Custom Search

Thursday, May 29, 2008

रंग लाया रमिला का संघर्ष

रमिला श्रेष्ठ की कहानी से आप परिचित हैं. (देखें पिछली पोस्ट : प्रचंड की राह रोके खडी रमिला). आज के अखबार आपको बता ही चुके हैं कि नेपाल मे राजशाही विधिपूर्वक समाप्त कर दी गयी. अब प्रचंड का नाम नये प्रधान मंत्री के रूप मे तय माना जा रहा है.

लेकिन उससे पहले कुछ और बातें हुयी हैं जिनका उल्लेख मीडिया ने प्रमुखता से करना जरूरी नही समझा. इन घटनाओं का ताल्लुक रमिला से है.
रमिला के पति रामहरी की लाश चितवन कैम्प से करीब २५ किलो मीटर दूर एक नदी मे तैरती पायी गयी. लाश रमिला को सौंपी गयी. इसके बाद रामहरी की विधिपूर्वक अंत्येष्टि की गयी.
माओवादी पार्टी के प्रमुख प्रचंड ने लिखित रूप मे रमिला से माफ़ी मांगी. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की तीसरी डिविजन का कमांडर विविध (जिस पर रामहरी के अपहरण और हत्या का आरोप है) को पार्टी से निकाला जा चुका है. माओवादी पार्टी ने इस मामले की पुलिस जांच मे पूरा सहयोग करने का वादा किया है. और इस सबके अतिरिक्त माओवादी पार्टी ने रमिला के परिवार को २० लाख रुपये का मुआवजा देना भी मंजूर किया है.

यह पहला मामला है जिसमे नेपाल की माओवादी पार्टी ने सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगी. अब इसे रमिला की जीत मन जाये या विविध की हार या माओवादी पार्टी का भूल सुधार या प्रचंड का पैंतरा या कुछ और यह आप ही बताएं तो बेहतर.

Wednesday, May 28, 2008

हिंदी ब्लॉगिंग की स्ट्रक्चरल समस्याएं

हम एक अर्धविकसित समाज हैं जो अक्सर तंद्रा में रहते हुए खुद को विश्वगुरू टाइप कुछ समझता रहता है। हिंदी भाषा में ब्लॉगिंग को लेकर 2007 के आखिरी दिनों में मैंने एक पोस्ट लिखी थी - 2008 में कैसी हो हिंदी ब्लॉगिंग। इस पोस्ट के उप-शीर्षक कुछ इस तरह थे -
हिंदी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो / हिंदी ब्ल़ॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो / विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए / ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो / ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो / ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो / नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु
कुछ ब्लॉग में चल रहे विवादों के बीच आपकी नजर इस बात पर जरूर गई होगी कि हिंदी ब्लॉग की संख्या तेजी से बढ़ रही है और नए पाठक आ रहे हैं। विषय आधारित ब्लॉगिंग के पांव धीरे-धीरे ही सही, पर जम रहे हैं। ये सिलसिला आने वाले दिनों में और तेज होगा। ब्लॉग के माध्यम से जो लोग गिरोह बनाना और चलाना चाहते हैं वो ब्लॉग नहीं होता तो कोई और रास्ता निकाल लेते। इसके लिए ब्लॉग को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

अगर आप विकसित समाजों और भाषाओं में चल रही ब्लॉगिंग में हिंदी भाषाई ब्लॉगिंग का 15/20 साल के बाद का भविष्य देखना चाहें तो तस्वीर कुछ साफ होगी। पश्चिम के जमे हुए ब्लॉगर पॉलिमिक्स के कारण नहीं जाने जाते, न ही वो पढ़े जाने के लिए सनसनीखेज होने की मजबूरी से बंधे हैं। वो एक्साइटिंग हैं, उपयोगी हैं, हस्तक्षेप करते हैं, किसी समूह के हितों की बात करते हैं और इसलिए उनके लाखों पाठक हैं। वो लोगों की राय बनाने और बिगाड़ने की हैसियत रखते हैं। भारत में अजय शाह जैसे लोग अपने ब्लॉग पर सिर्फ ये बताते हैं कि आज उन्हें पढ़ने लायक क्या दिखा। वो ऐसी सामग्री का बिना टिप्पणी किए लिंक देते हैं और उनके ब्लॉग के ढाई हजार सब्सक्राइबर हैं।

पाठकों के लिए एग्रिगेटर पर निर्भर हिंदी ब्लॉगकारिता जब उस दिशा में बढ़ेगी तो आज की समस्याएं गायब कम हो जाएंगी। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक नींव के पत्थर बने ब्लॉगर और एग्रीगेटर के अच्छे प्रयासों के साथ कुछ कड़वाहट को भी पचाने के लिए हर किसी को तैयार रहना चाहिए। जिस तरह भारत में टीवी न्यूज चैनल की मजबूरी है कि वो सनसनीखेज बने रहें ताकि चैनल सर्फिंग करता हुआ दर्शक उसके साथ चिपका रहे, लगता है वैसी ही कुछ मजबूरी के हिंदी ब्लॉग के साथ हो गई है। नए ब्लॉगर्स के लिए ये रोल मॉडल नहीं बने तो बेहतर।

और अंत में - यशवंत-अविनाश प्रकरण में कुछ कह पाने के लिए मैं समर्थ नहीं हूं। दोनों अपना अपना पक्ष मजबूती से रख पाने में सक्षम हैं।

Friday, May 23, 2008

प्रचंड की राह रोके खडी रमिला

रमिला श्रेष्ठ पिछले महीने तक काठमांडू मे रहने वाली एक सामान्य गृहिणी थी. पति और दो बच्चों की उसकी छोटी सी दुनिया थी. पति रामहरी श्रेष्ठ एक रेस्टोरेंट चलाते थे जिससे उसका परिवार चलता था.

