Custom Search

Friday, February 29, 2008

मोहल्ला और भड़ास और चोखेरबाली और तमाम दोस्तों से एक अपील

कृपया आप सब लोग अपने ब्लॉग से वो पोस्ट और टिप्पणियां हटाइए, जो आपको लगता है कि आपके ब्लॉग पर नहीं होनी चाहिए। ये आपका अपना फैसला होगा। अधिकार के साथ जिम्मेदारियां भी साथ आती हैं। कृपया कभी कभी दूसरों की जीत का सुख लेने की भी कोशिश कीजिए। अपनी जीत पर तो बच्चे भी खुश हो लेते हैं।

अपने दोस्तों को निराश मत कीजिए। आपकी परिपक्वता कसौटी पर है। इस इम्तेहान से सफल होकर निकलिए। काम पर चलिए। आपके ढेरों दोस्त आपकी जीत की कामना कर रहे हैं।

नमस्ते।

दिलीप मंडल

Thursday, February 28, 2008

बाल ठाकरे से आगे बढ़ गए राज ठाकरे

प्रणव प्रियदर्शी


महाराष्ट्र मे राज ठाकरे ने पिछले कुछ अरसे से हंगामा मचा रखा है. ऐसा कि हजारों की संख्या मे उत्तर भारतीय अपने रोजगार की चिंता छोड़ अपने-अपने मुलुक को लौट रहे हैं. उन्हें मालूम है कि गाँव जाकर वे फिर उन्ही समस्याओं से दो-चार होंगे जिनकी वजह से उन्हें अपना घर-बार छोड़ परदेस आना पड़ा था. इसके बावजूद जान बचाने की चिंता उन्हें बरसों की मेहनत पर पानी फेरने से भी नही हिचकने दे रही.

उन पर हमले कर रहे हैं वे लोग जो उन जैसे ही बेचारे हैं. जो महाराष्ट्र मे जन्मे यही पले-बढे हैं. जिनके माँ-बाप भी महाराष्ट्रियन हैं. इसके बावजूद उन्हें ढंग की नौकरी नही मिल पा रही. वे बहुत ज्यादा नही चाहते. 'साई इतना दीजिये जामे कुटुंब समय, मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू न भूखा जाये.' बस इतनी ही इनकी जरूरत है. उतना ही पाने की इच्छा भी है. किसी का मुहताज न हों. इज्जत से अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण कर सके. मगर यह भी नही मिलता. इन लोगों को.

उन लोगों को भी यह अपने राज्य मे नही मिला, जिन पर ये 'बेचारे' लोग हमले कर रहे हैं. तभी तो उन्हें यहाँ आना पडा दूसरों की गालियाँ सुनने.

मगर, जो राज ठाकरे बाहर से आये बेचारों से स्थानीय बेचारों को लड़ा रहे हैं, वे बेचारे नही हैं. उनके पास अथाह सम्पत्ति है. मगर उन्हें और चाहिए. पैसा भी, ताकत भी. उनके चाचा ने भी ठीक यही काम किया था. पिछले चार दशक से करते आ रहे हैं. इस क्रम मे उन्होने अपने लिए, अपने परिवार के लिए, अपने चेलो के लिए बेशुमार दौलत कमाई. वे और उनसे जुडे लोग मालामाल हो गए. आम लोग नही, उनसे जुडे खास लोग. लेकिन आज तक बाल ठाकरे आम लोगों की नज़र मे बेनकाब नही हुए. उनकी पोल नही खुली. महाराष्ट्र के कथित आम लोग आज भी उनके आदेश के आगे नतमस्तक हैं. इन्ही आम लोगों के बूते सीनियर ठाकरे राजाओं जैसा रूतबा रखते हैं. वैसा ही कुछ राज ठाकरे भी हासिल करना चाहते हैं और बहुत संभव है कि वे कर भी लेंगे. बाल ठाकरे की ही तरह उन्हें भी अन्दर ही अन्दर सरकार का समर्थन प्राप्त है.

गौर करने की बात है कि राज ठाकरे इतिहास को ज्यों का त्यों नही दोहरा रहे हैं. वे बाल ठाकरे के (कु)कृत्यों को आगे बढा रहे हैं. बाल ठाकरे ने भी मुम्बई के दक्षिण भारतीयों के मन मे खौफ पैदा किया था. उनमे से बहुतों को भागने पर मजबूर किया था. इन कार्यों के जरिये उन्होने स्थानीय आबादी के मन मे यह भाव जगाया कि वे उनके हितों की रक्षा कर सकते हैं. उनका असली मकसद उद्योगों को ट्रेड यूनियनों से छुटकारा दिलाना था. कामगारों की एकता के चलते उद्योगपति कर्मचारियों के खिलाफ मनमाने ढंग से फैसले नही कर पाते थे. बाल ठाकरे की अगुवाई मे और कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के सहयोग से शिव सेना ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया. कामगार समुदाय क्षेत्र के आधार पर बंट गया. उसकी ताकत बिखर गयी.

लेकिन राज ठाकरे अब एक कदम आगे बढ़ गए हैं. 'समय की जरूरत' देखते हुए. सीनियर ठाकरे के दौर मे कम ही सही, नौकरियां थीं. यूनियनों की ताकत बची हुयी थी. लेकिन अब मौजूदा साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के दौर मे नौकरिया नाम मात्र को ही रह गयी हैं. इसलिए राज ठाकरे उस तरफ ध्यान नही दे रहे. टैक्सी यूनियनों मे जरूर वे अपनी पैठ बना रहे हैं हिंसात्मक उपायों से, लेकिन अन्य क्षेत्रों मे वे आजीविका के साधनों को एक से छीन कर दूसरे को देने का काम हाथ मे ले चुके हैं. शुरुआत दूध वितरण से हुयी है. 'भैयों' को भगा कर उनकी जगह दूध बेचने का काम मराठी युवकों को देने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. इसके लिए वे एक संगठन श्री कृष्ण दूध वितरण संस्था बना चुके हैं जिसकी औपचारिक घोषणा नौ मार्च को होनी है. यही काम अन्य पेशों - जैसे पानी पूरी, भेल पूरी, सेव पूरी बेचने - मे भी होना है.

गौर कीजिए. मराठी युवकों को रोजगार दिलाने की मांग राज ठाकरे सरकार से नही कर रहे. वे इन युवकों से कह रहे हैं कि जाओ पडोसी का काम उससे छीन लो.
आप इसे असंवैधानिक वगैरह कहते रहिये. सरकार अन्दर से उनके साथ है. उनका कुछ बिगड़ना नही है. अब जिनकी जीविका छीनी जा रही है, आज नही तो कल वे उठेंगे. उन्हें उठना ही होगा. संगठित होंगे और इन लोगो को इन्ही की भाषा मे जवाब देंगे. जैसे राज ठाकरे हैं वैसे ही कोई अमर सिंह या कोई अबू आजमी इनका भी 'रक्षक' बनने का दावा करेगा.
राज और अबू तो राजनीति मे अपनी औकात बढा कर अपना मकसद पूरा कर लेंगे. जो बडा मकसद इन्हें बढावा देने वालों का है वह भी पूरा होगा. बेचारे लोग, हम अपनी शब्दावली मे कहे तो रिजेक्ट समुदाय कभी एक होकर इनसे नौकरी की मांग नही कर पायेगा. यह समुदाय आपस मे एक दूसरे से लड़ता और मरता रहेगा. यही उस सेलेक्ट समूह की जरूरत है जिसका प्रतिधिनिधित्व राज ठाकरे और अबू आजमी कर रहे हैं. खास कर इसलिए कि अब उस सेलेक्ट समूह के पास हमे देने को कुछ नही रह गया है. न नौकरी और न ही कोई अन्य बड़ी रियायत.

ऐसा नही कि उसके संसाधन कम हो गए हैं. सेलेक्ट समूह के पास आज भी अकूत सम्पत्ति है. लेकिन उसका इस्तेमाल और ज्यादा कमाने मे होना है. इसीलिए उन पैसो को विदेशो मे निवेश किया जायेगा. उनसे विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण होगा. इस तरह के तमाम दूसरे काम होंगे. मगर अपना श्रम बेच कर आजीविका चलाने वाले रिजेक्ट समूह के लिए उस सेलेक्ट समूह के पास कुछ नही है.

(अगली किस्त : राज ठाकरे ने तो वक्त को पहचान लिया, हम कब पहचानेंगे?)

क्या हुआ तेरा वादा - दैनिक भास्कर में एक लेख

बजट से ठीक पहले सरकार के पुराने वादों और दावों की पड़ताल करता मेरा एक लेख आज के दैनिक भास्कर (राष्ट्रीय संस्करण) के ऑप-एड पेज पर छपा है। सोशल सेक्टर, खासकर शिक्षा और स्वास्थ्य में सरकार के अब तक के कामकाज का लेखा जोखा है। आखिर ये वो सेक्टर है, जिससे हममें से हर एक का वास्ता है। लेख आप दैनिक भास्कर के ई-पेपर में नेशनल एडीशन के पेज -9 पर पढ़ सकते हैं। - दिलीप मंडल

वामपंथी = प्रगतिशील? जरूरी नहीं है

भारत में कम्युनिस्ट नामधारी पार्टियों के बारे में अरसे से कई लोगों में ये भ्रम रहा है कि ये पार्टियां अल्पसंख्यकों और कमजोर तबकों की विरोधी नहीं होती हैं। ऐसी किसी पार्टी की सदस्यता को अक्सर प्रगतिशीलता का पर्याय मान लेने की जिद होती है। ऐसी किसी पार्टी में थोड़ा या ज्यादा समय बिताने वाले भी जीवन भर इसी आधार पर प्रगतिशील कहलाते रहते हैं। लेकिन भारतीय संदर्भ में, खासकर पश्चिम बंगाल के हमारे अनुभव बता रहे हैं कि अल्पसंख्यक और वंचितों का हक मारने में वामपंथी कॉमरेड किसी और पार्टी से पीछे नहीं हैं। बल्कि बाकी पार्टियों को इस मामले में उनसे कुछ गुर सीखने को मिल सकते हैं।

आइए देखते हैं कैसे :

- मुसलमानों की आबादी 25 फीसदी, सरकारी नौकरियों में हिस्सा 2.1 फीसदी। उच्च पदों पर मुसलमान नदारद।
- देश में एससी-एसटी-ओबीसी मिलाकर सबसे कम आरक्षण किस राज्य में। पश्चिम बंगाल में।
- देश में सबसे कम ओबीसी आरक्षण कहां, पश्चिम बंगाल में और कहां।
- मंडल कमीशन की रिपोर्ट को किस राज्य ने सबसे बाद में लागू किया। क्या अब ये भी बताना होगा?
- देश में एससी छात्रों का सबसे ज्यादा ड्रॉप आउट रेट कहां? एक और अश्लील सवाल! आप जरूर वामपंथ विरोधी हैं, सांप्रदायिक हैं, बीजेपी या तृणमूल कांग्रेस या फिर नक्सलियों के एजेंट हैं, जातिवादी हैं, देश की एकता और अखंडता के दुश्मन हैं, कहीं आप अमेरिका के एजेंट तो नहीं।

25 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले राज्य पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की हालत देश में सबसे बुरी है। ये बात काफी समय से कही जाती थी, लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा गठित सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का प्रमाण जगजाहिर कर दिया है। राज्य सरकार से मिले आंकड़ों के आधार पर सच्चर कमेटी ने बताया है कि पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार की नौकरियों में सिर्फ 2.1 फीसदी मुसलमान हैं। जबक केरल में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत लगभग बराबर है पर वहां राज्य सरकार की नौकरियों में साढ़े दस फीसदी मुसलमान हैं। पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का पिछड़ापन सिर्फ नौकरियों और न्यायिक सेवा में नहीं बल्कि शिक्षा, बैंकों में जमा रकम, बैंकों से मिलने वाले कर्ज जैसे तमाम क्षेत्रों में है।

साथ ही पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां सबसे कम रिजर्वेशन दिया जाता है। पश्चिम बंगाल में दलित, आदिवासी और ओबीसी को मिलाकर 35 प्रतिशत आरक्षण है। वहां ओबीसी के लिए सिर्फ सात फीसदी आरक्षण है। मौजूदा कानूनों के मुताबिक, मुसलमानों को आरक्षण इसी ओबीसी कोटे के तहत मिलता है। पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां मंडल कमीशन की रिपोर्ट आखिर में लागू की गई और पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार अरसे तक ये कहती रही कि राज्य में कोई पिछड़ा नहीं है।

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद से ही पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बौद्धिक जगत में हलचल मची हुई है। इस हलचल से सीपीएम नावाकिफ नहीं है। कांग्रेस का तो यहां तक दावा है कि 30 साल पहले जब कांग्रेस का शासन था तो सरकारी नौकरियों में इससे दोगुना मुसलमान हुआ करते थे। सेकुलरवाद के नाम पर अब तक मुसलमानों का वोट लेती रही सीपीएम के लिए ये विचित्र स्थिति है। उसके लिए ये समझाना भारी पड़ रहा है कि राज्य सरकार की नौकरियों में मुसलमान गायब क्यों हैं।( जारी)

Wednesday, February 27, 2008

एक चर्चा, डेढ़ सौ से ज्यादा टिप्पणियां...

