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Wednesday, December 17, 2008

इतिहास के पन्नों के लिए

कमलेश पांडे 'पुष्प'

(कमलेश दिल्ली से प्रकाशित समाचार पत्रिका 'सीनियर इंडिया' से जुड़े हैं। पिछले दिनों मुंबई में हुए भीषण आतंकी हमले ने आम जनों की तरह संवेदनशील पत्रकारों को भी विचलित किया। कमलेश भी उन पत्रकारों में हैं। उनकी ये पंक्तियाँ इस बात की गवाह हैं। आप भी देखें इन्हें)


मुझे याद है
ब्लैक बोर्ड पर लिखे
कैलाश मास्टर के
क ख ग घ
जिसे मैं
गाँव की प्राइमरी पाठशाला की
सीलन भरी जमीन पर बैठ
लकड़ी की pattiyon पर
मुश्किलों से लिखना
सीख पाया था।
तब मुझे नही मालूम था
वही क ख ग घ
मेरी जिंदगी में
आगे चल कर
कत्ल, खुखरी, गोली और घाव
शब्द उकेरेंगे
और मैं इन शब्दों को / अपने ही लोगों की लाशों के बीच बैठ कर
खडिया और स्याही के बजाय
अपने गाढे रक्त से लिखूंगा
इतिहास के पन्नों के लिए

Saturday, December 6, 2008

टोलफ्री टेरर हेल्पलाइन नंबर है 1090

अगर कहीं कोई संदिग्ध वस्तु दिखे तो हम आम तौर पर पुलिस को 100 नंबर पर फोन करते हैं। लेकिन इससे भी प्रभावी जगह अपनी आशंका को पहुंचाना हो, ताकि आतंकवाद की किसी संभावित घटना के खिलाफ सटीक कार्रवाई हो सके तो ऑल इंडिया टेरर हेल्पलाइन नंबर पर फोन करना ज्यादा कारगर होगा।

ऑल इंडिया टोल फ्री टेरर हेल्पलाइन नंबर है- 1090। खास बात यह है कि देश में हर जगह यह नंबर कारगर है। इस पर मोबाइल से भी फोन किया जा सकता है। खास बात यह है कि इसमें फोन करने वाले की पहचान छुपाने की भी व्यवस्था है।

अगर कहीं भी, कभी भी आपको आतंकी गतिविधि का अंदेशा हो तो इस नंबर '1090' पर तत्काल फोन करें। स्थानीय पुलिस या टेरर स्क्वाड तक खबर पहुंच जाएगी। क्या पता एक फोन भर से कोई संभावित बुरी घटना टल जाए!

Sunday, November 30, 2008

WELCOME LAPPY! उर्फ अथ लैपटॉप क्रय कथा

मेरी सखी सुरेखा कई साल दिल्ली में बिताकर आखिर अपने शहर हैदराबाद लौट गई। उसका दोस्ताना और बिंदास अंदाज़ सबको उसका मित्र बनने का न्यौता सा देता है जिसे नजर-अंदाज करना आसान नहीं।

तो, सुरेखा ने हाल ही अपनी महीनों पुरानी मुराद पूरी कर ही ली- एक लैपटॉप खरीद कर। दरअसल दिल्ली में तो बिना कुछ किए भी इंसान व्यस्त रहा आता है। तिस पर तफरीह के हजार बहाने, मौके, और जगहें। सो, हैदराबाद जाने पर उसके पास खूब फुर्सत रहने लगी तो उसने और मित्र-मंडली ने उसके लिए एक पुस्तक लिखने का काम मुकर्रर कर दिया। तो जनाब, जैसा कि सरकार में चलन है, पहले सरंजाम तो हो फिर काम के बारे में कुछ सोचा जाए। तो इसी सोच के तहत भविष्य में किताब लिखने के लिए आज लैपटॉप तो होना ही चाहिए था, जो कि अब उसके पास हो गया है। अब उसके इंस्टॉलेशन की दिलचस्प कहानी जब उसने मुझे भेजी तो आपके साथ क्यों न साझा करती। शायद इस मौके पर सुरेखा में आपको खुद की या अपने आस-पास के लोगों की झलक दिख जाए!


hey guys
I was hit between the eyes by technology today! to elaborate..... almost in kiddish glee i announce that i bought a DELL Inspiron! Ofcourse my great friends kiran aka kins,sunny,nilu,shayku,mandy, sam, emani,ramakanth and sripriya already know about it. but for the rest i am announcing now. am pretty thrilled with this lean mean machine!

The dearest lappy came on karthika pournami but the internet connection was slated for 2day. So the friendly neighbourhood beam cable wallah came in Ayyappa swamy black wraparound! My frends in delhi wont know this attire but i shall spare you the details.

When he brought in another wire from so many wires coming into my house(seriously these crisscrossing wires spoil the beauty of the landscape or whatever is left of it!!!) when he tried to type in my user name which has @ in it, hold your breath!!!!! when he held shift and pressed 2 he got inverted comma!!!!! my new [appy was not typin @!!! he said madam call DELL. I said whaaaaaaaaaaat? call dell? i havent even used the bludy lappy and i have to call them for troubleshooting?

Guys i was totally cheesed off finally i cald the customer carel(less) bloke and that is when technology hit me right between my eyes! My problem was solved in no time! on telephone and online! (no shady repair guy with a shady briefcase required!!) All my frends know that as far as computer savvyness is concerned I am still a neanderthal so i was mighty impressed when this guy asked me on phone what my problem was and gave me a set of instructions ( our interaction was like a kindergartener(me) and a PhD in Software & Hardware (him) and logged on to my system and asked me to relax for five minutes!

i cud see him working on my system. he went to control panel and then keyboard and then in a giffy he asked me to type @ and it worked! things were set right. shift 2 was @! when i sed it was ok aquestionnaire appeared about customer satisfaction or dissatisfaction and i filled it and he requested if he can let go now? i enjoyed this tech advance so much that i actually look forward to future trubleshooting!!!!!

For most of you this might not seem like the technological marvel of the century but ifor a dinosaur like me it was.

Thanks for reading this lambaaaaa story guys!

yours forever
tyrannosaurus

Thursday, November 27, 2008

शोक/आक्रोश


य़ह आक्रोश, विरोध और दुख का चित्र है। कल/आज की मुंबई की और पिछली तमाम ऐसी घटनाओं के खिलाफ। इस चित्र को अपने ब्लॉग पोस्ट मे भी डालें और साथ दें । इस एक दिन हम सब हिन्दी ब्लॉग पर अपना सम्मिलित आक्रोश व्यक्त करें।

Friday, November 21, 2008

कौन है रिजेक्ट समूह का 'अपना' उम्मीदवार

मालंच

पहले एक सूचना जो आप तक नही पहुँची होगी। उम्मीदवारों की भीड़ के बीच दिल्ली में दो ऐसे उम्मीदवार हैं जो सबसे अलग हैं। तुगलकाबाद निर्वाचन क्षेत्र से एक नौजवान बिरजू नायक और ओखला निर्वाचन क्षेत्र से संतोष कुमार चुनाव लड़ रहे हैं। यों तो ऐसी बातों की सूची बहुत लम्बी है जिन वजहों से ये दोनों बाकी उम्मीदवारों से अलग हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि दोनों लोकराज समिति की तरफ़ से चुने गए जन उम्मीदवार हैं। जन उम्मीदवार का मतलब यह कि लोकराज समिति की तरफ़ से आयोजित जनसभाओं के बीच से उनका नाम सामने आया। यह उम्मीदवार चुनने की एकदम नयी पद्धति है जो लोकराज समिति ने शुरू की है। ये दोनों उम्मीदवार जनता की उम्मीदों पर खरे न उतरने की स्थिति में जनता द्वारा वापस बुला लिए जाने के लिए ख़ुद तो तैयार हैं ही पूरे देश के स्तर पर जनता को यह अधिकार देने की भी वकालत कर रहे हैं।

बहरहाल, उम्मीदवारों की कमी नही है। सभी उम्मीदवार हमारे दरवाजे तक पहुँच भी रहे हैं।वे सब हमारा होने का दावा करते हैं और हमारे ही लिए जीने-मरने की क़समें भी खा रहे हैं। ऐसे में हम लोगों के सामने यह समस्या खड़ी हो गयी है कि हम कैसे तय करें कि इनमे कौन हमारा सच्चा हितैषी है। इनमे से कोई है भी या नही। ख़ास तौर पर रिजेक्ट समूह के सामने उलझन कुछ ज्यादा बड़ी है, क्योंकि आजादी के बाद से हर चुनाव के बाद वह छला गया महसूस करता रहा है। इसीलिये हम यहाँ इसी सवाल पर विचार कर रहे हैं कि हम रिजेक्ट समूह के लोग कैसे तय करें कि तमाम प्रत्याशियों में हमारी बात करने वाला, हमारे मुद्दे उठाने वाला कौन है। इसके लिए जरूरी है कि हम यह देखें कि आज के हालात में हमारे मुद्दे क्या हैं, हमारी ज़रूरतें क्या हैं। डालते हैं एक नज़र उन प्रमुख मुद्दों पर :

छंटनी के प्रावधान पर रोक लगे:
मंदी के मौजूदा माहौल में देश की मेहनतकश आबादी के सर पर जो सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है, जिसकी वजह से उसकी रातों की नींद हराम हो गयी है, वह है छंटनी का डर। तमाम कंपनियों के मालिकान घाटे का रोना रोते हुए मनचाहे ढंग से कर्मचारियों की संख्या कम करने पर तुले हैं। सरकार भी कर्मचारियों की ज़िन्दगी और उनके भविष्य से अधिक महत्व कंपनियों के प्रॉफिट को दे रही है। ऐसे में साफ़ है कि चुनाव तक तो सरकार छंटनी न करने के 'अनुरोध' का दिखावा करती रहेगी, पर उसके बाद कर्मचारियों को उनके भाग्य पर छोड़ कर सरकार उद्योगपतियों के साथ खड़ी हो जायेगी। ऐसे में रिजेक्ट समूह की ज़रूरत यह है कि छंटनी के प्रावधानों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी जाए।

ठेका नौकरी पर पाबन्दी लगे: ठेका नौकरी का चलन बहुत तेजी से बढाया जा रहा है। स्थाई नौकरी वालों को भी ठेके पर लाया जा रहा है। कारण यह है कि कंपनियों के लिए यह अच्छा है। लेकिन कर्मचारियों के बड़े हिस्से का जीवन ठेका नौकरी के कारण अनिश्चितताओं से घिर जाता है। वे कभी भी नौकरी छूटने के डर से आशंकित रहते हैं। इसीलिये रिजेक्ट समूह की जरूरत यह है कि देश में ठेका नौकरी पर पूरी तरह रोक लगाते हुए सभी कर्मचारियों को स्थाई किया जाए।

काम के घंटे कम किए जाएँ:
देश की मेहनतकश आबादी और बेरोजगार आबादी की ज़रूरत यह है कि काम के घंटे कम किए जाएँ ताकि पूरे देश में श्रम करने लायक सभी लोगों को काम मिले और जिन्हें काम मिला हुआ है उन्हें सुकून का जीवन मिले। तकनीकी विकास की मौजूदा अवस्था को देखते हुए चार घंटे का कार्य दिवस पूरे देश में लागू करने की जरूरत है।

वेतन निर्धारण पारिवारिक ज़रूरत के अनुरूप हो: संगठित क्षेत्र हो या असंगठित, मजदूरों का वेतन और अन्य सुविधाएं एक पूरे परिवार की ज़रूरतों और सामाजिक विकास की मौजूदा अवस्था के अनुरूप आवश्यक सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए तय किए जाएँ। आज न्यूनतम वेतन सिर्फ़ एक व्यक्ति की ज़रूरत भी ढंग से पूरी नही कर सकता। लिहाजा मजदूर की पत्नी को और उसके बच्चों को भी श्रम के बाजार में खड़ा होना पड़ता है।

