Custom Search

Thursday, February 14, 2008

नादान हैं वो क्या जानें (भाग-2)

आर. अनुराधा

मेरी सखी श्रीया। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार के दिल्ली ब्यूरो में वरिष्ठ स्तर की संवाददाता। इस सिलसिले में देश-विदेश घूमती है, कभी समूह में तो कभी अकेले, कभी दफ्तर के काम से तो कभी खुद अपनी रुचि के कारण। गृह, महिला और बाल विकास, मानव संसाधन विकास या कहें शिक्षा मंत्रालयों से लेकर मानवीधिकार और संसद तक के विषयों पर खबरें और विष्लेषण लिखती है। रहना होता है दिल्ली के पत्रकार इलाके यानी यमुना-पार के इलाके में।

शादी अब तक नहीं की क्योंकि कहीं तालमेल नहीं मिला। उसके शब्दों में- "मेरे शहर ( छोटे-मोटे नहीं, कलकत्ता महानगर) के लड़के तो एक पत्रकार से शादी करने से रहे। जात-बिरादरी में शादी की चर्चा में सबसे पहले बात उठती है कि नौकरी और दिल्ली छोड़ कर आने की। मैं कहती हूं कि क्यों नहीं वह लड़का अपनी जगह छोड़ कर यहां दिल्ली ट्रांसफर ले लेता या यहां आकर अपना काम जारी रखता। यह तो उसके कैरियर के लिए भी अच्छा रहेगा। मैं तो यहां उसे हर तरह से सहयोग करने को तैयार हूं।"

फिर वह मुद्दे को हवा में उड़ा देती है कि शायद मेरे माथे पर ही नहीं लिखा है शादी होना। खैर।

किस्सा यह है fक पिछले दिनों उसने अपना पेइंग गेस्ट अकमोडेशन छोड़ कर एक मकान किराए पर ले लिया। अब यहां नल आदि में कुछ काम करने के लिए प्लंबर को बुलाया तो उसने काम तो किया पर फिर पैसे लेने के वक्त उसे पता लगा कि महिला अकेली है तो मनमाने पैसों की मांग करने लगा। उसका अंदाजा था कि यह निरीह महिला क्या कर पाएगी सिवाय उसे मुंहमांगे दाम देने के। आखिर काम भी तो उसने 'मर्दों वाला' किया है। तभी उसका एक पुरुष मित्र घर पहुंचा और फिर मामला सामान्य ढंग से निबट गया।

ऐसा क्यों होता है कि यह पढ़ी-लिखी, आजाद खयाल, सही मायनों में आत्मनिर्भर महिला जब अपना पुश्तैनी मकान बेचना चाहती है तो हर बार हर प्रॉपर्टी डीलर बातचीत के लिए परिवार के किसी पुरुष सदस्य की लगातार उम्मीद और तलाश करता है? ' कोई तो होगा जिससे मैं बात कर सकूं। प्रॉपर्टी का मामला है, किसी को बुलाइये बातचीत के लिए। पिता नहीं रहे, भाई नहीं है तो मामा-चाचा-जीजा कोई तो होगा!'

जब वह जोर देकर कहती है कि कोई और नहीं, वह खुद ही डिस्कशन टेबल पर बैठेगी, मकान का सौदा तय करेगी तो सामने वाला जरूर ही यह समझता है कि कोई बच्चा सामने बैठा है जिसे चाहे जैसे उल्लू बनाया जा सकता है- बावजूद इस जानकारी के कि सामने बैठी मकान मालकिन पत्रकारिता जैसे दबंग पेशे में है। ऐसे लोगों की मानसिकता को बदलने का कोई उपाय है?

2 comments:

Pooja Prasad said...

अनु राधा जी ऐसे लोगो की मानसिकता नही बदली जा सकती. क्योकि इसी मानसिकता को दिनोदिन पाला पोसा जा रहा है.. वे इसे पाल रहे हैं और हम इसे बदलने की जुगत लगा रहे हैं.. ऐसे में बात वहीं की वहीं आ जाती है. निर्णायक बदलाव तभी आएँगे जब इस मानसिकता के पालनहार इसे बदलने की ज़रूरत मह्सुसेंगें..

pranava priyadarshee said...

'वे इसे पाल रहे हैं और हम इसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं'. इसके बावजूद यह निष्कर्ष कि इस मानसिकता को नही बदला जा सकता? आखिर किस आधार पर यह माना जाये कि 'वे' 'हमसे' ज्यादा प्रभावी हैं और बने भी रहेंगे?
यह भी मान लिया कि 'निर्णायक बदलाव तभी आएँगे जब इस मानसिकता के पालनहार इसे बदलने की ज़रूरत महसूस करेंगे.' लेकिन क्या ऐसा करना पूरी तरह उनकी मर्जी पर निर्भर करता है? क्या हम उन्हें बदलाव की जरूरत महसूस नही करवा सकते?

Custom Search