...और वो कहते हैं कि ये भी कोई मुद्दा है

पांच फरवरी को ये चर्चा शुरू हुई थी। मोहल्ला और रिजेक्टमाल में देर तक चली। सवाल ये था कि क्या मीडिया के उच्च पदों पर एक भी दलित नहीं है? क्या कुछ सोशल-रिलीजियस-जेंडर ग्रुप की हिस्सेदारी लोकतंत्र के चौथे खंभे में निराशजनक रूप से कम है? इस लेकर बात तनी तो तनती चली गई।

बहस इंटेंस थी। नाराजगी, गुस्सा, छल-फरेब, कान के नीचे बजाने का उल्लास, प्रपंच - यानी हर तरह का सामान। बेनामी भी आए और नामधारी भी। साधुवाद नुमा ही नहीं बड़ी-बड़ी टिप्पणियां। दर्जनों टिप्पणियां ऐसी, जिन्हे पोस्ट होना चाहिए। कुछ ने तो अलग से पूरी की पूरी पोस्ट लिख डाली। बहस का स्पिलओवर दूसरे कई ब्लॉग पर नजर आया। अब भी दिख रहा है।

क्या ये हिंदी ब्लॉगिंग के क्रमश: वयस्क होने के संकेत हैं? ये बहस ब्लॉग के अलावा किस और माध्यम पर देखने की बात आप सोच सकते हैं?

मीडिया का सोशल-जेंडर प्रोफाइल क्यों चाहिए?

पत्रकारिता के सोशल-जेंडर प्रोफाइल की इस समय बात क्यों हो रही है? क्या ये बेसुरा-असमय का राग है। अब इस बारे में स्पष्टीकरण देने के जरूरत है। इसलिए क्योंकि इस बहस से कुछ लोगों में एक भय का वातावरण बना है। कुछ भद्र लोग गाली गलौज पर उतारू हैं। वैसे गालियों के समाजशास्त्र पर मेरी एक पोस्ट है। देखिए।

दरअसल आने वाले महीनों में आपको भारत में एक नई चीज नजर आएगी। उसका नाम तय होना है पर वो बनेगा पश्चिमी देशों के इक्वल ऑपुर्चुनिटी कमीशन की तर्ज पर। ये कमीशन इस बात का अध्ययन कर सरकार को नियमित अपनी रिपोर्ट देगा कि लोकजीवन के अलग अलग अंगों खासकर रोजगार में अलग अलग मजहबी, जातीय समूहों और महिलाओं की क्या स्थिति है। अभी इस कमीशन के गठन के बारे में विचार-विमर्श जारी है। लेकिन ये तय है कि कमीशन इस साल के अंत तक बन जाएगा।

भारत जैसे विविधता वाले देश में, जहां सामाजिक असमानता का इतिहास रहा है, इक्वल ऑपुर्चुनिटी कमीशन का न होना अपने आप में आश्चर्य की बात है। देर से ही सही, लेकिन सरकार इस बात के लिए तैयार हो गई है कि ऐसा एक कमीशन होगा। इस कमीशन को किसी भी सरकारी विभाग या निजी कंपनी से कर्मचारियों के सोशल-जेंडर प्रोफाइल की जानकारी मांगने का अधिकार होगा। कमीशन जिनके पास भी जानकारी मांगने जाएगा, उन्हें मांगा गया ब्यौरा देना होगा।

इस कमीशन के दायरे में न्यायपालिका और मीडिया होंगे या नहीं, इसे लेकर बातचीत चल रही है। आप जो भी लोग ब्लॉग पर चली इस चर्चा में शरीक हुए हैं वो खुद को उस बड़ी चर्चा का हिस्सा मानें। इस बहस में जो भी शरीक हुए उन्हें धन्यवाद। आपको एतराज न हो तो इस बहस को मैं उन लोगों तक पहुंचा दूंगा जो कमीशन बनाने की चर्चा से जुड़े हैं।

Monday, February 25, 2008

एड्स: कंडोम, कारोबार और रोजगार

(पिछली दो पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह एड्स से साल में 2000 से कम लोग मरते हैं और मरने वालों की संख्या बढ़ भी नहीं रही है, लेकिन एड्स से लड़ने के नाम पर आने वाला पैसा लगातार बढ़ता जा रहा है। आपने ये भी पढ़ा कि एड्स की एक मौत को टालने पर सवा करोड़ रुपए खर्च होते हैं जबकि कैंसर जैसी बीमारियों से होने वाली मौत से निबटने के लिए औसत खर्च 3181 रुपए है। पैसा किन स्रोत से रहा है इसकी भी बात हो चुकी है। अब जानते हैं ये पैसा जा कहां रहा है। - दिलीप मंडल)

एड्स के नाम पर आ रहे अंधाधुंध पैसे का सबसे बड़ा हिस्सा (73%) खर्च किया जा रहा है लोगों को अवेयर बनाने के लिए। यानी पोस्टर, पर्चे, नुक्कड़ नाटक, बुकलेट, विज्ञापन आदि पर। प्रधानमंत्री की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को दिए प्रेजेंटेशन में नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन यानी नैको ने बताया है कि एड्स जागरूकता के विज्ञापन 2006 में 19,250 बार टेलीविजन चैनलों पर दिखाए गए।

इसी प्रेजेंटेशन में बताया गया है कि नेशनल रूरल हेल्थ मिशन के तहत 2007 से 2012 के बीच सरकार देश में 2031 करोड़ रुपए के कंडोम बांटेगी। ये रकम तो सिर्फ एनएचआरएम के तहत कंडोम खरीदने पर खर्च होनी है। नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम (एनएसीपी) का खर्च इससे अलग है। एनएसीपी के तहत देश में कंडोम की कुल खपत 3.5 अरब सालाना पर ले जाने का इरादा है। देश की कुल जनसंख्या में आधी आबादी और बच्चों और बूढ़ों के साथ उन लोगों की संख्या घटा दें जो अपना कंडोम खुद खरीदतें हैं, तो प्रति व्यक्ति कंडोम की खपत का रोचक आंकड़ा निकलेगा। आप भी कैलकुलेट करके देखिए।

एड्स : कारोबार भी है और रोजगार भी

बहरहाल कंडोम की गिनती से आगे बढ़ते हैं। एड्स के नाम पर हो रहे खर्च में चूंकि अस्पतालों की खास भूमिका नहीं है (क्योंकि मरीज कहां से आएंगे)। ये खर्च हो रहा है एनजीओ के माध्यम से। एड्स की जागृति फैलाने में एक लाख बीस हजार सेल्फ हेल्प ग्रुप को ट्रेनिंग दी जा रही है। आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि एड्स के लिए पैसा आता रहे और स्वास्थ्य पर खर्च की प्राथमिकताएं न बदलें इसमें कितने लोगों का स्वार्थ जोड़ दिया गया है।

संख्या का हिसाब देखें तो अभी पौने तीन लाख लोग फील्ड वर्कर के तौर पर एड्स की जागरूकता फैला रहे हैं। नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम के तहत 2012 तक इनकी संख्या बढ़ाकर साढ़े तीन लाख करने का इरादा है। एडस कंट्रोल कार्यक्रम से एक लाख तेरह हजार डॉक्टरों और लगभग एक लाख नर्सों को भी जोड़ा जा हा है। यानी हमारे देश में एड्स बेशक बड़ी बीमारी नहीं है लेकिन ये बहुत बड़ा रोजगार जरूर है। ये सरकारी आंकड़े तो बता रहे हैं कि एड्स से मिलने वाला रोजगार बीपीओ सेक्टर के रोजगार से भी ज्यादा है।

नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम के तहत 1151 बड़े एनजीओ ऐसे हैं जो हाईरिस्क ग्रुप के बीच 1231 कार्यक्रम चला रहे हैं जबकि 107 एनजीओ देश भर में 122 कम्युनिटी केयर सेंटर चला रहे हैं। संसद में इस बारे में सवाल उठे हैं कि क्या ये एनजीओ फंड का घपला कर रहे हैं। स्वास्थ्य मंत्री का जवाब आप खुद ही पढ़ लीजिए।

जाहिर है एड्स से लड़ने के नाम पर चल रहे कार्यक्रमों के जरिए बड़ी संख्या में ऐसे स्टेकहोल्डर्स पैदा हो गए हैं जो चाहेंगे कि हेल्थ सेक्टर पर हो रहे खर्च में एड्स को सबसे ऊपर का दर्जा मिलता रहे। एड्स की लॉबी कितनी प्रभावशाली है, और उनमें कौन-कौन शामिल है, इसपर फिर कभी।

Sunday, February 24, 2008

औरतों का कम्युनिटी ब्लॉग और कम्युनिटी ब्लॉग में औरत

(हर बातचीत का कोई नतीजा निकले ये जरूरी नहीं है। हर समस्या का समाधान भी नहीं होता। हिंदी ब्लॉगिंग के शैशव काल में कम्युनिटी ब्लॉग के चरित्र को लेकर एक अच्छी बातचीत की गुंजाइश है। इसके सूत्र आपको यहां दिखेंगे। ये वो टिप्पणियां हैं जो रिजेक्ट माल में चोखेर बाली के बारे में डाली गई एक पोस्ट पर आई हैं। - दिलीप मंडल)

swapandarshi said...

इतना मानती हू कि बिना समझे-बूझे मै चोखेर बाली मे कूद पडी, पर बाहर सोच समझ कर निकली हू. मेरे पास ब्लोग के लिये बहुत ही सीमीत समय है, और उस समय का बेहतर उपयोग किस तरह हो यही मेरी सोच का केन्द बिन्दु है.
बाकी जीवन मे कई तरह के प्रयोग चलते रहते है, इसे भी इसी स्पिरिट से लिया जाय.
मेरी शुभ्कामानाये भी चोखेर बाली के साथ है. फिल्हाल एक -दो लोगो के आने जाने से किसी सामूहिक प्रयास की मौत नही होती. एक जायेगा तो दस नये आयेंगे.

और कोई भी सामूहिक प्रयास अंतिम प्रयास भी नही होता. उम्मीद है कि चोखेर बाली जैसे अभी कई प्रयास ब्लोग मे होंगे.

आशीष said...

साहब मुझे तो लगता है कि चोखेर बाली को फालतू की बातों पर कान ही नहीं देना चाहिए, बस धीरे धीरे अपने लक्ष्‍य की ओर बढ़े। कई ब्‍लॉगरों के सामने चोखेर बाली एक चुनौती बन कर उभरी है, जो कि अच्‍छी बात है

दिलीप मंडल said...

स्वपनदर्शी की बात मुझे सही लगती है।

विखंडन said...

