जानने के लिए वेणुगोपाल बनाम भारत सरकार मुकदमे पर सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला देखें। इस मुकदमे के बारे में जिन्हें एक शब्द भी नहीं मालूम, क्या वो भी इस मामले में किसी और फैसले की उम्मीद कर सकते थे। ऐसे फैसले तो उस दिन ही लिख जाते हैं, जिस दिन ऐसे मुकदमे दायर होते हैं। वेणुगोपाल को तो इस कानूनी लड़ाई में जीतना ही था। एम्स के हड़ताली डॉक्टरों पर नो वर्क नो पे के विपरीत जाकर सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी साफ कर दिया था कि वो पक्षपात से परे नहीं है और जज भी समाज का ही सदस्य होता है।
सुप्रीम कोर्ट शायद अदालतों की उसी ऐतिहासिक भूमिका को निभा रहा है, जिसकी उससे दुनिया भर में अपेक्षा होती है। अदालतों का काम कानून की व्याख्या करना और तय परंपराओं और मान्यताओं, कुल मिलाकर यथास्थिति को बनाए रखना है।
भारतीय लोकतंत्र के सस्थापकों को संविधान लागू करने के पहले साल में ही इसका एहसास हो गया था कि अदालतें यथास्थिति तोड़ने में बाधक बनेंगी। भूमि सुधार के हर कानून पर जब अदालतों ने अड़गा लगाना शुरू किया तो, जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने ( डॉ आंबेडकर इस सरकार में कानून मंत्री थे) संविधान में नवीं अनुसूचि जोड़कर संसद की श्रेष्ठता स्थापित की। इसके पीछे सोच ये थी कि लोकतंत्र में लोक की इच्छा की सबसे सटीक अभिव्यक्ति संसद में ही हो सकती है। इस अनुसूचि में डालने पर कानून न्यायिक समीक्षा से परे हो जाता था।
लेकिन मनमोहन सरकार की काहिली देखिए कि सुप्रीम कोर्ट ने नवीं अनुसूची के कानूनों को न्यायिक समीक्षा के दायरे में लाने का फैसला दे दिया और सरकार में एक पत्ता भी नहीं हिला। देखें संविधान पीठ का पूरा फैसला। सरकार के पास ये विकल्प था कि वो संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर इस फैसले को पलटने पर आम सहमति बनाती।
लेकिन जिस सरकार में सामाजिक न्याय के लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, शरद पवार, रामदॉस, डीएमके जैसे चैंपियन शामिल है और भूमि सुधार की सबसे बड़े समर्थक लेफ्ट पार्टियां जिस सरकार को टिकाए हुए है, वो सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खामोश रह गई। ये सरकार संसद की सर्वोच्चता को नष्ट करने के लिए लंबे समय तक पापी मानी जाएगी। कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज की भूमिका हमेशा शक के दायरे में रहेगी।
अब इस देश में कौन सा कानून लागू होगा ये जजों का एक क्लब तय करेगा, क्योंकि जजेज एक्ट के तहत जजों की नियुक्ति का अधिकार जजों को है। और इस बारे में आप कुछ नहीं पूछ सकते, क्योंकि सूचना के अधिकार से वो परे हैं। ये नियुक्ति यूपीएससी से परे है, संसद से परे है, कानून मंत्रालय से परे है और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में ये नहीं आता। जजों की नियुक्ति रिजर्वेशन के संवैधानिक प्रावधानों से परे है। देश के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों में 90 फीसदी से ज्यादा सवर्ण पुरुष हैं।
गलत आचरण के बावजूद जजों को हटाया जाना लगभग असंभव है, ये पूरे देश ने रामास्वामी केस में देखा है। उनके भ्रष्टाचार के बारे में बात नहीं हो सकती, क्योंकि ये अदालत की मानहानि है। -दिलीप मंडल
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