प्रणव प्रियदर्शी
नयी खबर उत्तराखंड से आयी है. वहाँ साध्वी माँ योगशक्ति ने जैसे धमाका कर दिया है. उन्होने शंकराचार्य की तर्ज पर एक नया पद बनाया पार्वत्याचार्य. उनका कहना है कि जैसे शंकराचार्य भगवान महादेव यानी शंकर के प्रतीक हैं वैसे ही पार्वत्याचार्य माँ पार्वती की प्रतीक होंगी. माँ योगशक्ति ने इसी महीने की १४ तारीख को हरिद्वार मे एक धार्मिक अनुष्ठान के बाद माँ ज्योतिषानंद सरस्वती को विश्व की प्रथम पार्वत्याचारी घोषित कर उनका पदाभिषेक भी कर दिया. शंकराचार्य की ही तरह पार्वत्याचार्य माँ ज्योतिषानंद को रजत दंड, कमंडल, छत्र प्रदान किया गया है.
खास बात यह कि माँ योगशक्ति के इस कृत्य से हरिद्वार का संत समाज क्षुब्ध है. उसने बाकायदा माँ योगशक्ति के खिलाफ धर्मयुद्ध घोषित कर दिया है. माँ योगशक्ति को दी गयी महामंडलेश्वर की उपाधि भी छीन ली गयी है. यह उपाधि इसी संत समाज ने उन्हें प्रदान की थी. इन पुरुष संतों का कहना है कि माँ योगशक्ति ने पार्वत्याचारी का पद सृजित कर न केवल अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया है बल्कि शंकराचार्य पद की गरिमा को भी नुकसान पहुँचाया है.
इन विरोधों से बेपरवाह माँ योगशक्ति कहती हैं कि वे चारो पीठों के शंकराचार्यों की तरह चार पार्वत्याचार्य बना कर ही रहेंगी.
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि हरिद्वार और रुड़की जैसे उत्तराखंड के छोटे शहरों मे जहाँ यह विवाद पहुंच चुका है, वहाँ की आम महिलाए माँ योगशक्ति के पक्ष मे खुल कर बोलने लगी हैं. उनका कहना है कि यह संत समाज का पुरुषवादी अहं ही है जो वे पार्वत्याचार्य बनाए जाने का विरोध कर रहे हैं. अन्यथा शंकराचार्य की गरिमा को तब क्या नुकसान नही पहुंचा था जब एक के बाद एक नये - नये शंकराचार्य उदित होते रहे? इसी वजह से आज सौ के करीब शंकराचार्य हो गए हैं.
बहरहाल, यह बहस खासी दिलचस्प है. यह प्रकरण महिला चेतना के विकास और धार्मिक रूढिवादिता की मजबूत होती जकडन का मिला-जुला रूप है और इस बात का बेहतरीन उदाहरण भी कि सुधारवाद हमे कई बार प्रगतिशीलता के भुलावे मे ऐसे खतरनाक मोड़ों पर लाकर छोड़ देता है जहाँ चयन का खास मतलब नही रह जाता. आप कोई भी मोड़ चुनें, वापस वहीं पहुंच जाते हैं जहाँ से चलना शुरू किया था.
देखना दिलचस्प होगा कि ऐप्वा और ऐड्वा से जुडी प्रगतिशील महिलायें इस विवाद पर क्या रुख अपनाती हैं!
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4 comments:
महत्व की खबर है. लेकिन इसमें अन्यथा कुछ भी नहीं है. साधु समाज में पुरूषवादी रवैया बहुत ज्यादा है. नारी को नर्क का द्वार बतानेवाली बातें ऐसे निठल्ले साधु सबसे ज्यादा फैलाते हैं जो खुद अव्वल दर्जे के सोहदे होते हैं.
इसलिए कोई नारी इस प्रकार के पीठ की स्थापना कर रही है तो इसमें गलत कुछ नहीं है. उसको समर्थन मिलना ही चाहिए.
जरूरत है कम्युनिस्ट साधुओं की
मुझे कई बार ऐसा लगता है कि भारत में असली साम्यवादी विचारधारा को फैलाने के लिए भारतीय तरीकों का उपयोग करना चाहिए. समाजवादियों और साम्यवादियों ने विदेशी तरीके अपना कर सारा गुड़ गोबर कर दिया है. समाजवादियों और कम्युनिस्टों में ऐसे अनेक मनीषी और विचारक रहे हैं जिन्होंने अपने जीवन से कई भारतीय संतों और साधकों को पसीने छुड़ा दिए. लेकिन उनकी सारी साधना एक ईश्वर विरोध के प्रचार के सामने धूल में मिल गयी.
