना गंभीर है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि संसद में इस सवाल पर चर्चा के फौरन बाद आए आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने विरोध में संपादकीय लिखा। अगस्त महीने में ऑर्गनाइनजर का एक ऐसा अंक आया जिसमें जाति जनगणना के खिलाफ पांच आलेख आए। इस सवाल पर आरएसएस के सरसंघचालक से लेकर विहिप के प्रमुख नेता अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया तक के बयान आ चुके हैं।

विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस को जाति जनगणना के विरोध के सवाल पर अगड़े मुस्लिमों का भी समर्थन मिल रहा है। आरिफ मुहम्मद खान जाति जनगणना के विरोधियों में अग्रणी हैं। मुसलमानों की अगड़ी बिरादरी के नेता नहीं चाहेंगे कि पसमंदा (पीछे छूट गए) मुसलमानों के सवाल सामने आएं। विहिप जिस तरह चाहता है कि हिंदू अपनी जातीय पहचान के साथ आर्थिक और शैक्षणिक सवालों को न जोड़ें, वही मंशा मुसलमानों की अगड़ी बिरादरी वालों की भी है। मंदिर के आंदोलन के विरोध में होने वाली प्रतिक्रिया मुसलमानों को भी जातीय पहचान भूलने को मजबूर कर सकती है। लिहाजा आने वाले दिनों में दोनों ओर से तीखी और भड़काने वाली बयानबाजी सुनने को मिल सकती है। तमाम भेदभाव के साथ हिंदू सिर्फ हिंदू और मुसलमान सिर्फ मुसलमान रहें और आर्थिक, शैक्षणिक और अवसर संबंधी भेदभाव के सवाल न उठाएं, यह दोनों ही धर्मों के प्रभुत्वशाली समुदायों के हितों में है। इस पृष्ठभूमि में आने वाले दिनों में हमें रामजन्मभूमि आंदोलन में नई तेजी दिख सकती है।

कांग्रेस के लिए भी यह अच्छी स्थिति है। पिछड़ा उभार और पिछड़ा-मुस्लिम एकता कांग्रेस के लिए ऐतिहासिक रूप से खतरनाक साबित हुई है। इस वजह से हिंदी प्रदेश के दो प्रमुख राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में वह लगभग दो दशक से सत्ता से बाहर है। हिंदू-मुस्लिम टकराव उसके लिए अपेक्षाकृत छोटी समस्या है। जिन राज्यों में पिछड़ा उभार नहीं है वहां घूम-फिरकर सत्ता में उसकी वापसी होती रही है। ऐसे राज्यों में राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा आदि शामिल हैं। इसलिए कांग्रेस हर कीमत पर चाहेगी कि पिछड़ी जाति के लोग अपनी पहचान को राजनीतिक रूप से अभिव्यक्त न करें। पिछड़ा उभार होने की स्थिति में कांग्रेस के लिए महिला आरक्षण विधेयक को लागू करना भी मुश्किल हो जाएगा। इस विधेयक के जरिए कांग्रेस संसद और विधानसभाओं की सामाजिक संरचना को बदलना चाहती है।

यहां यह सवाल उठता है कि क्या इस देश के वंचित तबके एक बार फिर से अपने हितों के खिलाफ मंदिर मुद्दे को लेकर सांप्रदायिक पहचान के साथ खड़े हो जाएंगे। सांप्रदायिक दंगों में दंगों में पिछड़ी और दलित जातियों को हमेशा आगे किया जाता है। राम जन्मभूमि आंदोलन में पिछड़ों ने अपनी जातीय पहचान के मुकाबले धार्मिक पहचान को ज्यादा महत्व दिया। इस वजह से मंडल आयोग से मिलने वाले लाभ को पिछड़ी जाति के लोग काफी हद तक गंवा चुके हैं। अदालतों से लेकर नौकरशाही के रुख के कारण मंडल आयोग की रिपोर्ट ढंग से लागू नहीं हो पाई। केंद्र सरकार की नौकरशाही में पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी आज भी 7 फीसदी है। देश की आधी से अधिक आबादी होने के बावजूद ऊंचे पदों पर पिछड़े लगभग नदारद हैं। पिछड़ा आरक्षण लागू होने के 17 साल बाद यह स्थिति है। जाहिर है मंडल कमीशन को विफल बना दिया गया है।

