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Thursday, January 31, 2008

अब यहाँ से कहाँ जाएं हम?

प्रणव प्रियदर्शी


नयी खबर उत्तराखंड से आयी है. वहाँ साध्वी माँ योगशक्ति ने जैसे धमाका कर दिया है. उन्होने शंकराचार्य की तर्ज पर एक नया पद बनाया पार्वत्याचार्य. उनका कहना है कि जैसे शंकराचार्य भगवान महादेव यानी शंकर के प्रतीक हैं वैसे ही पार्वत्याचार्य माँ पार्वती की प्रतीक होंगी. माँ योगशक्ति ने इसी महीने की १४ तारीख को हरिद्वार मे एक धार्मिक अनुष्ठान के बाद माँ ज्योतिषानंद सरस्वती को विश्व की प्रथम पार्वत्याचारी घोषित कर उनका पदाभिषेक भी कर दिया. शंकराचार्य की ही तरह पार्वत्याचार्य माँ ज्योतिषानंद को रजत दंड, कमंडल, छत्र प्रदान किया गया है.

खास बात यह कि माँ योगशक्ति के इस कृत्य से हरिद्वार का संत समाज क्षुब्ध है. उसने बाकायदा माँ योगशक्ति के खिलाफ धर्मयुद्ध घोषित कर दिया है. माँ योगशक्ति को दी गयी महामंडलेश्वर की उपाधि भी छीन ली गयी है. यह उपाधि इसी संत समाज ने उन्हें प्रदान की थी. इन पुरुष संतों का कहना है कि माँ योगशक्ति ने पार्वत्याचारी का पद सृजित कर न केवल अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया है बल्कि शंकराचार्य पद की गरिमा को भी नुकसान पहुँचाया है.

इन विरोधों से बेपरवाह माँ योगशक्ति कहती हैं कि वे चारो पीठों के शंकराचार्यों की तरह चार पार्वत्याचार्य बना कर ही रहेंगी.

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि हरिद्वार और रुड़की जैसे उत्तराखंड के छोटे शहरों मे जहाँ यह विवाद पहुंच चुका है, वहाँ की आम महिलाए माँ योगशक्ति के पक्ष मे खुल कर बोलने लगी हैं. उनका कहना है कि यह संत समाज का पुरुषवादी अहं ही है जो वे पार्वत्याचार्य बनाए जाने का विरोध कर रहे हैं. अन्यथा शंकराचार्य की गरिमा को तब क्या नुकसान नही पहुंचा था जब एक के बाद एक नये - नये शंकराचार्य उदित होते रहे? इसी वजह से आज सौ के करीब शंकराचार्य हो गए हैं.

बहरहाल, यह बहस खासी दिलचस्प है. यह प्रकरण महिला चेतना के विकास और धार्मिक रूढिवादिता की मजबूत होती जकडन का मिला-जुला रूप है और इस बात का बेहतरीन उदाहरण भी कि सुधारवाद हमे कई बार प्रगतिशीलता के भुलावे मे ऐसे खतरनाक मोड़ों पर लाकर छोड़ देता है जहाँ चयन का खास मतलब नही रह जाता. आप कोई भी मोड़ चुनें, वापस वहीं पहुंच जाते हैं जहाँ से चलना शुरू किया था.

देखना दिलचस्प होगा कि ऐप्वा और ऐड्वा से जुडी प्रगतिशील महिलायें इस विवाद पर क्या रुख अपनाती हैं!

Wednesday, January 30, 2008

भाषा क्या सिर्फ बात है?