भारती कम्युनिस्टों को भी गेरुआ धारण करके अपनी बात रखनी चाहिए. पाखंडी गेरुआधारी नहीं! कम्युनिस्ट बाबाओं के ऐसे हज़ारों दल बनाने चाहिए जो जनता के बीच लोकायत, चारवाक तथा सांख्य दर्शन के राजदूत बन सकें. तभी दक्षिणा और दक्षिणपंथी अमानवीय विचारधारा को हटाने में सफलता मिल सकती है. वरना आपका सारा प्रयास आपके ख़िलाफ़ विदेशी विचारधारा ओर तथाकथित अभारतीयता के दुष्प्रचार के अस्त्र से मिट्टी में मिलाया जाता रहेगा.
दक्षिणपंथियों ने ऐसा माहौल बना दिया है कि वे ही सच्चे भारतीय हैं ओर उनकी बेईमानियों पर जो चोट करे, वह अभारतीय! ऐसे में जनता आपकी बात सुनने से पहले ही उसे खारिज कर देती है या प्रतिरोधी मूड में आकर सुनती है.
अगर हमने अपनी बात समझाने के भारतीय तरीके अपनाए तो यह सच्ची भारतीय जनता के साथ हमारी ईमानदारी होगी. इसके लिए बहस के उन तरीकों को अपनाना होगा जिसकी एक झलक राहुल सान्क्रत्यायन ने 'वोल्गा से गंगा' के एक अध्याय में दिखाई है. अब तो बहस के वे आदाब भी नहीं रहे.
...और मार्क्सवाद को विदेशी विचार समझने समझाने की प्रवृत्ति पर भी चोट करनी होगी. इसकी जड़ें भारतीय वैदिक संस्कृति में मौजूद हैं. प्रतिरोध की धारा का वह स्रोत ढूंढ़ना होगा; तब अपनी बात बनेगी. वह स्रोत किस तरह बाधित और मूँद दिया गया इसका पर्दाफाश करना होगा. बौद्ध धर्म को भारत से नेस्तनाबूद करने की कोशिशों का अमानवीय इतिहास रहा है.
इस देश में कबीर जैसे साधनहीन समाज सुधारक कवि ने प्रचार-प्रसार विहीन काल में भी उत्तर ही नहीं दक्षिण में भी अपनी चौपालें और दल तैयार कर लिए थे. ये दल आज भी अपनी-अपनी शक्तियों के साथ भारत भर में नए-नए स्वरूपों में उपस्थित हैं. यह नेटवर्क आज भी हमारे बड़े काम आ सकता है.
यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि आज देश में जो अखंडता है वह समाजवादियों या कम्युनिस्टों की वजह से है, वह इन्हीं शक्तियों की वजह से बरकरार है. दक्षिणपंथियों की चोट वही परम्परा झेल रही है और बहाल है. ऐसे ही नहीं सदियों से इस परम्परा के वाहकों को जाहिल, असभ्य, दलित करार देकर मुख्यधारा से अलग-थलग रखा गया है. यही लोकायत की परम्परा के वाहक हैं. लेकिन इस परम्परा के साथ भी जब हम 'धर्म अफ़ीम है' से शुरुआत करते हैं तो वह बिदक कर दूर जा खड़ी होती है. क्या इससे लगता नहीं कि हमने शुरुआत ही ग़लत ढंग से की है. अगर लगता है तो अब उस भूल सुधार का समय आ गया है.
यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह भूल सुधार सत्ता के मद में चूर और चुनाव जीतने को अपना एकमात्र लक्ष्य बना चुके तथाकथित वामपंथियों की न तो जरूरत है न ही उनके वश की बात. यह सुधार वही करेंगे जो जनता के सच्चे संघर्षों में जनता के सच्चे हितैषी बनकर काम कर रहे हैं या करना चाहते हैं. अपनी सीमाओं में ही सही, कहीं न कहीं से इसकी शुरुआत तो करनी ही होगी. गोली-बंदूक की रणनीति बेहतर मानव-इकाई बनाने की दिशा में स्थायी बदलाव नहीं ला सकती.
