पूजा प्रसाद
इधर ऐसे कई लोगों से मिलना हुआ जो कभी कम्युनिस्ट विचारधारा से खासे प्रभावित थे. मगर, बाद मे वामपंथ से जो मोहभंग हुआ तो अब मौका मिलने पर उसके छद्म रूप की बखिया उधेड़ डालते हैं और इसे सर्वाधिक दोगली विचारधारा करार देते हैं. वामपंथ के आइडियोलौजिकल रूप-स्वरूप के बारे मे न तो मैं विद्वत्ता प्राप्त हूँ और न ही इस बाबत कोई चर्चा-कुचर्चा छेड़ने की मंशा है. बात बस इतनी सी है कि इंडिया टुडे २७ फरवरी का ऑन लाइन अंक पढ़ रही थी. केरल से एम. जी. राधाकृष्णन की एक रिपोर्ट है. http://emagazine.digitaltoday.in/IndiaTodayHindi/27022008/Home.aspx
केरल मे भगवान् अयप्पा का एक विश्वविख्यात मंदिर है सबरीमाला. धार्मिक दृष्टि से तो इसकी मान्यता है ही, 'राजस्व' की दृष्टि से भी यह अत्यधिक 'मान्यतापूर्ण' है. इस मंदिर मे रजस्वला महिलाओं के प्रवेश पर पारंपरिक पाबंदी है. इस टुच्ची परंपरा को ख़त्म करवाने के लिए एक जनहित याचिका दायर की गयी. इसमे सबरीमाला मे गैर हिन्दुओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध का भी विरोध किया गया है. राज्य की वाम जनतांत्रिक मोर्चा (एलडीऍफ़) सरकार ने याचिका का पक्ष तो लिया लेकिन बाद मे पैर पीछे खिसकाती नज़र आयी. मात्र तीन महीने मे सौ करोड़ की कमाई करने वाले इस 'सपूत' मंदिर की बुरी आदतों (गलत परम्पराओं) पर आपत्ति उठाना आत्मघाती होगा, सरकार के खांचे मे आ चुका हरेक पंथ-वंथ यह जानता है. तो शुरूआती समर्थन देकर जो पंगा लिया गया, उसे सुधारने की १५ पेजीय कोशिश की गयी. वैसे यहाँ यह बताना जरूरी है कि माननीय उच्च न्यायालय ने १९९१ मे महिलाओं सम्बन्धी पाबंदी को जारी रखने के पक्ष मे फैसला दिया था.
दिक्कत उस राजनीति से नही जो इस तरह के मुद्दों, धर्म के नाम पर सत्ता प्राप्ति और निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए की जाती है. दिक्कत इस बात से है कि खुद को न्याय और समानता आदि मूल्यों की पक्षधर बताने वाली कथित विचारधारा की नींव पर बने होने का दावा करने वाली पार्टियां भी अपने चोगों का भार लोगों पर ही डालती चलती हैं.
सरकार बीच का रास्ता निकालने की जुगत लगा रही है. वह इतिहास मे से छानबीन कर उन प्रथाओं और परम्पराओं की सूची बना रही है जो समय के साथ बदल दी गयी. बीच का रास्ता. बीच का रास्ता जो कभी पूरा न्याय नही होता. महिलाओं, दबे-कुचलों और दीन-हीन को समानता-स्वतन्त्रता के नाम पर अक्सर इसी तरह से बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की जाती है. समितियाँ और आयोग बिठाए जाते हैं. जबकि ऐसी परम्पराओं का गला एक झटके मे काट देना चाहिए. सबको खुश रखने की कोशिश बेकार है. और मुझे लगता है कि यह बीच का रास्ता सबको खुश और संतुष्ट रखने की कोशिश का किसी पंथ या विचारधारा या जीवन मूल्य से कोई लेना-देना नही होता. यह व्यावहारिकता या परिपक्वता नही बल्कि सिर्फ राजनीति है.
सबरीमाला के मसले पर हिन्दू ऐक्यवादी के महासचिव राज शेखरन का सवाल है कि क्या सरकार महिलाओं को मस्जिदों या गिरिजाघरों मे सिर ढके बिना प्रवेश की अनुमति दिलवा सकती है? जाहिर है, मामला एक घटिया परम्परा पर विचार का है ही नही. घटिया मानसिकता का है. मेरा सवाल है महिला हो या पुरुष अपने ईश्वर को पूजने या मानने के लिए आपकी नियमावली मानने की बाध्यता क्यों हो? परम्परा है तो उसे परंपरा ही रहने दें. कानून न बनाएं. उससे इतना न बांध जाएं कि सालो साल तक गंदगी सूँघने के बाद उसे सहेजने की पुरजोर कोशिश को जारी रखने देने मे मौन समर्थन देने लगें. बस.

Custom Search
Subscribe to:
Post Comments (Atom)

Custom Search
2 comments:
एक अच्छी कोशिश...
एक अच्छा प्रयास .... बधाई
RAMKRISHNA DONGRE
https://dongretrishna.blogspot.com
बात पते की की है आपने, सराहनीय भी है.... लेकिन हमारे पास जितना दिमाग़ होता है उतना ही सोच पाते हैं हम. यह भी एक किस्म का सुधारवाद है कि बालाजी या सबरीमला को हम देवत्व का दर्ज़ा देते हुए बात करते हैं. आख़िर किसलिए? अगर ईश्वर है तो विरोध किस पत्थर का है?
बड़े-बड़े ज्ञानी और आईटी धंधे में काम करने वाले वहाँ जाकर अपने प्रमोशन की दुआ मांग कर आते हैं. लेकिन यह भी काबिल-ए-गौर है कि कई लोग वहाँ जाकर बीडी, शराब छोड़ आते हैं.
पढ़ा था कि किसी भी विषय पर लिखने से पहले उसका चौतरफा अध्ययन कर लेना लाजिम है.
अगर हम ईश्वर को नहीं मानते तो कहीं से ऐसा न झलकना चाहिए. भाषा को संस्कार देने वाले तथाकथित कवि ऐसी ग़लतियाँ अनेक बार कर चुके हैं और कर रहे हैं. शब्दों का 'प्रकृति' के अनुसार 'इस्तेमाल' होना चाहिए.
Post a Comment