...और वो कहते हैं कि ये भी कोई मुद्दा है
पांच फरवरी को ये चर्चा शुरू हुई थी। मोहल्ला और रिजेक्टमाल में देर तक चली। सवाल ये था कि क्या मीडिया के उच्च पदों पर एक भी दलित नहीं है? क्या कुछ सोशल-रिलीजियस-जेंडर ग्रुप की हिस्सेदारी लोकतंत्र के चौथे खंभे में निराशजनक रूप से कम है? इस लेकर बात तनी तो तनती चली गई।
बहस इंटेंस थी। नाराजगी, गुस्सा, छल-फरेब, कान के नीचे बजाने का उल्लास, प्रपंच - यानी हर तरह का सामान। बेनामी भी आए और नामधारी भी। साधुवाद नुमा ही नहीं बड़ी-बड़ी टिप्पणियां। दर्जनों टिप्पणियां ऐसी, जिन्हे पोस्ट होना चाहिए। कुछ ने तो अलग से पूरी की पूरी पोस्ट लिख डाली। बहस का स्पिलओवर दूसरे कई ब्लॉग पर नजर आया। अब भी दिख रहा है।
क्या ये हिंदी ब्लॉगिंग के क्रमश: वयस्क होने के संकेत हैं? ये बहस ब्लॉग के अलावा किस और माध्यम पर देखने की बात आप सोच सकते हैं?
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1 comment:
ब्लॉगर्स तो इतने भुखे हैं कि डांगर भी छोड़ेंगे तो चाट डालेंगे। सबसे आधुनिक माध्यम पर सबसे पुरानी बहस शुरू होती है। वैसे... आपने मीडिया और समाज में दलितों की हिस्सेदारी के बारे में तो बता दिया, लेकिन अब उन्हे जगह कैसे दिलाई जाय...याद रखिएगा मैं दलितों को जगह देने की बात कर रहा हूं ...आपके अपनी जगह की बात नहीं...ना ना बिल्कुल नहीं... बहुत बड़ा पाप होगा...फिर धोखा मत करिए प्लीज
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