रामहरी से रमिला की मुलाक़ात १५ वर्ष पहले हुयी थी. दोनों मे प्यार हुआ और दो साल बाद यानी १३ साल पहले दोनों ने शादी कर ली. उसके बाद से उनका जीवन सामान्य ढंग से चल रहा था. पिछले साल तक ऐसा ही रहा जब काठमांडू के उनके मकान मे 'मैन पावर एजेंसी' के कुछ लोग किरायेदार के रूप मे रहने आये. बाद मे पता चला वे माओवादी पार्टी के गुरिल्ला दस्ते के लोग थे. इनमे पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की तीसरी डिविजन का कमांडेंट विविध भी था. यही विविध रमिला की मौजूदा त्रासदी के केन्द्र मे है.

गत 27 मार्च को विविध के 17 लाख रुपये और एक रिवाल्वर गायब पाए गए. माओवादियों को रामहरी पर शक था. पहले घर पर और फिर कैंटोंमेंट मे रामहरी से पूछताछ की गयी. कुछ दिनो बाद गायब रुपये भी मिल गए. बावजूद इसके, विविध ने २७ एप्रिल को रामहरी से चितवन कैम्प चलने को कहा. मकसद था और पूछताछ.

रमिला फोन पर बार-बार सम्पर्क करती रही. हर बार उसे बताया जाता कि उसके पति को जल्द ही छोड़ दिया जायेगा. अन्तिम बार ५ मई को उसका पति से सम्पर्क हुआ. 'उनकी आवाज बहुत कमजोर थी. वे ठीक से बोल भी नही पा रहे थे.' रमिला के मुताबिक 'तब भी विविध ने मुझे बताया कि उन्हें निर्दोष पाया गया है और जल्द ही छोड़ दिया जायेगा.'

लेकिन, उपलब्ध जानकारियों के मुताबिक दस दिनो की कठिन यातनाओं की वजह से रामहरी की हालत बिगड़ने के बाद उसे ८ मई को चितवन अस्पताल मे भर्ती किया गया. अमानवीय यातनाओं ने दिमाग और किडनी को खराब कर दिया था. जल्द ही डाक्टरों ने रामहरी को मृत घोषित कर दिया. खुद विविध ने बाद मे रमिला के परिवार के सामने कहा कि लाश किसी नदी मे फेंक दी गयी.

पति की अंत्येष्टि करने तक से वंचित रमिला अब इस मामले मे कुछ सुनने को तैयार नही. उसका साफ कहना है कि जब तक पति को जिंदा या मुर्दा उसके सामने नही लाया जाता, वह कुछ नही सुनेगी. वह मीडिया से ही नही आम लोगों से भी कह रही है कि प्रचंड राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री बनने लायक नही हैं. उनका पुरजोर विरोध होना चाहिए. अनेक एनजीओ सहित १०२ संगठन रमिला के समर्थन मे आगे आ चुके हैं. इनके आह्वान पर बुधवार (२० मई) को काठमांडू बंद का जबरदस्त असर रहा. रमिला की सभाओं मे भी काफी भीड़ जुट रही है.

इन्साफ की मांग करती इस अकेली सामान्य नेपाली महिला के प्रभाव से घबराए प्रचंड ने उससे मुलाकात कर उसका विरोध शांत करने की कोशिश की. मगर, मुआवजे की उनकी पेशकश ठुकराते हुए रमिला ने साफ कहा कि उसे इन्साफ चाहिए, पैसा नही.

रमिला कहती है, ' मुझे परवाह नही कौन मेरे साथ है और कौन नही. मैं इस मामले मे इन्साफ पाकर रहूंगी. प्रचंड लिखित रूप मे माफ़ी मांगें, विविध सहित तमाम दोषी पुलिस के हवाले किये जाएं और पूरे मामले की बारीकी से जांच करवा कर सभी दोषियों को कानूनसम्मत सजा सुनिश्चित की जाये.' उसी के शब्दों मे, ' यह कोई राजनीतिक एजेंडा नही है. मुझे मालूम है कई राजनीतिक दल भी इस मुहिम से जुड़ जायेंगे, लेकिन मैं राजनीति नही कर रही.'

विचारधारा और संगठन के बल पर नेपाल से राजशाही का खात्मा कर देने वाले देश के सबसे प्रभावशाली नेता का रास्ता रोक लेने वाली इस महिला का जीवट और उसका यह संघर्ष किसी भी मामले मे बहादुरी और शहादत के अन्य उदाहरणों से कमतर नही है.

देखना दिलचस्प होगा कि इन्साफ की इस लड़ाई मे प्रचंड किस तरफ खडे होते हैं और इतिहास बनाते इस नाजुक दौर मे एक सामान्य नेपाली गृहिणी रमिला की क्या और कैसी भूमिका बनती है.

Tuesday, May 20, 2008

आने वाला है जो सांस्कृतिक प्रलय

सम्यक न्यास के बैनर तले वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने एक बार फिर एक बडे सवाल को असरदार ढंग से उठाया है. सवाल है भारतीय भाषाओं के भविष्य का. वैश्वीकरण ने दुनिया भर मे स्थानीय भाषाओं-बोलियों के क्षरण की प्रक्रिया को तेज कर दिया है. भारत मे खास तौर पर हिन्दी और सभी भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी की मार झेलनी पड़ रही है. यह मार अब इतनी तेज हो गयी है कि भारतीय भाषाओं के अस्तित्व को लेकर भी चिंता प्रकट की जाने लगी है.

