Custom Search

Tuesday, October 30, 2007

हिंदी ब्लॉग यानी एक हजार लोगों के क्लब से अश्विनी जी, आप दूर ही रहें

कल मां के बाजार रेट पर आई कविता के लेखक ए के पंकज अश्विनी जी, कृपया ब्लॉग की दुनिया में कभी कभी आएं, पर यहां बसने की न सोचें। हिंदी ब्लॉग की एक हजार लोगों की बस्ती में दरअसल समझदार लोग रहते हैं, जो अक्सर खाए और अघाए हुए हैं। साधु-साधु और वाह-वाह, क्या ब्लॉग मारा है - टाइप की टिप्पणी एक दूसरे के ब्लॉग पर भेजते हैं। खुद जो मन में आए लिखते हैं और कहीं से अलग विचार आया या थोड़ी-सी आलोचना हुई तो कहते हैं ये तो मेरा पर्सनल स्पेस है।

अश्विनी
कुमार पंकज झारखंड के महत्वपूर्ण संस्कृतिकर्मी हैं। उनसे आप akpankaj@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं। उनका खुद का परिचय आप देख लीजिए-
-पांवों में चक्कर नही है फिर भी खुद को बेदखल और विस्थापित करता या होता रहा हूँ। रामनवमी के अखाडे में कभी लाठियाँ नहीं चलायी लेकिन होश सम्हालते ही नास्तिक हो गया। रंगमंच के प्रेम ने ना घर का रखा और ना ही किसी घाट लगने दिया। इन दिनों एक ऐसी भाषा में लिख-पढ़ने का काम शुरू कर दिया है, यार लोगों के मुताबिक जो कोई भाषा ही नहीं है और मैं आत्महत्या की तैयारी में हूँ।

पंकज जी का जोहार सहिया नाम का एक ब्लॉग भी है। किसी भी झारखँडी भाषा का ये पहला ब्लॉग है। वैसे इसकी स्क्रिप्ट देवनागरी है। आगे चलकर झारखंडी स्क्रिप्ट के भी ब्लॉग बनेंगे।

उनके जैसे झारखंड के कई संस्कृतिकर्मी मिलकर 31 अक्टूबर को एक प्रदर्शन कर रहे हैं, रांची में। मांग ये है कि झारखंड की सभी नौ भाषाओं को प्रदेश में राजभाषा का दर्जा दिया जाए। निमंत्रण पत्र इस तरह से है-
31 अक्तूबर के रजधानी में लाठी कर जबाब नगड़ा से
राजभाषा कर मुद्दा में आब तक जे एकतरफा खेइल चलत रहे आउर जे दिकू मदारी मन तमाशा करत रहें उ मनक दिल के ठंडा करेक ले झारखंडी मन पइका नाचबैं। इ नाच ३१ अक्तूबर के रांची कर मेन संडक से सुरु होवी आउर लाट साहेब कर घर-दुरा ठिन फ़ाइनली जाएके खतम होवी। गोटा झारखण्ड से सउब इकर में शामिल होबैं आउर नवो झारखंडी भाषा के द्वितीय राजभाषा बनाएक ले सरकार उपर दबाब बनाएं।

हमारी शुभकामनाएं पंकज जी और झारखंड के तमाम लोकतांत्रिक संस्कृतिकर्मियों के लिए।

Monday, October 29, 2007

मीडिया में मां का रेट

ए के पंकज कौन हैं, मैं नहीं जानता। इससे फर्क भी क्या पड़ता है। हम तमाम लोग एक दूसरे को कितना जानते हैं। पंकज को पढ़िए, आप उन्हें जान जाएंगे। उन्होंने ये कविता बिना किसी भूमिका या निर्देश के, मुझे भेजी। उनकी इजाजत से अब आपके हवाले है।

माँ को हक है
कि वह अपनी संतान को
कहीं भी डांटे
चाहे वह अखबार हो
टीवी हो
या उसका अपना ही आँचल

बहुत बड़े होने पर भी हम
करते हैं ढेर सारी गलतियाँ
सोच समझ कर भी
बिना सोचे समझे भी

माँ डांटती है
ज़िंदगी को गढ़ने के लिये
किसी और मां के आँचल को
महफूज रखने के लिए
वह सनसनी नही ढूँढती
न ही वह करती है तहलका (बोल्ड पंकज जी का किया हुआ है)

उसे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं
कि मीडिया में मां का क्या रेट चल रहा है
न ही उसे इस सलीम-जावेदी
डायलाग कि जरुरत है - मेरे पास मां है
तुम्हारे पास क्या है?