...अगर ऐसा होता तो शुद्धता और अशुद्धता की बहस का कोई मतलब नहीं होता। संवाद के माध्यम के रूप में भाषाई शुद्धता की अपेक्षा कम लोग ही करते हैं। संवाद के माध्यम के रूप में ब्लॉग में भी भाषा की शुद्धता की जरूरत मुझे तो नहीं लगती। बात है, की गई, समझ में आ गई। बात खत्म। या बात शुरू। लेकिन भाषा का सिर्फ यही एक काम तो नहीं है। भाषा तो शक्ति और प्रभुत्व और दबदबा कायम करने का औजार भी है।

भारतीय समाज का आज का ये सबसे बड़े डिफ्रेंशिएटर भी है। अंग्रेजी बोलने वाले भारतीय भाषाएं बोलने वालों से बड़े। अच्छी अंग्रेजी बोलने वाले टूटीफूटी अंग्रेजी बोलने वालों से बड़े। शुद्ध हिंदी बोलने वाले अशुद्ध हिंदी बोलने वालों से बड़े। नुक्ते लगाना वाले नुक्ते न लगाने वालों से बड़े। संस्कृतनिष्ठ बोलने वाले देसी भाषा बोलने वालों से बड़े। बांग्ला का रवींद्र संगीत वहां की पल्लीगीती से महान। पुणे की मराठी मालवण की मराठी से भली। मेरठ-आगरा की हिंदी झंझारपुर-पूर्णिया की हिंदी से बेहतर।

भाषा, साहित्य, संस्कृति, कला सभी जगहों पर तो आपको ये दिख जाएगा। दरअसल हमारा इस यथास्थिति को एक हद तक चुनौती दे रहा है (लेकिन साथ में भेदभाव के नए प्रतिमान भी गढ़े जा रहे हैं)। घरानों के संगीतकारों को अब लोकमाध्यमों में (दूरदर्शन को छोड़कर) धेले भर को कोई नहीं पूछता (उनके शो अब विदेशों में ज्यादा होते हैं, जहां के एनआऱआई अपनी जड़ों की तलाश में बेचैन हैं) और आए दिन कोई अनगढ़ संगीतकार-गीतकार शास्त्रीय सुर-ताल की ऐसी की तैसी करके महफिल लूट ले जा रहा है।

भाषा में भी तो कहीं ऐसा ही नहीं हो रहा है और जो शुद्धता के उपासक हैं उन्हें इस बात का भय तो नहीं कि उनकी टेरिटरी में कोई ऐसे ही कैसे घुसा चला आ रहा है? शास्त्रीय हिंदी साहित्य की आज दो कौड़ी की भी औकात नहीं है। रचनाएं दूसरे प्रिट ऑर्डर के लिए तरस रही हैं और पहला प्रिंट ऑर्डर 500 से ऊपर कभी कभार ही जाता है। हिंदी का साहित्य तो आज पाठकों से आजाद है। लेकिन मास मीडिया के सेठ को तो पैसे चाहिए। वो दर्शकों और पाठकों से आजाद क्योंकर होना चाहेगा।

और फिर अखबार और टीवी में भाषा कहीं इसलिए तो नहीं बदल गई है कि उनके पाठक और दर्शक बदल गए हैं। अंग्रेजी में तो अशुद्ध के लिए जगह नहीं होती। वहां मिलावट की भाषा लिखने का अधिकारी भी वही है जिसका अंग्रेजी पर अच्छा अधिकार है। वहां भाषा के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ एम जे अकबर जैसे लोग करते हैं। लेकिन हिंदी में मिलावट का स्पेस बनता चला जा रहा है। अशुद्ध के लिए भी अब काफी जगह है। और ऐसा लिखने वाले कई लोग ऐसे हैं जिन्हें दरअसल ढंग की हिंदी नहीं आती। पढ़ने वालों को भी नहीं आती। क्या ये जश्न मनाने का समय है? या रोने-धोने का? पता नहीं? आपकी समझ में आ रहा है, तो बताइए।

बात क्योंकि नुक्ते से शुरू हुई है, इसलिए अब तक की बहस के बाद मुझे ऐसा लगता है कि जिन्हें नुक्ता लगाने की तमीज है वो नुक्ता जरूर लगाएं। क्योंकि इसके बिना भाषा से कुछ ध्वनियों का लोप हो जाएगा। और इससे भला कोई कैसे खुश हो सकता है। रेडियो के लिए तो ये बुरी बात ही कही जाएगी। इसलिए इरफान भाई से हमें लगातार नुक्ते वाली हिंदी सुनने को मिले, यही कामना है। लेकिन जिन्हें नुक्ते लगाना नहीं आता वो इसे छोड़ ही दें तो बेहतर या फिर अच्छी तरह से सीख लें और फिर इसका इस्तेमाल करें।