इन्हीं चिंताओं के वशीभूत राहुल देव, सुरेन्द्र गंभीर (यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेंसिलवेनिया) और विजय मल्होत्रा ने एक विचार गोष्ठी का आयोजन १७ मई को इंडिया इन्टरनेशनल सेंटर मे किया. इस अनौपचारिक तथा सही मायनों मे राउंड टेबल बातचीत मे जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों मे सक्रिय और भारतीय भाषाओं के भविष्य को लेकर गंभीर सौ से ज्यादा लोगों ने शिरकत की. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित मुख्य अतिथि थीं. गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे अशोक वाजपेयी. गोष्ठी मे कमर वहीद नकवी (आज तक) आशुतोष (आईबीएन 7), श्रवण गर्ग (दैनिक भास्कर) सहित अनेक वरिष्ठ पत्रकार, कमलनयन काबरा सहित अनेक अर्थशास्त्री और अशोक माहेश्वरी, मधु किश्वर, बालेन्दु दाधीच, मोना मिश्र जैसे तमाम लोगों ने शिद्दत से अपनी बात रखी.

गोष्ठी मे भारतीय भाषाओं की स्थिति और उनके भविष्य पर चिंता जाहिर करते हुए भी इस बात का खास ध्यान रखने की ज़रूरत महसूस की गयी कि यह मुहिम हिन्दी या अन्य भारतीय भाषा बनाम अंग्रेजी का रूप न ले ले.

विभिन्न वक्ताओं ने यह साफ किया कि बाजार और रोजगार की भाषा के रूप मे अंग्रेजी से विरोध नही है, चिंता की बात यह है कि अस्मिता की भाषा के रूप मे हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की चिंता हमने छोड़ दी है. नतीजा यह है कि हमारी नयी पीढी अंग्रेजी मे ही सोचने-विचारने और सपने देखने लगी है.

ज्ञान आयोग जैसी संस्थाएं अपनी सिफारिशों से स्थिति की गंभीरता को बढाती हैं. गोष्ठी मे खास तौर पर ज्ञान आयोग की पहली क्लास से ही अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने सम्बन्धी सिफारिश को बेहद खतरनाक बताया गया.

सुदूर नही, निकट भविष्य मे ही संभावित सांस्कृतिक प्रलय की इस चुनौती के मुकाबले के लिए भारतीय समाज को तैयार करने के उद्देश्य से की गयी इस पहल की यह गोष्ठी महज शुरुआत थी. ऐसा ही दूसरा सम्मेलन मुम्बई मे करने का फैसला किया जा चुका है. अगले कदम के रूप मे यह पहल देश की हरेक राजधानी मे ले जाई जायेगी. चूंकि यह संकट वैश्विक है इसीलिए इससे मुकाबले की कोशिशों का स्वरूप भी स्वाभाविक रूप से वैश्विक ही होगा. यह पहल भी राष्ट्रीय स्वरूप लेने के बाद विदेशों मे ले जाई जायेगी.

कुल मिला कर, इसमे दो राय नही कि सम्यक न्यास की यह पहल स्वागत योग्य है. चूंकि यह पहला कदम है इसीलिए सारे नतीजे इसी के आधार पर नही निकाले जाने चाहिए. अगले कुछ कदम इस पहल की दशा और दिशा निर्धारित करने के लिहाज से निर्णायक हो सकते है.

बहरहाल इस सामयिक, सार्थक और चिर प्रतीक्षित पहल के लिए सम्यक न्यास और इससे जुडे सभी लोगो का अभिनन्दन!

मी लॉर्ड की मनमानी और संसद की काहिली

(सूचना के अधिकार से सबसे ज्यादा भयभीत तीन संस्थाओं - सुप्रीम कोर्ट, यूपीएससी और कार्मिक मंत्रालय ने आरक्षण की ऐसी व्यवस्था बनाई है, जिससे सिविल सर्विस की 50 फीसदी सीटें सवर्णों के लिए रिजर्व हो जाती हैं। इस गड़बड़ी को ठीक करने के मद्रास हाई फैसले को केंद्र सरकार सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देती है। ये वो सरकार है जो खुद को सामाजिक न्याय और इनक्लूसिव ग्रोथ की सरकार बताती है। क्या ये बताने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट से इस बारे में क्या फैसला आया?- दिलीप मंडल)
भारतीय लोकतंत्र को अपने शुरुआती साल में लगभग इसी स्थिति से गुजरना पड़ा था। देश की आजादी के बाद राज्य सरकारों ने जब कृषि भूमि की सीमा तय कर अतिरिक्त भूमि को बांटने के लिए कानून बनाए तो जमींदार अदालतो में गए। अदालतों ने उन्हें निराश नहीं किया और हर अदालत से फैसले जमींदारों के पक्ष में आए। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने भूमि सुधार कानूनों के प्रति अदालतों के रवैए को देखते हुए संविधान में संशोधन किया। इसके तहत संविधान में नवीं अनुसूचि जोड़ी गई। इस अनुसूचि में डाले गए कानून न्यायिक समीक्षा से परे हो गए। ये संविधान का पहला संशोधन था। जिस कैबिनेट ने ये संशोधन किया उसमें डॉ. भीमराव आंबेडकर कानून मंत्री थे। 10 मई 1951 को इसे पेश करते हुए जवाहरलाल नेहरू की दृष्ठि साफ थी-
"संविधान के अमल में आने के पहले 15 महीने में मौलिक अधिकारों से जुड़े कुछ अदालती फैसलों की वजह से परेशानियां खड़ी हो रही है। ...पिछले तीन साल में राज्य सरकारों ने भूमि सुधार के जो कानून पास किए हैं, वो अदालतों की लंबी प्रक्रिया में उलझ गए हैं। इस वजह से ये महत्वपूर्ण कानून लागू नहीं हो पा रहे हैं, जिसका असर ढेर सारे लोगों पर पड़ रहा है।"
पहले संविधान संशोधन में ये बात जोड़ी गई-
"Validation of certain Acts and Regulations.-Without prejudice to the generality of the provisions contained in article 31A, none of the Acts and Regulations specified in the Ninth Schedule nor any of the provisions thereof shall be deemed to be void, or ever to have become void, on the ground that such Act, Regulation or provision is inconsistent with, or takes away or abridges any of the rights conferred by, any provisions of this Part, and notwithstanding any judgment, decree or order of any court or tribunal to the contrary, each of the said Acts and Regulations shall, subject to the power of any competent Legislature to repeal or amend it, continue in force."
तब से लेकर अब तक 57 साल बीत गए हैं। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही केंद्र सरकार और संसद की काहिली की वजह से पिछले ही साल सुप्रीम कोर्ट ने नवीं अनुसूचि को फिर से न्यायिक समीक्षा के तहत कर दिया। " हम भारत के लोग" का प्रतिनिधित्व करने वाली संसद अब चाहे कोई भी कानून बनाए, अदालत उसे रद्द कर सकती है। और ये अधिकार ऐसी अदालतों को है, जिसमें जजों की नियुक्ति जज आपस में ही कर लेते हैं क्योंकि जजों ने जजेज एक्ट पारित कर कार्यपालिका को जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया से बाहर कर दिया है।

कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने 3 मार्च 2008 को संसद में बताया कि जजों द्वारा जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को बदलने का केंद्र सरकार का कोई इरादा नहीं है।

रामास्वामी केस में हम देख चुके हैं कि जजों को हटाना लगभग नामुमकिन है। भारतीय लोकतंत्र के 61 साल में सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को हटाया नहीं जा सका है। और पिछले चीफ जस्टिस सब्बरवाल के मामले में पूरे देश ने देखा है कि भ्रष्ट जजों के खिलाफ न खबरें छापी जा सकती हैं न उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हो सकती है।

ये बातें आज इसलिए हो रही हैं क्योंकि कल ही सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश के तहत सिविल सर्विस में नियुक्तियों के बारे में एक ऐसा फैसला दिया है जिससे न्यायपालिका पर लगा ये आरोप पुख्ता होता है कि - वहां से सामाजिक न्याय के पक्ष में कोई फैसला नहीं आ सकता।

यूपीएससी अब तक रिजर्वेशन का एक अद्भुत सिस्टम चला रही था। इसके तहत रिजर्व कटेगरी का कोई कैंडिडेट अगर जनरल मेरिट लिस्ट में आ जाता था तो उसे ये विकल्प दिया जाता था कि वो चाहे तो खुद को रिजर्व कटेगरी का घोषित कर दे। मिसाल के तौर पर जनरल मेरिट लिस्ट में 100वें नंबर पर आया दलित कैंडिडेट एससी लिस्ट में पहले या दूसरे नंबर पर है। अगर वो खुद को जनरल कटेगरी का मानता है तो मेरिट लिस्ट में नीचे होने के कारण उसे आईएएस की जगह कोई नीचे की सर्विस मिलेगी। लेकिन वो खुद को दलित कैंडिडेट माने तो एससी लिस्ट में अव्वल होने के कारण वो आईएएस बन जाएगा। लेकिन दलित लिस्ट में उसके आते ही जनरल कटेगरी की खाली हुई सीट पर कोई जनरल कैंडिडेट आ जाएगा।

इस व्यवस्था की वजह से सिविल सर्विस में 50 फीसदी सीटें अब तक सवर्ण कैंडिडेट के लिए रिजर्व थीं। जनरल कटेगरी में किसी और कटेगरी का प्रवेश वर्जित था। इस व्यवस्था को मद्रास हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था।

लेकिन सामाजिक न्याय के प्रति वफादार और प्रतिबद्ध यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी। और सामाजिक न्याय के मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट से क्या फैसला आएगा, इसे लेकर किसी को शक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की आपत्ति को सही मानते हुए मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया।

यानी अदालतें आज भी 1950 के टाइमफ्रेम में फ्रीज हैं। अदालतों का यथास्थितिवाद और जातिवाद मौजूदा समय में लोकतंत्र का एक बड़ा संकट है। अगर ऐसे फैसले आते रहे तो न्यायपालिका की विश्वसनीयता और कम हो जाएगी। केंद्र सरकार की स्थिति ये है कि वो सामाजिक न्याय के नारे तो लगाती है लेकिन कर्मों में वो पूरी तरह यथास्थिति के पक्ष में खड़ी होती है। यूपीएससी में पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे आरक्षण विरोधियों को ही नियुक्त किया जाता है। कार्मिक मंत्रालय में किसी अवर्ण मंत्री की आप कल्पना नहीं कर सकते।

इसके बावजूद अगर समाज बदल रहा है तो इसका श्रेय उत्पादन संबंधों में आ रहे बदलाव को जाता है। सरकार से लेकर अदालतें इस प्रक्रिया में बाधक ही हैं।

Monday, May 19, 2008

बहस जारी है- शाकाहार बनाम मांसाहार: कैंसर के बर-अक्स

इंद्रधनुष कैंसर को समर्पित एक ब्लॉग है। उस पर एक लेख 'शाकाहार बनाम मांसाहार: कैंसर के बर-अक्स' पर अनेक टिप्पणियां आईं, अच्छी बहस चल पड़ी। बहस ब्लॉग के मूल विषय कैंसर से हट कर हो तो भी उसमें रुकावट न आए, इस विचार से मैंने इसे यहां भी चेप दिया है ताकि और लोग भी इसमें शामिल हो सकें। अब तक आई सारी टिप्पणियां नीचे दे रही हूं। अब आप भी अपने विचार बेरोक यहां छापें।


swapandarshi said...
Thanks for information and for taking notice of my comment. Its very useful.

However, iron uptake is a major concern with veg diet, specially in women and also in the indian population which has problem of anemia. A large percentage of Anemia is caused by thalesemia.

