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Tuesday, June 1, 2010

जनगणना: ओबीसी की गिनती से असहमति

दिलीप मंडल

हर दशक
में एक बार होने वाली जनगणना के लेकर इस समय देश में भारी विवाद चल रहा है। विवाद के मूल में है जाति का प्रश्न। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही इस बात की मांग उठने लगी थी कि देश में जाति आधारित जनगणना कराई जाए, ताकि किसी समुदाय के लिए विशेष अवसर और योजनाओं को लागू करने का वस्तुगत आधार और आंकड़े मौजूद हों। इसके बावजूद 2001 की जनगणना बिना इस प्रश्न को हल किए संपन्न हो गई। लेकिन इस बार यानी 2011 की जनगणना में जाति की गिनती को लेकर राजनीतिक हलके में भारी दबाव बन गया है और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की बातों को सरकार का पक्ष मानें तो सरकार इस बार जाति आधारित जनगणना कराएगी।

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी और प्रतिनिधि संस्था लोकसभा में जातीय जनगणना के पक्ष में विशाल बहुमत है और इसे लगभग आम राय कहा जा सकता है। कांग्रेस, बीजेपी, वामपंथी दल और ज्यादातर क्षेत्रीय दलों ने जाति आधारित जनगणना का समर्थन किया है। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सदन को बताया कि सरकार सदन की भावना से अवगत है और जल्द ही इस बारे में फैसला किया जाएगा और फैसला करते समय सदन की भावना का ध्यान रखा जाए। प्रणव मुखर्जी का बयान इसके बाद 8 मई को आया। लोकसभा में बहुमत की भावना और मनमोहन सिंह तथा प्रणव मुखर्जी की इन घोषणाओं के बाद इस मसले पर संशय खत्म हो जाना चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एक ओर तो जातिगत जनगणना के विरोधी अपने तर्कों के साथ मैदान में डटे हुए हैं तो दूसरी ओर एक पक्ष ऐसा भी है, जो जातिगत जनगणना की जगह सिर्फ ओबीसी की गणना का छोटा रास्ता अपनाने की वकालत कर रहा है।
सबसे पहले तो इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या ओबीसी गणना, जाति आधारित व्यापक जनगणना का विकल्प है। ओबीसी गणना के पक्षधरों की ओर से जो तर्क दिए जा रहे हैं, उनमें कोई भी ये नहीं कह रहा है कि जाति आधारित जनगणना की तुलना में ओबीसी की गणना बेहतर विकल्प है। ओबीसी गणना के समर्थकों का तर्क है कि इस समय सरकार ओबीसी गणना से ज्यादा कुछ कराने को तैयार नहीं होगी और जातिगत जनगणना की मांग करने से ओबीसी गणना का काम भी फंस जाएगा। ये तर्क अपने आप में बेहद खोखला है। सरकार ने अब तक कहीं नहीं कहा है कि वह ओबीसी गणना कराना चाहती है। उस पर जो दबाव बना है, वह जाति आधारित जनगणना के लिए है न कि ओबीसी गणना के लिए। ओबीसी गणना सरकारी तंत्र में एक विचार के तौर पर किसी स्तर पर मौजूद हो सकती है, लेकिन इसकी कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है।

ओबीसी गणना के समर्थकों का दूसरा तर्क यह है कि इस गिनती से भी वह लक्ष्य हासिल हो जाएगा, जिसे जाति आधारित जनगणना से हासिल करने की कोशिश की जा रही है। उनका तर्क है कि कुल आबादी से दलित, आदिवासी और ओबीसी आबादी के आंकड़ों को निकाल दें तो इस देश में “हिंदू अन्य” यानी सवर्णों की आबादी का पता चल जाएगा। साथ ही ये तर्क भी दिया जा रहा है कि सवर्णों के लिए तो इस देश में सरकारें किसी तरह का विशेष अवसर नहीं देतीं इसलिए अलग अलग सवर्ण जातियों के आंकड़े इकट्ठा करने से क्या हासिल होगा। इन दोनों तर्कों में दिक्कत ये है कि इसमें वास्तविकता का अनदेखी की जा रही है। इस देश में जो भी व्यक्ति जनगणना के दौरान खुद को दलित, आदिवासी या ओबीसी नहीं लिखवाएगा, वे सारे लोग सवर्ण होंगे, यह अपने आप में ही अवैज्ञानिक विचार है। इस आधार पर कोई व्यक्ति अगर खुद को जाति से ऊपर मानता है और जाति नहीं लिखाता, तो भी जनगणना में उसे सवर्ण (हिंदू अन्य) गिना जाएगा।