यहां पर आपको अपना निजी अनुभव बताता हूं। जब मैं पत्रकारिता सीखने देश की सबसे प्रतिष्ठित पाठशाला में पहुंचा तो बैच के बाकी लोग राजेद्र माथुर, एसपी सिंह, बाल मुकुंद जैसों से पत्रकारिता सीख रहे थे और मैं अशुद्ध लिखे शब्दों और वाक्यों को रात-रात जगकर दस-दस, बीस-बीस बार लिखकर ऐसी भाषा को साधने की कोशिश कर रहा था, जिससे मुझे रोजगार हासिल करना था। यहां ये बताना जरूरी है कि हिंदी मेरे घर में नहीं बोली जाती। और जिस हिंदी को लिखने की चुनौती थी, वो मेरे शहर में नहीं बोली जाती है। बहरहाल, टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज का जब कन्वोकेशन हुआ तो "कमजोर लिंग" वाले प्रदेश झारखंड के इस लड़के को सर्वश्रेष्ट संपादन का नवभारत टाइम्स अवार्ड मिला। यानी खेल उतना मुश्किल भी नहीं है। इसलिए जब कुछ लोग कहते हैं कि जिस भाषा को बरतना है उसकी तमीज होनी चाहिए, तो उसका मतलब समझ में आता है। लेकिन किस भाषा को बरतना है ये तो तय करना होगा।

Monday, January 28, 2008

आप हिंदी के दोस्त हैं या दुश्मन?

बिहारियों का लिंग कमजोर होता है (ये बात अक्सर मजाक के नाम पर किसी को अपमानित करने के लिए कही जाती है)।
नुक्ते की तमीज नहीं, और लेखक-पत्रकार बनने की जिद।
स और श का फर्क नहीं जानते, चले आए हैं साहित्य झाड़ने।
रफी साहेब को हैप्पी बर्थडे कहते शर्म नहीं आती।
एक मीडिया समूह ने हिंदी का सत्यानाश कर दिया है।
टीवी वालों को भाषा की समझ ही नहीं है।
गालियों का भी कहीं समाजशास्त्र होता है। गालियों पर बात करने वाले गंदे हैं।

ये सब किसी ऐसे आदमी के सामने बोलिए, जिसके स्कूल में अंग्रेजी हिंदी में और हिंदी स्थानीय बोली में पढ़ाई गई हो। नुक्ते से जिसका परिचय न हो। बड़ी ई और छो़टी इ या बड़ा ऊ या छोटा उ लिखने के लिए जिसके स्कूल और कॉलेज में नंबर कभी न कटे हों, तो उस पर क्या बीत रही होगी? जिनके लिए स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का भाषाई कॉन्सेप्ट धुंधला हो, उसे हिंदी समाज में जीने का हक है या नहीं? या सीधे फांसी पर लटका देंगे या हिंदी से जाति निकाला दे देंगे। और अगर आप ऐसा करेंगे तो आप हिंदी के दोस्त हुए या दुश्मन?

भाषा का जनपक्ष

एक सवाल कई बार मन में आता है कि भारत की राजधानी का नाम अगर पटना या रांची या दरभंगा या चित्रकूट या बांदा या गोपेश्वर या कोपरगांव होता और हिंदी के अपेक्षाकृत समृद्ध प्रदेशों के नाम झारखंड, मिथिलांचल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड या छत्तीसगढ़ होता तो भी क्या हिंदी का शास्त्रीय स्वरूप ऐसा ही बनता, जैसा आज है।