Often the cause of anemia is never sorted out and the iron pill do more harm than good, and veg diet is not sufficient to provide iron uptake.

Secondly, veg diet is very high in carbohydrate and has less proteins, which leads to metabolic syndrome and insulin resistance. There are lots of studies in this respect as well.

What I get after listening to various opinions that,
a diet has to be diverse, and should not be limited on few things, it needs to be balanced. and the old pyramid of lots of carbohydrate base is completely out dated in the light of new findings.

There are fans f Atkins diet and south beach diet as well, which are leaned more on the nonveg side.

Anyway, all of us have to die some way or the other,
haa...haa
so one should also eat for the taste and to fulfill the desire as well.
not simple answers...
May 16, 2008 9:30 AM

आर. अनुराधा said...
स्वप्नदर्शी, जवाब सचमुच आसान नहीं है। और 'मरना सभी को है एक दिन...' वाली थ्योरी स्वीकार कर लेना भी सबसे आसान रास्ता है। लेकिन क्या जीवन सिर्फ यही है? आपने शाकाहार पर कुछ और दिलचस्प सवाल भी उठाए हैं। इन पर मुझे और पढ़ने की जरूरत है। चर्चा जारी रहे।
May 16, 2008 9:48 AM

Ugh-Non-Vegetarian-Meat-Eater-Flesh-Eater-Yuck! said...
स्वप्न दर्शी for lunch? क्योंकि मरना सभी को है?

No, it doesn't work the way Swapnadarshi presents it.

"A large percentage of Anemia is caused by thalesemia."

Thalassemia is an autosomal recessive genetic disorder. I.e. it is expressed in people when both parents have the recessive gene. It cannot be prevented by meat-eating, neither is it promoted by eating vegetables.

Meat is not a rich source of iron. Green vegetables like Spinach, Methi, etc., are a much richer source of iron. So if you're afraid of iron deficiency, eat more green veggies.

Per se a vegeterian diet is deficient in nothing. It depends on what you eat. If you eat more of wheat and potatoes you're taking a lot of carbohydrates.

A balanced meal has nothing to do with meat. You can include a little of pulses, fruits, and still have a diet that's cheaper than non-veg, healthier, and kinder.

And if you still think everyone has to die anyway... Think about my proposal of Swapnadarshi for lunch, and I am not talking about taking Swapnadarshi to lunch.

Ha! Ha! Indeed.
May 16, 2008 9:59 AM
Rajesh Roshan said...

It's nice to read Anuradha and Swapandarshi too. Go ahead. Inforamtive :)
May 16, 2008 10:11 AM

नितिन बागला said...
अच्छी चर्चा। वास्तव में शाकाहार में वे सभी तत्त्व मौजूद होते हैं जो हमारे शरीर को चाहिये, मसलन हरी सब्जियों में लौह तत्त्व तो मूंगफली और सोयाबीन में प्रोटीन प्रचुर मात्रा में होता है। इसके अलावा मांसाहार पर होने वाल खर्च और उसके दुष्प्रभाव कहीं ज्यादा हैं।

शाकाहार पर यह लेख भी देखें

http://dr-mahesh-parimal.blogspot.com/2008/05/blog-post_15.html
May 16, 2008 11:16 AM
Ghost Buster said...

Go Veg! Be Human!
May 16, 2008 11:51 AM

दुष्यंत said...
great, salaam to ur sprit
May 16, 2008 1:12 PM

Anonymous said...
@ swapndarshi
ur profile says u r in biotech field pl read smtg about human nutrition. esp pulses vs meat in terms of protein content and quality.
when it comes to understanding of nutrition and ecology a background in biology is very handy. maybe the fallowing Mayo Clinic's small webpage can be of help:
http://www.mayoclinic.com/print/vegetarian-diet/HQ01596/METHOD=print
May 16, 2008 5:44 PM

Udan Tashtari said...
जी, अच्छा विमर्श है. आभार.
May 16, 2008 5:54 PM

आर. अनुराधा said...
मुद्दा यह था कि खान-पान का कैंसर से क्या संबंध है। और वैज्ञानिक बार-बार साबित कर रहे हैं कि मांसाहार कैंसर के लिए मुफीद माहौल बनाने में सक्रिय भूमिका निभाता है। दूसरी तरफ घास-पात में बहुत कुछ है जो कैंसर को रोकता है। और फिर, मांसाहार में कुछ भी अतिरिक्त अच्छा नहीं है (शायद स्वाद के अलावा) जो शाकाहार में नहीं मिल सकता। वैसे ब्रिटेन के भौतिकविज्ञानी ऐलन कालवर्ट मांसाहार से नुकसान का एक और ऐंगल सुझाते हैं- ग्लोबल वार्मिंग! दिलचस्पी हो तो देखें- http://www.treehugger.com/files/2005/07/cut_global_warm.php
May 17, 2008 7:41 PM

swapandarshi said...
This post has been removed by the author.
May 18, 2008 12:55 AM

swapandarshi said...
This post has been removed by the author.
May 18, 2008 1:26 AM

swapandarshi said...

I hope we are not discussing personal eating habbits here and taking sides becoz of our narrow personal perspectives.
I am here, to understand and contribute about the various aspects associated with the diets. Most creative people do experiments with Dietetics,
including Gandhiji, who spent a significant part of his autobiography and life doing this. I appreciate very much that Anuradha is doing a good job from the perspective of cancer.


In the first comment, I expressed a casual opinion (that we have ti die one or the other way)becoz as a person I can not determine absolutely what to eat, it depends on my pocket and availability of the desired product in the market, my genetic disposition and taste which was more or less got established when I was a child myself.

I can only carefully choose what is available. It does not mean that we behave in irresponsible manner. But rather, we as a individual , live in a society and are bound by the larger frame.