ऐसा करने से आंकड़ों में वैसी ही गड़बडी़ होगी, जैसे कि इस देश में हिंदुओं की संख्या के मामले में होती है। जनगणना में जो भी व्यक्ति अल्पसंख्यक की श्रेणी में दर्ज छह धर्मों में से किसी एक में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे हिंदू मान लिया जाता है। यानी कोई व्यक्ति अगर आदिवासी है और अल्पसंख्यक श्रेणी के किसी धर्म में अपना नाम नहीं लिखाता, तो जनगणना कर्मचारी उसके आगे "हिंदू" लिख देता है। इस देश के लगभग 8 करोड़ आदिवासी जो न वर्ण व्यवस्था मानते हैं, न पुनर्जन्म और न हिंदू देवी-देवता, उन्हें इसी तरह हिंदू गिना जाता रहा है। उसी तरह अगर कोई व्यक्ति किसी भी धर्म को नहीं मानता, तो भी जनगणना की दृष्टि में वह हिंदू है। अगर जातिगत जनगणना की जगह दलित, आदिवासी और ओबीसी की ही गणना हुई तो किसी भी वजह से जो "हिंदू" व्यक्ति इन तीन श्रेणियों में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे जनसंख्या फॉर्म के हिसाब से "हिंदू अन्य" की श्रेणी में डाल दिया जाएगा। इसका नतीजा हमें "हिंदू अन्य" श्रेणी की बढ़ी हुई संख्या की शक्ल में देखने को मिल सकता है। अगर "हिंदू अन्य" का मतलब सवर्ण लगाया जाए तो पूरी जनगणना का आधार ही गलत हो जाएगा।

साथ ही अगर जनगणना फॉर्म में तीन श्रेणियों आदिवासी, दलित और ओबीसी और अन्य की श्रेणी रखी जाती है, तो चौथी श्रेणी सवर्ण रखने में क्या समस्या है? अमेरिकी जनगणना में भी तमाम श्रेणियों की गिनती के साथ श्वेत लोगों की भी गिनती की जाती है। प्रश्न ये है कि भारत में कुछ लोग इस बात से क्यों भयभीत हैं कि सवर्णों की गिनती हो जाएगी? तमाम बौद्धिक आवरण के बावजूद जनगणना में ओबीसी गणना का विचार भारतीय समाज में वर्चस्ववादी मॉडल को बनाए रखने की इच्छा से संचालित है।

अब बात करते हैं उनकी जो जातिगत जनगणना के हर रूप का विरोध करते हैं और चाहते हैं कि आजादी के बाद जिस तरह से जनगणना होती आई है, उसी रूप में ये आगे भी जारी रहे। इस विचार के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह है कि जातिगत जनगणना कराने से समाज में जातिवाद बढ़ेगा। यह एक विचित्र तर्क है। इस तर्क का विस्तार यह होगा कि धर्मों के आधार पर लोगों की गिनती करने से सांप्रदायिकता बढ़ेगी। या फिर अमेरिका या यूरोपीय देशों में नस्ल के आधार पर जनगणना कराने से नस्लवाद बढ़ेगा।

जाति और जाति भेद भारतीय सामाजिक जीवन की सच्चाई है, इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता। राजनीति से लेकर शादी-ब्याह के फैसलों में जाति अक्सर निर्णायक पहलू के तौर पर मौजूद है। ऐसे समाज में जाति की गिनती को लेकर भय क्यों है? जाति भेद कम करने और आगे चलकर उसे समाप्त करने की पहली शर्त यही है कि इसकी हकीकत को स्वीकार किया जाए और जातीय विषमता कम करने के उपाय किए जाएं। जातिगत जनगणना जाति भेद के पहलुओं को समझने का प्रामाणिक उपकरण साबित हो सकती है। इस वजह से भी आवश्यक है कि जाति के आधार पर जनगणना कराई जाए।

जातीय जनगणना और ओबीसी की गिनती का विरोध करने वालों का दूसरा तर्क है कि इस मांग के पीछे राजनीति है और ओबीसी नेता संख्या बल के आधार पर अपनी राजनीति मजबूत करना चाहते हैं। इस आधार पर जातिगत आरक्षण का विरोध करना अलोकतांत्रिक है। लोकतंत्र में राजनीति करना कोई अपराध नहीं है और संख्या बल के आधार पर कोई अगर राजनीति में आगे बढ़ता है या ऐसा करने की कोशिश करता है, तो इस पर किसी को एतराज क्यों होना चाहिए? लोकतंत्र में फैसले अगर संख्या के आधार पर नहीं होंगे, तो फिर किस आधार पर होंगे?