बहुत समझदार बेटे माँ को
बाज़ार में उतार देते हैं
नासमझ बेटे जिंदगी भर
मां की डांट खाते हैं।

A. K. Pankaj
Email: akpankaj@gmail.com

Sunday, October 28, 2007

रिजेक्ट और सेलेक्ट मे अंतर का एक और आधार

मालंच

साथियो, रिजेक्ट माल अब मैं नियमित देखता हूँ. अधिकतर चीजें इसकी मुझे पसंद भी आती हैं. कुमार विनोद की कवितायें शानदार थीं. अनिल सिंह और दिलीप मंडल मे आपसी संबंध कैसे हैं, उनमे कोई निजी खुन्नस है या नही, मुझे नही पता (उलझन इसीलिए भी हुयी क्योंकि उस बारे मे दोनों के दावे अलग-अलग हैं), मगर इसमे दो राय नही कि निजी खुन्नस की बात पहले निकाली अनिलजी ने, वह भी दिलीपजी की टिप्पणी के जवाब मे. जबकि दिलीपजी की टिप्पणी मे सारे सरोकार सार्वजनिक थे.
अगर और किसी आधार पर नही तो इसी आधार पर अनिलजी का पक्ष हल्का साबित हो जाता है. अमूमन हम एक बात पूरी हुए बगैर दूसरी बात पर जाने को मजबूर तभी होते हैं जब उस पहली बात पर अपने को कमजोर पाते हैं. वैसे सच यह है कि अनिल जी वैचारिक ही नही भावनात्मक दृष्टि से भी कच्चे निकले. वरना आलोचना का तार्किक जवाब देने के बदले बिफरते हुए यह न कहते कि निजी खुन्नस निकालना हो तो अपने रिजेक्ट माल पर निकालिए. मोहल्ला सिर्फ आपका नही सबका है, मेरा भी है.

यह तो वैसी ही बात हुयी जैसे कोई बच्चा क्रिकेट मे आउट हो जाने पर बौलर को धमकाने लगे कि बैट तो मेरा है बौल भी मेरा है तुम मुझे आउट कैसे कर सकते हो? अगर रिजेक्ट माल दिलीप का है तो क्या वे उस पर कुछ भी अतार्किक बात लिख सकते हैं? और लिखने के बाद विरोध से बचे भी रह सकते हैं? अगर ऐसा ही है तो फिर ब्लौग की ज़रूरत ही क्या है? सब अपने-अपने घरों मे कागज़ काले करते रहें!


बहरहाल, इस विवाद मे उलझने का मेरा कोई इरादा नही है. मैं आप सबको यह बताना चाहता था कि रिजेक्ट माल ने रिजेक्ट और सेलेक्ट समूह की जो श्रेणी बनाई है वह मुझे बेहद सटीक लगती है. सचमुच रिजेक्ट समूह (यानी वे सब लोग जो अपनी आजीविका के लिए अपना श्रम बेचने को मजबूर हैं) और सेलेक्ट समूह (यानी वे सब लोग जो लाभ कमाने के मकसद से दूसरों का श्रम खरीदते हैं) के बीच हितों का सीधा टकराव है. जो एक के हित मे है वह दूसरे के खिलाफ पड़ता है और जो दूसरे के हित मे है वह पहले के प्रतिकूल पड़ता है. सच पूछें तो जाति, धर्म, लिंग आदि के सारे विभाजन सेकंडरी हैं. सबसे तगडा और सबसे प्रभावी विभाजन यही है.


बावजूद इसके, यह विभाजन कई बार हमे उलझन मे डाल देता है. बडे-बडे ऑफिसर, बड़ी कंपनियों मे ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोग, फिल्मी सितारे आदि हैं तो रिजेक्ट समूह के ही, मगर किसी भी कोण से नही दिखते. बल्कि वे खुद भी शायद ही अपने को रिजेक्ट समूह का माने. फिर आखिर हम किस बिना पर उन्हें रिजेक्ट समूह का मानते रहें? और अगर हम माने भी रहें तो उनकी बातें तो सेलेक्ट समूह जैसी ही होती हैं. इसी रिजेक्ट माल पर किसी मित्र की टिप्पणी आई थी कि हड़ताल के संबंध मे हमे बरगलाने की कोशिश हमारे समूह के ही लोग करते हैं? सवाल यह है कि हम ऐसे लोगों को अपने समूह मे रखे रहें तो उससे किसका फायदा होगा? क्या उनकी बातों से हम और हमारे लोग ही गुमराह नही होंगे?


यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि मेरे मन मे रिजेक्ट और सेलेक्ट समूह की पहचान का एक और आधार आया है. क्यों न सबसे, यानी जिस किसी इकाई (गाँव, जिला, राज्य, देश या फिर विश्व) को माने उसके सभी सदस्यों से एक सवाल पूछा जाये. वह यह कि क्या ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि हर इंसान की छह प्राथमिक जरूरतें बिना शर्त पूरे हो -
१) भोजन
२) वस्त्र
३) आवास
४) शिक्षा
५) स्वास्थ्य और
६) मनोरंजन
जो भी इस सवाल का जवाब हाँ में दे उसे रिजेक्ट समूह का माना जाये और जो इसके खिलाफ मत जाहिर करे उसे सेलेक्ट समूह का मान लिया जाये.
ऐसा करने का आधार यह है कि जो भी अपनी ज़रूरतों के आधार पर जिन्दगी बिताना चाहता है वह इसके लिए सहजता से तैयार हो जायेगा, लेकिन जो दूसरों की ज़िंदगी अपने नियंत्रण मे रखना चाहता है वह तत्काल इसके खिलाफ राय जाहिर करेगा. इतना ही नहीं जो दूसरों की ज़िंदगी नियंत्रित करने मे किसी शक्तिशाली की मदद करते हैं और इसी मे अपने आपको धन्य मानते हैं वे भी इस प्रस्ताव का विरोध करेंगे और सहज ही सेलेक्ट समूह मे शामिल हो जायेंगे. इसी प्रकार चाय की दुकान चलाने, पान का ठेला लगाने, साईकिल का पंक्चर बनाने वाले या इन जैसे अनेक लोग रिजेक्ट समूह जैसी हालत मे रहते हुए भी तकनीकी रूप से सेलेक्ट समूह का हिस्सा मान लिए जाते है. अगर ऊपर बताये आधार को माना जाये तो ये भी अपनी-अपनी प्रवृत्तियों के हिसाब से बिना किसी कठिनाई के सेलेक्ट या रिजेक्ट समूह मे शामिल किये जा सकते हैं.
बहरहाल, यह एक प्रस्ताव है. मैं इस पर आप लोगों की राय जानना चाहता हूँ. अगर यह प्रस्ताव किसी लायक लगे तो इसके पक्ष या विपक्ष मे तर्क सहित अपनी बात जरूर रखें.

Friday, October 19, 2007

कवितायें कुमार विनोद की

( कुमार विनोद कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के गणित विभाग में रीडर हैं. सहकर्मी राजीव रंजन के सौजन्य से उनकी कुछ कवितायें हाथ लगीं. इनसे गुजरना बड़ा सुकूनदाई अनुभव रहा. ये कविताएं उनके सद्यःप्रकाशित संकलन 'कविता ख़त्म नही होती' मे हैं. मन-मस्तिष्क को उद्वेलित ह्रदय को झंकृत करने वाली इन कविताओं को रिजेक्ट माल के पाठकों से बांटने का लोभ संवरण करना हमारे लिए संभव नही हुआ. प्रस्तुत हैं कुछ खास पंक्तियाँ - प्रणव)

