दवा नीति बनाने में नाकामी के चार साल
जब आप दवा लेने जाते हैं तो यह संभव है कि आपको एक ब्रांड दस रुपये का और दूसरा ब्रांड 200 रुपये का मिले। दोनों दवाएं नामी कंपनियों की होंगी। आप इनमें से कौन सी दवा खरीदेंगे? 10 रुपए वाली? नहीं, आप वही दवा खरीदेंगे जो आपका डाक्टर पर्ची पर लिखकर देगा। दरअसल यह मामला 55 हजार करोड़ रुपये की भारतीय दवा इंडस्ट्री की दिशा तय करता है।
पूरा लेख पढ़िए जागरण के ई-पेपर में।
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Sunday, May 11, 2008
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2 comments:
अभी किसी प्रांत में एक पहल हुई थी, जिसमें डाक्टरों को निर्देश दिये गये कि वो दवा का ब्रांड नहीं, उसका जेनेरिक रूप ही प्रिस्क्राईब करें. मतलब उसका केमिकल नाम, जिससे लोग सस्ते विकल्पों का भी पता कर सकें.
लेकिन दवा कम्पनियों की लाबी ने इसका विरोध कराना शुरु कर दिया है. वो कहते हैं कि केमिस्ट ट्रेन्ड नहीं है इसके लिये.
तो भैया कैमिस्ट तो आदमी ट्रेनिंग के बाद ही बनता है, अगर फिर भी ट्रेनिंग कम पड़ रही है तो अपनी दुकान चलाने के लिये अपने खर्चे पर ही केमिस्ट को ट्रेन होना चाहिये.
इस आवाज़ को सभी पत्रकार जन उठायें रखें तो कितने ही बीमारों को भला हो.
दिलीप भाई, दवा उद्योग का यह बहुत कड़वा सच है. घोटाला बहुत बड़ा है. नकली दवाओं का धंधा है सो अलग.
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