भाई हम भी यही मानते की चोखेर बाली क्या किसी भी ब्लोग की मौत की कामना नही करनी चाहिए । जितने ज्याद ब्लोग उतने ही विचार ओर जितने ज्याद विचार उतना ही विम्रश का मजा आएगा । ओर अगर किसी के विचार से सहमत नही है तो उसे वैचारिक स्तर ही ज्वाब देना चाहिए न की खुद या उसे वहा से भगाने की कोशिश करे ओर न ही जिस व्यक्ति , स्त्री या फिर पुरुष , को कोसना शुरु कर दे।

दिलीप मंडल said...

किसी भी ब्लॉग की मौत की कामना नहीं करनी चाहिए - सही कहा है।

masijeevi said...

ऑंख में कुछ चुभता है तो तकलीफ तो होती ही है होने दीजिए...सच भी चुभता है उसे भी चुभने दें।

एक बात स्‍वप्‍नदर्शी से मुझे नहीं लगता कि जो एक दो मित्र किसी भी वजह से फिलहाल चोखेरबाली से अलग हो रहे हैं उन्‍हें कोई गलत स्पिरिट में ले सकता है...न केवल उन्‍हें ऐसा करने का पूरा हक है वरन उनका ऐसा करना इसी चोखेरबाली स्पिरिट को ही दिखाता है। वे जहॉं या जिस भी रूप में विमर्श को जारी रखेंगीं यह इसी भावना का ही प्रसार होगा। उनका खुलकर अपनी बात कहने का जज्‍बा भी ता चोखेरबाली भावना का ही हिस्‍सा है। कम से कम एक पाठक के रूप में मुझे तो ऐसा ही लगता है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

दिलीप भाई। परेशान होने की कोई आवश्यकता नहीं है। जो मरेगा वह अपनी कमजोरियों के कारण और जो जिएगा,फलेगा-फूलेगा अपनी खूबियों के कारण। आप तो मानते हैं न कि अन्तर्वस्तु ही प्रमुख है। वाद प्रतिवाद न होगा तो संवाद कहाँ से आएगा। बस इतनी कोशिश बनी रहे कि संवाद न टूटे। मन्थन से ही अमृत और विष की अलग अलग पहचान बनेगी।

सुजाता said...

दिलीप जी
आप की और बहुतों की शुभकामनाएँ साथ हैं । धक्के से चोखेर बाली और मज़बूत होकर निकलेगी । मरेगी नही । क्योंकि यह एक सामूहिक ब्लॉग है इसलिए सामूहिक ब्लॉग आत्महत्या नही कर सकता । और हत्या तो उसकी हो ही नही सकती ।और यह तो अंतत: स्वप्नदर्शी जी ने भी मान लिया कि यह एक सामूहिक ब्लॉग है :-) उनकी शुभकामनाओं का हृदय से सम्मान करती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि वे बनी रहें । धन्यवाद !!

swapandarshi said...

एक और बात, चोखेर बाली की शुरुआत औरतो के पहले सामूहिक ब्लोग की तरह हुयी थी,
पर अब ये सिर्फ एक सामूहिक ब्लोग बचा है, जिसका संचालन सुजाता कर रही है.

दिलीप मंडल said...

औरतों का ब्लॉग और कम्युनिटी ब्लॉग जिसमें मेन मॉडरेटर औरत हो, दोनों के लिए ही और न जाने कितने ही और वेरायटी के लिए ब्लॉग में जगह है। चोखेर बाली के बारे में मेरी कल्पना ऐसे कम्युनिटी (पोस्ट करने का अधिकार सभी सदस्यों के पास हो, तो वो कम्युनटी ब्लॉग बन जाता है)ब्लॉग की थी, जहां आधुनिक स्त्री विमर्श के लिए जगह होगी। चोखेर बाली क्या बनेगा, इस बारे में किसी के भी विचार हो सकते हैं, लेकिन ये बनेगा वही, जो आप चाहती हैं।

बहरहाल जमकर लिखिए अपनी कामयाबी की, संघर्ष की, गुस्से की और पीड़ा की और प्यार दुलार की कहानियां। यहां नहीं तो कहीं और सही, कहीं और नहीं तो कहीं और सही।

किसी के आने जाने से फर्क सचमुच नहीं पड़ता है, बस थोड़ी देर के लिए मन कड़वा हो जाता है। आप लोग जो भी करना चाहें, उसके लिए शुभकामनाएं।

Saturday, February 23, 2008

चोखेर बाली की मौत की कामना करने वालों से...

-दिलीप मंडल

पिछले दिनों मैं और आर अनुराधा एक प्रदर्शनी देखने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर गए थे। प्रदर्शनी उस महिला ने लगाई थी, जो मेरी जानकारी में आज के समय की सबसे बहादुर औरतों में एक है। प्रदर्शनी बच्चों के बारे में थी, बच्चों के फोटोग्राफ्स की प्रदर्शनी। बदलते समय के साथ बच्चों के बदलते बचपन की कहानी। वहीं अनुराधा को ख्याल आया कि फोटो जर्नलिस्ट सर्वेश की कहानी अखबारों में और ब्लॉग पर शेयर की जानी चाहिए। और जानते हैं इस कहानी को जिस एक ब्लॉग पर डालने की बात सबसे पहले दिमाग में आई वो ब्लॉग कौन सा है? वो ब्लॉग है - चोखेर बाली। वो कहानी चोखेर बाली में छपी।

अब कुछ लोग चाहते हैं कि चोखेरबाली का अंत हो जाए। वो साफ-साफ कह नहीं रहे हैं, पर उनकी आवाज का चौतरफा शोर ब्लॉग में गूंज रहा है। कृपया उन्हें सफल न होने दें। ईश्वर पर यकीन है तो ईश्वर के लिए और खुद पर यकीन है तो खुद के लिए, कृपया कामयाब होकर दिखाएं। ऐसे हमलों से भागेंगी तो कहां जाकर छिपेंगी। रागदरबारी में कहा गया है न कि शिवपालगंज कहां नहीं है। कहां भागोगे। और भागना क्यों। भागने का समय तो उनका है जो आपकी मौत का ख्वाब बुन रहे हैं।

आज मैने उस फ्लोर को देखा जहां मैं काम करता हूं। वहां आधी आबादी की लगभग आधी उपस्थिति देखने के बाद मुझे यकीन हो गया है कि चोखेर बाली की हार नहीं होगी। आईसीआईसीआई के टॉप मैनेजमेंट में पांच में तीन पदों पर महिलाओं को देखने और ऐसे उदाहरणों की बढ़ती संख्या को देखने के बाद चोखेर बाली की जीत का यकीन पक्का हो जाता है। 21वीं सदी तो चोखेर बाली की जीत की सदी है।

ऐसे हमले कबाड़खाना पर हुए। दो-एक मामले और भी जानता हूं। कबाड़खाना बंद हुआ। हम सबके आग्रह से फिर खड़ा हुआ और आज मजबूत कदमों से उसे चलता हुआ आप सब देख रहे हैँ। मेरे खिलाफ ब्लॉग में जितने हमले हुए - निजी, अश्लील, गंदे, उसकी क्या कोई और मिसाल है। लेकिन क्या मैं अपनी हार पर किसी और को खुश होने का मौका दूंगा? क्या मैं इसलिए लिखना बंद कर दूं कि कुछ लोग मुझे चोखेर बाली समझ रहे हैं?

अगर मेरा लिखा पोंगापंथियों, जातिवादियों, ढोंगियों को खटकता है तो ये मेरे लेखन की सार्थकता है। मैने तो अपने जीवन में कभी वनिला या आलू बनने की कल्पना नहीं की है। मैं तो मानवता के विरोधियों के लिए मिर्च ही बनना चाहता हूं। मैं तो पलटकर आऊंगा। ज्यादा धमक के साथ। कबाड़खाना के अशोक भाई ने भी यही किया। आपके सामने भी पीछे भागने का रास्ता नहीं है।

और जो लोग चोखेर बाली का अंत देखना चाहते हैं, मैं उनकी हार की कामना करता हूं।

Friday, February 22, 2008

एड्स : बरस रहे पैसे का सच

-दिलीप मंडल

पांच साल में 11,585 करोड़ रुपए। आपको एड्स न हो जाए, इसके लिए ये रकम पांच साल में खर्च की जाएगी। पैसा सरकार भी खर्च कर रही है और दुनिया भर से बरस भी रहा है। और देश में मची है इस पैसे की लूट। इस लूट में कई हिस्सेदार हैं। लूट तो देश-दुनिया में और भी कई किस्म की हो रही है, लेकिन भारत जैसे गरीब देश में जहां 30-40 रुपए के आयरन टैबलेट न मिलने के कारण न जाने कितनी गर्भवती महिलाएं और नवजात बच्चे दम तोड़ देते हैं, वहां ये लूट मानवता के खिलाफ अपराध है।

देखिए एड्स के लिए आ रहे पैसे का ऑफिशियल लेखाजोखा :

बिल और मिलेंडा गेट्स फाउंडेशन से आएंगे 1425 करोड़ रुपए।

ग्लोबल फंड टू फाइड एड्स, ट्यूबरकलोसिस एंड मलेरिया से मिलेंगे 1787 करोड़ रुपए।

वर्ल्ड बैंक देगा 1125 करोड़ रुपए।

डीएफआईडी से आएंगे 862 करोड़ रुपए।

क्लिंटन फाउंडेशन ज्यादा पैसे नहीं दे रहा है, वहां से आएंगे 113 करोड़ रुपए।

यूएसएड से 675 करोड़ रुपए आ रहे हैं।

यूरोपियन यूनियन को भी भारत के एड्स पीड़तों से हमदर्दी है और वो 77 करोड़ रुपए दे रहा है।

संयुक्त राष्ट्र की अलग अलग एजेंसियों 323 करोड़ रुपए दे रही हैं।

दूसरे विदेशी स्रोतों से 741 करोड़ रुपए आ रहे हैं, जिसमें अमेरिकी सरकार से मिलने वाले 450 करोड़ रुपए शामिल हैं।

भारत सरकार के बजटीय आवंटन को जोड़ दें तो ये रकम हो जाती है 11,585 करोड़ रुपए।

ये वो रकम है जो पांच साल के राष्ट्रीय एड्स कंट्रोल प्रोग्राम फेज-3 पर खर्च होनी है। प्रधानमंत्री की सलाहकार समिति के एक प्रेजेंटेशन के पेज 44-45 पर आप पूरा हिसाब देख सकते हैं। संसद की साइट पर भी विदेश से आने वाले पैसे का हिसाब किताब आपको इस लिंक पर दिखेगा। वैसे ये तो सीधा साधा हिसाब हैं वरना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसे कार्यक्रम में भी फोकस एड्स पर ही कर दिया गया है।

पांच साल में 11,585 करोड़ रुपए यानी साल में 2,317 करोड़ रुपए हर साल एक ऐसी बीमारी से लड़ने के नाम पर खर्च होंगे जिससे साल में 2000 से कम लोग मरते हैं और जिस रोग से मरने वालों की संख्या बढ़ भी नहीं रही है। देखिए पिछली पोस्ट - एड्स का अर्थशास्त्र और राजनीति।
इसके मुकाबले नेशनल कैंसर कंट्रोल प्रोग्राम पर 2006-2007 में 42 करोड़ रुपए खर्च किए गए। मौजूदा साल में इसे बढ़ाकर 140 करोड़ रुपए कर दिया गया है। मत भूलिए कि कैंसर वो बीमारी है जिससे हर साल 4 लाख 40 हजार लोग मरते हैं। देखिए इस जानकारी का स्रोत

और टीबी की बात करें तो तेजी से फैलती इस बीमारी के लड़ने के लिए सरकार ने 2006-2007 में 226 करोड़ रुपए खर्च किए। टीबी से हर साल 3 लाख 70 हजार लोग मरते हैं। देखिए इस जानकारी का स्रोत

तो ये हिसाब रहा -

बीमारी का नाम- एड्स। सालाना मौतें- 1786। नियंत्रण पर खर्च- 2,317 करोड़ रुपए।

बीमारी का नाम- कैंसर। सालाना मौतें- 4.40 लाख। नियंत्रण पर खर्च- 140 करोड़ रुपए।

बीमारी का नाम- टीबी। सालाना मौतें- 3.70 लाख। नियंत्रण पर खर्च- 226 करोड़ रुपए।

यानी एड्स से होने वाली एक मौत को टालने का बजट है एक करोड़ 29 लाख रुपए। जबकि कैंसर के लिए यही आंकड़ा 3,181 रुपए का है। लेकिन क्या एड्स पर खर्च का मकसद वही है जो कि बताया जा रहा है?