हिंदी का जो शास्त्रीय रूप हम लिख पढ़ रहे हैं ये कुछ सौ साल से पुराना तो नहीं है। यही तो वो समय है जब उन मुस्लिम/अंग्रेज/हिंदुस्तानी शासकों का दबदबा रहा, जिनकी सत्ता का केंद्र दिल्ली और आगरा जैसे शहर रहे।। यही तो वो इलाका है, जिसकी हिंदी आज सबकी हिंदी है। खड़ी बोली हिंदी की जिस शुद्धता का अहंकार कुछ लोग कर रहे हैं वो इसी इलाके की भाषिक परंपरा की बात कर रहे हैं। साहित्य की भाषा के बारे में अक्सर आग्रह होता है कि वो अभिजन की भाषा हो। लेकिन साहित्य सिर्फ अभिजन की भाषा में ही लिखा जाए तो सूर, तुलसी, कबीर, नानक सबको भुलाना होगा। और ऐसी है सैकड़ों, हजारों नामों के बगैर साहित्य भी कितना गरीब हो जाएगा। नायक क्या वही होंगे जो अभिजन की भाषा बोलेंगे, लिखेंगे?

और फिर ब्लॉग तो खुला मंच है। यहां तो आपको इस सोच/जिद के लिए भी स्पेस देना होगा कि मैं अपने तरीके की हिंदी लिखना चाहता/चाहती हूं और कि मैं देवनागरी स्क्रिप्ट में लोकभाषा का ब्लॉग लिख रहा/रही हूं। एसएमएस में, ईमेल में, फिल्मों में, एड में, गानों में और टीवी पर भी भाषायी शुद्धतावादियों को अक्सर हताश होना पड़ता है। रेशमिया जैसे संगीत के चांडाल आज हीरो हैं, जो करते बने कर लीजिए। इन जगहों पर बात को कहने के अंदाज की कीमत है। व्याकरण और वैयाकरणों को यहां विश्राम दिया जा सकता है। इन जगहों पर भाषाई महामंडलेश्वरों के लिए कोई जगह नहीं है। और ब्लॉग में तो गलत भी है तो मेरा है, पढ़ना हो तो पढ़ों वरना आगे बढ़ों बाबा। खाली-पीली टैम खोटा मत करो।

भाषा को अविरल बहने दो

भाषा सिर्फ साहित्व का नहीं संवाद का भी माध्यम है। भाषा जब अभिजन से लोक में जाती है, तो अपना स्वरूप बदलती है। हर भाषा कई फॉर्म में चलती रहती है, बहती रहती है। इस पर दुखी होने का कोई कारण नहीं है। उर्दू के साहित्य में नुक्ता रहे। उर्दू से जुड़े हिंदी के भाषायी फॉर्म में भी उसका अस्तित्व बना रहे। कोई सही जगह नुक्ता लगा सकता है तो जरूर लगाए। कई लोगों को अच्छा लगता है। हिंदी से नुक्ते का गायब होना तो शायह इसलिए हुआ है कि स्कूलों में नुक्ते की पढ़ाई नहीं होती। इसलिए ज्यादातर लोगों को भरोसा नहीं होता कि ये सही जगह लग रहा है या गलत जगह पर। नुक्ते के बगैर शब्दों के अर्थ बेशक बदल जाते हैं, लेकिन हम शब्द नहीं वाक्य बोलते हैं और वो भी अक्सर एक संदर्भ के साथ बोलते हैं। नुक्ता न लगाएं तो कुछ लोग कहते हैं कि कान में खटकता है, लेकिन अर्थ का अनर्थ होते मैंने कम ही सुना है।

उसी तरह संस्कृतनिष्ठ भाषा से किसी को प्रेम है, तो वो वैसी भाषा लिखे। खुश रहे। लेकिन ये जिद नहीं चलेगी कि हिंदी में संस्कृत के ही शब्द चलेंगे। हिंदी में लोकभाषा के शब्द आए, संस्कृत के शब्द आए, विदेशी भाषाओं के शब्द भी आए और इनके आने से भाषा गरीब नहीं हुई। अंग्रेजी अगर इस देश में एलीट की भाषा है तो अंग्रेजी के असर से देश की कोई भाषा सिर्फ इसलिए नहीं बच जाएगी, कि आप ऐसा चाहते हैं।