अब जबकि जाति जनगणना के आधार पर यह जानने की मांग हो रही है कि देश के संसाधनों और अवसरों पर किसकी कितनी हिस्सेदारी है तो सरकार ने जनगणना से जाति को बाहर कर दिया है। अलग से जाति गिनने का केंद्र सरकार का फैसला जातियों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति को छिपाने के लिए है, जिसपर 2000 करोड़ रुपए फूंक दिए जाएंगे। जनगणना से अलग जाति की गणना एक निरर्थक कवायद है। एक तरफ तो केंद्र सरकार ने जाति जनगणना की मांग ठुकरा दी है, वहीं अयोध्या आंदोलन के बहाने हिंदू और मुसलमान पिछड़ों को सांप्रदायिक आधार पर गोलबंद करने के लिए कोशिशें तेज हो गई हैं। मंडल-एक को नाकाम करने के लिए शुरू किया गया मंदिर-एक आंदोलन कामयाब हो गया था। मंदिर-एक के आंदोलन को पिछड़ों ने अपने कंधों पर ढोया था। क्या इस बार भी इतिहास खुद को दोहराएगा?

(यह आलेख संपादन के बाद दैनिक जनसत्ता के संपादकीय पेज पर 23 सितंबर, 2010 को छपा है)

Tuesday, September 21, 2010

कॉमनवेल्थ, मीडिया और एक पहेली

दिलीप मंडल
यह आलेख 16 अगस्त को लिखा गया था, जब मीडिया में कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर पर्दाफाश पर पर्दाफाश हो रहे थे। कथादेश के कॉलम अखबारनामा में यह छपा है। उस समय यह अंदाजा लगाने की कोशिश की गयी थी कि जब खेल करीब होंगे तो देश का प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किस तरह से एक्ट करेगा। आप ही बताएं कि क्या इस आलेख में जतायी गयी चिंताएं आपको अब वास्तविकता के करीब लगती हैं?

कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने में अब चंद रोज बचे हैं और जब कथादेश का यह अंक आप पढ़ रहे होंगे तो मीडिया के बड़े हिस्से में कॉमनवेल्थ गेम्स के कवरेज का रंग-ढंग बदल चुका होगा। मेरा अनुमान है (जिसके गलत होने पर मुझे बेहद खुशी होगी) कि कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर नकारात्मक या आलोचनात्मक खबरें कम होती चली जाएंगी। कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार की खबरें शायद न छपें। हालांकि तैयारियां न होने या स्टेडियम की दीवार गिर जाने जैसी घटनाओं-दुर्घटनाओं को दर्ज करने की मजबूरी मीडिया के सामने जरूर होगी। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे एक दुक्का बड़े समूह, जिनकी विज्ञापनों से आमदनी अरबों रुपये में है, कॉमनवेल्थ के विज्ञापनों की अनदेखी कर सकते हैं। लेकिन ऐसे समूह अपवाद ही होंगे।

वर्ष 2010 की पूरी जुलाई और अगस्त के पहले पखवाड़े तक देश के राष्ट्रीय कहे जाने वाले ज्यादातर समाचार पत्रों में कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर नकारात्मक खबरें प्रमुखता से छपीं। कॉमनवेल्थ खेलों के कवरेज में मुख्य रूप से दो बातों को प्रमुखता मिली। एक, कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और दो कॉमनवेल्थ गेम्स की अधूरी तैयारियां और दिल्ली शहर में टूट-फूट को समेट पाने में सरकारी एजेंसियों की नाकामी। इन खेलों के आयोजन में सरकारी पैसे की लूट और सरकारी मशीनरी की अक्षमता को लेकर समाचार पत्रों ने जमकर लिखा। कॉमनवेल्थ खेलों के कवरेज में तस्वीरों का खूब इस्तेमाल किया गया और इनके जरिए यह बताया गया कि किस तरह से न स्टेडियम तैयार हैं, न शहर दिल्ली।