एकाधिकारी दाम पर प्रतिबन्ध लगे: महंगाई की मार से परेशान लोगों के लिए जरूरी है कि एकाधिकारी दाम पर तत्काल प्रभाव से रोक लगे।

निजी स्कूलों पर रोक लगे:
रिजेक्ट समूह के लिए जरूरी है देश में तरह-तरह के स्कूलों पर रोक लगे। आज देश में हर तरह के स्कूल मौजूद हैं। जितना पैसा दो वैसा स्कूल लो। लगता है जैसे यह स्कूल देश की भावी पीढी तैयार करने के बदले 'बड़े' और 'प्रभावशाली' लोगों के बच्चों की नेटवर्किंग का केन्द्र बन गए हैं। इन पर पूरी तरह रोक लगा कर पूरे देश में एक ही तरह के स्कूल कायम करने की ज़रूरत है, ताकि बच्चों में बचपन से भेदभाव के बीज न पड़ जाएँ।

खेती को कम खर्चीला बनाएं:
छोटे और मझोले किसानों के सभी कर्ज माफ कर के उन्हें बिजली, पानी, बीज, खाद आदि मुफ्त में मुहैया कराया जाए ताकि वे अपने पारिवारिक श्रम के जरिये खेती करके अपना पालन-पोषण कर सकें।

ऐसे और भी अनेक मुद्दे हैं। लेकिन फिलहाल इतना ही। हम रिजेक्ट समूह के लोग देख सकते हैं कि जो प्रत्याशी हमारे पास पहुँच रहे हैं उनमे से कितने ऐसे हैं जो इन सवालों को उठा रहे हैं। जो उठाते हैं उनका इन मुद्दों पर क्या कहना है। जो हमारी जरूरत के मुताबिक इन मांगों का समर्थन करते हैं और इन्हे पूरा करने की बात करते हैं उनसे हम पूछ सकते हैं, बल्कि हमें पूछना चाहिए कि अगर इन मुद्दों पर उन्होंने सोचा है तो वे बताये कि ये मांगें वे कैसे पूरी करेंगे। इन मांगों को पूरा करने में कैसी बाधाएं आएंगी और वे उन बाधाओं को कैसे पार करेंगे। जो इन सवालों के जवाब से हमे संतुष्ट कर दे वही हमारा यानी रिजेक्ट समूह का असली हितैषी है। जो नहीं करता...उसके बारे में कुछ कहना जरूरी नहीं।

Thursday, November 13, 2008

आइए स्वागत करें नादिन गॉर्डिमर का


नादिन गॉर्डिमर दक्षिण अफ्रीका की श्वेत साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने साहित्य और सामाजिक क्षेत्र में काम के जरिए रंगभेद की मुखालफत की है। आश्चर्य नहीं कि उनके 14 में से ज्यादातर उपन्यास कम या ज्यादा समय के लिए गुलाम द. अफ्रीका में प्रतिबंधित रहे, कोई 10 साल तो कोई 12 साल तक।

खास खबर यह है कि नोबेल पुरस्कार पाने वाली यह साहित्यकार और राजनीतिक कार्यकर्ता दो दिन के भारत दौरे पर हैं। आज दिल्ली और कल मुंबई में वे रहेंगी। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, भारत सरकार की नोबेल विजेता व्याख्यान श्रृंखला की दूसरी कड़ी के रूप में वे भारत आई हैं।

20 नवंबर 1923 को जन्मी गॉर्डिमर को औपचारिक शिक्षा नहीं के बराबर मिली। जोहानेसबर्ग की स्थानीय लाइब्रेरी ही उनकी शिक्षण संस्था थी। इसीलिए वे कहती हैं कि अगर उनकी चमड़ी का रंग काला होता तो वे साहित्यकार नहीं बन पातीं, क्योंकि उस लाइब्रेरी में अश्वेतों के आने की मनाही थी।

गॉर्डिमर ने 1998 में ब्रिटेन के ऑरेंज ब्रॉडबैंड साहित्य पुरस्कार के लिए शार्टलिस्ट होने से भी मना कर दिया क्योंकि यह पुरस्कार सिर्फ महिलाओं के लिए है। और गॉर्डिमर का मानना है कि महिलाओं को अलग खंड में , अलग स्तर पर रखने से उनकी बेहतरी नहीं हो सकती। इसके लिए उन्हें पुरुषों के साथ बराबरी की प्रतियोगिता का मौका मिलना चाहिए। एक बाग नहीं, एक खेत नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे!

आइए अपने देश में स्वागत करें इस विलक्षण, जुझारू, अगले हफ्ते 85 की होने जा रही नोबेल विजेता साहित्यकार, एड्स कार्यकर्ता (खास बात ये है कि इस एकमात्र मोर्चे पर वे दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति मबेकी की विरोधी हैं), राजनीतिक विचारक नादिन गॉर्डिमर का।

Wednesday, October 22, 2008

मुख्यमंत्री लाख मना करें, महिलाएं तो निकलेंगी। अपनी सुरक्षा के कुछ टिप्स


बेंगलूरु में फिरौती के लिए उस महिला के अपहरण की घटना और सौम्या विश्वनाथन की हत्या जैसी घटनाओं के बीच देश की राजधानी और दूसरे शहरों की भी महिलाओं में अपनी सुरक्षा को लेकर चिंता की स्थिति और फिर राज्य की महिला मुख्यमंत्री का यह कहना कि "Driving at 3 AM alone in a city, which people believe is not very safe for women after dark...one should not be adventurous". इसके बाद अब सरकार की ओर से भी किसी पुख्ता कदम की उम्मीद नहीं की जा सकती।

ऐसे में, और वैसे भी जरूरी है कि हम अपनी सुरक्षा आप करने की पहल करें। अपराधों के खिलाफ कुछ अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के सुरक्षा टिप्स के कुछ पॊइंट्स हम सब जानें, समझें और अमल में लाने की कोशिश करें। आखिर अपनी सुरक्षा की सबसे पहली जिम्मेदारी खुद की है।


पैदल चलते समय-


हमेशा सतर्क रहें। अपने आस-पास के लोगों, माहौल के बारे में सजग और चौकन्ने रहें, खास तौर पर अंधेरी, संकरी जगहों पर।

जहां तक हो सके, अंधेरी जगहों में न जाएं, रौशनी वाले इलाके में ही रहें।

हो सके तो पतली गलियों से न गुज़रें, चौड़े, खुले और आबादी वाले रास्तों से जाएं।

झाड़ियों, पगडंडियों, दरवाजों के पीछे कोई छुपा हो सकता है, इसलिए इनसे से दूर हट कर चलें।

पूरे आत्मविश्वास के साथ एक-समान चाल से चलें।

आस-पास चल रहे लोगों से नज़रें चुराने की कोशिश न करें। सहज रहें।

रास्ते में अजनबियों से बातचीत के जवाब में रुकें नहीं, चलते रहें।

दौड़ो! अगर कोई गले पड़ ही जाए तो विपरीत दिशा में दौड़ें। इससे हमारे आस-पास के लोग सजग हो जाएंगे और हमें मदद मिल पाएगी।

शोर मचाएं! खतरे की आशंका को भांपते ही ज्यादातर जानवर शोर मचाने लगते हैं। हम भी अपनी इस मूल प्रवृत्ति को जागृत करें और खतरे में औरों से मदद मांगें।

बस में यात्रा करते समय-

किसी खाली बस स्टॊप पर रहने से बचें।

बस के आने तक सड़क के एकदम किनारे पर खड़े होने से बचें।

सहयात्रियों के प्रति सतर्क रहें। एकदम खाली बस में चढ़ने के पहले दोबारा सोचें।

सहयात्री परेशान करे तो सीट बदल लें और ड्राइवर/कंडक्टर को बताएं।

खाली बस में जहां तक हो सके ड्राइवर के नज़दीक वाली सीट पर बैठें।

ताई कोन डो- हमारी कुहनी शरीर का सबसे मज़बूत हिस्सा है। दुश्मन ज्यादा करीब हो तो इसका इस्तेमाल करें।

अगर वह दो फुट की दूरी पर हो तो ताई कोन डो की एक और चाल है- अपने पैर के एड़ी से अंगुलियों तक के फ्लैट हिस्से से सामने वाले की टांगों के बीच नीचे से ऊपर की ओर जम कर आघात करें। अगला कितना भी मज़बूत हो, डगमगाएगा जरूर। तब तक हमें बचने का समय मिल जाएगा।

कार में-

कार में बैठने के बाद और उसे छोड़ते समय दरवाजों को अच्छी तरह बंद करके लॊक करें।

अच्छी रौशनी वाले इलाके में पार्क करें, कोने-किनारों में पार्किंग से बचें, खास तौर पर शाम और रात को।

पार्किंग स्थल में आने के पहले ही कार की चाबियां हाथ में रखें ताकि वहां ज्य़ादा समय न गुजारना पड़े।

कार में चढ़ने के बाद सबसे पहले दरवाजों को लॊक करें फिर ही उसका गियर लॊक आदि खोल कर चलने की कार्रवाई करें।

कइयों को आदत होती है- खरीददारी के बाद कार में बैठ कर सारे सामान, बिल और पैसों का हिसाब-किताब करने की। यह काम कार के दरवाजों को लॊक करने के बाद ही करें। बेहतर है, घर जा कर करें। हो सकता है कोई ताक में बैठा हो। उसके लिए तो यह सुनहरी अवसर होगा!

कार के अंदर आने के पहले देख कर सुनिश्चित कर लें कि पीछे और ड्राइवर के बगल की सीट पर कोई बैठा तो नहीं।

अगर आपकी कार के बगल में खड़े वाहन में संदेहास्पद पुरुष बैठा है तो सतर्क हो जाएं। चाहें तो वापस अपने दफ्तर/दुकान में जाएं और गार्ड/ पुलिस या किसी सहयोगी की मदद लें।

अगर लगे कि कोई आपकी कार का पीछा कर रहा है तो किसी सार्वजनिक स्थान, पुलिस थाने या फायर स्टेशन पर रुक जाएं।

औरतें फितरतन संवेदनशील होती हैं, पर रास्ते में अजनबी युवकों की खराब गाड़ी पर दया दिखाना भारी भी पड़ सकता है। रास्ते में किसी खराब हुए दोपहिया वाहनचालक की मदद के लिए वहां खुद न रुकें बल्कि मदद के लिए अपने सेल फोन से या पास के फोन बूथ से किसी को फोन करके बुलाएं।

Sunday, September 28, 2008

बेटियों के नाम

मैंने अपने को हमेशा एक वंचित बेटी समझा है जिसे पदार्थ के रूप में तो समृद्धि हमेशा मिली लेकिन भावनात्मक संतुष्टि की तलाश में परिवार के बाहर सहृदय लोगों का मुंह देखना पड़ा। इसमें मां की गलती नहीं है कि वे मुझे उम्र के उस बदलावों भरे तूफानी दौर में दिलासा नहीं दे पाईं, जिसकी मुझे सख्त जरूरत थी। दरअसल मां ने भी जो सीखा था, वही व्यवहार मेरे साथ किया। लेकिन आज की मांएं यह बेहतर समझती हैं कि अपनी बेटी को उस कठिन समय में संभालना, जानकारी देना, मजबूती देना और भरोसा दिलाना हर मां के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। अपनी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘इंद्रधनुष के पीछे-पीछे: एक कैंसर विजेता की डायरी’ के कुछ संबंधित हिस्से आपके साथ बांट रही हूं।

“मन के कोने में एक बात छुपी हुई है जिसे संकोच के परदे हटा कर बाहर लाने की पूरी कोशिश करती हूं- इस बात को कहने का यह, शायद जीवन का एकमात्र, मौका मैं खोना नहीं चाहती। मैं नहीं जानती, ऐसा कुछ मेरे जमाने में हर किशोर होती लड़की को सहना पड़ा होगा या नहीं। लेकिन मेरे दिलो-दिमाग में वे बातें गहरी खुदी हुई हैं। अच्छा लगता है आज की किशोरियों की मांओं यानी अपनी पीढ़ी की परिचित औरतों को अपनी बेटियों के सामान्य विकास की परवाह करता देख कर।