(जारी ... लेकिन एड्स से लड़ने में किसका फायदा है)

Thursday, February 21, 2008

एक हाई प्रोफाइल बीमारी का अर्थशास्त्र और राजनीति

एड्स नियंत्रण का अनकहा सच

(एड्स खतरनाक बीमारी है। इस बात को आप अपने निजी अनुभव, आस-पास रिश्तेदारी, दोस्तों, मोहल्ले, कस्बे, अपार्टमेंट में होने वाली मौंतों से बेशक महसूस कर पाएं, लेकिन सरकार से लेकर तमाम एनजीओ और विश्वभर की संस्थाएं आपको यही समझाने की कोशिश कर रही हैं। आइए जानते हैं कुछ तथ्यों के बारे में। ये सारे तथ्य भारत सरकार ने संसद में लिखित रूप में रखे हैं। ये सबसे ताजा उपलब्ध आंकड़े है, जबकि पिछली पोस्ट के आंकड़े पुराने हो गए हैं। इन सबके लिंक दे रहा हूं, ताकि निष्कर्ष पर विवाद हो तो भी स्रोत सामग्री की विश्वसनीयता बनी रहे। - दिलीप मंडल)

एड्स से भारत में हर साल कितने लोग मरते हैं?

भारत सरकार कहती है कि 2004-5 में 1678, 2005-2006 में 1624 और 2006-2007 में 1786 लोग एड्स की वजह से मौत के शिकार हुए। स्वास्थ्य मंत्रालय ने ये आंकड़ा 7 सितंबर 2006 को संसद में पेश किया। ये उस सरकार के नतीजे हैं जो एड्स को देश की सबसे बड़ी स्वास्थ्य समस्या मानती है और कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में जिस एक बीमारी का जिक्र है वो एड्स ही है।

टीबी और कैंसर से हर साल कितने लोग मरते हैं?

भारत सरकार ने संसद को बताया है कि कि हर साल 18 लाख से ज्यादा लोगों को टीबी होता है और साल में 3 लाख 70 हजार से ज्यादा लोग टीबी से मरते हैँ। दुनिया में टीबी के कुल केस का 20 परसेंट सिर्फ भारत में दर्ज होता है। यानी दुनिया में टीबी का हर पांचवां मरीज भारतीय है।

कैंसर की बात करें तो आईसीएमआर के जरिए राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री में हर साल 7 से 9 लाख नए कैंसर मरीजों के मामले हर साल दर्ज होते हैं और हर साल 4.4 लाख लोग कैंसर से मरते हैं। कैंसर भारत में मौत की चौथी सबसे बड़ी वजह है। ये आंकड़े आप संसद की साइट पर देख सकते हैं।
(जारी... अगले हिस्से में बात खर्च की जिसे जानकर आपकी आंखें खुल जाएंगी।)

Wednesday, February 20, 2008

ब्रह्मचारी भगवान् की चिंता करते नॉन ब्रह्मचारी भक्तगण!

पूजा प्रसाद

इधर ऐसे कई लोगों से मिलना हुआ जो कभी कम्युनिस्ट विचारधारा से खासे प्रभावित थे. मगर, बाद मे वामपंथ से जो मोहभंग हुआ तो अब मौका मिलने पर उसके छद्म रूप की बखिया उधेड़ डालते हैं और इसे सर्वाधिक दोगली विचारधारा करार देते हैं. वामपंथ के आइडियोलौजिकल रूप-स्वरूप के बारे मे न तो मैं विद्वत्ता प्राप्त हूँ और न ही इस बाबत कोई चर्चा-कुचर्चा छेड़ने की मंशा है. बात बस इतनी सी है कि इंडिया टुडे २७ फरवरी का ऑन लाइन अंक पढ़ रही थी. केरल से एम. जी. राधाकृष्णन की एक रिपोर्ट है. http://emagazine.digitaltoday.in/IndiaTodayHindi/27022008/Home.aspx


केरल मे भगवान् अयप्पा का एक विश्वविख्यात मंदिर है सबरीमाला. धार्मिक दृष्टि से तो इसकी मान्यता है ही, 'राजस्व' की दृष्टि से भी यह अत्यधिक 'मान्यतापूर्ण' है. इस मंदिर मे रजस्वला महिलाओं के प्रवेश पर पारंपरिक पाबंदी है. इस टुच्ची परंपरा को ख़त्म करवाने के लिए एक जनहित याचिका दायर की गयी. इसमे सबरीमाला मे गैर हिन्दुओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध का भी विरोध किया गया है. राज्य की वाम जनतांत्रिक मोर्चा (एलडीऍफ़) सरकार ने याचिका का पक्ष तो लिया लेकिन बाद मे पैर पीछे खिसकाती नज़र आयी. मात्र तीन महीने मे सौ करोड़ की कमाई करने वाले इस 'सपूत' मंदिर की बुरी आदतों (गलत परम्पराओं) पर आपत्ति उठाना आत्मघाती होगा, सरकार के खांचे मे आ चुका हरेक पंथ-वंथ यह जानता है. तो शुरूआती समर्थन देकर जो पंगा लिया गया, उसे सुधारने की १५ पेजीय कोशिश की गयी. वैसे यहाँ यह बताना जरूरी है कि माननीय उच्च न्यायालय ने १९९१ मे महिलाओं सम्बन्धी पाबंदी को जारी रखने के पक्ष मे फैसला दिया था.

दिक्कत उस राजनीति से नही जो इस तरह के मुद्दों, धर्म के नाम पर सत्ता प्राप्ति और निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए की जाती है. दिक्कत इस बात से है कि खुद को न्याय और समानता आदि मूल्यों की पक्षधर बताने वाली कथित विचारधारा की नींव पर बने होने का दावा करने वाली पार्टियां भी अपने चोगों का भार लोगों पर ही डालती चलती हैं.
सरकार बीच का रास्ता निकालने की जुगत लगा रही है. वह इतिहास मे से छानबीन कर उन प्रथाओं और परम्पराओं की सूची बना रही है जो समय के साथ बदल दी गयी. बीच का रास्ता. बीच का रास्ता जो कभी पूरा न्याय नही होता. महिलाओं, दबे-कुचलों और दीन-हीन को समानता-स्वतन्त्रता के नाम पर अक्सर इसी तरह से बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की जाती है. समितियाँ और आयोग बिठाए जाते हैं. जबकि ऐसी परम्पराओं का गला एक झटके मे काट देना चाहिए. सबको खुश रखने की कोशिश बेकार है. और मुझे लगता है कि यह बीच का रास्ता सबको खुश और संतुष्ट रखने की कोशिश का किसी पंथ या विचारधारा या जीवन मूल्य से कोई लेना-देना नही होता. यह व्यावहारिकता या परिपक्वता नही बल्कि सिर्फ राजनीति है.

सबरीमाला के मसले पर हिन्दू ऐक्यवादी के महासचिव राज शेखरन का सवाल है कि क्या सरकार महिलाओं को मस्जिदों या गिरिजाघरों मे सिर ढके बिना प्रवेश की अनुमति दिलवा सकती है? जाहिर है, मामला एक घटिया परम्परा पर विचार का है ही नही. घटिया मानसिकता का है. मेरा सवाल है महिला हो या पुरुष अपने ईश्वर को पूजने या मानने के लिए आपकी नियमावली मानने की बाध्यता क्यों हो? परम्परा है तो उसे परंपरा ही रहने दें. कानून न बनाएं. उससे इतना न बांध जाएं कि सालो साल तक गंदगी सूँघने के बाद उसे सहेजने की पुरजोर कोशिश को जारी रखने देने मे मौन समर्थन देने लगें. बस.

ब्लॉग और टीआरपी का कीड़ा

अश्लील और बेहूदी सनक का मंच नहीं है ब्लॉग

ब्लॉग, एक माध्यम के रूप में, हिंदी संसार की नई चीज है। इसलिए इसका व्याकरण, इसके तौर तरीके, इसका अनुशासन, इसके अपराध और दंड के नियम अभी गढ़े जाने हैं। हम सब भाग्यशली हैं कि ऐसे रोचक दौर में हम ब्लॉग जगत के पार्ट हैं। इतिहास को बनते हुए देखना रोमांचक है, पर इतिहास का हिस्सा बनना और भी रोमांचक है। मेरी राय में तो ब्लॉग व्याकरण मुक्त माध्यम के रूप में ही इवॉल्व होगा। और जिनकी आवाज नहीं सुनी जाती, उनकी आवाज यहां सबसे ज्यादा सुनाई देगी। इस बारे में कल मैंने जो पोस्ट डाली थी उस पर कुछ टिप्पणियां आई हैं। आप भी देखिए और शामिल हो जाइए इस रोचक चर्चा में।


लिखने और पढ़ने वाले बनें लोकतांत्रिक
Dipti said...

इस माध्यम के लोकतांत्रिक होने से ज़्यादा अहम है यहाँ लिखने और पढ़नेवालों का लोकतांत्रिक होना। माध्यम समाचार पत्र हो या टीवी न्यूज़ चैनल। हर जगह, हम जैसे और हम ही है। फिर ऐसा क्यों, कि जब ब्लॉग में लिखा तो इतनी खुलकर बात की। और जब चैनल की सीढ़ियाँ चढ़ी तो कुछ और कहने लगे। मुझे लगता है हम बहुत ख़तरनाक लोग है। जो एक होते हुए भी दो तरह की बातें एक साथ कर लेते हैं। शायद ऐसा इसलिए कि अभी ब्लॉग को टीआरपी और मुनाफ़े का कीड़ा नहीं काटा है?
-दीप्ति

ही डंडा,आप तराज़ू,आप ही बैठा तोलता

vimal verma said...

मार्के की बात कही है आपने ...ब्लॉग के बारे में इतना कि आप ही डंडा,आप तराज़ू,आप ही बैठा तोलता....वाकई ब्लॉग ने सोच को एक नया आयाम दिया है...कभी अखबारों,पत्र पत्रिकाओं,साहित्य में हम अपने समय को पहचानने की कोशिश करते थे..पर ब्लॉग ने तो गूंगो को भी ज़ुबान दे दी है... जो अच्छा लगे उसे अपनाओ,जो बुरा लगे उसे जाने दो ।

गुडी गुडी कहने की मजबूरी को बाय-बाय

Mired Mirage said...

ठीक कह रहे हैं । शायद सबसे बड़ी बात यह है कि वे लोग भी जिनसे हर समय मुस्कराने और गुडी गुड बने रहने की अपेक्षा की जाती रही है , वे कुछ समय के लिये यह मुस्कान और गुडी गुड का लेबल उतार फेंक सकते हैं ।
मेरे खयाल से तो आप नई पीढ़ी वाले या घर से बाहर निकलने वाले तो वैसे भी अपनी बात कह लेते , परन्तु मेरी उम्र के लोग, विशेषकर गृहणियाँ क्या आप सबके विचार जानने व अपने प्रस्तुत करने का स्वप्न भी देख सकती थीं ? या फिर संसार में क्या हो रहा है , लोग क्या सोचते हैं, क्या विचार करते हैं जान सकती थीं ?
नेट स्वयं में संसार के लिए मेरी खिड़की थी परन्तु ब्लॉगिंग एक मंच भी हो गई ।
घुघूती बासूती

बात बैलेंस्ड है

सुजाता said...

एपावरमेंट के साथ जो जवाबदेही होनी चाहिए, उसका कोई संस्थागत रूप यहां नहीं है। ये जवाबदेही आप अपने ऊपर खुद ही तय कर सकते हैं।

****
बहुत सही बात । अच्छी बैलेंसड पोस्ट।

ब्लॉग को दूषित करने की कोशिश होगी

Ek ziddi dhun said...


