Custom Search

Wednesday, April 28, 2010

श्यामाप्रसाद को हां है तो भीमराव को नहीं क्यों?

दिलीप मंडल

दिल्ली की सबसे ऊंची इमारत का नाम जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम पर रखा गया है। ये इमारत दिल्ली नगर निगम की है और इस समय दिल्ली नगर निगम में भारतीय जनता पार्टी का बहुमत है। इसलिए माना जा सकता है कि बीजेपी जिन लोगों से प्रेरणा लेती है और जिन्हें महान मानती है, उनके नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखने का उसे अधिकार है। इस बात पर न तो कांग्रेस ने सवाल उठाया है न ही वामपंथी दलों ने और न ही सपा, बसपा या राजद ने। सभी राजनीतिक पार्टियां इस राजनीतिक संस्कृति को मानती हैं कि सत्ता में होने के दौरान वे किसी सरकारी योजना या भवन, पार्क, सड़क, हवाई अड्डे या किसी भी संस्थान का नाम अपनी पसंद के किसी शख्स के नाम पर रख सकती हैं। इस मामले में राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति है। इसलिए जिस जनसंघ की विचारधारा और परंपरा से सेकुलर दलों को इतना परहेज है, उसके संस्थापक के नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखे जाने को लेकर कहीं किसी तरह का विवाद नहीं है।

इस मामले में एकमात्र व्यतिक्रम या अपवाद या विवाद आंबेडकर और कांशीराम की स्मृति में बनाए गए पार्क और स्थल हैं। इस देश में हर दिन किसी न किसी नेता की स्मृति में कहीं न कहीं कोई शिलान्यास, कोई उद्घाटन या नामकरण होता है, लेकिन विवाद सिर्फ तभी होता है जब किसी दलित या वंचित नायक के नाम पर कोई काम किया जाता हो। ऐसा भी नहीं है कि विवाद सिर्फ तभी होता है, जब बहुजन समाज पार्टी किसी दलित नायक के नाम पर कोई काम करती है। कांग्रेस के शासनकाल में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम भीमराव आंबेडकर के नाम पर रखे जाने को लेकर कई दशकों तक हंगामा चला और कई बार विरोध ने हिंसा का रूप भी ले लिया। लगभग दो दशक तक नामांतर और नामांतर विरोधी आंदोलन और हिंसा तथा आत्मदाह की घटनाओं के बाद जाकर 1994 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बाबा साहब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय रखा जा सका। नामांतर विरोधी आंदोलन को लगभग सभी बड़े राजनीतिक दलों का खुला या प्रछन्न समर्थन हासिल था।

नामांतर आंदोलन के बाद देश में इस तरह का सबसे बड़ा विवाद उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के शासन काल में बनाए जा रहे स्मारकों को लेकर है। इस विवाद में विरोधियों के पास मुख्य रूप में ये तर्क हैं कि उत्तर प्रदेश जैसे गरीब और पिछड़े राज्य में सरकार इतनी बड़ी रकम स्मारकों पर क्यों खर्च कर रही है। दूसरा तर्क ये दिया जाता है कि बहुजन समाज पार्टी सिर्फ अपनी विचारधारा के नायकों के नाम पर स्मारक क्यों बनवा रही है। यह आरोप भी लगाया जाता है बहुजन समाज पार्टी ये सब राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है। ये सारे तर्क बेहद खोखले हैं। अगर इन्हें दूसरे दलों की सरकारों पर लागू करके देखा जाए, तो इनका खोखलापन साफ नजर आता है। राजघाट, गांधी स्मृति, शांति वन, वीर भूमि, शक्ति स्थल, तीनमूर्ति भवन, इंदिरा गांधी स्मृति, दीन दयाल उपाध्याय पार्क आदि-आदि हजारों स्मारकों पर आने वाले खर्च की अनदेखी करके ही बहुजन समाज पार्टी सरकार पर इस मामले में फिजूलखर्ची का आरोप लगाया जा सकता है।