यह सारी बातें मैनें तुम्हारा 'पार्वत्याchaarya' पीठ स्थापित करने वाला लेख पढ़ने के बाद ही लिखीं हैं. देख ही रहे हो पुरूषवादी धर्मसत्ता के ख़िलाफ़ एक कदम उठाने मात्र से कैसी-कैसी प्रतिक्रियाएं हो रही हैं. इससे अन्दाजा लगाना मुश्किल नहीं कि पुराने समय में इस सर्वेसर्वा धर्म-व्यवस्था में स्त्रियों की क्या स्थिति रही होगी. उन लोगों को शर्म आनी चाहिए जो गोपा, लोपमुद्रा, कात्यायिनी जैसी कुछ विदुषियों का उदाहरण देकर प्राचीन परम्परा को बहुत उज्जवल बताया करते हैं. लेकिन चाचा गालिब ने कहा ही है- 'शर्म तुमको मगर नहीं आती.'
-विजयशंकर चतुर्वेदी
(चाहो तो इसे बतौर-ए-पोस्ट चढ़ा देना)
कुछ समय पहले आंध्र प्रदेश के अनंतपुर शहर के एक मंदिर में प्रवेश का हक पाने के लिए 6-8 दलितों का एक दल जबर्दस्ती मंदिर में घुसा। इस पर मंदिर में तो हुआ ही, शहर भर में भी काफी हंगामा हुआ। देश के कई हिस्सों में बहस छिड़ गई कि दलितों को मंदिर प्रवेश का हक होना चाहिए या नहीं, और इस हक को पाने के लिए जबर्दस्ती प्रवेश का यह तरीका उचित है या अनुचित। शंकराचार्य की तर्ज पर एक महिला के लिए पार्वत्याचार्य का पद बनाए जाने और दलितों के मंदिर प्रवेश की घटनाओं में किसी स्तर पर साम्य दिखाई पड़ता है? मुझे दिखता है।
आज के समय में दलित के पास यह सामाजिक और आर्थिक ताकत है कि वह आगे आकर कहे कि उसे मंदिर जैसे ढकोसले में पड़ कर सदियों पीछे नहीं जाना है बल्कि जाति व्यवस्था के स्टीरियोटाइप को तोड़ कर इससे आगे बढ़ना है। खोखली हो रही मंदिर व्यवस्था का बहिष्कार कर, और दिशाओं में अपनी ऊर्जा लगानी है ताकि तरक्की करके जमाने के साथ चल सके, बल्कि उससे आगे निकल सके।
इसी तर्ज पर महिलाएं सदियों पुरानी और असामयिक साबित होती शंकराचार्य परंपरा को आगे बढ़ने और बराबरी पाने का जरिया क्यों मानें? उसे पाना क्यों चाहें और मिल जाए तो उसे अपनी जीत क्यों माने और पाकर खुश क्यों हों? उसे हक मानने की बजाए क्यों न उसका बहिष्कार करे? क्यों न वे साफ कहें कि जिस व्यवस्था में हम सदियों तक लगातार गैर-बराबरी झेलती रहीं, अपने लिए जगह खोजने की बेकार कोशिश करती रह गई, उसकी जीर्णावस्था में हम क्यों उसे महत्व दें? जब अभी तक उसके बिना गुजारा चल गया तो अब तो हमारे पास और विकल्प हैं अपनाने के लिए। फिर क्यों इस मृतप्राय, बेकार बासी व्यवस्था को अपनाने की जुगत में खुद सदियों पिछड़े हो जाएं?
mujhe lagta hai ki kisi bhi mamale me apni pahuch banane ya khud ko kahin sthapit karne se pehle hum mahilayon ko ye zarur vichaar kar lena chaiye ki wah sthaan-vishesh hamre qaabiz hone ke Kaabil hai bhi ya nahi.. kathit shanakracharaya vyavasthaa ke hi jiwant bane rahne ka koi aauchitye mujhe nazar nahi aata..haa, sanskriti ke naam par iske kaayam rahne ki kaamna aap kar sakte hain, magar fir is sanskriti ke naam par dahej parthe or baal vivah ko bhi kaayam rakhiye..
maan yogshakti ka kadam utejaana to paida karta hai or sath hi chetana ke vistaaran ko bhi darshaata hai, MAGAR..long term mein Parvatyachaarya se mahilayon ya samaaj ka kya bhala hoga..meri samjh se pare hai..
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