With that respect, when I am in india, I can not enjoy, fresh salad. the reason for that is often "sewage or human-animal waste" is not separated from the fields and harbors nematode cysts.

so the thing is that "ek museebat se bacho to doosaree aa gheratee hai". so koee ek museebat to chunanee hee hai.

So as a human being, not as a scientist, I have a philosophy, that if any human being can eat a particular food, it is good enough for me too, if I can not change possibility
for others.

The second thing is, if somebody has invested love and efforts for preparing a food for me, then also I will eat and sometimes, my health/preference is less important than a good friendship, or human relation.

The most important is, I will never show disgust for any food,



As per iron and veg diet......


There are two issues with iron,
1- availability of iron
2-bioavailability of iron, means that body can absorb iron from the diet.

although veg do have iron but solely, veg diet does not help iron absorption, its a known fact.
second the pulses rich in protein have something called "phytase" which reduces ability of our body to absorb iron.

see http://jn.nutrition.org/cgi/content/abstract/123/5/940

Among dietary factors, only ascorbic acid (Carlson
and Miller 1983, Gillooly et al. 1984, Hallberg and
Rossander 1982, Morck et al. 1982, Rossander et al. 1979) and meat (Björn-Rassmussen and Hallberg 1979, Cook and Monsen 1976, Gordon and Godber 1989, Hurrell et al. 1988, Layrisse et al. 1969) consistently enhance iron bioavailability.


Meat is both a source of highly bioavailable iron (heme) and has the ability to enhance both heme and nonheme iron absorption
(Kane and Miller 1984).

Recent survey also show that the 56-60% of women and children are anemic and have iron deficiency in india, including the middle class. I believe that apart from the economic factors,
-food habbit, specially the veg habbit
-thalessemia
are culprit.

When I see the demographic chart of thalessimia, it is prevalent in India, and yet most doctors hardly do anything to test if the anemia is due to the thalesemia or just becoz of the diet. So most people end with iron tabs.

Lets go back to thalesemia, yes it is a recessive genetic allelic condition, but even heterozygous parents who are not anemic, can have a thelesemic child suffering from major thalesemia, or a person with heterozygous condition can have minor thalasemia. AND A GOOD FRACTION OF INDIAN SOCIETY IS THALESEMIC.
This condition, the genetic mutations in beta globulin chain is indeed has evolved in areas which have high maleria.
And with this respect, one has to think about the iron absorption and the bioavailability of iron. Iron tabs here are not solution.

meat will not cure thalessemia, but it may help higher absorbtion of iron, which can be advantageous in such condition, and the from a meat diet, the iron is in heame form and will have longer availability within the body.

I agree that food chain is very much contaminated and animals will have more concentration in their bodies than the vegies.

However, fruits and vegies are also not safe from chemical. They are full of pesticides as well and often its not possible to eat without peeling, the part which has good anti-oxidants.
Couple of years ago I was talking to a apple grower and he told me that with the advent of new "water-resistant" pesticides, they save money and time to spray pesticide again and again.
vegies and fruits are so full of these chemicals that even if you wash with the water several time, its difficult to get rid of them.

In America, you get a special soap to wash fruits and vegies.

Well, organic food is the best option, the meat can be free of hormones and antibiotics and veg free of chemicals.
but it is limited and it is not possible to feed the world population with organic food either.

Apart from the scientific reasons there are several issues associated with food safety and food choice.

Most people prefer veg meal in India because of religious reason than scientific ones. And in most veg household, men are free to eat outside and do so.
so the women are left veg.

The second aspect is about the public education, and law and order system, and adulteration so prevalent in indian market. Do we really have a choice if bazaar is not forced to label things honestly. Where do we have such possibilities in India?
Where are active consumer forums? we are just a dump site?

We have pesticides in the market. any body can purchase, but where is the infra-structure or support which can give the farmer training for pesticide application? Ideally, the pesticide applicator needs training, equippments, and special costume. and the area under pesticide application should not have people marching unwarranted.

But Indian farmers only know that pesticide works, they do not know how much is enough? how to use?

these pesticides have great potential to cause cancer and other diseases.
May 18, 2008 7:48 AM

आर. अनुराधा said...
Sathiyo, yah bahas to dilchasp hai aur lambi chalane ki kuvvat rakhatee hai. To kyon na ise reject maal(rejectmaal.blogspot.com) par jaari rakhen? Main ise wahaan post kar rahee hun. AAp sab wahan amantrit hain.
May 19, 2008 10:52 AM

Friday, May 16, 2008

कोर्ट का हर आदेश मानना जरूरी नहीं होता..

... हर अदालती आदेश की अवहेलना मानहानि नहीं है... न ही सरकार के लिए हर वादा पूरा करने की मजबूरी है... संसदीय कमेटी की रिपोर्ट को मानने के लिए सरकार बाध्य नहीं है... लेफ्ट पार्टियां जनहित के सारे मुद्दे नहीं उठाती... न ही आपकी सेहत विपक्ष के एजेंडे पर है। क्योंकि इन सबसे बड़ा है बड़े कॉरपोरेट का हित। कॉरपोरेट सेक्टर और राजनीति के लगभग खुल्लमखुल्ला रिश्तों और इस पर कोर्ट की चुप्पी की कहानी पढ़िए, आज के नवभारत टाइम्स में। शीर्षक है - सस्ती दवा, खोजते रह जाओगे

Monday, May 12, 2008

मिलिंद खांडेकर के पिता का निधन

इस समय स्टार न्यूज से और उससे पहले आज तक , नवभारत टाइम्स , जनसत्ता और मुंबई से छपने वाले दोपहर से जुडे मिलिंद दक्षिण दिल्ली के सफदरजंग डेवलपमेंट एरिया में रहते हैं। उनके माता-पिता इंदौर से दो दिन पहले ही आए थे। वो इंदौर में मिलिंद के छोटे भाई के साथ रहते थे।