कांग्रेस ने अपने पार्टी से जुड़े नायकों के नाम पर जो कुछ किया है, उस पर आए खर्च की बराबरी बहुजन समाज पार्टी शायद कभी नहीं कर पाएगी। इस देश में जितने गांधी पार्क और नेहरू पार्क हैं, उतने फुले, आंबेडकर और कांशीराम पार्क बीएसपी अगले कई दशक में नहीं बना पाएगी। ये बराबरी का मुकाबला नहीं है। बीजेपी भी अपने नायकों की प्रतिमाएं और स्मारक खड़े करने में पीछे नहीं है और ये सब सरकारी खर्च पर ही होता है। हेडगेवार, गोलवलकर, विनायक दामोदर सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम को चिरस्थायी बनाने की बीजेपी ने भी कम कोशिश नहीं की है। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर केंद्र सरकार का एक सूचना प्राद्योगिकी संस्थान ग्वालियर में है और हिमाचल प्रदेश में भी वाजपेयी के नाम पर एक माउंटेनियरिंग इंस्टिट्यूट है। अपने नायकों को स्थापित करने में कांग्रेस और बीजेपी की तुलना में समाजवादी पार्टी, आरजेडी, बीएसपी जैसी पार्टियां काफी पीछे हैं। देश के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों, पार्कों, सड़कों, शिक्षा संस्थानों, पुलों, संग्रहालयों, चिड़ियाघरों पर कांग्रेस के नेताओं के नाम हैं और इस गढ़ में बीजेपी ने थोड़ी-बहुत सेंधमारी की है। ये संयोग हो सकता है कांग्रेस और बीजेपी जिन नायकों के नामों को चिरस्थायी बनाने के लिए उनके नाम पर कुछ करती है, उनमें लगभग सभी सवर्ण जातियों के हैं। जबकि बीएसपी ने जिन महापुरुषों के नाम पर स्मारक बनाए हैं, वे सभी अवर्ण हैं। सिर्फ इस एक बात को छोड़ दें तो कांग्रेस, बीजेपी और बीएसपी में कोई फर्क नहीं है।

कुछ लोगों को इस बात पर एतराज हो सकता है कि गांधी और नेहरू जैसे नेताओं को खास जाति या पार्टी से जोड़कर बताया जा रहा है। यहां सवाल उठता है कि आंबेडकर जैसे विद्वान और संविधान निर्माता को दलित नेता के खांचे में फिट किया जाता है और उनके स्मारकों की अनदेखी की जाती है(दिल्ली में जिस मकान में रहने के दौरान उनका देहांत हुआ, उसके बारे में कितने लोग जानते हैं और इसकी तुलना गांधी स्मृति या तीन मूर्ति भवन से करके देखें) तो जाति के प्रश्न की अनदेखी कैसे की जा सकती है। एक विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के सरकार के फैसले को अगर दो दशक तक इसलिए लंबित रखा जाता हो कि कुछ लोग इसके खिलाफ हैं, तो इसकी जाति के अलावा और किस आधार पर व्याख्या हो सकती है? जाति भारतीय समाज की एक हकीकत है और जिसने जाति की प्रताड़ना या भेदभाव नहीं झेला है, वही कह सकता है कि भारत में जाति का असर नहीं है। जाति का अस्तित्व और उसके प्रभाव को संविधान भी मानता है और कानून भी। जो जाति को नहीं मानते, उन्हें भी कोई न कोई जाति अपना मानती है।

ऐसे में सवाल सिर्फ इतना है कि गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी, हेडगेवार और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की स्मृति को जिंदा रखने में अगर कोई बुराई नहीं है तो फुले, शाहूजी महाराज, आंबेडकर, कांशीराम की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए प्रयास करने में कोई दोष कैसे निकाला जा सकता है? पिछड़ी और दलित जातियों के मुसलमानों के नायकों की भी स्थापना होनी चाहिए। बल्कि ये वे काम हैं, जो स्थगित थे और उन्हें अब पूरा किया जाना चाहिए। आखिर हर किसी को अपने नायक चाहिए। महाविमर्श के अंत के बाद अब कोई नायक हर किसी का नायक नहीं है। आज दलित और वंचित अपने नायकों की स्थापना कर रहे हैं। देश के लिए ये शुभ है। इससे घबराना नहीं चाहिए।

(यह लेख 28 अप्रैल को नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर छपा है)

Custom Search