मैं उस समय चौदह साल की थी और अपने आप से ही जूझ रही थी- शरीर और मन के बदलावों से। लगता था सारी दुनिया की नज़रें मुझ पर हैं। हर जगह, हर समय बंदिश है, कुछ अपने संकोच की, कुछ मां की हिदायतों की। मन करता था, किसी ऐसी जगह जा कर रहा जाए जहां मन-मुताबिक हाथों-पैरों और दिलो-दिमाग को पूरी तरह ढीला छोड़कर कुछ देर जिया जा सके। छातियों के बढ़ने के दर्द को सहा पर कभी किसी से कह नहीं पाई। मां ने कभी इन सब विषयों पर बात नहीं की। मुझसे बड़ी एक बहन भी थी, लेकिन कभी खयाल नहीं आया कि उससे ही कुछ पूछा जाए। उस स्तर पर उससे कभी बातचीत ही नहीं होती थी। मां ने कभी बात तो नहीं की लेकिन कभी शाम को कॉलोनी की ही सहेलियों के घर से लौटने में देरी हो तो ताने जरूर दिए- लाज-शर्म नहीं है। और जबाव मेरी आवेश भरी आंखों में होता था- हां, तो मैं क्या करूं। इसमें मेरी क्या गलती है। और एक बार नहीं, अनेक बार मैंने मनाया कि मैं लड़की रहूं भी तो इन छातियों के साथ नहीं। उन्हें छुपाने की कोशिश में कसी हुई शमीज पहनने से लेकर स्कर्ट या मिडी में टक-इन की हुई शर्ट को ढीला रखते हुए उसके नीचे पहनी शमीज़ को खींच-खींच कर रखने जैसे न जाने कितने उपाय किए लेकिन उनका आकार नहीं घटा, बल्कि बढ़ता ही गया।...

...लेकिन स्तन क्या इतने ही अवांछनीय और शर्मिंदगी का विषय हैं कि उनके बारे में चर्चा भी सहज होकर न की जा सके? दरअसल यह बात मुझे काफी देर हो जाने के बाद समझ में आई कि ये शर्मिंदगी का विषय तब हैं, जब छोटी-छोटी अनभिज्ञताओं की वजह से नवजात शिशु दूध न पी पाए। समय पर उनका वास्तविक इस्तेमाल न हो पाए।

समान कपड़ों और बालों वाले समूह में स्त्री-पुरुष की पहचान करनी हो तो नजर सबसे पहले सीने की तरफ जाती है। यह स्त्रीत्व का बाहरी निशान है। मेडिकल तथ्य यह है कि इसका आकार-प्रकार बच्चे को दूध पिलाने का अपना मकसद पूरा करने में आड़े नहीं आता। लेकिन पुरुष प्रधान समाज में इसे ही स्त्रीत्व मान लिया जाता है।

एक तरफ तो बार्बी डॉल जैसे अवास्तविक आदर्श हैं और मर्लिन मुनरो जैसी फैंटसी, जिनसे बराबरी की भावना समाज बचपन से ही हमारे मन में लगातार भरता रहता है। और इसी लक्ष्य को पाने की कोशिश में हम कभी अपने शरीर के इस हिस्से को जैसा है, उसी रूप में स्वीकार नहीं कर पातीं। उसमें हमेशा कमी-बेशी नजर आती है। हमें हमेशा याद दिलाया जाता है कि यही हमारे नारीत्व का केंद्र है और इसे आदर्श रूप में रखना है।

दूसरी तरफ हमें उसी पर शर्मिंदा होना भी सिखाया जाता है। शो बिजनेस से जुड़ी औरतें शरीर के इस हिस्से का प्रदर्शन कर सकती हैं। लेकिन सामान्य ' भद्र' महिला से उम्मीद की जाती है कि वह लोगों के बीच इसे ठीक ढंग से ढक-छुपा कर रखे। 'प्लेबॉय' और 'कॉस्मोपॉलिटन' के कवर पेज पर इस प्रदर्शन का स्वागत है लेकिन आम औरत का सार्वजनिक रूप से इस तरह के गैर-इरादतन व्यवहार का अंश मात्र भी निंदनीय और दंडनीय है।...

...स्तन कैंसर के शुरुआती लक्षण भी उन्हीं दिनों उभर रहे थे। अगर मैं इस बारे में जानती होती या डॉक्टर ध्यान देते तो सब समझा जा सकता था। अब (कैंसर के बारे में) इतना कुछ पढ़ने-जानने के बाद साफ-साफ एक ही दिशा (स्तन में कैंसर होने) की ओर इशारा करती उन घटनाओं का सिलसिला जोड़ने में कोई कठिनाई नहीं होती।“

Thursday, September 25, 2008

शिमला में है लड़कियों का पहला कॉलेज, सौ साल पुराना ये कॉलेज क्या बंद हो जाएगा?


देश का पहला लड़कियों का कॉलेज सेंट बीड्’स, जल्दी ही बंद हो जाएगा। राष्ट्रीय बालिका दिवस पर ये खबर आई है। 1904 में बने शिमला के इस कॉलेज के प्रशासन ने सरकार से कहा है कि अगर उन्हें मिल रही आर्थिक मदद को बढ़ाया नहीं गया तो कॉलेज बंद करना ही होगा। कॉलेज बंदी की योजना बनने भी लगी है। दरअसल इस साल मार्च में सरकार ने एक नियम बना कर निजी कॉलेजों को मदद 95 फीसदी से घटा कर 50 फीसदी कर दी।

प्रिंसिपल मौली अब्राहम का कहना है कि फीस बढ़ा कर पैसे की तंगी को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। लेकिन हम लड़कियों को सस्ती शिक्षा के अपने मकसद से हटना नहीं चाहते। 1970 से कॉलेज की फीस 70 रुपए प्रतिमाह तय है।दिल्ली के प्रतिष्ठित जीजस एंड मैरी का सहयोगी संस्थान सेंट बीड्’स राज्य का एकमात्र कॉलेज है जिसे एन ए ए सी का ए प्लस का दर्जा मिला हुआ है।

दिलचस्प बात ये है कि 1967 में जब दिल्ली में नया जीजस एंड मैरी कॉलेज बना तो यह तय हुआ कि शिमला के इस कॉलेज को बंद कर दिया जाए। तब हिमाचल सरकार और स्थानीय लोगों के कहने पर इसे बंद करने का पैसला टाल दिया गया। डाक विभाग ने संस्थान के 100 साल होने पर डाक टिकट भी जारी किया है।

इस कॉलेज से जुड़ी कुछ मशहूर हस्तियां हैं- हिमाचल की पहली महिला आई पी एस अधिकारी सतवंत अटवाल त्रिवेदी, पहली महिला हिमाचल पुलिस अधिकारी पुनीता कुमार, मिस इंडिया अंजना कुथलिया, फिल्मी हस्ती प्रिटी ज़िंटा।

Tuesday, September 16, 2008

बच्चों की देखभाल के लिए दो साल की छुट्टी

सरकारी दफ्तरों में काम करने वाली महिलाओं के लिए अच्छी खबर है। पता नहीं क्यों, अखबारों ने इन्हें खास तवज्जो नहीं दी, लेकिन है यह काम की खबर।

अब महिलाओं को अब साढ़े चार के बजाए छह महीने की मैटरनिटी लीव मिलेगी। उससे भी ज्यादा दिलचस्प और खुशी की बात है कि उन्हें अपने बच्चों के पालन के लिए अलग से दो साल की सवेतन छुट्टी मिलेगी और इसे वे किसी भी समय, टुकड़ों में भी, ले सकती हैं। शर्त बस ये है कि बच्चे/बच्चों की उम्र 18 साल से ज्यादा न हुई हो। उन्हें इस छुट्टी के दौरान तनख्वाह तो मिलती रहेगी ही, उनकी सीनियॉरिटी भी बनी रहेगी। यह पहली सितंबर से लागू है।

अब कोई इसे चुनावी हथकंडा कहे, पर सरकारी कामकाजी महिलाओं के लिए काफी सुविधा हो गई है। इसका मतलब यह है कि वे बच्चों की परीक्षा के समय उन्हें पढ़ाने, हारी-बीमारी में देखभाल, उसे किसी हॉबी आदि के अभ्यास या ट्रेनिंग, प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए शहर से बाहर ले जाने या घर में बच्चे की किसी और जरूरत के लिए भी छुट्टी ले सकती हैं।

उम्मीद करें कि केंद्र सरकार के इस नियम को और दफ्तरों में भी लागू किया जाएगा।

Thursday, September 11, 2008

यह था मॉनसून

अरिंदम बारह साल के हैं। आज अचानक उन्हें यह अहसास हुआ कि वे तो आशुकवि हैं! फिर क्या था, धड़ाधड़ कविताएँ रचने लगे। बाहर बारिश की झड़ी थी (दिल्ली की बात है ये) और उनकी कॉपी में कविताओं की। फिर एक कविता मॉनसून पर भी लिखी गई जो कि अब आपकी नज़र है। दाद जी खोल कर दीजिएगा, (अरिंदम की) उम्र का तकाज़ा है।

आसमां रो रहा था
बादल गुर्रा रहे थे
धरती नहा रही थी
यह था मॉनसून

बच्चे भीग रहे थे
फसलें उग रही थीं
चादर आसमां को ढक रही थी
यह था मॉनसून

Tuesday, August 12, 2008

महमूद दरवेश को आखिरी सलाम!


महमूद दरवेश का बीते शनिवार निधन हो गया। उनकी 67 साल की जिंदगी और पहाड़ से भारी मौत के बारे में हिंदी में कम छपा। वैसे अरबी भाषा के वो हाल के दशकों के सबसे चर्चित कवि रहे। उनके बारे में आप इस लिंक पर क्लिक करके जानकारी ले सकते हैं।

Saturday, July 26, 2008

कबाड़खाना मना रहा है इब्ने सफी बी.ए. का जन्मदिन

बोकारो स्टील सिटी में हमारे घर में पुरानी किताबों का एक कमरा हुआ करता था। दिनमान-धर्मयुग-इलस्ट्रेटेड विकली के बाइंड किए अंकों के बीच उस कमरे में वो किताबें भी थीं, जो हमारे पिताजी कभी पढ़ा करते थे। उसी कमरे में मेरा परिचय हुआ इब्ने सफी बी.ए. साहेब से।

उपमहाद्वीप में जासूसी उपन्यास लेखन के दिग्गज इब्ने सफी साहेब की आज जयंती है। उनका निधन भी इसी दिन हुआ था। अधपकी उम्र में मौत से पहले तक सफी साहेब लिखने में जुटे रहे। कबाड़खाना पहुंचें इस लिंक पर क्लिक करके

Wednesday, July 16, 2008

गंगा तट पर परंपरा से टकराती/जुगलबंदी करती आधुनिकता और कुछ अबूझ पहेली

पहाड़ों से दोस्ती है और गंगा से अपनापा है, सो साल में एक से ज्यादा बार गंगा दर्शन करने जरूर जाता हूं। पिछले दिनों भी गया था। हरिद्वार के पास राजाजी नेशनल पार्क के चिल्ला जीएमवीएन गेस्ट हाउस में एक बार फिर ठहरना हुआ। भीमागौड़ा बराज से इन दिनों पानी उफन रहा है, मानो गंगा को किसी बात से शिकायत है या फिर नाराजगी! कौन बताएगा? गंगा के गुस्से में शोर है, पर उसे शब्द कौन देगा। भाई राजेन टोडरिया जी का टिहरी विस्थापन पर उपन्यास जब आए, तो सबको पढना चाहिए।

