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Tuesday, January 22, 2008

विस्फोट: ऐसी बौद्धिक ईमानदारी दुर्लभ है

- दिलीप मंडल

संजय तिवारी चाहते तो ऐसा नहीं भी कर सकते थे। और वो ऐसा नहीं करते तो कोई उनका क्या बिगाड़ लेता? लेकिन संजय तिवारी ने वो किया जिसका मौजूदा दौर में घनघोर अभाव है। बात इतनी-सी थी कि मैंने रिजेक्टमाल, इयत्ता और कबाड़खाना पर एक पोस्ट डाली थी। पोस्ट तो अपने चंदू भाई के एक लेख की प्रतिक्रिया में थी। लेकिन साथ में इस बात का जिक्र था कि कुछ जगहों पर (बतंगड़, विस्फोट और आजादी एक्सप्रेस का मैंने जिक्र किया था, वैसे ये बात है कई और जगहों पर भी) मैकाले को जिस तरह से उद्धृत किया जा रहा है उसके प्रमाण नही मिल रहे हैं। मैंने सबसे से ये जानना चाहा था कि क्या किसी के पास उस स्रोत की जानकारी है, जहां से मैकाले को इस तरह कोट किया गया है। मैकाले का वह (सही/गलत) कोट इस तरह है:

लार्ड मैकाले की योजना
मैं भारत के कोने-कोने में घूमा हूं और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया जो चोर हो, भिखारी हो. इस देश में मैंने इतनी धन-दौलत देखी है, इतने ऊंचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी भी इस देश को जीत पायेंगे. जब तक उसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो है उसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत.और इसलिए मैं प्रस्ताव रखता हूं कि हम उसकी पुरातन शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को बदल डालें. यदि भारतीय सोचने लगे कि जो भी विदेशी और अंग्रेजी में है वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं.
(2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में मैकाले द्वारा प्रस्तुत प्रारूप)

इस पर पिछले दिनों संजय तिवारी का ये मेल आया। इसे सार्वजनिक करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि इसमें हम सबके सीखने के लिए कुछ है। संजय जी ने क्या लिखा है, आप भी पढ़ें:

मैकाले के कथन पर आपका सवाल जायज है. फिलहाल यह टिप्पणी के माध्यम से मेरे पास पहुंचा है और मैं आपको भेज रहा हूं. और हां जब तक प्रमाणित नहीं हो जाता मैं वह वाक्य हटा रहा हूं. गंभीरता से ऐतिहासिक साक्ष्य देखने के लिए धन्यवाद.
फिर भी क्या मैकाले की ऐसी ही कुछ योजना नहीं थी?
I found an interesting piece in a site seems basically ISCON devotees site, but a gentleman has tried to find out what is the reality.This url is http://www.dandavats.com/?p=4104

कृपया इसे किसी हार-जीत के रूप में देखेंसवाल बौद्धिक विमर्श में प्रामाणिकता और शुचिता बनाए रखने का हैये किसी भी हार-जीत से बड़ी चीज हैजो प्रामाणिक नहीं होगा वो नष्ट हो जाएगाजैसा कि मैंने पहले भी लिखा था - इससे मैकाले के बारे में कुछ बदल नहीं जाएगालेकिन न्याय की इमारत सच की बुनियाद पर खड़ी हो तो बेहतर

आप बंधुओं में अगर कोई भी मुझे मैकाले के उक्त कथन का स्रोत/प्रमाण भेजता है तो मैं उसे पोस्ट के रूप में छापूंगा। यहां एक बात और। मैकाले का लगभग सारा लेखन वेब पर मौजूद है। फरवरी, 1835 को ब्रिटिश संसद में भारतीय शिक्षा पर पेश किया गया मैकाले का प्रारूप भी नेट पर है। मैकाले के भाषणों, लेखन और पत्र व्यवहार के ढेर सारे पन्नों को पढ़ने के बाद मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैकाले भारत का किसी भी रूप में प्रशंसक था। भारतीय लोगों के चारित्रिक आदर्श की वो प्रशंसा करेगा, ये मान पाना आसान नहीं है। यूरोपीय नस्ल की श्रेष्ठता में आकंठ डूबे मैकाले को भारतीय संस्कृति की प्रशंसा करने का श्रेय देना अनुचित है। इस बारे में फिर कभी।