बच्चा - एक

बच्चा सच्ची बात लिखेगा
जीवन है सौगात, लिखेगा

जब वो अपनी पर आएगा
मरुथल मे बरसात लिखेगा

उसकी आंखों मे जुगनू है
सारी-सारी रात लिखेगा

नन्हें हाथों को लिखने दो
बदलेंगे हालात, लिखेगा

उसके सहने की सीमा है
मत भूलो, प्रतिघात लिखेगा

बिना प्यार की खुशबू वाली
रोटी को खैरात लिखेगा

जा उसके सीने से लग जा
वो तेरे जज्बात लिखेगा



बच्चा - २

सब आंखों का तारा बच्चा
सूरज चाँद सितारा बच्चा

सूरदास की लकुटि-कमरिया
मीरा का इकतारा बच्चा

कल-कल करता हर पल बहता
दरिया की जलधारा बच्चा

जग से जीत भले न पाए
खुद से कब है हारा बच्चा

जब भी मुश्किल वक्त पड़ेगा
देगा हमे सहारा बच्चा


गूंगे जब सच बोलेंगे

सब सिंहासन डोलेंगे
गूंगे जब सच बोलेंगे

सूरज को भी छू लेंगे
पंछी जब पर तोलेंगे

अब के माँ से मिलते ही
आँचल मे छिप रो लेंगे

कल छुट्टी है, अच्छा है
बच्चे जी भर सो लेंगे

हमने उड़ना सीख लिया
नये आसमां खोलेंगे


आदमी तनहा हुआ

हर तरफ है भीड़ फिर भी आदमी तनहा हुआ
गुमशुदा का एक विज्ञापन-सा हर चेहरा हुआ

सैल घड़ी का दर हकीकत कुछ दिनो से ख़त्म था
और मैं नादां ये समझा वक्त है ठहरा हुआ

चेहरों पे मुस्कान जैसे पानी का हो बुलबुला
पर दिलों मे दर्द जाने कब से है ठहरा हुआ

आसमां की छत पे जाकर चंद तारे तोड़ दूं
दिल ज़माने भर की बातों से मेरा उखडा हुआ

तुम उठो, हम भी उठें और साथ मिल कर सब चलें
रुख हवाओं का मिलेगा एकदम बदला हुआ


अपने हिस्से का सूरज

जीवन है इक दौड़ सभी हम भाग रहे हैं
बिस्तर पे काँटों के हम सब जाग रहे हैं

कागज़ की धरती पर जो बन फूल खिलेंगे
वही शब्द सीनों मे बन कर आग रहे हैं

हर कोई पा ले अपने हिस्से का सूरज
कहाँ सभी के इतने अच्छे भाग रहे हैं

वो जीवन मे सुख पा लेते भी तो कैसे
जिनको ड़सते इच्छाओं के नाग रहे हैं

रंगों से नाता ही मानो टूट गया हो
अपने जावन मे ऐसे भी फाग रहे हैं


डर


सपने मे
बरसात हुयी

भीगने से
बचने की खातिर
दौडा फिरा मैं
मारा-मारा

हुआ पसीने से तर-ब-तर
और
सच मे भीग गया सारा




सतरंगी सपनों की दुनिया

सब कुछ होते हुए भी थोडी बेचैनी है
शायद मुझमे इच्छाओं की एक नदी है

कहीं पे भी जब कोई बच्चा मुस्काया है
फूलों के संग तितली भी तो खूब हंसी है

गर्माहट काफूर हो गयी है रिश्तों से
रगों मे जैसे शायद कोई बर्फ जमी है

सतरंगी सपनो की दुनिया मे तुम आकर
जब भी मुझको छू लेती हो ग़ज़ल हुयी है

(kumar vinod - 09416137196)

Thursday, October 18, 2007

सबेरा

स्तुति रानी

संभल जाओ कि सफ़र लंबा है

एक छोटा पत्थर दे सकता है

जख्म गहरा

गिरा सकता है तुम्हें मुँह के बल

उठ कर खडा भर हो जाना काफी नहीं होगा,

क्योंकि तुम्हें तो अभी जाना है चीर कर कुहासा

वहाँ तक जहाँ से खींच लानी है

वह रोशनी जो दूर कर सके

दीपक तले का अँधेरा

तब जाकर होगा तुम्हारा सबेरा

Saturday, October 13, 2007

क्यों खास हैं मायावती!

प्रणव प्रियदर्शी

संप्रग सरकार गिरते-गिरते बची. श्रेय लेने वाले यों तो बहुत हैं, लेकिन जो एक नाम सबसे आगे नज़र आता है, वह है मायावती. ११ अक्टूबर को जब सरकार और वाम दलों के बीच तनाव चरम पर था और दोनो पक्ष आर-पार की लडाई का मन बना चुके थे, तभी वामपंथियों के बग़ैर सरकार का चलना सुनिश्चित करने के इरादे से संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी के एक करीबी सलाहकार ने मायावती से सम्पर्क किया. मायावती ने उनसे तो सीधी बात नही ही की, सतीश मिश्रा के जरिये आये कांग्रेसी प्रस्ताव को भी इन शब्दों मे ठुकराया कि कोई भी सोच मे पड़ जाये.