मिलिंद के पिता कल शाम हमेशा की तरह टहलने निकलने। लेकिन इंदौर में टहलने और दिल्ली की इंसानों को निगलने वाली सड़कों पर टहलने में फर्क है, जिसे सत्तर साल के बाबूजी शायद समझ न सके। किसी तेज रफ्तार मोटरसाइकिल ने उन्हें टक्कर मारी और दिल्ली के हिट एंड रन केस में एक और नंबर जुड़ गया। पुलिस कंट्रोल रूम की गाड़ी उन्हें एम्स के ट्रॉमा सेंटर (ये सेंटर इस तरह के गंभीर मामलों से निबटने के लिए अभी तैयार नहीं है) लेकर आई, जहां आज दोपहर बाद 2 बजकर 40 मिनट पर उनका देहांत हो गया।

उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के लोधी रोड शवदाह गृह मे हुआ, जहां मिलिंद के सहयोगी, मित्र और पत्रकारिता जगत से जुड़े लोग बड़ी संख्या में मौजूद थे।

Sunday, May 11, 2008

सस्ती दवा के लिए यूपीए सरकार की ओर मत देखिए!

दवा नीति बनाने में नाकामी के चार साल

जब आप दवा लेने जाते हैं तो यह संभव है कि आपको एक ब्रांड दस रुपये का और दूसरा ब्रांड 200 रुपये का मिले। दोनों दवाएं नामी कंपनियों की होंगी। आप इनमें से कौन सी दवा खरीदेंगे? 10 रुपए वाली? नहीं, आप वही दवा खरीदेंगे जो आपका डाक्टर पर्ची पर लिखकर देगा। दरअसल यह मामला 55 हजार करोड़ रुपये की भारतीय दवा इंडस्ट्री की दिशा तय करता है।

पूरा लेख पढ़िए जागरण के ई-पेपर में।

Thursday, May 8, 2008

अदालत की भी जाति होती है

जानने के लिए वेणुगोपाल बनाम भारत सरकार मुकदमे पर सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला देखें। इस मुकदमे के बारे में जिन्हें एक शब्द भी नहीं मालूम, क्या वो भी इस मामले में किसी और फैसले की उम्मीद कर सकते थे। ऐसे फैसले तो उस दिन ही लिख जाते हैं, जिस दिन ऐसे मुकदमे दायर होते हैं। वेणुगोपाल को तो इस कानूनी लड़ाई में जीतना ही था। एम्स के हड़ताली डॉक्टरों पर नो वर्क नो पे के विपरीत जाकर सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी साफ कर दिया था कि वो पक्षपात से परे नहीं है और जज भी समाज का ही सदस्य होता है।

सुप्रीम कोर्ट शायद अदालतों की उसी ऐतिहासिक भूमिका को निभा रहा है, जिसकी उससे दुनिया भर में अपेक्षा होती है। अदालतों का काम कानून की व्याख्या करना और तय परंपराओं और मान्यताओं, कुल मिलाकर यथास्थिति को बनाए रखना है।

भारतीय लोकतंत्र के सस्थापकों को संविधान लागू करने के पहले साल में ही इसका एहसास हो गया था कि अदालतें यथास्थिति तोड़ने में बाधक बनेंगी। भूमि सुधार के हर कानून पर जब अदालतों ने अड़गा लगाना शुरू किया तो, जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने ( डॉ आंबेडकर इस सरकार में कानून मंत्री थे) संविधान में नवीं अनुसूचि जोड़कर संसद की श्रेष्ठता स्थापित की। इसके पीछे सोच ये थी कि लोकतंत्र में लोक की इच्छा की सबसे सटीक अभिव्यक्ति संसद में ही हो सकती है। इस अनुसूचि में डालने पर कानून न्यायिक समीक्षा से परे हो जाता था।

लेकिन मनमोहन सरकार की काहिली देखिए कि सुप्रीम कोर्ट ने नवीं अनुसूची के कानूनों को न्यायिक समीक्षा के दायरे में लाने का फैसला दे दिया और सरकार में एक पत्ता भी नहीं हिला। देखें संविधान पीठ का पूरा फैसला। सरकार के पास ये विकल्प था कि वो संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर इस फैसले को पलटने पर आम सहमति बनाती।

लेकिन जिस सरकार में सामाजिक न्याय के लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, शरद पवार, रामदॉस, डीएमके जैसे चैंपियन शामिल है और भूमि सुधार की सबसे बड़े समर्थक लेफ्ट पार्टियां जिस सरकार को टिकाए हुए है, वो सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खामोश रह गई। ये सरकार संसद की सर्वोच्चता को नष्ट करने के लिए लंबे समय तक पापी मानी जाएगी। कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज की भूमिका हमेशा शक के दायरे में रहेगी।

अब इस देश में कौन सा कानून लागू होगा ये जजों का एक क्लब तय करेगा, क्योंकि जजेज एक्ट के तहत जजों की नियुक्ति का अधिकार जजों को है। और इस बारे में आप कुछ नहीं पूछ सकते, क्योंकि सूचना के अधिकार से वो परे हैं। ये नियुक्ति यूपीएससी से परे है, संसद से परे है, कानून मंत्रालय से परे है और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में ये नहीं आता। जजों की नियुक्ति रिजर्वेशन के संवैधानिक प्रावधानों से परे है। देश के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों में 90 फीसदी से ज्यादा सवर्ण पुरुष हैं।

गलत आचरण के बावजूद जजों को हटाया जाना लगभग असंभव है, ये पूरे देश ने रामास्वामी केस में देखा है। उनके भ्रष्टाचार के बारे में बात नहीं हो सकती, क्योंकि ये अदालत की मानहानि है। -दिलीप मंडल

Tuesday, May 6, 2008

हम सारी दुनिया मांगेंगे...