भाषा अगर अपने लोकपक्ष के बारे में अवमानना का भाव रखेगी तो वो दरिद्र होती चली जाएगी और बाद में शायद मौत का शिकार भी बन जाएगी। भाषा को अलग अलग रूपों और फॉर्म में प्रेम करना सीखिए। कंप्यूटर, मोबाइल, गेमिंग, ई-कॉमर्स, इन सबका असर भाषा पर हो रहा है। छाती मत पीटिए, भाषा बिगड़ नहीं रही है, बदल रही है। अक्सर जिसे हम भाषा की गलती मानते हैं वो अलग तरह से बोली गई या लिखी गई भाषा होती है। भाषा शुद्ध तरीके से लिखी या बोली जाए, इससे शिकायत नहीं है, लेकिन जो शुद्ध नहीं है उसे भी जिंदा रहने का हक मिलना चाहिए।

(ये बातें आपसे एक ऐसा शख्स बोल रहा है जिसका परिचय इसी लेख में ऊपर दिया गया है)

Thursday, January 24, 2008

मीडिया की अश्लील आम सहमति को तोड़ता है ब्लॉग

वेब दुनिया संपादक मंडल की सदस्य मनीषा पांडे ने मेरा एक इंटरव्यू मेल के जरिए किया। नीचे पढ़िए पूरा इंटरव्यू। मैंने इंटरव्यू के साथ में कुछ फुटकर नोट भेजे थे। आप भी देखिए:

- प्रिंट काफी हद तक एकालाप है, जबकि ब्लॉग संवाद है
- ब्लॉग पाठक को सक्रिय होने की आजादी देता है
- कुछ विषयों पर मीडिया में अश्लील किस्म की आम सहमति है
- ब्लॉग इस आम सहमति को तोड़ता है
- ब्लॉग के रंगमंच पर असली नायक और नायिकाओं का आना बाकी है
- मैच से पहले साइडलाइन की हलचल को कुछ लोग टूर्नामेंट मान बैठे हैं
- हिंदी ब्लॉग जगत में एक बड़ा विस्फोट होने वाला है
- ब्लॉग की ताकत है उसकी इंटरेक्टिविटी
- हिंदी ब्लॉगिंग को समाज में हिंदी की स्थिति से अलग करके नहीं देखा जा सकता
- हिंदी साहित्य का वाटर टाइट कंपार्टमेंट नहीं बचेगा
- ब्लॉग हिंदी भाषा को व्याकरण की जकड़न से मुक्त कर रहा है
- ब्लॉग और इंटरनेट पर हिंदी का आना शुभ है
- भाषा को लोकतांत्रिक होने की ताकत देगा ब्लॉग
- ब्लॉग का रोमांचक दौर आने वाला है, सीट बेल्ट बांध कर तैयार रहिए

अब पढ़िए पूरा इंटरव्यू -

ज्यादा तीखा लिखने के लिए ब्लॉग बेहतर मंच
ब्लॉगर और पत्रकार दिलीप मंडल से वेबदुनिया की बातचीत

आप कब से ब्लॉगिंग की दुनिया में सक्रिय हैं? हिंदी में ब्लॉग शुरू करने का ख्‍याल कैसे आया?

ब्लॉग की दुनिया से परिचय तो पुराना था। लेकिन इंग्लिश ब्लॉग के जरिए। हिंदी में ब्लॉगिंग हो रही है, ये तो पिछले दो साल से मालूम था, लेकिन दूर से ही उन्हें देख रहा था। दिलचस्पी 2007 के बीच वाले महीनों में बढ़ी। जुलाई, 2007 में मोहल्ला पर "कामयाब लोगों का अलगाववाद" मेरी पहली पोस्ट थी। मेल के जरिए मोहल्ला के मॉडरेटर अविनाश को भेजी और उन्होंने धूमधाम से छाप दी। अगली पोस्ट थी "कब था पत्रकारिता का स्वर्णकाल" उस पर प्रतिक्रियाओं का लंबा सिलसिला चला (कई-कई हजार शब्द लिख डाले गए होंगे)। कुछ दिन तक तो मोहल्ला के लिए लिखता रहा, फिर ख्याल आया कि अपना भी एक मंच बना ही लिया जाए।

इस विधा के बारे में आपकी शुरुआती प्रतिक्रिया क्या थी?