जनगणना प्रक्रिया में यथास्थिति के समर्थकों का एक तर्क ये भी है कि ओबीसी जाति के लोगों को अपनी संख्या गिनवाकर क्या मिलने वाला है। उनके मुताबिक ओबीसी की राजनीति के क्षेत्र में बिना आरक्षण के ही अच्छी स्थिति है। मंडल कमीशन के बाद सरकारी नौकरियों में उन्हें 27 फीसदी आरक्षण हासिल है और अर्जुन सिंह की पहल के बाद केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में भी उन्हें आरक्षण मिल गया है। अब वे आखिर और क्या हासिल करना चाहते हैं, जिसके लिए जातीय जनगणना की जाए? उनकी तो ये भी सलाह है कि ऐसा न करें, क्योंकि हो सकता है कि ओबीसी की वास्तविक संख्या उतनी न हो, जितनी अब तक सभी मानते आए हैं।

ये तर्क को सिर के बल खड़ा करने का मामला है। अगर ओबीसी की संख्या अब तक की मान्यताओं से कम हो सकती है, तो ये अपने आप में पर्याप्त वजह है जिसके आधार पर जातिगत जनगणना की जानी चाहिए। अगर देश की कुल आबादी में ओबसी की संख्या 27 फीसदी से कम है, तो उन्हें नौकरियों और शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण क्यों दिया जाना चाहिए? यूथ फॉर इक्वैलिटी जैसे संगठनों और समर्थक बुद्धिजीवियों को तो इस आधार पर जाति आधारित जनगणना का समर्थन करना चाहिए!

वैसे यह रोचक है कि जातिगत जनगणना का विरोध करने वाले वही लोग हैं जो पहले नौकरियों में आरक्षण का विरोध कर रहे थे, बाद में जिन्होंने शिक्षा में आरक्षण का विरोध किया। ये विचारक इसी निरंतरता में महिला आरक्षण का समर्थन करते हैं। जाति के प्रश्न ने राजनीतिक विचारधारा के बंधनों को लांघ लिया है। जाति के सवाल पर वंचितों के हितों के खिलाफ खड़े होने वाले कुछ भी हो सकते हैं, वे घनघोर सांप्रदायिक से लेकर घनघोर वामपंथी और समाजवादी हो सकते हैं। जाति संस्था की रक्षा का वृहत्तर दायित्व इनके बीच एकता का बिंदु है। लोकतंत्र की बात करने के बावजूद ये समूह संख्या बल से घबराता है।

लेकिन लोकतंत्र की ताकत के आगे बौद्धिक विमर्श का जोर नहीं चलता। अगर बौद्धिक विमर्श से देश चल रहा होता तो नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण कभी लागू नहीं होता। बौद्धिक चर्चाओं से राजनीति चल रही होती तो महिला आरक्षण विधेयक कब का पास हो चुका होता। जाहिर है लोकतंत्र में जनता की और संख्या की ताकत के आगे किसी का जोर नहीं चलता। इस देश में अगर जातीय जनगणना हुई तो वह भी राजनीतिक दबाव में ही कराई जाएगी। बौद्धिकों के हिस्से घटित होने वाले और घटित हो गए घटनाक्रम के विश्लेषण का ही काम आएगा। इस देश में जातीय जनगणना के पक्ष में माहौल बन चुका है। किसी में ये साहस नहीं है कि इस सवाल पर देश में जनमत सर्वेक्षण करा ले। वैसे भी संसदीय लोकतंत्र में लोकसभा की भावना को देश की भावना माना गया है। यह साबित हो चुका है कि इस देश की लोकसभा में बहुमत जाति आधारित जनगणना के पक्ष में है। ये एकमात्र तथ्य जातीय जनगणना के तमाम तर्कों को खारिज करता है।
(यह आलेख 1 जून के जनसत्ता में छपा है।)
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