7 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

आपकी बात से अक्षरशः सहमत हूँ. तथ्यों की प्रामाणिकता आवश्यक है. अगर प्रमाण न हों तो हवा में ही बातें नहीं करना चाहिए. मामला इतना विकट है कि अयोध्या जैसे मामलों; या अभी रामसेतु का ही मुद्दा लें, बिना सिर-पैर के आस्था का सवाल बनाकर लोगों की भावनाएं भड़काने का धंधा लोग करते आए हैं.
कई नेतागण भी तथ्यों को इस तरह पेश करने में माहिर हैं जैसे कि वे एकदम सही हों. अब भाषण सुनने आयी जनता (कई बार लगभग श्रद्धालु) तो इतनी तस्दीक करने नहीं बैठती, वह उसे ही सच मान लेती है जो सुनती है. जोर्ज फर्नांडीज जैसे कई नेता आपातकाल और उसके पहले से इस फन में माहिर रहे हैं. संघी तथा भाजपा नेता तो उनसे चार सौ कदम आगे निकल चुके हैं.

..और प्रवचन करने वाले बाबाओं से तथ्य की अपेक्षा करना भी मूर्खता होगी! कुछ को छोड़ दें तो अधिकांश ब्लोगवीर तो इतने उतावले हैं कि अल्ला बचाए! इनसे ज्यादा उम्मीद करना कितना उचित है, समझ में नहीं आता. अस्तु...

प्रसंगवश, आजकल मैं जो लंबा लेकिन ज़रूरी आलेख पढ़वा रहा हूँ वह अनगिनत दुर्लभ तथ्यों पर आधारित है जिसकी सूचना भी यथास्थान दी गयी है.

Neeraj Rohilla said...

इस बारे में इस लेख को पढें,
http://antardhwani.blogspot.com/2007/04/blog-post.html

मैकाले के इस वक्तव्य के बारे में अधिक जानकारी Koenraad Elst के इस शोधपत्र से प्राप्त करें

http://homer.rice.edu/~nrohilla/macauley.pdf

अभय तिवारी said...

बड़ा अच्छा लगा यह देखकर कि आप ने संजय को उनकी समग्रता में देखा न कि उनकी किसी एक राय के आधार पर उनके पूरे चरित्र का निर्णय- जैसा कि हम अक्सर करते हैं..

उन्मुक्त said...

मैकाले के बयान पर स्थिति साफ हुई - इसके लिये धन्यवाद।

दिलीप मंडल said...

नीरज जी, धन्यवाद। नए (मेरे लिए) तथ्यों से परिचय कराने और विषय को पूरे कॉन्टेस्ट में रखने के लिए। आपका लेख तर्कों पर आधारित है। बधाई।

दिलीप मंडल said...

विजय जी आपको नियमित पढ़ रहा हूं। धन्यवाद।

अजित वडनेरकर said...

मैं पहले भी आशंका जाहिर कर चुका हूं कि मैकाले का बहुउल्लेखित कथन संदेह के घेरे में है। दिलीप जी शोध में लगे है तो यकीनन बात सामने आएगी। विभाजन पर प्रियंवद की लिखी एक महत्वपूर्ण पुस्तक इन दिनों पढ़ रहा हूं। उसमें भी उठाए गए विभिन्न मुद्दों के तहत मैकाले के कई कोट्स हैं मगर यह बहुश्रुत, बहुपठित कथन कहीं नहीं है। दिलीप जी आप प्रिंयंवद की यह पुस्तक ज़रूर पढ़ें।

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