ब्लॉग को लेकर ये तो मालूम था कि अभी इससे पैसे नहीं आने वाले हैं। चूंकि मेरा लगभग सारा लेखन प्रिंट और रेडियो के लिए रहा है, तो बिना पैसे का लेखन कुछ जमा नहीं। लेकिन ये एहसास हमेशा था कि शुरुआती दौर होने के बावजूद ब्लॉग एक ताकतवर माध्यम है। इसकी दूसरी बड़ी ताकत है कि ये पाठक को सक्रिय होने की आजादी देता है। कहने को तो ये आजादी तो अखबारों और पत्रिकाओं में भी है। लेकिन पाठकों की सक्रियता ज्यादा मूर्त रूप में ब्लॉग में ही दिखती है। साथ ही प्रिंट काफी हद तक एकालाप है, जबकि ब्लॉग संवाद है।

आपके कौन-कौन से ब्लॉग हैं?

प्रणव प्रियदर्शी, अनुराधा और मैं, हम तीनों मिलकर रिजेक्टमाल नाम का ब्लॉग चलाते हैं। इसे अगस्त 2007 में बनाया गया है और नियमित न होने पर भी इसे हजारों पाठक मिले हैं। इसके अलावा मैं मोहल्ला, इयत्ता और कबाड़खाना-इन तीन ब्लॉग से जुड़ा हूं। लेखक की हैसियत से।

ब्लॉग पर लिखते हुए आप किन्हीं खास विषयों पर ही लिखते हैं। आप अपने विषय का चुनाव किस आधार पर करते हैं।

ब्लॉग पर लिखते समय कई बार मैं वो विषय चुनता हूं, जिनके लिए प्रिंट में जगह निकालना मुश्किल होता है। जाति व्यवस्था और पत्रकारिता पर मेरे लेख उसी श्रेणी में हैं। जाति पर मैं प्रिंट में लिखता रहा हूं, लेकिन ज्यादा तीखा लिखने के लिए ब्लॉग बेहतर मंच लगा। वेसे उनमें से कुछ लेख बाद में प्रिंट में भी छपे। इसके अलावा कई बार कुछ विषयों पर मीडिया में अश्लील किस्म की आम सहमति बन जाती है। वैसे समय में ब्लॉग का प्रयोग करता हूं/करना चाहता हूं।

पसंदीदा हिंदी ब्लॉग कौन-से हैं?

मोहल्ला मुझे पसंद है क्योंकि वहां लोकतांत्रिक स्पेस है। शब्दों का सफर मैं नियमित नहीं देख पाता, लेकिन चाहता हूं कि ये ब्लॉग सफल हो। सस्ता शेर और टूटी बिखरी सी, रवि रतलामी का हिंदी ब्लॉग, सारथी, भड़ास जैसे ब्लॉग पर नियमित नजर रहती है। हाशिया, पहलू जैसे ब्लॉग से सीखता रहता हूं।

हिंदी ब्लॉगिंग की वर्तमान स्थिति के बारे में आप क्या सोचते हैं?

हिंदी ब्लॉग की अभी शुरुआत हुई है। अभी जिस तरह की ब्लॉगिंग हो रही है उससे मुझे लगता है रंगमंच पर असली नायक और नायिकाओं का आना बाकी है। हिंदी ब्लॉग जगत में एक बड़ा विस्फोट होने वाला है। ऐसा मुझे लगता है और इसकी कामना भी है। खेल अभी शुरू होना है। अभी साइडलाइन की हलचल है, जिस कुछ लोग टूर्नामेंट मान बैठे हैं। वैसे शुरुआती दिनों में जो लोग जुटे और जुड़े हैं, उनका योगदान महत्वपूर्ण है।

एक माध्यम के रूप में ब्लॉग अन्य माध्यमों (टीवी और प्रिंट) से किस तरह अलग है?