बात दरअसल ये है की जो डेमोक्रेसी का ढोंग करते हैं, वे ही इसे बर्दाश्त नही कर पाते । दूसरी ओर दलित-वंचित तबके के लिए डेमोक्रेसी चाहत और जरूरत की तरह है और जब वो इसमें जरा भी झूठी-सच्ची भागीदारी पाते दिखायी देते हैं तो तूफ़ान सा मच जाता है और ताक़तवर तबका बेशर्म होकर हिंसा पर उतर आता है (कथित आरक्षण विरोधी आन्दोलन के नाम पर अश्लीलता इसका ताज़ा उदाहरण है)। फिर कोर्ट, अखबार आदि सब एकजुट हैं ही। कोई कहे की इनमें दलितों की भागीदारी नही है, तो ये एकतरफा होंगे ही, तो इसमें क्या झूठ? रही बात दिलीप मंडल क्यों गिनती कर रहे हैं अखबारों में दलितों की, तो व्यंग्य में इसे यों समझो हिंसक लोगो कि ये भी आपके ही काम आएगा।
दरअसल इस मुश्किल लड़ाई में दुनिया भर के न्याय के पक्षधर इसीलिए वैकल्पिक मीडिया की बात कर रहे हैं। ज़ाहिर है, इन ताक़तवर लोगो की बेशरम एकजुटता के बीच कोई भी वैकल्पिक मीडिया सीमित प्रभाव वाला ही होगा, ब्लॉग भी ऐसे एक वैकल्पिक मीडिया के रूप में हो सकता है। पर बात ये है की ऐसी हर कोशिश को विरोधी तब्बका दूषित बनने की कोशिश करेगा ही और ऐसे धूर्त हमले करेगा जैसे दिलीप मंडल पर हो रहे हैं। लेकिन उनसे ज्यादा खतरा अपने ही बीच के रेंज सियारों का है, जो डेमोक्रेसी के नाम पर इसे अश्लील और बेहूदी सनक का मंच बनने की कोशिश करते हैं। ज्ञानोदय विवाद में हम देख ही चुके हैं और अपने बीच के कई बुद्धिजीवियों के ब्लॉग से भी ये जाहिर है।

कमजोर आवाज को यहां मिल पाएगा स्वर

anuradha said...

ब्लॉगिंग कई लोगों के लिए कई स्तरों पर अपनी निजी बात कहने का सार्वजनिक मंच है। मजे की बात ये कि इसमें आप गुमनाम रहकर भी अपने विचार जाहिर कर सकते हैं। ऐसे खुले माहौल में, जाहिर है- 'मैं तुम्हारा जॉकी नंबर भी जानता हूं' का दंभ भरने का लालच कम ही लोग दबा पाते हैं। इसलिए किसी खास व्यक्ति को लक्ष्य करके लिखे गए चिट्ठे भी सबके सामने होते हैं। ऐसे माध्यम में थोड़ी-बहुत कीच-उछाली तो होगी ही। इसकी चिंता करने की जरूरत उन्हीं को होनी चाहिए जो भीतर से मैले हैं। एक और बात। ब्लॉग आपस में एक दूसरे की पीठ खुजलाई का माध्यम मात्र नहीं बल्कि इससे आगे, जनमत को बनाने, उभारने और कमजोर आवाजों को शब्द देने का साधन बने तो बेहतर।

Tuesday, February 19, 2008

ये जो ब्लॉग डेमोक्रेसी है...

...ये बहुत जालिम है पर जरूरी भी है।

-दिलीप मंडल

मेरे एक सवाल पर सोचिए। अगर ये ब्लॉग की जगह कोई और माध्यम होता तो क्या स्त्रियों की प्रगतिशीलता और पतनशीलता पर ऐसी बहस चल पाती। मनीषा पांडे, चंद्रभूषण, इरफान, नोटपैड, प्रमोद सिंह, विमल वर्मा इन सबकी बात ऐसे ही मुक्त छंद अंदाज में आप ब्लॉग के अलावा कहां और पढ़ने की कल्पना कर सकते हैं।

एक अखबार या न्यूज चैनल की कल्पना कीजिए जहां मीडिया में जातिवादी कंटेंट और न्यूजरूम के सोसल प्रोफाइल पर बात हो सकती है। मीडिया में मुसलमानों की लगभग गैरमौजूदगी पर और कहां बात हो सकती है? एक टीवी चैनल की कल्पना कीजिए जहां एनजीओ, सामाजिक सांस्कृतिक कार्य और विदेशी फंडिंग पर, जिसे जो सही लगता हो वो बोल रहा हो।

भड़ास जैसे एक मंच की कल्पना किसी और मीडियम में कर सकते हैं आप? जहां वो भी छप सकता है जिसके बारे में कहते हैं कि दो लाइन लिखने की तमीज नहीं है। एक राष्ट्रीय पत्रिका की कल्पना कीजिए, जहां दीप्ति दुबे अपनी बात उसी अंदाज में रख सकती हैं जिस अंदाज में उन्होंने मोहल्ला में अपनी बात कही थी।

स्वागत है ब्लॉग डेमोक्रेसी का। स्वागत है उस युग के अंत का, जहां हाथ इसलिए नहीं उठाए जाते थे कि कांख के बाल दिख जाएंगे। ब्लॉग न होता तो ये सब कहां होता? आपमें से भी कई लोग प्रिंट में लिखते रहे है। मेरे लिए भी छपने का संकट कभी नहीं रहा। लेकिन क्या मैं किसी और मंच पर वो बहस चलाने की सोच सकता था, जो ब्लॉग पर मुमकिन हो रहा है। दोस्तो, यही है इस माध्यम की ताकत। इससे दुनिया बदले या न बदले, संवाद का तरीका जरूर बदल रहा है।

इस माध्यम को बरत रहे लोगों से यही गुजारिश है कि भाषा या कंटेंट के नाम पर किसी ब्लॉग की ऐसी रैगिंग न करें कि बंदा ब्लॉगिंग भूल जाए। उसके निजी जीवन या रोजी रोटी से जुड़े रहस्य आपके पास हैं तो ब्लॉग को कृपया बदला लेने का मंच न बनाएं। ये मंच आपको एंपावर करता है, लेकिन एपावरमेंट के साथ जो जवाबदेही होनी चाहिए, उसका कोई संस्थागत रूप यहां नहीं है। ये जवाबदेही आप अपने ऊपर खुद ही तय कर सकते हैं। लेकिन आप अगर धतकरम पर उतारू हैं तो आपको कौन रोक सकता है?

वैसे आप ऐसा नीच काम करेंगे तो भी ब्लॉगिंग का सफर रुकने वाला नहीं है। ब्लॉग हत्यारों का अपराध समय लिखेगा। ये माध्यम अपने पीछे कई निशान छोड़ता जाता है। यहां हत्यारों की शिनाख्त मुश्किल नहीं है। ब्लॉगिंग की शुरुआत में मेरे खिलाफ एक षड्यंत्र के सबूत मेरे पास हैं। जिन्हें लगता है कि वो बेनाम होकर कुछ भी लिख देंगे और उनकी पहचान नहीं हो सकती, वो धोखे में हैं। लेकिन मेरे मामले में उन्हें सार्वजनिक करने की जरूरत नहीं है। एक और मामले में है, जिस पर फिर कभी बात होगी।

मैंने ये साल शुरू होने से पहले अपनी विश लिस्ट देते हुए कहा था कि 2008 के अंत में हिंदी के 10,000 ब्लॉग होंगे। इस आंकड़े में करेक्शन की जरूरत अभी से महसूस होने लगी है। स्वागत है नए खिलाड़ियों का।

Monday, February 18, 2008

टुकड़े इंसानियत के

प्रणव प्रियदर्शी

(अनुराधा की बेहतरीन श्रृंखला 'टुकड़े ज़िंदगी के' इसी ब्लौग पर चल रही है. दिलीप के विचारोत्तेजक लेखों की श्रृंखला भी जाति और महिला के सवाल पर चल रही है. इसी दौरान मुझे एक अनुभव हुआ, जो आप सबकी दृष्टि मे ला रहा हूँ. शीर्षक अनुराधा की श्रृंखला से प्रेरित है. आप चाहें तो शीर्षक की सार्थकता या निरर्थकता पर भी अपनी राय जाहिर करें.)


दक्षिण दिल्ली के एक पौश इलाके मे स्थित एक बैंक की शाखा. कैश काउंटर पर भीड़ ज्यादा नही. छः-सात लोग होंगे कतार मे. काउंटर पर एक महिला कर्मचारी थीं जो काफी संभ्रांत दिख रही थीं. कतार मे सबसे आगे खडी एक महिला जो अपेक्षाकृत कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि की प्रतीत होती थी, के फॉर्म मे कुछ गलती रह गयी थी, जिस पर बैंक कर्मचारी ने उसे झिड़क दिया. कतार मे तीसरे नंबर पर एक बुजुर्ग थे.

उन्होने बैंककर्मी महिला को समझाया, ' वह जैसी भी है आपके बैंक की कस्टमर है. उसके साथ आपको अच्छा व्यवहार करना चाहिए था.' उस महिला बैंक कर्मी ने बिना कोई जवाब दिए उस बुजुर्ग की नसीहत सुन ली.
लेकिन तुरंत ही उस बुजुर्ग की बारी आयी जिन्हें पैसा जमा करना था. जैसे ही उन्होने नोट काउंटर मे बढाए, महिला बैंक कर्मी ने यह कहते हुए नोट लौटा दिए कि ये टेढे-सीधे हैं. इन्हें सीधे कर के लाइये. अब वे बुजुर्ग बेचारे एक तरफ होकर नोट सीधा करने लगे. मगर यह सब देख रहे एक अन्य प्रौढ़
कस्टमर से नही रहा गया.
उन्होने टिप्पणी की, 'आपने उन्हें टोका था ना, इसीलिए देखिये उन्होने आपको काम पर लगा दिया. आप उन्हें सीधा करना चाहते थे, उन्होने आपको नोट सीधा करने को कह दिया.' महिला बैंक कर्मी इस टिप्पणी को सुन रही थी. उसने बुदबुदा कर इतना ही कहा, 'ऐसा नही है.'

खैर काम आगे बढा और अब उन प्रौढ़ सज्जन की बारी थी. उनके फॉर्म मे भी कोई गड़बड निकल गयी. लिहाजा महिला बैंक कर्मी ने उन्हें निस्संकोच एक अन्य काउंटर पर भेज दिया. उनके जाने के बाद जैसे महिला बैंक कर्मी के चेहरे पर पुरानी निश्चिन्तता लौट आयी. उसने धीमी, लेकिन आसपास के लोगों के सुनने लायक आवाज मे कहा, ' हुंह, मुझे सीधा करने आये थे.'

यह आधिकारिक तौर पर इस बात की घोषणा थी कि बुजुर्ग सज्जन को उस महिला ने उनकी नसीहत के जवाब मे 'दण्डित' किया था. उस दंड को समझने और दूसरों को समझाने की सजा मिली थी प्रौढ़ कस्टमर को.
मित्रो, यह सच्चा वाकया पिछले दिनो मेरी आंखों के सामने घटित हुआ.
आप से निवेदन है कि इस घटना का क्या मतलब है और इसे किस रूप मे लेना चाहिए, इस पर कृपया अपनी ईमानदार राय भेजें.

आम औरत की खास कहानी!

