प्रणव प्रियदर्शी
संप्रग सरकार गिरते-गिरते बची. श्रेय लेने वाले यों तो बहुत हैं, लेकिन जो एक नाम सबसे आगे नज़र आता है, वह है मायावती. ११ अक्टूबर को जब सरकार और वाम दलों के बीच तनाव चरम पर था और दोनो पक्ष आर-पार की लडाई का मन बना चुके थे, तभी वामपंथियों के बग़ैर सरकार का चलना सुनिश्चित करने के इरादे से संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी के एक करीबी सलाहकार ने मायावती से सम्पर्क किया. मायावती ने उनसे तो सीधी बात नही ही की, सतीश मिश्रा के जरिये आये कांग्रेसी प्रस्ताव को भी इन शब्दों मे ठुकराया कि कोई भी सोच मे पड़ जाये.
सब जानते हैं कि मायावती राजनीति जानती हैं. इसीलिये इस अत्यधिक रूखे व्यवहार के पीछे छिपे राजनीतिक संदेश को समझने मे कोई चूक कांग्रेसी घाघों ने नहीं की. जो कुछ कसर बाकी रह गयी थी वह मायावती की विशाल रैली ने पूरी कर दीं. लखनऊ मे हुयी इस रैली मे क़रीब दस लाख लोग आये थे. वहाँ मायावती ने अपने आक्रामक भाषण से पूरे राजनीतिक जगत को आवश्यक संदेश दे दिया.
मायावती का संदेश सोनिया तक साफ-साफ पहुंच चुका था. लालू और शरद पवार जैसे सहयोगियों ने सोनिया को उसका मतलब भी समझा दिया. इसी का नतीजा था कि अगले ही दिन सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह दोनो ने कह दिया कि परमाणु समझौते के मुद्दे पर सरकार नही गिरने दीं जायेगी.
सवाल यह है कि आखिर क्या चीज है जो मायावती को अन्य सभी समकालीन नेताओं से अलग खडा कर देती है? कारक अनेक हो सकते हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारक है अपने समर्थक समूह से उनका जीवंत वैचारिक-भावनात्मक जुड़ाव. यही जुड़ाव उन्हें दुस्साहसिक माने जाने वाले राजनीतिक फैसलों तक आसानी से पहुंचने की ताक़त देता है. यह जुड़ाव ही था जिसके बल पर कान्शी राम अन्य तमाम पिछड़े नेताओं के विपरीत आरक्षण की मांग का विरोध कर सके और अपने समर्थकों को यह बात समझा सके कि उन्हें आरक्षण लेने की नही, देने की बात सोचनी चाहिए.
यही वजह है कि जहाँ मुलायम सिंह अपने मतदाताओं से यह अपील करते हैं कि मुझे जिताइये वरना विरोधी जेल भिजवाने की तैयारी किये बैठे हैं, वहीं मायावती मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देकर विरोधियों को चुनौती देती दिखती हैं कि हिम्मत हो तो जेल भिजवा दें.
अपने समर्थक समूहों से ऐसा जीवंत जुड़ाव जिस नेता का भी रहा उसने पद, प्रभाव और सत्ता के जुड़ाव को ख़त्म कर दिया. पद हो या ना हो प्रभाव उसका हमेशा रहा. इस रूप मे उसकी सत्ता भी बरकरार रही. कभी लालू प्रसाद भी अपने समर्थक समूहों से ऐसा ही जुड़ाव रखते थे, लेकिन धीरे- धीरे वे सत्ता की गलियों मे रम गए. उन्हें समर्थकों से मिलने वाली ताक़त पर उतना भरोसा नही रहा जितना सरकार से मिलने वाली ताक़त पर. इसीलिये चारा घोटाला मे जेल जाने से पहले इस्तीफ़ा देने मे उनकी जान सूखने लगी. मजबूर होकर उन्होने पद छोडा भी तो पत्नी राबरी देवी को अपनी जगह बैठा कर ही.
साफ है कि इस कोण से मायावती समकालीन सभी नेताओं से विशिष्ट हैं. यही वजह है कि अन्य नेता जहाँ सुलह-समझौते कर, दुरभिसंधियां कर आगे बढते नज़र आते हैं, वहीं मायावती टकराव मोल लेती हैं और हर टकराव के बाद ज्यादा ताकतवर होकर उभरती हैं. टकराव मोल लेने की यही क्षमता उन्हें नीतिगत सवालों पर भी 'रैडिकल' फैसले लेने लायक बनाती हैं.
हालांकि मायावती के संभावित 'रैडिकल' फैसलों से भी ज्यादा उम्मीद रखना व्यर्थ है. इनका जो भी महत्व है वह तुलनात्मक संदर्भों मे ही है. मगर, मौजूदा राजनीति से हम इससे ज्यादा उम्मीद नही रख सकते. अगर इससे ज्यादा व्यापक, दूरगामी और मूलभूत बदलाव चाहिए तो लोगों की सर्वथा नयी गोलबंदी से उपजा एक नया आन्दोलन ही खडा करना पड़ेगा.
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1 comment:
यही वजह है कि न्यूजवीक ने अपने नए इश्यू में उन्हें उन आठ महिलाओं में शामिल किय है जो बेहद प्रतिकूल हालात में भी शिखर तक पहुंचने में कामयाब हुई,,,,
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