सब जानते हैं कि मायावती राजनीति जानती हैं. इसीलिये इस अत्यधिक रूखे व्यवहार के पीछे छिपे राजनीतिक संदेश को समझने मे कोई चूक कांग्रेसी घाघों ने नहीं की. जो कुछ कसर बाकी रह गयी थी वह मायावती की विशाल रैली ने पूरी कर दीं. लखनऊ मे हुयी इस रैली मे क़रीब दस लाख लोग आये थे. वहाँ मायावती ने अपने आक्रामक भाषण से पूरे राजनीतिक जगत को आवश्यक संदेश दे दिया.
मायावती का संदेश सोनिया तक साफ-साफ पहुंच चुका था. लालू और शरद पवार जैसे सहयोगियों ने सोनिया को उसका मतलब भी समझा दिया. इसी का नतीजा था कि अगले ही दिन सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह दोनो ने कह दिया कि परमाणु समझौते के मुद्दे पर सरकार नही गिरने दीं जायेगी.

सवाल यह है कि आखिर क्या चीज है जो मायावती को अन्य सभी समकालीन नेताओं से अलग खडा कर देती है? कारक अनेक हो सकते हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारक है अपने समर्थक समूह से उनका जीवंत वैचारिक-भावनात्मक जुड़ाव. यही जुड़ाव उन्हें दुस्साहसिक माने जाने वाले राजनीतिक फैसलों तक आसानी से पहुंचने की ताक़त देता है. यह जुड़ाव ही था जिसके बल पर कान्शी राम अन्य तमाम पिछड़े नेताओं के विपरीत आरक्षण की मांग का विरोध कर सके और अपने समर्थकों को यह बात समझा सके कि उन्हें आरक्षण लेने की नही, देने की बात सोचनी चाहिए.

यही वजह है कि जहाँ मुलायम सिंह अपने मतदाताओं से यह अपील करते हैं कि मुझे जिताइये वरना विरोधी जेल भिजवाने की तैयारी किये बैठे हैं, वहीं मायावती मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देकर विरोधियों को चुनौती देती दिखती हैं कि हिम्मत हो तो जेल भिजवा दें.

अपने समर्थक समूहों से ऐसा जीवंत जुड़ाव जिस नेता का भी रहा उसने पद, प्रभाव और सत्ता के जुड़ाव को ख़त्म कर दिया. पद हो या ना हो प्रभाव उसका हमेशा रहा. इस रूप मे उसकी सत्ता भी बरकरार रही. कभी लालू प्रसाद भी अपने समर्थक समूहों से ऐसा ही जुड़ाव रखते थे, लेकिन धीरे- धीरे वे सत्ता की गलियों मे रम गए. उन्हें समर्थकों से मिलने वाली ताक़त पर उतना भरोसा नही रहा जितना सरकार से मिलने वाली ताक़त पर. इसीलिये चारा घोटाला मे जेल जाने से पहले इस्तीफ़ा देने मे उनकी जान सूखने लगी. मजबूर होकर उन्होने पद छोडा भी तो पत्नी राबरी देवी को अपनी जगह बैठा कर ही.

साफ है कि इस कोण से मायावती समकालीन सभी नेताओं से विशिष्ट हैं. यही वजह है कि अन्य नेता जहाँ सुलह-समझौते कर, दुरभिसंधियां कर आगे बढते नज़र आते हैं, वहीं मायावती टकराव मोल लेती हैं और हर टकराव के बाद ज्यादा ताकतवर होकर उभरती हैं. टकराव मोल लेने की यही क्षमता उन्हें नीतिगत सवालों पर भी 'रैडिकल' फैसले लेने लायक बनाती हैं.

हालांकि मायावती के संभावित 'रैडिकल' फैसलों से भी ज्यादा उम्मीद रखना व्यर्थ है. इनका जो भी महत्व है वह तुलनात्मक संदर्भों मे ही है. मगर, मौजूदा राजनीति से हम इससे ज्यादा उम्मीद नही रख सकते. अगर इससे ज्यादा व्यापक, दूरगामी और मूलभूत बदलाव चाहिए तो लोगों की सर्वथा नयी गोलबंदी से उपजा एक नया आन्दोलन ही खडा करना पड़ेगा.