नवंबर 1996 में बना महिला आरक्षण बिल आखिरकार राज्यसभा में

"लंबे समय से टल रहे महिला आरक्षण विधेयक को सरकार मंगलवार को राज्यसभा में पेश करने जा रही है. हालाँकि कई दल इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं.

सोमवार को देर रात केंद्रीय मंत्रिमंडल को बैठक में ये तय हुआ है कि विधेयक को पहले राज्यसभा में पेश किया जाए.

नियमों के अनुसार इसके बाद इस विधेयक को संसद की स्थाई समिति के सामने रखा जाएगा और सांसद समिति की बैठकों में विधेयक पर अपने सुझाव दे सकेंगे.

विधेयक इस सत्र में लोक सभा में पेश हो नहीं पाएगा क्योंकि लोकसभा का सत्र सोमवार को ही ख़त्म हो गया."

-बीबीसी हिन्दी.कॉम


हिंदुस्तान की राजनीतिक संस्थाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण के मुद्दे में दिलचस्पी है तो इस तसवीर पर गौर कीजिए। हाल में चर्चित हुई यह तसवीर आपने जरूर देखी होगी। यह हैं, स्पेन की नई रक्षा मंत्री कारमे चाकोन। पूरा नाम है कारमे चाकोन पीकेर्रास जो वहां हाल ही में प्रधानमंत्री जोस लुईस रॉड्रिग्ज़ ज़पातेरो के नेतृत्व में गठित नई सरकार में शामिल हैं। स्पैनिश सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी के ज़पातेरो दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं। उनके इस नए मंत्रिमंडल की कुछ खास बातें--
--17 सदस्यों के मंत्रीदल में नौ महिलाएं और आठ पुरुष हैं।
--देश की पहली महिला रक्षा मंत्री 37 वर्षीया कारमे चाकोन बनी हैं। पिछले मंत्रिमंडल में वे हाउसिंग मिनिस्टर थीं।
--कारमे चाकोन ने जब अप्रैल में कार्यभार संभाला तब वे सात माह की गर्भवती थीं।
--सबसे सक्रिय मंत्रियों में शुमार चाकोन ने इसी हालत में मज़े से सैनिक परेड का निरीक्षण भी किया।
--10 साल पहले तक यहां महिलाओं के लिए सेना के दरवाज़े बंद थे। आज स्पेन की सेना में शामिल 1.30 लाख सैनिकों में 15 फीसदी महिलाएं हैं।
--पुरुष प्रधान देश में लैंगिक समानता लाना सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है।
--स्त्री-पुरुष समानता के लिए नया समानता मंत्रालय बनाया गया है जिसकी पहली मंत्री एक महिला- 31 वर्षीय विवियाना आइदो हैं। स्पेन के इतिहास में उनका नाम सबसे कम उम्र मंत्री के तौर पर दर्ज हो गया है।
--मारिया तेरेसा फर्नांडेज़ दे ला वेगा 2004 में स्पेन की पहली उप-प्रधानमंत्री बनी थीं। वे नई सरकार में फिर उप-प्रधानमंत्री बनी हैं।
--मॉलिक्युलर बायलोजी की विशेषज्ञ क्रिस्टीना गारमेन्दिया एक और नए मत्रालय- विज्ञान और खोज का काम देख रही हैं।
--सरकार ने तलाक की प्रक्रिया सरल बनाने, नौकरियों में औरतों की संख्या बढ़ाने के लिए कानून बनाए और कंपनियों के बोर्डरूम और चुनावी मैदान में ज्यादा औरतों को जगह देने की जोरदार वकालत की है।
--इस देश में 36 साल तक तानाशाही रही। यहां का लोकतंत्र अभी महज 30 साल पुराना है।

* और बीबीसी हिंदी की वेबसाइट पर एक और दिलचस्प खबर है, इस लिंक पर गौर कीजिए।

Thursday, May 1, 2008

क्योंकि सपना अभी मरा नही है

साथियो आज मई दिवस है. लगातार प्रतिकूल होते समय मे हम रिजेक्ट समूह के लोग अपने आपको बनाए रखने की जद्दोजहद से ही नही उबर पा रहे. ऐसे मे एक नज़र उन पंक्तियों पर डालना उपयोगी हो सकता है जो हममे नया जोश भरती रही हैं, हमे आसन्न खतरों से आगाह करती रही हैं और जो घात लगा कर बैठे दुश्मन की अगली चाल का संकेत देती रही हैं. प्रस्तुत हैं ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ इस उम्मीद के साथ कि शायद इनसे हमे थोडी सी ऊर्जा मिल जाये जो हमारे संघर्ष की उम्र कुछ पल और बढा दे और शायद वही कुछ पल हमारी जीत के साक्षी बन जाएं.

1)
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से घर लौट आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
- पाश

2)
चैन की बाँसुरी बजाइये आप
शहर जलता है और गाइये आप
हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं
असली सूरत ज़रा दिखाइये आप
- गोरख पाण्डेय

3)
सबकी बात न माना कर
खुद को भी पहचाना कर

दुनिया से लडना है तो
अपनी ओर निशाना कर
-कुंवर बेचैन

4
वे शायरों की कलम बेज़ुबान कर देंगे
जो मुँह से बोलेगा उसका ‘निदान’ कर देंगे

कई मुखौटों में मिलते है उनके शुभचिंतक
तुम्हारे दोस्त, उन्हें सावधान कर देंगे
- जहीर कुरैशी

5
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं

हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,

भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,

सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।
-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

6
...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...क्योंकि सपना है अभी भी!
- धर्मवीर भारती
Custom Search