अगर मैं यह अनुमान लगा रहा हूं कि आने वाले दिनों में कॉमनवेल्थ को लेकर मीडिया कवरेज की दिशा बदल जाएगी, तो इसका आधार यह है कि आयोजन समिति इस बीच अपना विज्ञापन अभियान शुरू कर चुकी होगी। छवि निर्माण की बड़े अभियानों के अब तक अनुभवों के आधार पर कहा जा जा सकता है कि मीडिया या इसके बड़े हिस्से का प्रबंधन मुमकिन है। सरकार में पत्र सूचना कार्यालय यानी पीआईबी से लेकर डीएवीपी, जनसंपर्क विभाग यह काम करते हैं। निजी कंपनियों में भी मीडिया रिलेशन, कॉरपोरेट कम्युनिकेशन के विभाग होते हैं। सैकड़ों की संख्या में मीडिया मैनेजमेंट और पब्लिक रिलेशन कंपनियां देश और विदेश में मीडिया का प्रबंधन करती हैं। यानी क्या छपेगा और क्या नहीं छपेगा का निर्धारण अक्सर समाचार कक्ष से बाहर तय होता है।

कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन और इसके लिए दिल्ली को संवारने पर अलग अलग अनुमानों के मुताबिक 35,000 करोड़ से लेकर 85,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। कुछ लोग तो इस रकम को एक लाख करोड़ के ऊपर तक बता रहे हैं। इस रकम का एक हिस्सा मीडिया प्रबंधन पर खर्च होना है। मीडिया में छोटे पैमाने पर कॉमनवेल्थ का प्रचार अभियान शुरू भी हो चुका है। क्वींस बैटन रिले की शुरुआत के दौरान छिटपुट विज्ञापन मीडिया में आए। लेकिन उसके बाद यह विज्ञापन अभियान रोक दिया गया। मीडिया में कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर नकारात्मक खबरों को आप एक हद तक आयोजन समिति के मीडिया कुप्रबंधन या मिसमैनेजमेंट का नतीजा मान सकते हैं। यह बात पूरी तरह से सही न हो, लेकिन इसमें एक सीमा तक सच्चाई है कि अगर आयोजन समिति ने मीडिया प्रबंधन को गंभीरता से लिया होता और अरबों की लूट का एक हिस्सा मीडिया पर भी लुटाया होता तो कॉमनवेल्थ खेलों की इतनी बुरी छवि न बनती। कल्पना कीजिए कि पांच अधबने स्टेडियम की जगह पांच तैयार स्टेडियम या अधबने स्टेडियम के तैयार हिस्सों की चमचमाती तस्वीर हर दिन अखबारों में छपती, तो कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर लोगों के मन में क्या छवि बनती! कॉमनवेल्थ आयोजन समिति मीडिया को इसके लिए तैयार न कर सकी, यह आयोजन समिति के मीडिया प्रबंधन विभाग की बड़ी नाकामी है।

इस देश में किसी भी बड़े विज्ञापनदाता के खिलाफ मीडिया में आम तौर पर कुछ नहीं छपता। मिसाल के तौर पर हिंदुस्तान लीवर, मारुति-सुजूकी, प्रोक्टर एंड गैंबल, टाटा, रिलायंस इंडस्ट्रीज, हीरो होंडा, एयरटेल, बिगबाजार-पेंटालून आदि के खिलाफ शायद ही आपने कभी कोई खबर देखी होगी। कोला कंपनियां इस देश के बच्चों और नौजवानों की सेहत बिगाड़ रही हैं और उन्हें मोटा बना रही हैं, लेकिन सेहत के किसी टीवी कार्यक्रम या किसी अखबारी पन्ने पर कोला ड्रिंक्स के खिलाफ पढ़ने को शायद ही मिलेगा। पिज्जा –बर्गर बेचने वाली कंपनियों के खिलाफ भी शायद ही कुछ छपता है क्योंकि वे बड़ी विज्ञापनादाता कंपनियां हैं। कुछ साल पहले जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने यह बताया कि कोला ड्रिंक्स में पेस्टिसाइड हैं तो कोला कंपनियों ने अपने बचाव में लगभग 40 करोड़ रुपये का विज्ञापन अभियान शुरू कर दिया और मीडिया में कोला ड्रिंक्स के खिलाफ खबरें बंद हो गईं। हाल ही में जब छत्तीसगढ़ में आदिवासी बहुल इलाके में खनन को लेकर विवाद तेज हुआ तो दुनिया की सबसे बड़ी माइनिंग कंपनियों में से एक वेदांता ने अखबारों में पूरे पन्ने के कई विज्ञापन दिये। अब अखबारों में आपको खनन को लेकर विरोध की खबरें पढ़ने को शायद ही मिलेंगी।