बहरहाल इस बार की गंगा यात्रा में बाकी सबकुछ तो सामान्य ही था। गंगा का शीतल पानी, देश भर के लोगों को अद्भुत जमावड़ा। कहीं कहीं परंपरा से टकराती आधुनिकता और ज्यादातर मामलों में परंपरा और आधुनिकता की जुगलबंदी। गलबहियां डाले घूमती आधुनिकता और पंरपरा और हर बाबा के हाथ में मोबाइल। वक्त बदल रहा है और बहुत तेजी से बदल रहा है। कुछ तो समझ में आता है और बहुत सारा अबूझ रह जाता है। ऐसी ही एक अबूझ बात के बारे में आप सबका मार्गदर्शन चाहिए।

उस दिन (रविवार) हर की पैड़ी (पौड़ी कहने वाले कम नहीं हैं) में स्नान कर रहे हजारों पुरुषों के खाली बदन में से सिर्फ एक जनेऊधारी मुझे क्यों दिखा? कई घंटे तक वहां रहने के बाद में मुझे साफ दिख रहा था स्नान करने वालों में जनेऊ धारण करने वाले लोग नदारद हैं।

इसकी क्या व्याख्याएं हो सकती हैं।
क्या अवर्ण लोगों में आस्था के प्रति रुझान बढ़ा है?
क्या इस युग में आस्था और परंपरा के वाहक सवर्ण नहीं बल्कि अवर्ण हैं?
क्या आस्था का सवर्ण प्रभुत्व वाला व्यवसाय अवर्ण जनसमुदाय के बूते चल रहा है?
क्या अवर्ण लोगों के लिए ये समृद्धि का दौर है और तीर्थ यात्रा या तफरीह के लिए वो ज्यादा संख्या में घरों से बाहर निकल रहे हैं?
क्या आधुनिकता को अपनाने में सवर्ण आगे हैं और पुरानी परंपराओं का ढोने का जिम्मा अब अवर्णों का है।

सबसे पहले तो हरिद्वार का कोई पत्रकार/ब्लॉगर/साहित्यकार/फोटोग्राफर ये बताए कि जो मुझे दिखा वो तथ्य है या नजरों का फेर या वो है जो मैं देखना चाहता था। अगर तथ्य वो नहीं हैं जो उस खास दिन और खास घंटों में मुझे दिखा, तो फिर इस प्रकरण को बंद समझा जा सकता है। लेकिन अगर वो सच है तो समाज में कुछ तो बदल गया है और कुछ और है जो बदल रहा है। - दिलीप मंडल

Tuesday, July 8, 2008

मुमकिन है कैंसर के साथ जीना !

कैंसर का खौफ अब पहले से कम हो रहा है। कैंसर के बावजूद अब कई लोग उसी तरह लंबी जिंदगी जी रहे हैं जैसे कि हार्ट की बीमारी या डायबिटीज के मरीज जीते हैं। बीमारी का इलाज न हो तो भी उसका मैनेजमेंट कई बार मुमकिन हो पाता है। कैंसर का मतलब जीवन का अंत नहीं है, इस बात को रेखांकित करता एक लेख आज नवभारत टाइम्स के संपादकीय पन्ने पर मुख्य लेख के रूप में छपा है। लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

ये लेख आर अनुराधा ने लिखा है, जिनकी राजकमल-राधाकृष्ण से छपी किताब इंद्रधनुष के पीछे -पीछे, एक कैंसर विजेता की डायरी बेस्टसेलर रही है। अनुराधा के ब्लॉग का नाम है इंद्रधनुष

Monday, July 7, 2008

बंद करो ये तुष्टीकरण!

- दिलीप मंडल

कश्मीर से शुरू होकर इंदौर और देश के कई हिस्से में मचे फसाद के दौरान ये बात कहना खास तौर पर जरूरी है। आप न जानते हों, ऐसा भी नहीं है। पिछले दो दशक में देश की राजनीति में जिस एक शब्द का शायद सबसे ज्यादा गलत इस्तेमाल हुआ है वो है - तुष्टीकरण।

सारे तथ्य इस बात के खिलाफ हैं कि मुसलमानों पर देश की संपदा लुटाई जा रही है। कोई ये नहीं कहता कि मुसलमान देश के सबसे संपन्न समुदाय हैं। कोई ये भी नहीं कहता कि उन्हें सरकारी नौकरियों में या शिक्षा संस्थानों में या फौज में ज्यादा जगह मिल रही है। या कि बैंक लोन देते समय मुसलमानों का खास ख्याल रखते हैं। या कि पुलिस मुसलमानों पर मेहरबान होती है। बल्कि हालात उलट हैं। फिर भी बिना किसी हिचक के ये बात कह दी जाती है कि मुसलमानों का तुष्टीकरण हो रहा है ।

देश में मुसलमानों का तुष्टीकरण अगर हो रहा है तो बंद होना चाहिए। लोकतंत्र में हर किसी को आगे बढ़ने का समान हक मिलना चाहिए। धर्म के आधार पर अवसर में असमानता क्यों होनी चाहिए? लेकिन क्या देश में मुसलमानों की जो हालत है उसे देखकर, जानकर कोई भी ये कह सकता है कि उनका तुष्टीकरण हो रहा है। दरअसल भारत में तुष्टीकरण की बात इतनी बार और इतने तरीके से कही गई है और कही जा रही है कि कोई भी आदमी अगर वो बेहद चौकन्ना और सचेत नहीं है, तो ये मान बैठेगा कि मुसलमानों पर देश की संपदा लुटाई जा रही है।

आइए देखते हैं कि देश की संपदा में किसका कितना हिस्सा है। ये आंकड़े नेशनल सैंपल सर्वे यानी एनएसएसओ के हैं। ये संस्था भारत सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय के तहत काम करती है और सरकार चाहे कांग्रेस की हो या बीजेपी की या समाजवादी दलों की, इस संस्था के आंकड़े राजकाज से जुड़े फैसलों में निर्णायक महत्व के होते हैं। आंकड़ों को छोड़ भी दें तो इससे मिलती-जुलती तस्वीर आपको अपने शहर-कस्बों और गांवों में दिख जाएगी।

1. हिंदू (सवर्ण)

उच्च आय - 17.2%
मध्यम आय - 73.9
निम्न आय - 8.9%

2. हिंदू (एससी-एसटी)

उच्च आय - 6.3%
मध्यम आय - 65.1%
निम्न आय - 28.6%

3. हिंदू (ओबीसी)

उच्च आय - 1.5%
मध्यम आय - 72.6%
निम्न आय - 25.9%

4. मुसलमान(जनरल+ओबीसी)

उच्च आय - 4.2%
मध्यम आय - 65.0%
निम्न आय - 30.8%

इन आंकड़ों में गरीबी रेखा से नीचे यानी शहरी इलाकों में प्रति व्यक्ति 567 और ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति 361 रुपए की मासिक आमदनी से कम वालों को निम्न आय में रखा गया है। जबकि एक लाख रुपए से ज्यादा की आय वाले परिवारों को उच्च आय वाला माना गया है। एनएसएसओ परिवार का औसत आकार 5.59 मानता है। इस लिहाज से प्रति व्यक्ति उच्च आय की परिभाषा है शहरी इलाकों में प्रति माह 1491 रुपए और ग्रामीण इलाकों में 1368 रुपए। इन दोनों (निम्न और उच्च) आय वर्गों के बीच में जो भी है उसे मध्यम आय वाला माना गया है।)

इन आंकड़ों को आप जस्टिस रजिंदर सच्चर की रिपोर्ट के 381 नंबर पेज पर भी देख सकते हैं

Thursday, July 3, 2008

एक राजनीतिक संवाददाता ने ख्वाब में जो देखा

दिल्ली, 15 जुलाई 2008

- सरकार समाजवादी पार्टी, अजित सिंह और देवेगौड़ा जी समेत कुछ खुदरा दलों के समर्थन से चल रही है। सरकार पुरानी है, प्रधानमंत्री पुराने हैं, लेकिन कैबिनेट में कुछ चेहरे नए हैं।
- समाजवादी पार्टी न्यूक्लियर डील के देशहित में होने के एपीजे अब्दुल कलाम के सर्टिफिकेट को मेडल की तरह पहनकर मुसलमानों को समझाने की कोशिश में जुटी है कि सांप्रदायिकता को रोकने के लिए उसने ये सब किया है।
- समाजवादी पार्टी सरकार को बाहर से समर्थन दे रही है। इसके लिए वो सरकार से पूरी कीमत वसूल रही है।
- अनिल अंबानी के रुके हुए काम सरकार पूरे कर रही है। केजी बेसिन के गैस बंटवारे पर फैसला अनिल अंबानी के हित में होगा।
- समाजवादी पार्टी और अमर सिंह के करीबी उद्योगपतियों के अच्छे दिन लौट आए हैं। सहारा को अब कोई कष्ट नहीं है।
- मायावती के खिलाफ सीबीआई की जांच की फाइल फिर से खुल गई है।
- लेफ्ट पार्टियां मनमोहन सिंह के पुतले जला रही है और महंगाई के खिलाफ देशव्यापी अभियान चला रही है, जिसका पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में असर हो रहा है।
- लालू और मुलायम अब अक्सर साथ साथ डिनर करते हैं।
- मीडिया आम राय से मनमोहन सिंह को देश का सबसे महान, प्रभावशाली, दमदार और मर्द प्रधानमंत्री बता रहा है।

Monday, June 30, 2008

टाटा मोटर्स की पहली महिला इंजीनियर की जेआरडी से मुलाकात के संस्मरण


सुधा कुलकर्णी मूर्ति देश की सबसे बड़ी कंप्यूटर सॉफ्टवेयर कंपनी इनफोसिस के चेयरमैन नारायण मूर्ति की पत्नी हैं। इनफोसिस फाउंडेशन की चेयरपरसन के तौर पर समाज सेविका के अलावा सुधा मूर्ति स्थापित लेखिका भी हैं। 29 जुलाई 2004 को जे आर डी टाटा की जन्मशती पर कंपनी की पत्रिका के विशेषांक में उन्होंने टाटा में नौकरी और जेआरडी से मुलाकातों पर संस्मरण लिखा। यह प्रेरक लेख यहां दे रही हूं जो उन्हें एक जुझारू, हिम्मती और टाटा मोटर्स में काम करने वाली पहली महिला टेक्निकल ऑफिसर के रूप में दिखाता है।


It was probably the April of 1974. Bangalore was getting warm and gulmohars were blooming at the IISc campus. I was the only girl in my postgraduate department and was staying at the ladies' hostel. Other girls were pursuing research in different departments of Science.

I was looking forward to going abroad to complete a doctorate in computer science. I had been offered scholarships from Universities in the US ... I had not thought of taking up a job in India .

One day, while on the way to my hostel from our lecture-hall complex, I saw an advertisement on the notice board. It was a standard job-requirement notice from the famous automobile company Telco (now Tata Motors)... It stated that the company required young, bright engineers, hardworking and with an excellent academic background, etc.

At the bottom was a small line: 'Lady Candidates need not apply.'
I read it and was very upset. For the first time in my life I was up against gender discrimination.

Though I was not keen on taking up the job, I saw it as a challenge. I had done extremely well in academics, better than most of my male peers...
Little did I know then that in real life academic excellence is not enough to be successful?

After reading the notice I went fuming to my room. I decided to inform the topmost person in Telco's management about the injustice the company was perpetrating. I got a postcard and started to write, but there was a problem: I did not know who headed Telco.

I thought it must be one of the Tatas. I knew JRD Tata was the head of the Tata Group; I had seen his pictures in newspapers (actually, Sumant Moolgaokar was the company's chairman then) I took the card, addressed it to JRD and started writing. To this day I remember clearly what I wrote.