आर. अनुराधा

जनसत्ता में आज (यानी 18 फरवरी , 2008 को ) मेरा ये लेख दुनिया मेंरे आगे कॉलम में छपा है। कहानी एक बहादुर महिला की है जो इस समय देश की चर्चित फोटोग्राफर होने की वजह से जानी जाती हैं। ये उनकी निजी कहानी है। ब्लॉग जगत के लिए वो लेख यहां पेश है।

यह एक आम हिंदुस्तानी औरत की उससे भी आम कहानी है। फर्क सिर्फ यह है कि इस औरत ने अपनी कहानी का सूत्र आखिरकार अपने हाथ में लेने की हिम्मत जुटाई और समाज के हाथों में सब कुछ न छोड़ कर जिंदगी को अपने मुताबिक आगे बढ़ाया। तमाम रुकावटों के बावजूद अपने आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास को जिंदा रखा और उनके सहारे उन ऊंचाइयों ( समुद्रतल से 18000 फीट) तक पहुंची जहां पुरुष भी आम तौर पर जाने की हिम्मत नहीं कर पाते।

उसका बचपन एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार में पिछड़े से इलाके में लड़की होने की तमाम कठिनीइयों और बंदिशों के बीच बीता। पढ़ने की ललक तो थी पर वैसे बेहतरीन नतीजे लाने के साधन नहीं, शायद साहस भी नहीं। इसी बीच एक दिन बड़ा भाई उसकी सगाई कर आया। उसे पता चला तो उसने मना कर दिया कि शादी नहीं, वह तो कानून की पढ़ाई करेगी। इस बात पर उसे फुटबॉल बनाकर दनादन पीटा गया, बांध कर एक कोने में पटक दिया गया और खाना-पीना बंद कर दिया गया। और फिर तय दिन लाल साड़ी में बंधी, सिंदूर-आलता और गहनों से सजी उस पोटली को गाजे-बाजे के साथ एक ऐसे इंसान के हवाले कर दिया गया जिसके लिए बीबी का मतलब था- उसकी शारीरिक, पारिवारिक और सामाजिक जरूरतों को पूरा करने वाली एक गुलाम।

यहां उसे मिली और भी ज्यादा मार-पिटाई, गाली-गलौच दूध उफन जाने जैसी छोटी बात पर भी। कोई 10 साल तक यह सब उसकी दिनचर्या में शामिल रहा। बचाव और राहत के लिए उसने माता-पिता की तरफ देखा तो उन्होंने नेक सलाह देकर अपना कर्तव्य पूरा किया- "क्यों हंगामे करती हो। चुपचाप सब सह जाओ। शादी हो गई है, अब निभाना ही पड़ेगा।"

फिर एक दिन एक छोटी सी घटना ने अनजाने ही उसके साहस और आत्मसम्मान को सोते से जगा दिया। घर की बालकनी से उसका फेंका हुआ कूड़ा नीचे से गुजर रहे व्यक्ति पर गिरा तो वह गुस्से में आग-बबूला होकर ऊपर घर तक आ पहुंचा। लाख माफी मांगने पर भी वही अभद्र भाषा और बालकनी से उठाकर सीधा नीचे फेंक देने की, जान से मार देने की धमकी! इस पर भी पति ने उसका बचाव नहीं किया। उसने खुद ही, जाने कहां खो गई हिम्मत का सिरा पकड़ा और कड़क आवाज में धमकी का जवाब दिया- ' हाथ लगा के तो देख!' इस पर वह पड़ोसी बुड़बुड़ाता हुआ भाग निकला। इधर, जिसे वह बरसों से अपना सुरक्षा कवच समझे बैठी थी, वह उसी की ओर मुंह किया हथियार साबित हुआ। जिससे सांत्वना के दो शब्दों की उम्मीद कर रही थी, वह खुद फिर गाली-गलौच और मार-पीट पर उतर आया। उस लड़की के भरोसे का तार-तार हो चुका पर्दा आखिरकार पूरी तरह जमीन पर आ गिरा।

यह उसकी सहनशीलता की हद थी। उसे समझ में आ गया कि अपनी ताकत उसे खुद बनना पड़ेगा। और वह घर छोड़ कर निकल पड़ी अपने लिए बेहतर जगह की तलाश में। एक स्वयंसेवी संस्था ने मदद की। छोटे-मोटे रोजगार भी किए। फिर एक अच्छा व्यक्ति और कुछ अच्छी किताबें मिलीं जिनसे पुरुष जाति के प्रति उसका भरोसा बना। फर एक दिन उस व्यक्ति से भेंट में मिले एक कैमरे ने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी। यह उसके मन के भावों को बाहर लाने का जरिया बना तो बाहर की दुनिया को देखने-जानने का जरिया भी। कैमरे के रूप में उसे एक साथी मिला जो 20 साल से उसके साथ है, आस-पास है और उसकी दुनिया के केंद्र में है।

आज उम्र के चालीसवें दशक में छह साल बिता चुकी इस लड़की को सब महिला फोटो पत्रकार सर्वेश के नाम से जानते हैं जिसका कैमरा जीवन के विरोधाभासों को उभार कर सामने लाने से चूकता नहीं, बच्चों और औरतों की जिंदगियों के उन गुम हुए पलों को शब्द देता है जो एक मुद्रा में अपनी पूरी कहानी कह जाते हैं। रोशनी और अंधेरे का संतुलन सर्वेश का कैमरा न परख और पकड़ पाए, यह नहीं हो सकता। कैमरे के लिए दृष्यों की और अपने लिए जानने की उस पुरानी और अब तक जीवंत भूख को मिटाने के लिए सर्वेश अकेले-दुकेले कई बार हिमालय की कठिन ऊंचाइयों को फतह कर चुकी है, करगिल युद्ध की अपनी तसवीरों के लिए भारत सरकार से पुरस्कार पा चुकी है, अपने चित्रो की एकल प्रदर्शनियां कर चुकी है और आखिरकार सफल फ्रीलांस फोटोग्राफर के तौर पर खुद को स्थापित कर चुकी है।

सात समंदर पार से कुछ "अश्लील आंकड़े"

- दिलीप मंडल

हमने द हिंदू के संपादक एन राम से एक बार सुना था कि अमेरिका के न्यूजपेपर एडीटर्स अपने बिजनेस के भले के लिए न्यूजरूम में डाइवर्सिटी लाने की कोशिश कर रहे हैं। राजनीति विज्ञानी योगेद्र यादव से आज सुबह बात हुई तो उन्होंने इस बारे में ढेर सारी सूचनाएं दीं। योगेंद्र यादव भारत में डायवर्सिटी कमीशन बनाने पर विचार करने के लिए बनी कमेटी के सदस्य हैं।

नीचे दिए गए आंकड़े अमेरिकन सोसायटी ऑफ न्यूजपेपर एडीटर्स के हैं। इस सोसायटी में अमेरिका के 860 मीडिया समूहों के संपादक हैं और 1978 से हर साल इस बात का सर्वेक्षण किया जाता है कि न्यूजरूम में किस समूह के कितने लोग हैं। महिलाओं का आंकड़ा भी जुटाया जाता है। अमेरिका के लगभग सभी बड़े अखबार इस सर्वे में शामिल होते हैं। देखिए कुछ अश्लील आंकड़े। आंकड़े प्रतिशत में हैं।

न्यूयॉर्क टाइम्स
एशियन अमेरिकन- 5.6, ब्लैक- 8.2, हिस्पैनिक्स- 4.0 नेटिव- 0.3
कुल गैर-श्वेत- 18.0

वाल स्ट्रीट जर्नल
एशियन अमेरिकन- 8.4, ब्लैक- 6.7, हिस्पैनिक्स- 4.5 नेटिव- 0.2
कुल गैर-श्वेत- 19.7

लॉस एंजिल्स टाइम्स
एशियन अमेरिकन- 7.9, ब्लैक- 3.6, हिस्पैनिक्स- 5.9 नेटिव- 0.4
कुल गैर-श्वेत- 17.8

वाशिंगटन पोस्ट
एशियन अमेरिकन- 5.7, ब्लैक- 31.5, हिस्पैनिक्स- 4.3 नेटिव- 0.2
कुल गैर-श्वेत- 23.7

नीचे के आंकड़े संख्या में है।

न्यूजरूम में महिलाएं - 21,400
न्यूजरूम में पुरुष - 35,581

सुपरवाइजर महिलाएं - 4,979
सुपरवाइजर पुरुष - 9,370

महिला रिपोर्टर - 9,955
पुरुष रिपोर्टर - 15,184

पिछले साल के सर्वे में अमेरिका के 1415 में से 932 दैनिक अखबारों ने हिस्सा लिया। देखिए इम अखबारों में काम करने वालों का सोशल प्रोफाइल। अमेरिकन सोसायटी ऑफ न्यूजपेपर एडीटर्स ने तीस साल पहले जब न्यूजरूम डाइवर्सिटी के लिए काम करना शुरू किया था तब अमेरिकी अखबारों में श्वेत के अलावा बाकी समुदायों की हिस्सेदारी चार फीसदी से कम थी। अब ये हिस्सेदारी 14 फीसदी के आसपास है। अखबारों के वेब एडीशन के लिए काम करने वालों में तो 16 परसेंट गैर-श्वेत हैं। अमेरिका के रेडियो एंड टेलीविजन न्यूज डाइरेक्टर्स फाउंडेशन के मुताबिक, टेलीविजन में 20 फीसदी और रेडिया मे 17 परसेंट कर्मचारी गैर-श्वेत हैं।

अभी ये अनुपात वहां की कुल गैर-श्वेत आबादी के अनुपात में कम है। लेकिन इसे 2025 तक पूरी तरह दुरुस्त करने के इरादे से वहां के संपादक काम कर रहे हैं। इस दिशा में हो रहे काम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां के अखबारों में आने वाले एक तिहाई इंटर्न गैर-श्वेत हैं। और पहली बार पत्रकारिता की नौकरी में आने वाला हर पांचवां शख्स गैर-श्वेत है।

पढ़िए अमेरिकन सोसायटी ऑफ न्यूजपेपर एडीटर्स का मिशन स्टेटमेंट

To cover communities fully, to carry out their role in a democracy, and to succeed in the marketplace, the nation’s newsrooms must reflect the racial diversity of American society by 2025 or sooner. At a minimum, all newspapers should employ journalists of color and every newspaper should reflect the diversity of its community.

The newsroom must be a place in which all employees contribute their full potential, regardless of race, ethnicity, color, age, gender, sexual orientation, physical ability or other defining characteristic.

ASNE will pursue the following strategies, which may be expanded or amended periodically:

* Conduct an annual census of employment of Asian Americans, blacks, Native Americans, Hispanics, and women in the newsroom.

* Encourage and assist editors in recruiting, hiring and managing diverse newsrooms.

तो दोस्त, मुझे अफसोस है, लेकिन कहानी अभी खत्म नहीं हुई है।

Saturday, February 16, 2008

कल्लू चमार से दो और बातें

- दिलीप मंडल

संजय, आप जब कहते हैं कि आप गाली देना जानते हैं और जब आप गालियां देगें तो मेरे जैसों के कान फट जाएंगे तो आपकी इस बात से असहमत होने का कोई कारण नजर नहीं आता। गालियों का जो संसार है वो अपने मूल स्वभाव में स्त्री और वंचित विरोधी है। इसलिए आप जब कहते हैं कि आप कान फाड़ने वाली गालियां दे सकते हैं तो मानना ही पड़ेगा कि आप ऐसा कर सकते हैं।


यहां बात करते हैं लोकोक्तियों की। लोकोक्तियां कब गाली बन जाती हैं, कई बार पता ही नहीं चलता। भाषा विज्ञानी शशिशेखर तिवारी ने 45 साल पहले 1963 में आगरा विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट की उपाधि के लिए जो शोध प्रबंध दिया था, उसे पढ़ते हुए लोकोक्तियों (गालियां इनमें शामिल हैं) के समाजशास्त्र के बारे में जानने को मिला। यहां मैं शशिशेखर तिवारी के पुस्तकाकार छपे उसी शोध प्रबंध के कुछ हिस्से रख रहा हूं। पहले देखिए महिलाओं के बारे में -

1. बिन मारे बेटी मरे, खाड़े ऊंख बिकाय।
बिन मारे मुदई मरे, ता पर देव सहाय।।

यानी, जिसकी पुत्री की (बचपन में) मृत्यु हो जाए, खेत में ईंख बिक जाए और बिना मारे दुश्मन मर जाए, तो समझना चाहिए कि देवता उसके सहायक हैं।

2. खेती, बेटी, नित्ते गाय, जे ना देखे तेकर जाए

यानी, जो अपनी खेती, बेटी और गाय पर प्रतिदिन नजर नहीं रखता, उसकी ये चीजें नष्ट हो जाती हैं।

3. जे पेट के आस उसे बिआईल बेटी

यानी जिस गर्भ से पुत्र होने की आशा थी, उसी से बेटी उत्पन्न हुई।

और कुछ जाति संबंधी

1. भादो भैंईंसा, चइत चमार

यानी भादो में भैंस और चैत में चमार खा-पी कर मस्त हो जाते हैं।

2. चमार के मनवले डांगर ना मरी

यानी चमार के मनाने से बैल नहीं मरेंगे।

3. दुसाध जात खाये नीचे, ताके ऊंचे

यानी दुसाध जाति दूसरों के यहां नीचे बैठकर खाती है, लेकिन उसकी नजर चोरी के उद्देश्य से घर की ऊंची जगहों पर दौड़ती रहती है।

4. चमारे के बेटी नांव रजरनियां

चमार की बेटी है, किंतु नाम है राजरानी।

5. कायथ के कुछ लेले देले, बराह्मण खिलवले, रजपूत के बोध बाध, नान्ह लतियवले

कायस्थ कुछ लेन-देन करने से, ब्राह्मण कुछ खिलाने पिलाने से, राजपूत तारीफ करने से और निम्न जाति के लोग दंड देने से ठीक रहते हैं।

6. अहीर बुझावे से ही मरद

मर्द वही है जो अहीर को तथ्य बोध करा दे

शोधकर्ता शशिशेखर तिवारी कहते हैं कि लोकोक्तियों के आधार पर भारतीय जाति व्यवस्था का अध्ययन उपादेय है। इस सिलसिले में वो रिजले की किताब पिपुल्स ऑफ इंडियाऔर डबल्यू क्रूक की किताब नेटिव्स ऑफ नॉदर्न इंडिया का जिक्र करके हैं। क्या किसी को मालूम है कि ये किताबें कहां मिल सकती हैं?