पिछले लोकसभा चुनाव से पहले 2008-2009 में केंद्र सरकार ने अपना विज्ञापन बजट दो गुना बढ़ा दिया था। मीडिया प्रबंधन का यह सरकारी तरीका था। भारत सरकार के दृश्य और श्रव्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) से जारी होने वाले विज्ञापन के लिए किया गया भुगतान 2007-8 में 246.5 करोड़ रु था जो 2008-9 में 472.1 करोड़ हो गया।(1) इसी तरह रेल मंत्रालय का प्रिंट माध्यमों को दिए गये विज्ञापनों पर खर्च 2007-8 में 159.1 करोड़ रु था जो 2008-9 में बढ़कर 208 करोड़ रु हो गया। (2) बाकी सरकारी विभागों और सरकारी कंपनियों का विज्ञापन खर्च भी चुनावी साल में अचानक काफी तेजी से बढ़ गया। डीएवीपी से विज्ञापनों के लिए ज्यादा भुगतान किए जाने के बारे में पूछे गये सवाल के जवाब में सरकार ने संसद को जानकारी दी कि ऐसा विज्ञापनों की दर बढ़ाए जाने और मंत्रालयों और विभागों द्वारा ज्यादा विज्ञापन जारी किए जाने की वजह से हुआ। सरकार चुनाव से ठीक पहले मीडिया संस्थानों पर विज्ञापन की शक्ल में पैसों की बारिश करके क्या हासिल करना चाहती है, इसे समझना कठिन नहीं है।

कॉमनवेल्थ खेलों की आयोजन समिति से गलती यह हुई है कि उससे समय पर अपना विज्ञापन अभियान शुरू नहीं किया। अगर वह 400 से 500 करोड़ का विज्ञापन अभियान चला रही होती तो मीडिया को नियंत्रित करना उसके लिए मुश्किल नहीं होता। इस समय जबकि अखबार जिंदा रहने से लेकर मुनाफे के लिए विज्ञापनों पर पूरी तरह निर्भर हैं, विज्ञापन बंद करने की धमकी से बड़ा सेंसरशिप कुछ भी नहीं है। इससे न बचा जा सका है न ही इसके विरोध की कोई परंपरा बन पायी है।

बाजार के दबावों की वजह से मीडिया का निष्पक्ष और निरपेक्ष रह पाना अब मुमकिन नहीं है। मीडिया का कारोबार लगभग पूरी तरह विज्ञापनों पर निर्भर है। मीडिया विश्लेषक परंजय गुहाठाकुरता की राय में खास मीडिया संगठनों के कुल राजस्व का 90 फीसदी तक विज्ञापनों से आ रहा है। (3) इस वजह से कंटेंट तैयार करने की उसकी स्वायत्तता पर पाबंदियां लग जाती है। कई बार विज्ञापनदाता मामूली सी आलोचना से नाराज होकर तमाम विज्ञापन रोक लेते हैं। जरूरी नहीं है कि ऐसा सिर्फ आलोचनात्मक खबरें छापने या दिखाने के लिए किया गया हो। कई बार किसी कंपनी के वित्तीय नतीजे और बाजार में कंपनी के कामकाज को कमजोर माने जाने की खबर पर भी ऐसी कार्रवाई की जाती है।(4)