'The great Tatas have always been pioneers. They are the people who started the basic infrastructure industries in India , such as iron and steel, chemicals, textiles and locomotives they have cared for higher education in India since 1900 and they were responsible for the establishment of the Indian Institute of Science. Fortunately, I study there. But I am surprised how a company such as Telco is discriminating on the basis of gender.'

I posted the letter and forgot about it. Less than 10 days later, I received a telegram stating that I had to appear for an interview at Telco's Pune facility at the company's expense. I was taken aback by the telegram. My hostel mate told me I should use the opportunity to go to Pune free of cost and buy them the famous Pune saris for cheap! I collected Rs30 each from everyone who wanted a sari when I look back, I feel like laughing at the reasons for my going, but back then they seemed good enough to make the trip.

It was my first visit to Pune and I immediately fell in love with the city.
To this day it remains dear to me. I feel as much at home in Pune as I do in Hubli, my hometown. The place changed my life in so many ways. As directed, I went to Telco's Pimpri office for the interview.

There were six people on the panel and I realized then that this was serious business.

'This is the girl who wrote to JRD,' I heard somebody whisper as soon as I entered the room. By then I knew for sure that I would not get the job. The realization abolished all fear from my mind, so I was rather cool while the interview was being conducted.

Even before the interview started, I reckoned the panel was biased, so I told them, rather impolitely, 'I hope this is only a technical interview.'

They were taken aback by my rudeness, and even today I am ashamed about my attitude.
The panel asked me technical questions and I answered all of them.

Then an elderly gentleman with an affectionate voice told me, 'Do you know why we said lady candidates need not apply? The reason is that we have never employed any ladies on the shop floor. This is not a co-ed college; this is a factory. When it comes to academics, you are a first ranker throughout. We appreciate that, but people like you should work in research laboratories.

I was a young girl from small-town Hubli. My world had been a limited place.
I did not know the ways of large corporate houses and their difficulties, so I answered, 'But you must start somewhere, otherwise no woman will ever be able to work in your factories.'

Finally, after a long interview, I was told I had been successful. So this was what the future had in store for me. Never had I thought I would take up a job in Pune. I met a shy young man from Karnataka there, we became good friends and we got married.

It was only after joining Telco that I realized who JRD was: the uncrowned king of Indian industry. Now I was scared, but I did not get to meet him till I was transferred to Bombay. One day I had to show some reports to Mr Moolgaokar, our chairman, who we all knew as SM.. I was in his office on the first floor of Bombay House (the Tata headquarters) when, suddenly JRD walked in. That was the first time I saw 'appro JRD'. Appro means 'our' in Gujarati. This was the affectionate term by which people at Bombay House called him.

I was feeling very nervous, remembering my postcard episode. SM introduced me nicely, 'Jeh (that's what his close associates called him), this young woman is an engineer and that too a postgraduate.

She is the first woman to work on the Telco shop floor.' JRD looked at me. I was praying he would not ask me any questions about my interview (or the postcard that preceded it).

Thankfully, he didn't. Instead, he remarked. 'It is nice that girls are getting into engineering in our country. By the way, what is your name?'

'When I joined Telco I was Sudha Kulkarni, Sir,' I replied. 'Now I am Sudha Murthy.' He smiled and kindly smile and started a discussion with SM. As for me, I almost ran out of the room.

After that I used to see JRD on and off. He was the Tata Group chairman and I was merely an engineer. There was nothing that we had in common. I was in awe of him.
One day I was waiting for Murthy, my husband, to pick me up after office hours. To my surprise I saw JRD standing next to me. I did not know how to react. Yet again I started worrying about that postcard. Looking back, I realize JRD had forgotten about it. It must have been a small incident for him, but not so for me.

'Young lady, why are you here?' he asked. 'Office time is over.' I said, 'Sir, I'm waiting for my husband to come and pick me up.' JRD said, 'It is getting dark and there's no one in the corridor.

I'll wait with you till your husband comes.'
I was quite used to waiting for Murthy, but having JRD waiting alongside made me extremely uncomfortable.

I was nervous. Out of the corner of my eye I looked at him. He wore a simple white pant and shirt. He was old, yet his face was glowing. There wasn't any air of superiority about him. I was thinking, 'Look at this person. He is a chairman, a well-respected man in our country and he is waiting for the sake of an ordinary employee.'

Then I saw Murthy and I rushed out. JRD called and said, 'Young lady, tell your husband never to make his wife wait again.' In 1982 I had to resign from my job at Telco. I was reluctant to go, but I really did not have a choice. I was coming down the steps of Bombay House after wrapping up my final settlement when I saw JRD coming up. He was absorbed in thought. I wanted to say goodbye to him, so I stopped. He saw me and paused.

Gently, he said, 'So what are you doing, Mrs. Kulkarni?' (That was the way he always addressed me..) 'Sir, I am leaving Telco.'
'Where are you going?' he asked. 'Pune, Sir. My husband is starting a company called Infosys and I'm shifting to Pune.'

'Oh! And what will you do when you are successful.'
'Sir, I don't know whether we will be successful.' 'Never start with diffidence,' he advised me 'Always start with confidence. When you are successful you must give back to society. Society gives us so much; we must reciprocate. Wish you all the best.'
Then JRD continued walking up the stairs. I stood there for what seemed like a millennium. That was the last time I saw him alive.

Many years later I met Ratan Tata in the same Bombay House, occupying the chair JRD once did. I told him of my many sweet memories of working with Telco. Later, he wrote to me, 'It was nice hearing about Jeh from you.
The sad part is that he's not alive to see you today.'

I consider JRD a great man because, despite being an extremely busy person, he valued one postcard written by a young girl seeking justice. He must have received thousands of letters everyday. He could have thrown mine away, but he didn't do that. He respected the intentions of that unknown girl, who had neither influence nor money, and gave her an opportunity in his company. He did not merely give her a job; he changed her life and mindset forever.

Close to 50 per cent of the students in today's engineering colleges are girls. And there are women on the shop floor in many industry segments. I see these changes and I think of JRD. If at all time stops and asks me what I want from life, I would say I wish JRD were alive today to see how the company we started has grown. He would have enjoyed it wholeheartedly.

My love and respect for the House of Tata remains undiminished by the passage of time. I always looked up to JRD. I saw him as a role model for his simplicity, his generosity, his kindness and the care he took of his employees. Those blue eyes always reminded me of the sky; they had the same vastness and magnificence.

Wednesday, June 25, 2008

एसपी के बारे में जानने के लिए एक ठिकाना

चंदन प्रताप सिंह का परिचय उन लोगों को बताने की जरूरत नहीं है जो हिंदी इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता के नींव में छोटे-बड़े पत्थर की शक्ल में यहां वहां जुड़े हैं या खाद बन गए हैं। कई मीडिया संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके चंदन प्रताप सिंह पत्रकारिता के लेखन पक्ष और तकनीकी पक्ष, दोनों पर समान अधिकार रखते हैं। उनका एक परिचय ये भी है कि वो दिवंगत सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एसपी के भतीजे हैं। उनके ब्लॉग हिंदीटीवीमीडिया पर जाएं, वहां आपको एसपी के बारे में काफी कुछ जानने को मिलेगा।

Monday, June 23, 2008

एक सुबह मैंने चाहा

उस रिजेक्ट समूह का भी हिस्सा कभी-कभी बनने का मन करता है, जिसे कवि कहते हैं। तो आज उस समूह में रहते जो मेरे मन में आया, यहां दर्ज कर दिया है। इसे सिलेक्ट करें या रिजेक्ट, आपकी मर्जी।

मेरे पास ताकत है
सुनने की और महसूसने की
सुनती हूं जब शोर-गुल बंद हो जाता है
महसूसती हूं जब छूने की मजबूरी खत्म हो जाती है
सुबह-सुबह शहर की सबसे चौड़ी व्यस्त सड़क पर
सब तरफ शोर है तरह-तरह के वाहनों, उनके हॉर्नों का
हर लाल बत्ती के हरा होते ही
ये हॉर्न जगाते हैं ख्यालों में डूबने से पहले
कि आगे चलना है
स्कूल पहुंच कर बच्चे को विदा करती हूं
तब से लेकर खुद भी सामने वाले स्कूल में जाने के बीच
कार के शीशे बंद करते ही
एक पल को अपनी दुनिया में पहुंच जाती हूं
जहां सुनने की मजबूरी नहीं है
बत्तियों, रास्ता दिखाते निशानों का बोझ नहीं है
रीढ़ के भीतर से गुजरते न्यूरॉनों पर
स्टीयरिंग व्हील पर कागज रख कर
कविता लिखती हूं
ड्राइविंग सीट से बाहर चल रहा
दैनिक मूक सिनेमा देखती हूं
रात की झमाझम बारिश के बाद सुबह की तीखी धूप में
पेड़ों के पसीने की बूंदें कार पर गिरती हैं
तो सुनती हूं अनियमित यकायक बज उठना छत का
चाह लेती हूं अपने इस शांत, सुरक्षित हिस्से में
दो घड़ी सोना और देखना सपने
उन जगहों के जहां कार के बाहर भी शोर न हो
पत्तों की तड़कन
झरने की हजार बूंदों के दिलों की लहरिया धड़कन
पेड़ों के पसीने,
चिड़ियों के उच्छिष्ठों के टपकने की धमक
सब एक साथ सुनूं
न मोड़ पाऊं अपनी इंद्रियों को वह सब महसूस करने से
जो दिखता है बच्चों की बनाई पुरस्कृत पेंटिंग में

Friday, June 20, 2008

वाह क्रीमी लेयर से आह क्रीमी लेयर तक

- दिलीप मंडल

गरीब सवर्णों
को पहली बार आरक्षण मिला है...चलिए इसका जश्न मनाते हैं। लेकिन मीडिया से लेकर जिसे सिविल सोसायटी बोलते हैं, उसमें गरीब सवर्णों को मिलने वाले रिजर्वेशन को लेकर कोई उत्साह नजर नहीं आ रहा है। चुप तो वो लोग भी हैं जो कई साल से आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत कर रहे थे और जाति आधारित आरक्षण का विरोध कर रहे थे। सामाजिक पिछड़ापन जिनके लिए निरर्थक था, निराधार था। सवर्ण समुदाय के गरीबों को नौकरियां मिलने की बात से वो खुश नहीं दिख रहे हैं। वाह क्रीमी लेयर, इस मामले में आह क्रीमी लेयर में तब्दील होता दिख रहा है।

जाट परिवार की वधु और गुर्जर परिवार की समधन राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने देश में पहली बार गरीब सवर्णों के लिए सरकारी नौकरियों में 14 परसेंट आरक्षण की व्यवस्था की है। इस पर सवर्ण इलीट की क्या प्रतिक्रिया है? लगभग वैसी ही चुप्पी आपको उत्तर प्रदेश के सवर्ण इलीट में दिखती है, जब मायावती गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की बात करती हैं। लेफ्ट पार्टियां भी इस बार खामोश हैं। वो अपने शासन वाले राज्यों में तो गरीबों को आरक्षण नहीं ही देती हैं, किसी और ने ये कर दिया है तो उसका स्वागत भी नहीं करती हैं।

मीडिया की इसे लेकर प्रतिक्रिया यही है कि ये राजस्थान सरकार का ये फैसला ज्यूडिशियल स्क्रूटनी में पास नहीं हो पाएगा। तर्क ये कि राजस्थान में नए प्रावधानों से कोटा 68 परसेंट हो जाएगा। वैसे ये नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु में 69 परसेंट आरक्षण है और न्यायपालिका ने इसे खारिज नहीं किया है।

सवर्ण इलीट की आम प्रतिक्रिया आपको यही मिलेगी कि ये वोट की राजनीति है। वोट की राजनीति तो ये सरासर है, लेकिन महाराज, लोकतंत्र में वोट की राजनीति नहीं होगी तो क्या होगा।