ब्लॉग की ताकत है उसकी इंटरेक्टिविटी। इस मायने में वो बाकी सभी संचार माध्यमों से अलग है। इसे आप ब्लॉग की बढ़त के तौर पर देख सकते हैँ।

क्या आप मानते हैं कि ब्लॉगिंग भविष्य की विधा है?

हिंदी में ब्लॉगिंग को लेकर मै आशावान तो हूं, लेकिन कुछ किंतु-परंतु भी हैं। दरअसल हिंदी में ब्लॉगिंग का भविष्य इस पर टिका है कि हिंदी का भविष्य कैसा है। खासकर कंप्यूटर के इस्तेमाल के संदर्भ में अगर हिंदी की ताकत बढ़ती है, तो इसका फायदा हिंदी ब्लॉगिंग को मिलेगा। मनोरंजन और दिल बहलाने के माध्यम के तौर पर हिंदी ब्लॉग के सफल होने की संभावना ज्यादा है। लेकिन यही बात ज्ञान-विज्ञान के बारे में नहीं कह सकते। दरअसल ब्लॉगिंग को समाज में हिंदी की स्थिति से अलग करके नहीं देखा जा सकता। साथ ही ये देखना होगा कि हिंदी बोलने वाली पट्टी में कंप्यूटर और इंटरनेट कितनी मजबूती से पैर जमाते हैं। इंटरनेट सस्ता होता है तो इसका फायदा भी हिंदी और हिंदी ब्लॉगिंग को होगा। इसमें ब्रॉडबैंड के विस्तार का भी महत्व है।

आने वाले समय में ब्लॉगिंग किस रूप में हमसे मुखातिब होगी?

- हजारों तरह के लाखों ब्लॉग होंगे। एक्साइटमेंट के लिए सीट बेल्ट बांध कर तैयार रहिए।

क्या ब्लॉगिंग पत्रकारिता पर भी असर डालेगी?

ब्लॉग के असर से कोई भी विधा अछूती नहीं रहेगी। पत्रकारिता, साहित्य, गीत, संगीत, नाटक हर जगह इसका प्रभाव दखेगा। वाटर टाइट कंपार्टमेंट में सुरक्षित और अलग थलग रहने की कल्पना करने वालों को झटका लगने वाला है।

क्या आने वाले समय में इंटरनेट और ब्लॉगिंग इलेक्‍ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया पर भारी पड़ सकते हैं?

इसकी भविष्यवाणी करना अभी जल्दबाजी है। पश्चिम का अनुभव तो यही कह रहा है कि मास मीडिया में इंटरनेट का हिस्सा तेजी से बढ़ेगा। पश्चिम के कई मीडया हाउस के कुल राज्स्व का एक तिहाई से ज्यादा इंटरनेट से आ रहा है और ये हिस्सा बढ़ रहा है। भारत में भी ऐसा हो तो, आश्चर्य नहीं होना चाहिए। लेकिन हिंदी में ऐसा होगा या नहीं, ये पक्के तौर पर कह पाना खतरनाक है। हिंदी समाज में इंटरनेट और हिंदी में इटरनेट जैसे विषय पर प्रवृत्तियां अभी साफ नहीं है।

क्या आपको लगता है कि ब्‍लॉगिंग से हिंदी भाषा का विकास होगा?

ब्लॉग और इंटरनेट पर हिंदी का आना शुभ है। अभी तक पांच सौ से एक हजार के प्रिंट ऑर्डर में फंसे हिंदी साहित्य के लिए ये पहली नजर में खतरे की बात लग सकती है। लेकिन साहित्य और इंटरनेट का रिश्ता बनता है, तो पाठक न होने की समस्या दूर हो जाएगी। इस मामले में कुछ रोचक होने की उम्मीद है। ब्लॉग हिंदी भाषा को व्याकरण की जकड़न से मुक्त कर रहा है। कई ऐसे लेखक बन रहे हैं, जिन्हें प्रिंट में अछूत मान लिया जाता है। भाषा को लोकतांत्रिक होने की ताकत देगा ब्लॉग। भाषाई शुद्धता के प्रचारकों को गहरी चोट लगने वाली है।
(वेब दुनिया से साभार)
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