कई विश्लेषक ये कहने लगे हैं कि खबरों में की जा रही इस तरह की मिलावट मीडिया इंडस्ट्री के लिए ठीक है और लंबी अवधि में ये विज्ञापनदाताओं के लिए भी फायदेमंद नहीं रहेगा। ये सोने के अंडे के लालच में मुर्गी को मारने वाली हरकत है। कोई भी उद्योग थोड़े समय के फायदे के लिए अपने उत्पाद को खराब नहीं करता। खासकर अपने किसी ऐसे उत्पाद के साथ कोई कंपनी छेड़छाड़ नहीं करती, या क्वालिटी के साथ समझौता नहीं करती, जो ग्राहक की आदत में शामिल हो। अखबार, पत्रिकाएं, चैनल ये सब लोग आदत के मुताबिक देखते हैं। पत्रकारिता के लिए समाचार और विज्ञापन का घालमेल किस हद तक खतरनाक हो सकता है इस बारे में पत्रकार सुरेंद्र किशोर की टिप्पणी गौरतलब है। हालांकि ये टिप्पणी लोकसभा चुनाव 2009 के दौरान कुछ अखबारों द्वारा समाचार के स्पेस को विज्ञापनों से भरने यानी पेड न्यूज के संदर्भ में है:

“यदि मीडिया की ताकत ही नहीं रहेगी तो कोई अखबार मालिक किसी सरकार को किसी तरह प्रभावित नहीं कर सकेगा। फिर उसे अखबार निकालने का क्या फायदा मिलेगा। यदि साख नष्ट हो गयी तो कौन सा सत्ताधारी नेता, अफसर या फिर व्यापारी मीडिया की परवाह करेगा। इसलिए व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो यह अखबार के संचालकों के हक में है कि छोटे-मोटे आर्थिक लाभ के लिए पैकेज पत्रकारिता को बढ़ावा न दें।” (5)

सुरेंद्र किशोर दरअसल भारतीय पत्रकारिता को एक नयी बीमारी पैकेज पत्रकारिता या पेड न्यूज से बचने की नसीहत देते हुए अखबार निकालने के पीछे भारतीय मीडिया उद्योग के व्यवसाय के अलावा बाकी हितों और स्वार्थों की चर्चा भी वे यहां कर रहे हैं। वे यह नहीं चाहते कि मीडिया अपनी साख इस हद तक गंवा दे कि उसकी हैसियत की खत्म हो जाए क्योंकि अगर मीडिया की साख ही नहीं बचेगी, तो मीडिया के जरिए वे स्वार्थ पूरे नहीं पाएंगे, जिसके लिए कोई व्यवसायी मीडिया कारोबार शुरू करता है। अखबार मालिकों द्वारा सरकार को प्रभावित करने वाली उनकी बात के मायने गंभीर हैं। सुरेंद्र किशोर पेड न्यूज का विरोध इस आधार पर नहीं कर रहे हैं कि ये अनैतिक है या पत्रकारिता और लोकतंत्र को इससे कोई नुकसान होगा, वे एक व्यावहारिक पक्ष लेते हैं और बताते है कि ऐसा करना मीडिया मालिकों के हित में भी नहीं होगा।

विज्ञापन में बसी है मीडिया की जान

भारत में मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय के विकास के पीछे मुख्य ताकत विज्ञापनों से मिले पैसे की ही है। 2006-2008 के बीच का समय भारतीय विज्ञापन बाजार में तेज विकास का दौर रहा। इस दौरान विज्ञापनों से होने वाली आमदनी में हर साल औसतन 17.1 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई। (6) 2009 में भारतीय विज्ञापन कारोबार 22,000 करोड़ रुपये का हो गया। वैश्विक मंदी और भारत पर उसके असर की वजह से 2008 के मुकाबले 2009 में विज्ञापन कारोबार में मामूली (0.4%) की गिरावट आई। लेकिन 2009-2014 के दौरान विज्ञापन कारोबार की औसत सालाना विकास दर 14 फीसदी से ज्यादा होने का अनुमान है। आर्थिक माहौल के बदलने से विज्ञापनों से होने वाली आमदनी पर असर जरूर पड़ा है लेकिन विज्ञापन कारोबार के बढ़ने की दर जीडीपी विकास दर के किसी भी अनुमान से ज्यादा है।

मीडिया के अलग अलग माध्यमों की बात करें तो प्रिंट माध्यम के विज्ञापन का बाजार 2009 में 10,300 करोड़ रुपये का था जिसके 2014 में बढ़कर 17,640 करोड़ रुपये हो जाने का अनुमान है। यानी अगले कुछ वर्षों में प्रिंट के विज्ञापनों का कारोबार सालाना 11.4 फीसदी की औसत रफ्तार से बढ़ेगा। वहीं, टीवी विज्ञापनों का बाजार 2009 में 8,800 करोड़ रुपये था जिसके 2014 में बढ़कर 18,150 करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है। प्रतिशत के हिसाब से सालाना बढ़ोतरी का आंकड़ा 15.6 फीसदी का रहेगा। (7) बढ़ोतरी का ये सिलसिला वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण विज्ञापन बाजार में आयी शिथिलता के बावजूद है।