Thursday, June 19, 2008

हत्या पत्रकार की या खबर की

-दिलीप मंडल

युद्ध की रिपोर्टिंग एक खतरनाक काम है। रॉयटर्स के साउंड रिकॉर्डिस्ट की मौत से ये बात साबित होती है। लेकिन इस मौत की जांच और उसके नतीजे से ये भी साबित होता है कि ऐसे मामलों में हत्या का अपराध और दंड मरने वाले और मारने वाले की राष्ट्रीयता समेत कई और बातों से तय होता है।

अमेरिकी रक्षा विभाग के इंस्पेक्टर जनरल ने रिपोर्ट दी है कि जिन अमेरिकी सैनिकों ने तीन साल पहले इराक में कवरेज कर रहे रॉयटर्स के पत्रकार को गोली मार दी थी, उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया था। रॉयटर्स ने इस जांच पर निराशा जताई है, लेकिन इस बात का स्वागत किया है कि इंस्पेक्टर जनरल ने इस बात की सिफारिश की है कि इराक में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए अमेरिकी फौज को मीडिया के साथ मिलकर काम करना चाहिए।

खालिद 2005 में कवरेज के सिलसिले में रॉयटर्स के सदस्य के तौर पर एक कार में जा रहे थे। कैमरापर्सन कार के अंदर से शूट कर रहा था। जब अमेरिकी सैनिकों ने सामने से फायरिंग की तो रायटर्स की टीम ने अपनी कार धीरे- धीरे पीछे करने का फैसला किया। इसे अमेरिकी सैनिकों ने खतरनाक माना और कार पर फायरिंग कर दी, जिसमें खालिद समेत दो लोग मारे गए।

जाहिर है इराक में रिपोर्टिंग का एक ही तरीका है, अमेरिकी सैनिकों के साथ चलने का और अमेरिका के पक्ष में लिखने और खबर दिखाने का। इससे आप इस बात का भी अंदाजा लगा सकते हैं कि इराक का कितना एकपक्षीय कवरेज हमने और पूरी दुनिया ने देखा है। इराक के लोगों की पीड़ा दुनिया तक न पहुंचे, इसका अमेरिका ने पुख्ता इंतजाम कर रखा है।

देखिए इस खबर का रॉयटर्स में कवरेज र इस मामले में अमेरिकी रक्षा प्रतिष्ठान को बेनकाब करती एक काउंटरपंच में छपी एक रिपोर्ट

Tuesday, June 17, 2008

तंत्र -मंत्र-राखी सावंत युग में एसपी की पत्रकारिता पर अनिल यादव की टिप्पणी

-अनिल यादव

एसपी की मौत हुई थी और इसके एक हफ्ते बाद लखनऊ में एनेक्सी के प्रेस रूम में एक रस्मी शोक सभा हम लोगों ने की थी। हम लोगों के पास वह फोटो नहीं था जो उनसे नत्थी हर कार्यक्रम में लगता आया है। जैसा कि देश में अन्य शोकसभाओं में कहा गया था, उस शोकसभा में भी आश्चर्यजनक समानता से कहा गया- अच्छे थे, भले बहुत थे, पत्रकारिता के सबसे उज्जवल नक्षत्र थे और यह भी कहा कि उनके निधन से क्षति अपूरणीय हुई है।

लेकिन मुझे पक्का भरोसा है कि इले. मीडिया की इस गति यानि ओझा, सोखा, भूत, चुरइन, तंत्र-मंत्र, बैंगन में भगवान, हत्या-बलातकार के मूल से भी वीभत्स रिप्ले, बिल्लो रानी, कैसा लग रहा है आपको, जनता गई तेल लेने-टीआरपी ला उर्फ छीन-झपट में झोली में धर टाइप फ्यूचर का अंदाजा था और वे बहुत चाहते हुए भी इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर पाए.

कर भी क्या सकते थे वे? उनके बस में था ही क्या? शायद वे भी बस एक पुरजा बनकर रह गए थे। या नई छंलाग से पहले जरा गौर से तमासा देख रहे थे। जितना रविवार में या दैनंदिन जिंदगी में उनने किया वो क्या कम था, इससे ज्यादा की उम्मीद उनसे करना क्या ज्यादती नहीं है। अक्सर हम लोग पत्रकारों में नायकत्व की तलाश की रौ में उस शालीन, चुप्पे, नजर न आने वाले चतुर व्यापारी उर्फ मालिक को भूल जाते हैं जिसका पैसा लगा होता है। यानि जिसने हमारे नायक को नौकरी दी होती है और हर महीने तनख्वाह दे रहा (झेल रहा ) होता है।

अगर कोई बदलाव आना है इले, प्रिंट, इंटरनेट पत्रकारिता में तो पहले उस पूंजी के चरित्र, नीयत और अकीदे में आएगा (क्या वाकई)- जिसके बूते अभिव्यकक्ति की स्वतंत्रता का सुगंधित, पौष्टिक बिस्कुट खाने वाला या लोकतंत्र का रखवाला यह कुकुर (वॉचडाग) पलता है। बहरहाल इस कुकुर को पोसना मंहगा शौक बना डाला गया है और उसे बिजनेस कंपल्सन्स के कारण इतना स्पेस देना ही पड़ता है कि कभी-कभार गुर्रा सके। ...... और यह गुर्राना भी आवारा पूंजी के मालिकों के छलकते लहकट अरमानों के हूबहू अमल के दौर में कम बड़ी सहूलियत नहीं है।

उस शोक सभा के एक दिन पहले मेरी लिखी आबिचुअरी अमर उजाला के लखनऊ संस्करण के पेज ग्यारह पर छपी थी (अपने वीरेन डंगवाल के बजाए शंभुनाथ सुकुल टाइप का कोई रिपोर्टर की खबर अपने नाम से छापने वाला, जनेऊ का प्रतिभा की तरह इस्तेमाल करने वाला कोई और संपादक होता तो शायद वह भी नहीं छपती )। काश, वह क्लिपिंग मेंरे पास आज होती तो आधी रात इतना हारमोनियम बजाने की जरूरत नहीं पड़ती। शायद आपके किसी परिचित ने कोई किताब एसपी पर एडिट की है जिसमें शायद वह राइटअप है। अगर वह मिल सके तो उसे जरूर अपने ब्लाग पर डालिएगा।

खैर वह तिरानवे था और मैं मेरठ अमर उजाला में खबर एडिट करने वाला मजूर था और पार की पटकथा लिखने वाले, चुंधी आंखों और न फबने के बावजूद खफीफी दाढ़ी रखने वाले एसपी के लिए मेरे भीतर कोई सम्मोहन था। वह होना ही था वरना गिद्धों की बीट से गंधाती दिल्ली रोड से हर शाम गुजर कर अमर उजाला में पपीता फल ही नहीं औषधि भी टाइप के फीचर और मृतक साइकिल पर जा रहा था टाइप खबरें रात के तीन बजे तक एडिट करते हुए और सुभाष ढाबे वाले के मोबिल आयल में डूबे गुनगुनाते पराठे खाकर जीना संभव नहीं था।

(हां वे इतने मोटे और फूले होते थे फोड़ने पर सीटी बजाते और गुनगुनाते थे )

तो तिरानबे में दीवाली के आसपास अपने जिले के पत्रकार एसपी से मिलने एक दिन आजतक में पहुंच गया। दो दिन- कई घंटे बैठने के बाद मुलाकात हुई। बैठने के दौरान मैने पीपी, राकेश त्रिपाठी अनेकों परिचितों और खुद की थोड़ी दबी (लेकिन इसी दबाव के कारण ज्यादा फैले नथुनों से एफिशिएंट) नाक से सूंघ कर जाना कि आजतक में एक चारा मशीन इन्सटाल हो चुकी थी जिससे गुजर कर अच्छी खासी तंदरूस्त खबर लंगड़ाने लगती थी। एसपी टीवी के बाहर ्पनी गरदन निकाल कर उसे दर्शक तक ठेलने की जिद भरी कोशिश करते पर वह टांग टूटी मैना की तरह वहीं कुदकती रह जाती थी।

एसपी चौकन्ने बहुत थे वे बहुगुणा की तरह मुझे और मेरे मालिक अतुल माहेश्वरी दोनों को जानते थे।

स्वाभिक था कि उन्होंने मुझे नौकरी-आतुर गाजिपुरिया युवक समझा होगा। लेकिन थोड़ी बात-चीत के बाद कहा कि इस मीडियम में क्यों आना चाहते हो यह तो अब थूकने की भी जगह नहीं है। यहां क्या है, बस भोंपू लेजाकर किसी नेता-परेता या बाइटबाज के मुंह पर अड़ा देना होता है, बाकी काम वह खुद करता है। यहां सोचने समझने वाले के लिए कोई स्पेस नहीं है। तुम प्रिंट में हो फिर भी वहां बहुत स्पेस है और फिर अतुल माहेश्वरी जैसा समझदार लाला तुम्हारा मालिक है जिसने समय की नब्ज देखते हुए कारोबार जैसा अखबार निकाला है।


इसी बीच दीपक कमरे में आगया उसके हाथ में एक टेडी बियर था एसपी ने उसे लेकर उलट-पलट कर देखा, फिर मेरी तरफ देखा, देखा हमारा रिपोर्टर अभी भी भालू से खेलता है। इसमें व्यंग्य था या दीपक के ट्रेंडी होने का रिकगनिशन मैं नहीं समझ पाया। दीपक के तो खैर दोनों होंठ कानों को छू रहे थे समझ ही गया होगा।

स्वाभाविक यह भी था कि मुझे लगा कि मीठी गोली है, अब कट लो का इशारा है। इडियोलाजी और मीडिया को जनता के पक्ष में इस्तेमाल करने के लौंडप्पन भरे अरमानों की बातें काफी हो लीं अब काम का समय है चलो....मेरठ निकलो।

बराबरी के आंतरिक स्केल पर सबको नापने के कुटैव से और उनके आकर्षण से त्रस्त मैने पूछ लिया, तो आप फिर क्यों अब तक यानि इस मीडियम में क्यों बने हुए हैं। आपको नहीं लगता कि निकल लेना चाहिए?

----मैं तो बेहद बीमार था (बीमारी बाद में पता चली) अस्पताल का बिल (मैने मतलब निकाला कर्ज)बहुत हो गया था। एक दिन अरूण पुरी बोट क्लब पर मिल गए वहां से हम दोनों पैदल चलते हुए यहां तक आए और हाथ पकड़ कर उन्होंने इस कुर्सी पर बिठा दिया। तब से बैठा हुआ हूं। क्या कर सकता हूं पैसा चाहिए तो यहीं बैठना होगा।

होगा (होबो) सुनकर लगा बंगाल वाले एसपी हैं क्योंकि उनकी आंखों की कोर भीग गई थी। एक पछतावा था जो मैने महसूस किया।

उस रात राकेश के कमरे पर नोएडा में रूकना था हम लोग आज तक की रात की पाली के स्टाफ को घर छोडने वाली कार से वापस से लौटे। कार में एक ढलती सी, सेक्सी, बस जरा बीच-२ में मजबूर लगती गाय सी कातर आंखों वाली लड़की थी जो किसी जूनियर को बता रही थी कि उसका सपना किसी दिन दो वारशिपस् की आमने-सामने टक्कर को कवर करना है। मुझे रोमांचित होना चाहिए था लगा कि इससे कल रात ही कोई थ्रिलर पढ़ा है या फिर जो इसके रोल माडल सर होंगे उनकी बकचोदी को सत्य मानकर उवाच रही है।

बहरहाल फिर वह ढलती लड़की फिर कभी अफगान, इराक या किसी और वार के दौरान नजर नहीं आई।

फिर लड़की की नकली उन्माद में खत्म तेल की भभकती ढिबरी लगती आंखों में झांकते हुए, उस रात मुझे लगा कि एसपी गोली नहीं दे रहे थे। उन्हें आभास है कि कल दफ्तर के भीतर एमएमएस और बाहर डाइन के प्रकोप में खेलती गरीब औरतों का दयनीय उन्माद और उनके फटे ब्लाउज बिकने वाले हैं।