Friday, February 15, 2008

क्यों खटकते हैं अविनाश और दिलीप मंडल!

प्रणव प्रियदर्शी

मोहल्ला वाले अविनाश और रेजेक्ट्माल तथा सभी उपलब्ध ब्लोगों (व अन्य मंचों) से अपनी बात कहने वाले दिलीप मंडल बहुतों की आँख की किरकिरी बन चुके हैं. इन 'किरकिरियों' को शुरू मे नज़रअंदाज करने की कोशिश इन लोगों ने की थी. जैसा कि ऐसे मामलों मे ये अमूमन करते हैं. जब बात नही बनी, तो दूसरा रास्ता अपनाया गया. कथित सम्मानपूर्ण व्यवहार के जरिये इन्हें भी साध लेने की कोशिश हुयी. जब उससे भी बात नही बनी, इन दोनों ने पूरी शिद्दत से अपना काम जारी रखा तब खीझ उतारने का सिलसिला शुरू हुआ. 'शालीनतापूर्ण' असहमति से आरंभ हुआ यह सफर जल्द ही आरोप-प्रत्यारोप और गाली गलौज तक पहुंच गया.

चूंकि शब्दों के चयन और भाषाई तहजीब पर पहले ही काफी कुछ कहा जा चुका है, इसीलिए उसे न दोहराते हुए पहले सराय वाली ब्लोग संगत पर. मोहल्ला जिन मुद्दों को छेड़ता रहा है, जिन पर बहस करवाता रहा है उस पर बात करें, अपना पक्ष रखें यह तो ठीक है लेकिन ब्लोग संगत का निमंत्रण सबसे पहले मोहल्ले पर पोस्ट हुआ इस आधार पर किसी के पीछे पड़ जाने का क्या मतलब? मोहल्ले का अगर अपना कोई वैचारिक आग्रह है तो इसमे गलत क्या है? और उस आधार पर ब्लोग संगत के लिए मोहल्ले को गाली देने का भला क्या तुक? इसे ही कहते हैं 'मरे कोई जलाऊं अपने उसी दुश्मन को'.

यों भी दिल्ली मे कौन सा सभा भवन है जहा बडे पैसे से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप मे जुडी कोई संस्था न काबिज हो? तो फिर विचार - विमर्श या स्नेह मिलन के कार्यक्रमों के लिए 'वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध' लोग क्या दूसरे ग्रह पर जाएं?

किसी के साथ मिल कर उसकी लाइन को स्वीकार लेना और उसके अनुरूप काम करना एक बात है. अगर मोहल्ला ने ऐसा कुछ किया होता तो वह उसका औचित्य बताता. लेकिन ऐसा उस पर आरोप भी नही है. हल्ला इस बात पर मचाया जा रहा है कि ब्लोग संगत सराय मे क्यों बुलाई गयी.

ऐसा ही मामला दिलीप मंडल का है. उनके खिलाफ सारा गुस्सा इसी वजह से है कि वे कभी जाति का सवाल उठाते हैं तो कभी महिलाओं का. जिन शरीफ लोगों को यह बुरा लग रहा है वे अलग-अलग बहानो से उन पर लाल-पीले हो रहे हैं. हालांकि ऐसा नही कि सभी आलोचनाएं ऐसी ही हैं. भाई दिनेश राय द्विद्वेदी ने बेहद तार्किक ढंग से और गंभीर मुद्दे उठाये हैं. उन पर बहस आगे बढाई जानी चाहिए. लेकिन ज्यादातर लोग जो यह कहते हुए नाक-भौंह सिकोड़ रहे हैं कि दिलीप मंडल न्यूज़ रूम का माहौल खराब करना चाहते हैं, दरअसल वे अपनी असुविधा को छिपाने के लिए इस बहस को दफनाना चाहते हैं.

इस बहस पर पवित्रतावादी स्टैंड लेने वाले अजित वड्नेरकर यह दावा करते हैं कि वे अपने आसपास किसी व्यक्ति की जाति नही देखते.चलिए मान लिया. लेकिन, अपने एक पोस्ट मे वे पत्रकारिता और क्लर्की का सवाल उठाते हैं. पत्रकार बंधुओं के मुंह से यह डायलॉग आम है कि हम पत्रकारिता करते हैं क्लर्की नही. वैसे भाई अजित जी ने काफी संयत शब्दों का प्रयोग किया है पत्रकारिता और क्लर्की का अंतर बताने मे, लेकिन यह भाव उस पोस्ट मे भी मजबूती से मौजूद है कि क्लर्की पत्रकारिता के मुकाबले हीन काम है.निस्संदेह ऐसा मानने वाले वे एकमात्र पत्रकार नही हैं, लेकिन इसमे भी संदेह नही कि ऐसे पत्रकार कम से कम समता मूलक दृष्टि का दावा नही कर सकते.
खुद ही सोचिये कि जो इस बात से गौरव लेता हो कि वह क्लर्क नही है, उसके पास क्लर्कों के लिए क्या होगा? आप क्लर्क नही हैं तो बडे महान हैं, लेकिन मैं क्लर्क हूँ तो मुझे इज्जत से जीने का हक़ है या नही? अगर है तो किस बिना पर? क्योंकि क्लर्की तो नाज करने वाली चीज है नही.

फिर यह बात भी है कि जो इस बात पर खुश हैं कि वे क्लर्क नही वे इस बात पर खुश क्यों नही हो सकते कि वे चमार नहीं या महार नही या अन्य कोई छोटी जात नही?

साफ है, अजित वड्नेरकर जी अगर सच्चाई तक पहुँचना चाहते हैं तो अपने वर्ल्डव्यू पर दुबारा विचार करें.
बहस मे शामिल अन्य साथियों से शायद इतना कहने की भी जरूरत नही.

कलियुग के संजय उर्फ कल्लू चमार से दो बातें

ये आपकी पोस्ट में बार बार आ रहे "हम" कौन हैं संजय उर्फ कल्लू चमार जी। जो गाली देना जानते हैं और जो यदि गाली देने के लिए मुंह खोल दे तो मेरे कान फट जाएंगे और जिनका स्‍तर इतना गिरा हुआ नहीं है? चर्चा में इस कदर हिंसक होने की जरूरत क्यों हो रही है? कोई कान के नीचे दिए जाने पर खुश हो रहा है, कोई कान के पर्दे फाड़ने की धमकी दे रहा है। इतनी घबराहट किस बात की?

वैसे मैने पढ़ने वालों से यही निवेदन किया है कि आपके ब्लॉग की चर्चा को आपके ब्लॉग पर जाकर जरूर देखें। संदर्भ समझने के लिए ये जरूरी है। बात को तोड़ने-मरोड़ने वाले ऐसा नहीं करते।

बात पकड़नी हो तो पकड़िए, न चाहें तो मत पकड़िए। वर्तनी के नाम पर फुनगियां मत नोचिए, या चलिए वही कर लीजए। क्या आपकी स्थापना यही है कि मीडिया के भारतीय समाज की विविधता का न दिखना बेकार का मुद्दा है और इस पर बात नहीं होनी चाहिए। इस चर्चा को लेकर कुछ लोगों में सार्वजनिक भय का जो माहौल नजर आ रहा है, वो चौंकाने वाला है। मीडिया में आरक्षण नहीं आ रहा है दोस्तो। निश्चिंत रहिए। मीडिया में आरक्षण अमेरिका में भी नहीं है। वहां न्यूजरूम में जो डायवर्सिटी है वो मीडिया कॉरपोरेशन ने खुद किया है। अपने कारोबारी हित में। अमेरिका मे मीडिया में डायवर्सिटी की बहस पर आगे बात हो सकती है। चर्चा में बने रहिए। डरने की कोई जरूरत नहीं है।

मुझे पूरा यकीन है कि आप न्याय के साथ खड़े होंगे। न्याय की परिभाषा बेशक आपकी होगी। अजित जी की बात अब आपको मोहल्ला में सही रूप में दिख जाएगी। अशुद्धि का संशोधन कर लिया गया है। इसमें कोई साजिश नहीं है। इतना डरेंगे तो कैसे चलेगा?

Thursday, February 14, 2008

नादान हैं वो क्या जानें (भाग-2)

आर. अनुराधा

मेरी सखी श्रीया। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार के दिल्ली ब्यूरो में वरिष्ठ स्तर की संवाददाता। इस सिलसिले में देश-विदेश घूमती है, कभी समूह में तो कभी अकेले, कभी दफ्तर के काम से तो कभी खुद अपनी रुचि के कारण। गृह, महिला और बाल विकास, मानव संसाधन विकास या कहें शिक्षा मंत्रालयों से लेकर मानवीधिकार और संसद तक के विषयों पर खबरें और विष्लेषण लिखती है। रहना होता है दिल्ली के पत्रकार इलाके यानी यमुना-पार के इलाके में।

शादी अब तक नहीं की क्योंकि कहीं तालमेल नहीं मिला। उसके शब्दों में- "मेरे शहर ( छोटे-मोटे नहीं, कलकत्ता महानगर) के लड़के तो एक पत्रकार से शादी करने से रहे। जात-बिरादरी में शादी की चर्चा में सबसे पहले बात उठती है कि नौकरी और दिल्ली छोड़ कर आने की। मैं कहती हूं कि क्यों नहीं वह लड़का अपनी जगह छोड़ कर यहां दिल्ली ट्रांसफर ले लेता या यहां आकर अपना काम जारी रखता। यह तो उसके कैरियर के लिए भी अच्छा रहेगा। मैं तो यहां उसे हर तरह से सहयोग करने को तैयार हूं।"

फिर वह मुद्दे को हवा में उड़ा देती है कि शायद मेरे माथे पर ही नहीं लिखा है शादी होना। खैर।

किस्सा यह है fक पिछले दिनों उसने अपना पेइंग गेस्ट अकमोडेशन छोड़ कर एक मकान किराए पर ले लिया। अब यहां नल आदि में कुछ काम करने के लिए प्लंबर को बुलाया तो उसने काम तो किया पर फिर पैसे लेने के वक्त उसे पता लगा कि महिला अकेली है तो मनमाने पैसों की मांग करने लगा। उसका अंदाजा था कि यह निरीह महिला क्या कर पाएगी सिवाय उसे मुंहमांगे दाम देने के। आखिर काम भी तो उसने 'मर्दों वाला' किया है। तभी उसका एक पुरुष मित्र घर पहुंचा और फिर मामला सामान्य ढंग से निबट गया।

ऐसा क्यों होता है कि यह पढ़ी-लिखी, आजाद खयाल, सही मायनों में आत्मनिर्भर महिला जब अपना पुश्तैनी मकान बेचना चाहती है तो हर बार हर प्रॉपर्टी डीलर बातचीत के लिए परिवार के किसी पुरुष सदस्य की लगातार उम्मीद और तलाश करता है? ' कोई तो होगा जिससे मैं बात कर सकूं। प्रॉपर्टी का मामला है, किसी को बुलाइये बातचीत के लिए। पिता नहीं रहे, भाई नहीं है तो मामा-चाचा-जीजा कोई तो होगा!'

