- प्रणव प्रियदर्शी
अनुराधा के लेख (नवभारत टाइम्स) के मूल भाव से असहमत होना कठिन है. अपनी भावनाए व्यक्त करने के चलन को पश्चिम का प्रभाव बता कर हम खारिज तो कर देते हैं लेकिन यह भूल जाते है कि 'छोटी- छोटी बातें' कह कर हम आस पास के लोगों को बिना किसी विशेष प्रयास के खुशियों के अनमोल पल दे सकते हैं . इसके अभाव मे हमारे रिश्तो मे बेवजह उलझने आती हैं. हम सामने वाले की भावनाओं को नही समझते और यह शिकायत रखते हैं कि वह हमे या हमारी भावनाओं को नही समझता.
बहरहाल, इस पहलू पर अनुराधा रौशनी डाल चुकी हैं और काफी अच्छे ढंग से डाल चुकी हैं.
मैं दूसरे पहलू की तरफ ध्यान खींचना चाहता हूँ . इस स्थिति को या पश्चिमी जीवन शैली के प्रति जन्मे हमारे मोह को आधार बनाते हुए बाजार की शक्तियों ने हमारे सांस्कृतिक जीवन मे सक्रिय हस्तक्षेप इस रूप मे किया कि हम अब तरह-तरह की 'डे' मनाने को मजबूर से हो गए हैं. जो डे हम जानते भी नही थे, वह मनाते हैं और जो डे जानते या हलके-फुल्के ढंग से मनाते थे, वे अब इतनी धूमधाम से मनाते हैं कि हमारे खुद के त्यौहार भी फीके पड़ जाएं .
कायदे से इस पर भी ऐतराज नही होना चाहिए . उत्सवधर्मिता हमारी विशेषता शुरू से रही है . लेकिन हमारे त्योहारों मे और बाजार के लाये इन विभिन्न डे मे एक अंतर यह है कि हमारे उत्सव स्थानीय स्तर पर ही सही हमे एक- दूसरे से जोड़ते हैं, मगर व्यापक रूप मे देखें तो व्यावसायिकता के गहन प्रभाव के वशीभूत ये डे हमे हमारे अपने घेरों तक सीमित करते हैं. अगर कल ही मनाये गए हैप्पी न्यू ईयर को देखें तो देश भर मे जिस रूप मे यह मनाया गया , उससे सामाजिकता की भावना को बढावा मिलता नही दिखता. हाँ यह कथित जश्न हमे खाओ-पियो खुश रहो के मूड मे जरूर लाता है. तो जिनके पास खाने-पीने को बहुत है वे अपने दोस्तों के साथ ऐश करते रहें और जिनके पास नही है उनकी चिंता करने की इन्हें क्या ज़रूरत है? वैसे भी उनके पास वक्त कहाँ बचता है इन लोगों के बारे मे सोचने का? पैसे कमाने के बाद जो वक्त बचता है वह तो जश्न मे खर्च हो जाता है . इससे दूसरा फायदा यह होता है कि जिनके पास पैसे नही हैं वे भी इन्ही लोगों से प्रेरणा लेकर सिर्फ 'अपने' लोगों के लिए बेहतर ज़िंदगी की जुगाड़ मे लगे रहते हैं. और कोई भी जुगाड़ लगते ही अपने जैसों को भूल जश्न मे डूबने को बेकरार हो जाते हैं.
आप कल्पना कीजिए अगर नंदीग्राम के मसले पर देशव्यापी आन्दोलन का माहौल बनता हो और बीच मे यह 'हैप्पी न्यू ईयर' का पर्व या ट्वेंटी -२० की कोई जोरदार सीरीज आ जाये तो मीडिया के सहयोग से उस आन्दोलन के माहौल को 'जश्न ' के माहौल मे बदल देने मे कितना वक्त लगेगा? ऐसा भारत मे ही नही दुनिया भर मे होता रहा है. लातिन अमेरिकी देशों मे वर्ल्ड कप फुटबॉल के मैच ऐसा ही असर दिखाते रहे हैं.
मेरा यह मतलब नही कि जब तक नया समाज नही बन जाता और एक -एक व्यक्ति के जीवन की बुनियादी समस्याएं दूर नही हो जातीं तब तक कोई उत्सव नही होना चाहिए. लेकिन इसे लेकर सचेत तो हमे होना ही चाहिए कि कौन सी बातें समाज को सार्थक बदलाव के रास्ते पर आगे बढाती हैं और कौन सी बातें अवरोध बनती हैं.
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Wednesday, January 2, 2008
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1 comment:
त्यौहार मनाना एक बात है और मनाने का तरीका चुनना (या व्यावसायीरकण) दूसरी। फिर यह तो हमारे देसी त्यौहारों पर भी उतना ही लागू होता है। किसी ने मुझे कहा- "हमें दिवाली पर कहा जाता है कि पटाखे मत फोड़ो, होली पर रंग-गुलाल (दरअसल कीचड़-पेंट कहना चाहिए था उन्हें। रंग-गुलाल को भी शांतिनिकेतन के स्तर तक पहुंचा सकें तो आपत्ति ही क्यों हो।) न लगाओ और फिर सारे विदेशी त्यौहार मनाने में कोई गुरेज़ नहीं करता।" मुद्दा दरअसल मनाने के तरीके का है और अगर यह व्यावसायिकता के बीच फलफूल रहा है तो क्या यह हमारे बस में नहीं है कि हम इसे मनाने का लोकतांत्रिक ढ़ंग से, अपना तरीका चलन में ला दें। क्या जरूरी है कि कीमती तोहफे ही, खरीदे ही जाएं। किसी कलालार की छोटी सी कलाकारी बड़ा तोहफा हो सकती है। और प्यार के दो मीठे बोलों से बड़ा तोहफा कोई हो सकता है? मदर्स डे पर, साल में कम से कम उस एक दिन आप अपनी मां के पास थोड़ी देर पूरे मन से बैठें और कहें कि आज उन्हें घर-परिवार की कोई फिक्र नहीं करनी पड़ेगी तो क्या इसमें कोई रुकावट है? डॉटर्स डे पर बेटी को पूरा दिन अपनी इच्छा से बिताने की इजाजत मिल जाए तो इसमें कोई व्यावसायिकता आड़े आती है? वैसे व्यावसायिकता तो हमारे जीवन में हर कदम पर, हर दिन है। उसे सिर्फ त्यौहारों से नहीं, अपनी जिंदगियों से भी उसी शिद्दत से हटाने की कोशिश करनी चाहिए। और जो चाहते हैं, वो यह कर भी रहे है। क्या घर के बड़े-बुजुर्गों, वृद्धाश्रमों, अनाथालयों, झुग्गी-बस्तियों, कैंसर और एड्स के मरीजों के बीच जाकर लोगों ने त्यौहार मनाने बंद कर दिए है? नहीं न, तो इन विदेशी त्यौहारों को भी तो उसी तरह मनाया जा सकता है, और मनाया जा रहा है। यह तो आप पर है कि आप त्यौहार मनाने का तरीका कौनसा चुनते है।
और इसके आगे विरोध का एक और तर्क होता है कि क्या इन सबके लिए दिन तय करके मनाना जरूरी है? इस पर तो एक पूरी बहस की गुंजाइश है मेरे दोस्त। वैसे, एक लाइन में मेरा जवाब- बिना दिन तय हुए, या दिनों को नजरअंदाज करते हुए आपने साल में कितनी बार दूसरों के लिए, बिना किसी रिटर्न की उम्मीद किए कुछ किया है?
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