प्रणव प्रियदर्शी
30 जनवरी की अपनी पोस्ट 'अब यहाँ से कहाँ जाएं हम' पर आयी टिप्पणियां देखने के बाद मुझे इस पर कुछ और कहने की जरूरत महसूस हुयी. लेकिन उससे पहले, अपनी मूल टिप्पणी मे मैं एक छोटा सा संशोधन करना चाहता हूँ. टिप्पणी के, नीचे से दूसरे पैराग्राफ मे मैंने कहा है कि 'सुधारवाद हमे कई बार प्रगतिशीलता के भुलावे मे ऐसे खतरनाक मोड़ों पर लाकर छोड़ देता है जहाँ चयन का खास मतलब नही रह जाता.' संशोधन यह है कि कई बार नही, हमेशा. सुधारवाद की यह अनिवार्य विशेषता है. सुधारवाद समस्या की भयानकता को कम करने का एहसास दिलाता है, लेकिन उसके मूल तर्क को चुनौती नही देता. लिहाजा कुछ समय बाद, किसी न किसी रूप मे वही समस्या फिर हमारे सामने होती है. कई बार तो ज्यादा भयावह बन कर लौटती है.
अपनी इसी विशेषता की वजह से सुधारवादी नजरिया त्रुटिपूर्ण माना जाता है.
सुधारवाद है क्या? सुधारवाद अच्छाई की दिशा मे बढ़ने की कामना और बुराई से टकराने की हिम्मत की कमी - इन दोनों के घालमेल की उपज होता है.
कोई भी बड़ी समस्या ले लीजिये. सुधारवादी नजरिया पहले मान लेगा कि उसे हल करना संभव नही. (यह बात कई बार घोषित रूप मे कह दी जाती है, लेकिन अक्सर यह अघोषित भी होती है.) उसके बाद यह दलील देगा कि उसके असर को कम करने का प्रयास ही व्यावहारिक और वांछनीय है. उदाहरण
- वेश्यावृत्ति ख़त्म नही की जा सकती, इसे कानूनी दर्जा दे देना ही 'बुद्धिमानी' है. कम से कम (यह शब्द ध्यान देने लायक है, हर बार यह शब्द जरूर होता है) वेश्याओं की हालत कुछ तो सुधरेगी.
- भ्रष्टाचार ख़त्म नही किया जा सकता. कम से कम दफ्तरों मे खुलेआम रिश्वत मांगे जाने पर तो रोक लगाने की कोशिश की जाये.
- असमानता ख़त्म नही की जा सकती. मगर गरीब और अमीर के बीच इतना अंतर!!! इसे थोडा कम करने का प्रयास क्यों नही होता?
- ग्लोबलाइजेशन को नही रोका जा सकता. लेकिन इसे मानवीय चेहरा प्रदान करने की कोशिश जरूर की जा सकती है.
- भारत मे धर्म को चुनौती नही दी जा सकती. हाँ उसके पाखण्ड को, उसके कर्म काण्ड को कम करने का प्रयास किया जाना चाहिए.
- हिन्दू धर्म मे जाति की बुनियाद बहुत मजबूत है. उसे तो नही हिलाया जा सकता. लेकिन विभिन्न जातियों के बीच जो नफरत की भावना फ़ैली हुयी है उसे कम करने की कोशिश तो हो.
- पूंजीवाद का अब कोई विकल्प नही है. उसे नही हटाया जा सकता. लेकिन उसकी बुराइयों को कम करने की कोशिश जरूर कर सकते हैं और वह की जानी चाहिए.
वगैरह, वगैरह... यह सूची अनंत है. सुधारवादी नजरिया हर जगह मौजूद है. अगर संदर्भ से काट कर देखें तो वह प्रगतिशील भी दीखता है. लेकिन मूल रूप मे वह पस्त हिम्मती की ही उपज होता है. कभी-कभी वह ऐसे किसी व्यक्ति के मुंह से भी निकलता है जिसने भोलेपन मे उस नज़रिये को अच्छा समझ स्वीकार किया हो, लेकिन इससे इसके अन्तिम प्रभाव पर कोई फर्क नही पङता. समस्या अंततः इससे उलझती ही है.
पार्वत्याचार्य के विवाद को इसी पृष्ठभूमि मे रखने का मेरा इरादा था. अपनी समझ से मैंने रखा भी था. लेकिन जैसा कि भाई संजय तिवारी की प्रति टिप्पणी से साफ था कि मेरी कोशिश सफल नही हुयी. अनुराधा ने अपनी प्रति टिप्पणी मे दलितों के मंदिर प्रवेश के सटीक उदाहरण के जरिये यह तो साफ कर दिया कि महिलाओं के लिए पार्वत्याचार्य कोई बेहतर विकल्प नही है, पूजा प्रसाद ने भी यही राय जाहिर की, लेकिन सुधारवाद की यह पृष्ठभूमि अस्पष्ट रह गयी थी. पार्वत्याचार्य विवाद के पीछे व्यक्तिगत दांव-पेंच आदि जो भी हों, हिन्दू धर्म को चुनौती दिए बगैर इसके तय खांचों के भीतर ही महिलाओं के लिए पुरुषों के समान स्थान सुनिश्चित करने का भाव मुख्य भूमिका मे है. इसीलिए यह सुधारवादी नज़रिये के घेरे मे आता है. और इसीलिए मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को बरकरार रखते हुए महिलाओं के लिए इसी ढाँचे मे समानता हासिल कर लेने का आन्दोलन चलाने वाली नेत्रियों के लिए यह चुनौती थी कि वे पार्वत्याचार्य विवाद की विसंगतियों को कैसे रेखांकित करती हैं.
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2 comments:
ठीक बिंदु पर अंगुली रखी है प्रणव। माना कि महिला-पुरुष में बराबरी होनी चाहिए लेकिन बराबरी का यह मतलब तो नहीं कि पुरुष जो कुछ करता है या करता था, महिला वह सब करे, देर से ही सही! पुरुष ही नहीं पूरा समाज आज आम तौर पर सभी आचार्यों से आगे बढ़ चुका है। ऐसे में बराबरी के नाम पर पीछे छोड़ी हुई चीज़ को फिर सहेजना दिमागी दीवालियापन नहीं है?
जहां तक सुधारवाद की बात है, तो उसे मुझे और समझने की जरूरत है इसलिए ईमानदार टिप्पणी चाहिए तो थोड़ा रुकना पड़ेगा।
धन्यवाद अनुराधा. जहाँ तक सुधारवाद पर तुम्हारी ईमानदार टिप्पणी का सवाल है तो अच्छी चीजों के लिए इंतज़ार बुरा नहीं होता. तुम अपना वक्त लो. सोच-समझ कर अपनी राय बनाओ. इतना मुझे पता है कि तुम भले देर से आओ लेकिन आओगी दुरुस्त ही.
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