Sunday, October 7, 2007

नादानों के लिए नही होता लोकतंत्र

पुनीत

शीर्ष अदालत के बंद संबन्धी हालिया निर्देश के बाद एक बार फिर यह बात जोर देकर कही जाने लगी है कि बंद का समर्थन करने वाले स्वार्थी और विकास विरोधी हैं. इनकी बातों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए. बंद और हड़ताल आज की तारीख मे बेकार ही नही हानिकारक साबित हो चुके हैं. जापान का उदाहरण सामने है. वहाँ हड़ताल नही होती. जब विरोध करना होता है तो कर्मचारी काली पट्टी लगा कर काम करते हैं. आखिर हड़ताल के दौरान जो राष्ट्रीय क्षति होती है उसका क्या?

वैसे तो पहला सवाल यही किया जा सकता है कि जिस देश मे किसानो की आत्महत्याएँ कृषि नीति मे कोई बदलाव न ला पा रही हो उस देश मे काली पट्टी भला क्या कर लेगी, लेकिन ऐसे निरर्थक तर्कों मे उलझने का कोई मतलब नही. ऐसे तर्क देने वालों की मंशा को समझना ज्यादा जरूरी है.

ध्यान देंगे तो साफ होते देर नही लगेगी कि ऐसे तमाम लोग वही हैं जो अच्छे संस्थानों मे ऊंचे पदों पर बैठे हैं. इन तर्को के जरिये वे असल मे अपने आकाओं को यह संदेश देना चाहते है कि वे उनके हितों की रक्षा मे पूरी मुस्तैदी से तैनात हैं. मूलतः यह तर्क सेलेक्ट समूह (यानी वह समूह जो मुनाफा कमाने के लिए दूसरों का श्रम खरीदता है) का है जिसे रेजेक्ट समूह (यानी वह समूह जो अपनी आजीविका के लिए श्रम बेचता है) पर लादने का काम ये लोग करते हैं जो तकनीकी रूप से तो रेजेक्ट समूह के होते हैं लेकिन मन, मस्तिष्क और विचारों से खुद को सेलेक्ट का हिस्सा मानते हैं. ऐसे लोगों की असलियत को पहचानना आज की सबसे बड़ी जरूरत है.

अगर रेजेक्ट और सेलेक्ट समूहों की बात छोड कर लोकतंत्र की बात की जाये तब भी यह सवाल तो सामने आता ही है कि बंद या हड़ताल से जनता को परेशानी होने की बात का क्या मतलब है? बंद, हड़ताल आदि का आह्वान करने वाले या उसमे शिरकत करने वाले लोग क्या मंगल ग्रह के प्राणी होते हैं? वे भी तो इसी जनता का हिस्सा होते हैं. अगर स्कूल शिक्षक हड़ताल करें तो बैंक कर्मी, आटो चालक, विद्युत कर्मी आदि तमाम लोग परेशान होने वाली जनता होते हैं. जब बैंक वाले हड़ताल पर हो तो स्कूल शिक्षक जनता का हिस्सा हो जाते हैं. ऐसे मे इन तबकों को साझा मांगें तैयार कर सामूहिक रूप से आन्दोलन मे उतरने की बात सोचनी चाहिए. यह आज की जरूरत भी है.

लेकिन जब तक ऐसा नही होता तब तक जनता के विभिन्न हिस्सों को आपस मे लडाने वालो का मकसद क्या होगा यह समझने मे भी हमे देर नही करनी चाहिए.

निश्चित रूप से हमे लोकतंत्र और अदालतों का सम्मान करना चाहिए. लेकिन अदालत के नाम पर कोई अपना एजेंडा हम पर लादने की कोशिश करे और हम उस कोशिश को सफल हो जाने दें इतना नादान होना भी अच्छा नहीं.