आज ही भाई दिलीप को बजरिए ई-मेल बताया कि ब्लाग बन गया। शाम को पोस्ट से ख्याल आया कि एसपी आज ही गए थे। सोचा था रात बारह से पहले लिख देना है क्या, पता किसी को इस का इंतजार हो. लेकिन देर हो ही गई।

बच्चा नींद में उन्मत्त रो रहा है, भूख भयानक लगी है, सुबह जल्दी उठ कर डाक्टर को आंख दिखानी है नहीं तो ससुरा इस हफ्ते फिर लटका देगा। एसपी पर संशोधित, सुचिंतित पोस्ट फिर कभी। खैर जाते समय क्या एसपी मुझ जैसी ही हड़बड़ी में नहीं गए होंगे।

देखिए तो कितने काम छूट गए जो शायद वह या वही कर सकते थे।

Monday, June 16, 2008

एस पी सिंह के बिना पत्रकारिता के 11 साल

16 जून 1997। सुबह का समय। सुरेंद्र प्रताप सिंह अचानक घर पर गिर पड़े। दोपहर होते होते पता चला कि ये साधारण बेहोशी नहीं थी। कोमा में थे एसपी। ब्रेन हेमरेज हो गया था। एसपी अपने जीवन के चौथे दशक में ही थे। 27 जून को अपोलो अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। लोदी रोड शवदाह गृह में उनके भतीजे और पत्रकार चंदन प्रताप सिंह ने शव को मुखाग्नि दी।

ग्यारह साल बाद आज पत्रकारिता, खासकर हिंदी टीवी न्यूज पत्रकारिता एक रोचक दौर में है। भारत में टीवी पत्रकारिता में मॉडर्निटी की शुरूआत आप एसपी के आज तक से मान सकते हैं। जिन लोगों ने एसपी का काम देखा है, या सुना है, या उनसे जुड़ी किसी चर्चा में शामिल हुए हैं, या उनके बारे में कोई राय रखते हैं, उनकी और बाकी सभी की प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।

ये एसपी को श्रद्धांजलि देने का समय नहीं है। इसकी जरूरत भी नहीं है। एसपी मठ तोड़ने के हिमायती थे। ये क्या कम आश्चर्य की बात है कि एसपी के लगभग पांच सौ या उससे भी ज्यादा लेख और इंटरव्यू यहां-वहां बिखरे हैं, लेकिन उनका संकलन अब तक नहीं छप पाया है। एसपी कहते थे - जो घर फूंके आपनो, चले हमारे साथ। एसपी कोई चेला मंडली नहीं छोड़ गए। एसपी किसी चेलामंडली के बिना ही कल्ट बन गए। भारत में पत्रकारिता के अकेले कल्ट फिगर।

ऐसे एसपी की याद में आप स्मारक नहीं बना सकते, लेकिन मौजूदा पत्रकारिता पर बात जरूर रख सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी टीवी पत्रकारिता में ये घटाटोप अंधकार का दौर है और कि ये घनघोर पतन का दशक साबित हो रहा है।

आपके पास शायद रोशनी की कोई किरण हो।

Sunday, June 1, 2008

ये कैसा दृष्टिकोण है?

जब से कनकलता का मामला ब्लोग जगत मे चर्चा मे आया है सबसे ज्यादा बेचैन हैं एक ब्लौगर दृष्टिकोण. उनका कहना है कि मकान मालिक का पक्ष कोई सामने रख ही नही रहा. दूसरे पक्ष को समझने की व्यग्रता मे दृष्टिकोण पहले पक्ष की ऐसी घोर अवज्ञा कर रहे हैं कि दिए जा चुके तथ्य भी नही देख रहे. बार-बार एक ही सवाल कि एग्रीमेंट का जिक्र कोई क्यो नही कर रहा. जब कि कनकलता के दिए ब्यौरे मे साफ-साफ कहा जा चुका है कि मकान मालिक ने एग्रीमेंट करने से मना कर दिया था.

जो दृष्टिकोण इस चिंता मे घुले जा रहे कि दूसरे पक्ष को सुने बिना राय क्यो बनाई जा रही वही दृष्टिकोण इस पूरे मामले के बारे मे कितनी पक्की राय बना चुके हैं - वह भी बिना कुछ जाने, उल्लिखित तथ्य तक देखे बिना - यह आप भी देखिये उनकी प्रतिक्रियाओं मे. उसके नीचे है दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया पर एक टिप्पणी



ये कहानी एकदम झूठी और एकपक्षीय लिखी हुई लगती है। क्या आप मेरे कुछ प्रश्न का जबाब देंगे?
कनकलता और साथी उस मकान में कब से रह रहे थे?
मकान किरायेदार के बीच का एग्रीमेंट कब खत्म हो चुका था?
विनीत की पोस्ट में इसे मैंने पढा था कि कनकलता का परिवार इस मकान में सवा साल से रह रहे थे। यानी ये एग्रीमेंट दो तीन महीने पहले खत्म हो गया होगा।
एग्रीमेंट के दौरान मकान में कनकलता परिवार को मकान मालिक से कभी कोई क्यों नहीं शिकायत हुई? इस शिकायत के अनुसार तो एसा लगता है कि मकान मालिक एवं किरायेदार के बीच खाने पीने क संबन्ध भी रहे होंगे? ये शिकायत तभी क्यों पैदा हुई कि जब एग्रीमेंट खत्म हो गया, मकान मालिक ने मकान खाली करने को कहा और किरायेदार ने मकान खाली नहीं किया!



ये मकान - मालिक और किरायेदार के बीच का झगडा है सवर्ण और दलित के बीच का नहीं। यह सिर्फ एक संयोग है कि इसमें एक पक्ष दलित है। इसे पा तूल देकर दलित और सवर्ण के बीच का मामले का रंग दे रहे है जो कि ग़ैरमुनासिव है।
मैं ही उत्तर भारतीय हूं और हम उत्तरभारतीय इतने भोले नहीं होते कि सामने वाला हमें गालियां देता रहे और हम आप आप करते रहें। दिल्ली में ये सब छूत छात नहीं चलती, कतई नही चलती।
विनीत कनकलता के परिचित होने के कारण इस विषय पर हो हल्ला करते रहे हैं। पर जब आप इसे मोहल्ले पर छाप रहे हैं तो विनीत से एकबार मकानमालिक का फोन नम्बर लेकर उससे भी बात करके उसका पक्ष भी जान लेना चाहिये था।




मोहल्लाधीश, शौक से मुकदमा चलाईये लेकिन मकानदार का पक्ष भी तो रखिये?

ये मकान मालिक और किरायेदार के बीच का झगड़ा है और संयोग से इसमें एक पक्ष दलित है। दिल्ली में मकानमालिक सिर्फ ग्यारह महीने के लिये मकान किराये पर देते हैं, ग्यारह महीनों के बाद मकानदार ने मकान खाली करने को कहा और इसी बात पर झगड़ा बढ़ा। इसे आप सवर्ण दलित का रंग दे रहे हैं।

कोई है?
इतने कमेन्टेटरों में एक भी एसा है जिसने मकानमालिक से बात की हो?


Pratikriya par tippanee

दृष्टिकोण साहब, आप ही मकान मालिक से बात कर के उसका पक्ष क्यों नही रख देते? जरा हम भी तो देखें क्या है उसके पास कहने को?
अगर यह मूलतः मकान मालिक और किरायेदार का झगडा है जिसमे एक पक्ष 'संयोग से दलित है' तो भी क्या उस झगडे मे किरायेदार को दलित के रूप मे संबोधित करना उसे जलील करना जरूरी है?
और जैसा कि आप दावा कर रहे हैं कि 11 महीने का एग्रीमेंट ख़त्म होने के बाद मकान खाली करने को कहने पर यह विवाद हुआ तो सबसे पहले कृपया यह बताएं कि आपके इस दावे का आधार क्या है? दूसरी बात यह कि अगर आपके दावे के मुताबिक सचमुच मकान मालिक ने 11 महीने का एग्रीमेंट किया था तो वह एग्रीमेंट की कॉपी क्यों नही दिखा देता?
अगर आपको नही पता हो तो कृपया मकान मालिक से पूछ कर इन सवालों के जवाब ब्लोग पर डाल दें ताकि आईंदा कोई भी किरायेदार किसी मकान मालिक को बदनाम न कर सके.
किरायेदारों का तो कोई नाम होता नही, न ही उनकी कोई इज्जत होती है. इसलिए उनकी क्यों चिंता की जाये?
क्यो यह पूछा जाये कि कथित एग्रीमेंट ख़त्म होने के बाद भी दो युवा लड़कियों और उसके भाई से मकान खाली कराने का क्या यही तरीका है?
क्यों यह सोचा जाये कि अगर वह लड़की हमारे परिवार की होती तो भी क्या हम उससे ऐसे बर्ताव को सही करार देते?
क्यो इस बात पर माथा पच्ची की जाये कि कोई लड़की अपने बारे मे और अपनी बहन तथा माँ के बारे मे वैसे अल्फाज बेवजह लिख सकती है जैसे अल्फाज उस बुजुर्ग मकान मालिक और उनके बेटों ने कथित रूप से किरायेदार बहनो तथा उसके परिवार के लिए निकाले थे?

दृष्टिकोण साहब, अगर दिल, दिमाग खुला रख कर देखें तो मामले की तह तक जाना मुश्किल नही. लेकिन हमे तो दिल और दिमाग के दरवाजे खोलने ही नही. क्यो खोलें? किसके लिए? इन दलितों के लिए? ये तो ऐसे ही सवर्णों को फंसाने के चक्कर मे रहते हैं. ऐसी हालत मे 'हमे' कौन समझा सकता है? आप ही बताइये.

Thursday, May 29, 2008

रंग लाया रमिला का संघर्ष

रमिला श्रेष्ठ की कहानी से आप परिचित हैं. (देखें पिछली पोस्ट : प्रचंड की राह रोके खडी रमिला). आज के अखबार आपको बता ही चुके हैं कि नेपाल मे राजशाही विधिपूर्वक समाप्त कर दी गयी. अब प्रचंड का नाम नये प्रधान मंत्री के रूप मे तय माना जा रहा है.

लेकिन उससे पहले कुछ और बातें हुयी हैं जिनका उल्लेख मीडिया ने प्रमुखता से करना जरूरी नही समझा. इन घटनाओं का ताल्लुक रमिला से है.
रमिला के पति रामहरी की लाश चितवन कैम्प से करीब २५ किलो मीटर दूर एक नदी मे तैरती पायी गयी. लाश रमिला को सौंपी गयी. इसके बाद रामहरी की विधिपूर्वक अंत्येष्टि की गयी.
माओवादी पार्टी के प्रमुख प्रचंड ने लिखित रूप मे रमिला से माफ़ी मांगी. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की तीसरी डिविजन का कमांडर विविध (जिस पर रामहरी के अपहरण और हत्या का आरोप है) को पार्टी से निकाला जा चुका है. माओवादी पार्टी ने इस मामले की पुलिस जांच मे पूरा सहयोग करने का वादा किया है. और इस सबके अतिरिक्त माओवादी पार्टी ने रमिला के परिवार को २० लाख रुपये का मुआवजा देना भी मंजूर किया है.

यह पहला मामला है जिसमे नेपाल की माओवादी पार्टी ने सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगी. अब इसे रमिला की जीत मन जाये या विविध की हार या माओवादी पार्टी का भूल सुधार या प्रचंड का पैंतरा या कुछ और यह आप ही बताएं तो बेहतर.