ऐडेक्स इंडिया की रिपोर्ट के एक्सचेंज फॉर मीडिया में छपे विश्लेषण के मुताबिक 2009 में प्रिंट को सबसे ज्यादा विज्ञापन शिक्षा क्षेत्र से मिले। इसके बाद सेवा क्षेत्र और बैंकिग फाइनैंस सेक्टर का नंबर है। वैसे किसी एक कंपनी की बात करें तो सबसे ज्यादा विज्ञापन टाटा मोटर्स ने दिए। इसके बाद एलजी, मारुति सुजूकी, प्लानमैन कंसल्टेंट, स्टेट बैंक, सैमसंग, बीएसएनएल, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और जनरल मोटर्स ने दिए। इसी दौरान ऑटो कंपनियों का विज्ञापन 7 परसेंट बढ़ गया। कुल विज्ञापनों में 95 फीसदी अखबारों के हिस्से आए, जबकि 5 फीसदी विज्ञापन पत्रिकाओं को मिले। (8)

विज्ञापन है असली किंग

अखबारों में विज्ञापनों के बढ़ते महत्व और कंटेंट पर उसके असर के बारे में प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस जी एन रे ने भी चिंता जताई है। उन्होंने कहा है कि प्रेस के लिए विज्ञापन आमदनी का मुख्य स्रोत बन गये हैं। महानगरों में तो प्रेस की कुल आमदनी का 70 से 80 फीसदी विज्ञापनों से आ रहा है। इस वजह से अखबारों में विज्ञापन ज्यादा ही जगह घेरने लगे हैं। समाचार और विज्ञापन का अनुपात लगातार विज्ञापनों के पक्ष में झुक रहा है। समाचार पत्रों की नीति और विचारों पर विज्ञापनों का दखल, जितना लगता है, उससे ज्यादा हो चुका है। कॉरपोरेट कम्यूनिकेशंस और ग्राहकों को लुभाने के लिए दिए जा रहे विज्ञापनों में तेजी से बढ़ोतरी के साथ अखबारों की आमदनी जोरदार होती है। इस वजह से अखबारों में पन्ने बढ़े हैं, दूसरी ओर अखबारो की कीमत घटी है। (9)

ऐसे समय में जब अखबारों और चैनलों की जान विज्ञापन नाम के तोते में बसी हो तब, कॉमनवेल्थ आयोजन समिति ने इस तोते को दाना खिलाने में देर करने की गलती की। इस गलती का सुधार करते ही कॉमनवेल्थ गेम्स की इमेज बदल सकती है। कॉमनवेल्थ खेलों की खबर को इस नजरिए से भी देखने-पढ़ने की जरूरत है।

संदर्भ:

(1) लोकसभा, अतारांकित प्रश्न संख्या-4014, जवाब की तारीख-15 दिसंबर, 2009
(2) लोकसभा में तारांकित प्रश्न संख्या-472, जवाब की तारीख-6 अगस्त, 2009
(3) मीडिया एथिक्स: ट्रूथ, फेयरनेस एंड ऑब्जेक्टिविटी, ऑक्सफोर्ड, 2009
(4) इंडियन मीडिया बिजनेस, विनीता कोहली, 2003, पेज-33
(5) पत्रकार प्रमोद रंजन का पैकेज पत्रकारिता पर आलेख, www.janatantra.com
(6) पीडब्ल्यूसी इंडियन एंटरटेनमेंट ऐंड मीडिया आउटलुक 2009, पेज-16
(7) फिक्की-केपीएमजी इंडियन मीडिया ऐंड एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री रिपोर्ट, 2010, पेज-150
(8) www.exchange4media.com
(9) 16 नवंबर 2009 को नेशनल प्रेस डे पर प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस जी एन रे का हैदराबाद में भाषण
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