जब वह जोर देकर कहती है कि कोई और नहीं, वह खुद ही डिस्कशन टेबल पर बैठेगी, मकान का सौदा तय करेगी तो सामने वाला जरूर ही यह समझता है कि कोई बच्चा सामने बैठा है जिसे चाहे जैसे उल्लू बनाया जा सकता है- बावजूद इस जानकारी के कि सामने बैठी मकान मालकिन पत्रकारिता जैसे दबंग पेशे में है। ऐसे लोगों की मानसिकता को बदलने का कोई उपाय है?

Tuesday, February 12, 2008

दंडवते या लालू यादव? किसने किया सामाजिक न्याय

आज से लगभग तीन दशक पहले एक मराठी ब्राह्मण नेता मधु दंडवते रेल मंत्री बने थे। उन्होंने फैसला किया कि सेकेंड क्लास के कोच में हर सीट पर दो इंच फोम होगा। उनके इस आदेश के बाद से लकड़ी की सीट वाले कोच बनने बंद हो गए। अब आपको शायद याद भी नहीं होगा कि कुछ साल पहले तक गर्मी के मौसम में भी सेकेंड क्लास पैसेंजर्स को भारी भरकम होलडॉल से पहचाना जा सकता था। सेकेंड क्लास में सफर करने वालों की दुनिया बदल देने वाले मधु दंडवते ने ऐसा करके सामाजिक न्याय किया या नहीं? मधु दंडवते ने ही कोंकण रेलवे की शुरुआत की थी, जिसका फायदा आज करोड़ों लोग उठा रहे हैं। मधु दंडवते ने पैसा नहीं बनाया। वो कभी मीडिया के स्टार भी नहीं रहे।

उनके मुकाबले रखिए लालू यादव को। सामाजिक न्याय के चैंपियन और पिछड़ी यादव जाति के नेता। उनकी पूरी कोशिश इन दिनों कॉरपोरेट जगत में लोकप्रिय होने की है। रेलवे की जमीन कॉरपोरेट सेक्टर को देकर और मालढुलाई के निजीकरण से वो अपना वो रेलवे की कमाई का लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। रेलवे की चर्चा अब लोककल्याण, नई गाड़ियां चलाने, पुलों की मरम्मत, नई लाइनें बिछाने, रेलवे ट्रैक के बिजलीकरण जैसी बातों के लिए नहीं होती। रेलवे की चर्चा अब लाभ कमाने, डिविडेंड देने, रेलवे के कॉरपोरेटीकरण, पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप, रेलवे की जमीन बेचने, कैटरिंग के निजीकरण, माल ढुलाई में निजी कंपनियों की भूमिका बढ़ाने और साथ ही सुपरफास्ट चार्ज, कैंसिलेशन चार्ज, तत्काल चार्ज जैसे पिछले दरवाजे से टिकट महंगा करने जैसी बातों के लिए होती है।

लालू यादव आज मीडिया की नजरों के तारे हैं। लालू यादव अब आरक्षण की बात नहीं करते। एम्स में वेणुगोपाल बनाम रामदॉस की लड़ाई में वो वेणुगोपाल के साथ हैं। न्यायपालिका के जातिवादी स्वभाव के बारे में पूछने पर वो कहते हैं कि जज देवता होता है। कैबिनेट की बैठक में वो पहले मंत्री थे जिन्होंने कहा था कि उच्च शिक्षा में आरक्षण इंस्टॉलमेंट में लागू किया जाना चाहिए। बिहार की पंचायतों में अतिपिछड़ों और महिलाओं को आरक्षण देने का फैसला उन्हें पसंद नहीं है। पसमांदा मुसलमानों की बात से उन्हें चिढ़ होती है।

लालू यादव सामाजिक न्याय नहीं कर रहे हैं, वो सामाजिक न्याय की राजनीति भी नहीं कर रहे हैं। ये बात बहुत लोगों को चौंका सकती है और वामपंथ की ओर झुके हुए दिल्ली-मुंबई के बुद्धिजीवियों को ये रहस्य आसानी से समझ में भी नहीं आएगा, कि ये क्या बात हो रही है। लालू यादव के भदेसपन और गंवई अंदाज को सामाजिक न्याय का दूसरा रूप मानने वालों को ये बात जरूर चौंकाएगी। लेकिन लालू यादव-रावड़ी देवी के लंबे शासनकाल में बिहार में सामाजिक न्याय के नाम पर जिस तरह विकासविरोध की राजनीति हुई, उसका असर अब लालू यादव की राजनीति पर नजर आ रहा है।

लालू यादव के नारों की चमक अब बिहार में फीकी पड़ चुकी है। लालू यादव जब पहले चुटकुला कहते थे कि बिजली आने से भैंस की शॉक लग जाएगा, या सड़क बनी तो गाड़ियों की धूल आपको फांकनी होगी, तो लोग खूब मजा लेते थे। अब इन चुटकुलों पर बिहार में कोई नहीं हंसता। लालू यादव अब बिहार में ऐसे चुटकुले कहते भी नहीं हैं। वो बिहार की हकीकत को बुद्धिजीवियों से बेहतर जानते हैं। बिहार में पिछड़ों की राजनीति अब नीतीश कुमार कर रहे हैं।
-दिलीप मंडल

Sunday, February 10, 2008

अभय साधक को श्रद्धांजलि

बाबा आमटे जो कुछ करना चाहते थे उसके लिए एक जीवन शायद काफी नहीं थावो देश को जोड़ना चाहते थेपाकिस्तान जाकर वहां के लोगों को एकता का संदेश देना चाहते थेदंगों से उन्हें तकलीफ होती थी और वो सांप्रदायिक हिंसा का अंत चाहते थेवो देश से कुष्ठ रोग का अंत चाहते थेचाहते थे कि कुष्ठरोगियों का भी समाज का प्यार मिलेवो विस्थापन से होने वाली पीड़ा का अंत चाहते थेवो न्यायसंगत तरीके से पुनर्वास चाहते थेवो चाहते थे कि सरकार देश में न्यायप्रिय तरीके से शासन करेवो हर तरह के अन्याय का अंत चाहते थेलेकिन इन तमाम अधूरी इच्छाओं को साथ लिए बाबा आमटे गुजर गए

सरकार उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद करना चाहती है जो कुष्ठरोगियों के इलाज में सक्रिय रहालेकिन बाबा आमटे के जीवन का ये एक पहलू भर थादेश में कहीं भी अन्याय हो रहा हो तो लोगों को अक्सर बाबा आमटे की याद आती थीनर्मदा के विस्थापितों के आंदोलन में बाबा की भूमिका को लोग भुला नहीं पाएंगेसांप्रदायिक दंगों के खिलाफ उनकी मुखर आवाज हमेशा सुनाई देती थीबाबा आमटे को दुनिया ऐसे शख्स के रूप में भी याद रखेगी जो हमेशा विचार को कर्म में लागू करने के लिए सक्रिय रहे

सत्य के इस अभय अथक साधक को श्रद्धांजलि! सुनिए वैष्णव जन तो तैने कहिए...हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी से

Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

Saturday, February 9, 2008

मीडिया में महिलाएं हैं चोखेर बाली

हिंदी मीडिया के महत्वपूर्ण पदों पर सिर्फ 12% महिलाएं । इंग्लिश हिंदी मिलाकर देखें तो 17% की हिस्सेदारी।

देश की राजधानी में मीडिया के उच्च पदों पर 0% दलित, 0% आदिवासी, 4% ओबीसी, 3% मुसलमान।

देश की आबादी में सवर्ण पुरुषों की संख्या 8% और मीडिया के उच्च पदों पर उनकी है संख्या 71%।

क्या इस बारे में की गई बातचीत, जताई गई चिंता अश्लील है, अनर्गल है, मलाई चाभने वाले दलितों और पिछड़ों की साजिश है, ओछी बात है, निंदनीय है? अगर आपको ऐसा लगता है तो आपकी नीयत पर हमें शक है। आपकी प्रगतिशीलता संदेह के दायरे में है। और ऐसा क्यों हो रहा है।

चलिये मान लेते हैं कि दलित-पिछड़े-आदिवासी-मुसलमानों में प्रतिभा की कमी है। टेलेंट लेकर पैदा ही नहीं होते। लेकिन महिलाओं के साथ ऐसा क्यों है? उनमें तो टेलेंट की कमी नहीं है। टॉप पर पहुंचने से पहले वो कहां रुक जाती हैं? या रोक दी जाती हैं?

इस साल 12वीं की सीबीएसई परीक्षा में 85 परसेंट लड़कियां पास हुई जबकि लड़कों का पास परसेंटेज 77 परसेंट तक ही पहुंच पाया। टापर्स में भी लड़कियां ज्यादा हैं और लड़के कम। देखें रिजल्ट की खबर । साल दर साल लड़कियां दसवीं और बारहवीं के नतीजों में लड़कों से बेहतर परफॉर्म कर रही हैं। लेकिन ये टेलेंटेड लड़कियां मीडिया में क्यों नहीं दिखतीं। खासकर हिंदी मीडिया में।

मीडिया के महत्वपूर्ण पदों पर अलग अलग जातीय धार्मिक समूहों और स्त्री पुरुष की संख्या जानने के लिए 2006 की गर्मियों में दिल्ली में एक सर्वेक्षण हुआ। इसके लिए राजधानी के 40 मीडिया संस्थानों को एक प्रश्नावली भेजी गई। इसमें ये पूछा गया कि उनके यहां जो दस लोग बड़ें फैसलों में हिस्सेदार होते हैं, उनका धर्म, जाति, लिंग, मातृभाषा और प्रदेश कौन से हैं। तीन मीडिया समूहों ने इन सवालों के जवाब नहीं भेजे। कुछ मीडिया समूह से दस से कम नाम सामने आए।

इस शोध को सीएसडीएस के सीनियर फेलो योगेंद्र यादव, पत्रकार और शिक्षक अनिल चमड़िया और स्वतंत्र शोधकर्ता जीतेंद्र कुमार ने कई सहयोगियों के साथ मिलकर किया। शोधकर्ताओं ने स्वीकार किया है कि इन आंकड़ों में कुछ दोष हो सकता है क्योंकि इसके लिए सभी 315 लोगों से अलग अलग बातचीत नहीं की गई है। लेकिन इसका शोध के निष्कर्षों पर कोई निर्णायक प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है।

नतीजे चौंकाने वाले नहीं थे। नतीजों का सार यहां देखिए।

- मीडिया में फैसला लेने वाले पदों पर पुरुष वर्चस्व (83%) है।

- ये वर्चस्व हिंदी इलेक्ट्रॉनिक (89%) में सबसे ज्यादा और इंग्लिश इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सबसे कम (78%) है।

- देश में द्विज आबादी 16% है और मीडिया के उच्च पदों पर उनकी संख्या 86% है।

- इन पदों पर आसीन लोगों में 49% ब्राह्मण हैं।

- फैसला लेने वाले 315 बड़े पत्रकारों में एक भी दलित या आदिवासी नहीं है। देश की एक चौथाई आबादी इन समुदायों की है।

- मीडिया के महत्वपूर्ण पदों पर सिर्फ 4% ओबीसी हैं।

- इन पदों पर एक भी महिला ओबीसी नहीं है।

- मीडिया के फैसला लेने वाले पदों में मुसलमानों की संख्या 3% है, जबकि उनकी आबादी लगभग 13% है।

कितने अश्लील आंकड़े हैं ये? इनकी बात करने वालों का क्या करेंगे आप?
Custom Search