Thursday, October 4, 2007

ब्लॉगर्स पर पहरा: बकरे की अम्मा (यानी हम भारतीय ब्लॉगर्स) कब तक खैर मनाएगी

-दिलीप मंडल

बर्मा यानी म्यांमार में सरकार ने इंटरनेट कनेक्शन बंद कर दिए हैंइससे पहले वहां की सबसे बड़ी और सरकारीइंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर कंपनी बागान साइबरटेक ने इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड इतनी कम कर दी थी कि फोटोअपलोड और डाउनलोड करना नामुमकिन हो गयासाथ ही साइबर कैफे बंद करा दिए गए हैंबर्मा के ब्लॉग केबारे में ये खबर जरूर देखें- Myanmar's blogs of bloodshed

बर्मा में फौजी तानाशाही को विभत्स चेहरा अगर दुनियाके सामने पाया तो इसका श्रेय वहां के ब्लॉगर्स को हीजाता हैवहां की खबरें, दमन की तस्वीरें बर्मा के ब्लॉगर्सके जरिए ही हम तक पहुंचींबर्मा में एक फीसदी से भीकम आबादी की इंटरनेट तक पहुंच हैफिर भी ऐसे समयमें जब संचार के बाकी माध्यम या तो सरकारी कब्जे में हैंया फिर किसी किसी तरह से उन्हें चुप करा दिया गयाहै, तब बर्मा के ब्लॉगर्स ने सूचना महामार्ग पर अपनीदमदार मौजूदगी दर्ज कराईअमेरिका में युद्ध विरोधीआंदोलन के बाद ब्लॉग का विश्व राजनीति में ये शायदसबसे बड़ा हस्तक्षेप हैब्लॉग की लोकतांत्रिक क्षमता कोइन घटनाओं ने साबित किया है

लेकिन भारतीय ब्लॉगर्स के लिए भी क्या इन घटनाओं काकोई मतलब है? आप अपने लिए इसका जो भी मतलबनिकालें उससे पहले कृपया इन तथ्यों पर विचार कर लें

-जिस समय बर्मा में दमन चल रहा है, उसी दौरान भारत के पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा बर्मा का दौरा कर आएहैंभारत को बर्मा का नैचुरल गैस चाहिएइसके लिए अगर विश्व स्तर पर थू-थू झेलनी पड़े तो इसकी परवाहकिसे हैफिर चीन को भी तो बर्मी नैचुरल गैस चाहिए
-भारत सरकार सिर्फ बर्मा के सैनिक शासन को मान्यता देता है और उससे व्यापारिक और राजनयिक संबंधरखता है, बल्कि इन संबंधों को और मजबूत भी करना चाहता है
-भारत में सुचना प्रवाह पर पहरे लगाने के कई प्रयोग हो चुके हैंइमरजेंसी उसमें सबसे बदनाम हैलेकिनइमरजेंसी के बगैर भी बोलने और अपनी बात औरों तक पहुंचाने की आजादी पर कई बार नियंत्रण लगाने कीसफल और असफल कोशिश हो चुकी है
-इसके लिए एक कानून बनने ही वाला हैसरकार वैसे भी केबल एक्ट के तहत चैनल को बैन करने का अधिकारअपने हाथ में ले चुकी है और इसका इस्तेमाल करने लगी है
-पसंद आने वाली किताब से लेकर पेंटिंग और फिल्मों तक को लोगों तक पहुंचने देने से रोकने में कांग्रेस औरबीजेपी दोनों किसी से कम नहीं हैलोकतंत्र दोनों के स्वभाव में नहीं है

और बात ब्लॉग की

-अभी शायद भारतीय ब्लॉग की ताकत इतनी नहीं बन पाई है कि सरकार का ध्यान इस ओर जाए
-ब्लॉग के कंटेट में भी गपशप ज्यादा और प्रतिरोध का स्वर कम हैहम इस मामले में बर्मा के ब्लॉगर्स से पीछे हैं
-ब्लॉग पर सेंसर लगाने का कानूनी अधिकार सरकार के पास हैइसके लिए उसे कोई नया कानून नहीं बनानाहोगा
-आईपी एड्रेस के जरिए ब्लॉगर तक पहुंचने का तरीका हमारी पुलिस जानती है

इसलिए ब्लॉगिंग करते समय इस गलतफहमी में रहें कि किसे परवाह हैअगर आप परवाह करने लायक लिखरहे हैं तो परवाह करने वाले मौजूद हैंऔर फिर जो लोग आजादी की कीमत नहीं जानते वो अपनी आजादी खो देनेके लिए अभिशप्त होते हैं

Custom Search