Wednesday, May 28, 2008

हिंदी ब्लॉगिंग की स्ट्रक्चरल समस्याएं

हम एक अर्धविकसित समाज हैं जो अक्सर तंद्रा में रहते हुए खुद को विश्वगुरू टाइप कुछ समझता रहता है। हिंदी भाषा में ब्लॉगिंग को लेकर 2007 के आखिरी दिनों में मैंने एक पोस्ट लिखी थी - 2008 में कैसी हो हिंदी ब्लॉगिंग। इस पोस्ट के उप-शीर्षक कुछ इस तरह थे -
हिंदी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो / हिंदी ब्ल़ॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो / विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए / ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो / ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो / ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो / नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु
कुछ ब्लॉग में चल रहे विवादों के बीच आपकी नजर इस बात पर जरूर गई होगी कि हिंदी ब्लॉग की संख्या तेजी से बढ़ रही है और नए पाठक आ रहे हैं। विषय आधारित ब्लॉगिंग के पांव धीरे-धीरे ही सही, पर जम रहे हैं। ये सिलसिला आने वाले दिनों में और तेज होगा। ब्लॉग के माध्यम से जो लोग गिरोह बनाना और चलाना चाहते हैं वो ब्लॉग नहीं होता तो कोई और रास्ता निकाल लेते। इसके लिए ब्लॉग को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

अगर आप विकसित समाजों और भाषाओं में चल रही ब्लॉगिंग में हिंदी भाषाई ब्लॉगिंग का 15/20 साल के बाद का भविष्य देखना चाहें तो तस्वीर कुछ साफ होगी। पश्चिम के जमे हुए ब्लॉगर पॉलिमिक्स के कारण नहीं जाने जाते, न ही वो पढ़े जाने के लिए सनसनीखेज होने की मजबूरी से बंधे हैं। वो एक्साइटिंग हैं, उपयोगी हैं, हस्तक्षेप करते हैं, किसी समूह के हितों की बात करते हैं और इसलिए उनके लाखों पाठक हैं। वो लोगों की राय बनाने और बिगाड़ने की हैसियत रखते हैं। भारत में अजय शाह जैसे लोग अपने ब्लॉग पर सिर्फ ये बताते हैं कि आज उन्हें पढ़ने लायक क्या दिखा। वो ऐसी सामग्री का बिना टिप्पणी किए लिंक देते हैं और उनके ब्लॉग के ढाई हजार सब्सक्राइबर हैं।

पाठकों के लिए एग्रिगेटर पर निर्भर हिंदी ब्लॉगकारिता जब उस दिशा में बढ़ेगी तो आज की समस्याएं गायब कम हो जाएंगी। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक नींव के पत्थर बने ब्लॉगर और एग्रीगेटर के अच्छे प्रयासों के साथ कुछ कड़वाहट को भी पचाने के लिए हर किसी को तैयार रहना चाहिए। जिस तरह भारत में टीवी न्यूज चैनल की मजबूरी है कि वो सनसनीखेज बने रहें ताकि चैनल सर्फिंग करता हुआ दर्शक उसके साथ चिपका रहे, लगता है वैसी ही कुछ मजबूरी के हिंदी ब्लॉग के साथ हो गई है। नए ब्लॉगर्स के लिए ये रोल मॉडल नहीं बने तो बेहतर।

और अंत में - यशवंत-अविनाश प्रकरण में कुछ कह पाने के लिए मैं समर्थ नहीं हूं। दोनों अपना अपना पक्ष मजबूती से रख पाने में सक्षम हैं।

Friday, May 23, 2008

प्रचंड की राह रोके खडी रमिला

रमिला श्रेष्ठ पिछले महीने तक काठमांडू मे रहने वाली एक सामान्य गृहिणी थी. पति और दो बच्चों की उसकी छोटी सी दुनिया थी. पति रामहरी श्रेष्ठ एक रेस्टोरेंट चलाते थे जिससे उसका परिवार चलता था.

रामहरी से रमिला की मुलाक़ात १५ वर्ष पहले हुयी थी. दोनों मे प्यार हुआ और दो साल बाद यानी १३ साल पहले दोनों ने शादी कर ली. उसके बाद से उनका जीवन सामान्य ढंग से चल रहा था. पिछले साल तक ऐसा ही रहा जब काठमांडू के उनके मकान मे 'मैन पावर एजेंसी' के कुछ लोग किरायेदार के रूप मे रहने आये. बाद मे पता चला वे माओवादी पार्टी के गुरिल्ला दस्ते के लोग थे. इनमे पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की तीसरी डिविजन का कमांडेंट विविध भी था. यही विविध रमिला की मौजूदा त्रासदी के केन्द्र मे है.

गत 27 मार्च को विविध के 17 लाख रुपये और एक रिवाल्वर गायब पाए गए. माओवादियों को रामहरी पर शक था. पहले घर पर और फिर कैंटोंमेंट मे रामहरी से पूछताछ की गयी. कुछ दिनो बाद गायब रुपये भी मिल गए. बावजूद इसके, विविध ने २७ एप्रिल को रामहरी से चितवन कैम्प चलने को कहा. मकसद था और पूछताछ.

रमिला फोन पर बार-बार सम्पर्क करती रही. हर बार उसे बताया जाता कि उसके पति को जल्द ही छोड़ दिया जायेगा. अन्तिम बार ५ मई को उसका पति से सम्पर्क हुआ. 'उनकी आवाज बहुत कमजोर थी. वे ठीक से बोल भी नही पा रहे थे.' रमिला के मुताबिक 'तब भी विविध ने मुझे बताया कि उन्हें निर्दोष पाया गया है और जल्द ही छोड़ दिया जायेगा.'

लेकिन, उपलब्ध जानकारियों के मुताबिक दस दिनो की कठिन यातनाओं की वजह से रामहरी की हालत बिगड़ने के बाद उसे ८ मई को चितवन अस्पताल मे भर्ती किया गया. अमानवीय यातनाओं ने दिमाग और किडनी को खराब कर दिया था. जल्द ही डाक्टरों ने रामहरी को मृत घोषित कर दिया. खुद विविध ने बाद मे रमिला के परिवार के सामने कहा कि लाश किसी नदी मे फेंक दी गयी.

पति की अंत्येष्टि करने तक से वंचित रमिला अब इस मामले मे कुछ सुनने को तैयार नही. उसका साफ कहना है कि जब तक पति को जिंदा या मुर्दा उसके सामने नही लाया जाता, वह कुछ नही सुनेगी. वह मीडिया से ही नही आम लोगों से भी कह रही है कि प्रचंड राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री बनने लायक नही हैं. उनका पुरजोर विरोध होना चाहिए. अनेक एनजीओ सहित १०२ संगठन रमिला के समर्थन मे आगे आ चुके हैं. इनके आह्वान पर बुधवार (२० मई) को काठमांडू बंद का जबरदस्त असर रहा. रमिला की सभाओं मे भी काफी भीड़ जुट रही है.

इन्साफ की मांग करती इस अकेली सामान्य नेपाली महिला के प्रभाव से घबराए प्रचंड ने उससे मुलाकात कर उसका विरोध शांत करने की कोशिश की. मगर, मुआवजे की उनकी पेशकश ठुकराते हुए रमिला ने साफ कहा कि उसे इन्साफ चाहिए, पैसा नही.

रमिला कहती है, ' मुझे परवाह नही कौन मेरे साथ है और कौन नही. मैं इस मामले मे इन्साफ पाकर रहूंगी. प्रचंड लिखित रूप मे माफ़ी मांगें, विविध सहित तमाम दोषी पुलिस के हवाले किये जाएं और पूरे मामले की बारीकी से जांच करवा कर सभी दोषियों को कानूनसम्मत सजा सुनिश्चित की जाये.' उसी के शब्दों मे, ' यह कोई राजनीतिक एजेंडा नही है. मुझे मालूम है कई राजनीतिक दल भी इस मुहिम से जुड़ जायेंगे, लेकिन मैं राजनीति नही कर रही.'

विचारधारा और संगठन के बल पर नेपाल से राजशाही का खात्मा कर देने वाले देश के सबसे प्रभावशाली नेता का रास्ता रोक लेने वाली इस महिला का जीवट और उसका यह संघर्ष किसी भी मामले मे बहादुरी और शहादत के अन्य उदाहरणों से कमतर नही है.

देखना दिलचस्प होगा कि इन्साफ की इस लड़ाई मे प्रचंड किस तरफ खडे होते हैं और इतिहास बनाते इस नाजुक दौर मे एक सामान्य नेपाली गृहिणी रमिला की क्या और कैसी भूमिका बनती है.

Tuesday, May 20, 2008

आने वाला है जो सांस्कृतिक प्रलय

सम्यक न्यास के बैनर तले वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने एक बार फिर एक बडे सवाल को असरदार ढंग से उठाया है. सवाल है भारतीय भाषाओं के भविष्य का. वैश्वीकरण ने दुनिया भर मे स्थानीय भाषाओं-बोलियों के क्षरण की प्रक्रिया को तेज कर दिया है. भारत मे खास तौर पर हिन्दी और सभी भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी की मार झेलनी पड़ रही है. यह मार अब इतनी तेज हो गयी है कि भारतीय भाषाओं के अस्तित्व को लेकर भी चिंता प्रकट की जाने लगी है.

इन्हीं चिंताओं के वशीभूत राहुल देव, सुरेन्द्र गंभीर (यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेंसिलवेनिया) और विजय मल्होत्रा ने एक विचार गोष्ठी का आयोजन १७ मई को इंडिया इन्टरनेशनल सेंटर मे किया. इस अनौपचारिक तथा सही मायनों मे राउंड टेबल बातचीत मे जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों मे सक्रिय और भारतीय भाषाओं के भविष्य को लेकर गंभीर सौ से ज्यादा लोगों ने शिरकत की. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित मुख्य अतिथि थीं. गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे अशोक वाजपेयी. गोष्ठी मे कमर वहीद नकवी (आज तक) आशुतोष (आईबीएन 7), श्रवण गर्ग (दैनिक भास्कर) सहित अनेक वरिष्ठ पत्रकार, कमलनयन काबरा सहित अनेक अर्थशास्त्री और अशोक माहेश्वरी, मधु किश्वर, बालेन्दु दाधीच, मोना मिश्र जैसे तमाम लोगों ने शिद्दत से अपनी बात रखी.

गोष्ठी मे भारतीय भाषाओं की स्थिति और उनके भविष्य पर चिंता जाहिर करते हुए भी इस बात का खास ध्यान रखने की ज़रूरत महसूस की गयी कि यह मुहिम हिन्दी या अन्य भारतीय भाषा बनाम अंग्रेजी का रूप न ले ले.

विभिन्न वक्ताओं ने यह साफ किया कि बाजार और रोजगार की भाषा के रूप मे अंग्रेजी से विरोध नही है, चिंता की बात यह है कि अस्मिता की भाषा के रूप मे हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की चिंता हमने छोड़ दी है. नतीजा यह है कि हमारी नयी पीढी अंग्रेजी मे ही सोचने-विचारने और सपने देखने लगी है.

ज्ञान आयोग जैसी संस्थाएं अपनी सिफारिशों से स्थिति की गंभीरता को बढाती हैं. गोष्ठी मे खास तौर पर ज्ञान आयोग की पहली क्लास से ही अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने सम्बन्धी सिफारिश को बेहद खतरनाक बताया गया.

सुदूर नही, निकट भविष्य मे ही संभावित सांस्कृतिक प्रलय की इस चुनौती के मुकाबले के लिए भारतीय समाज को तैयार करने के उद्देश्य से की गयी इस पहल की यह गोष्ठी महज शुरुआत थी. ऐसा ही दूसरा सम्मेलन मुम्बई मे करने का फैसला किया जा चुका है. अगले कदम के रूप मे यह पहल देश की हरेक राजधानी मे ले जाई जायेगी. चूंकि यह संकट वैश्विक है इसीलिए इससे मुकाबले की कोशिशों का स्वरूप भी स्वाभाविक रूप से वैश्विक ही होगा. यह पहल भी राष्ट्रीय स्वरूप लेने के बाद विदेशों मे ले जाई जायेगी.

कुल मिला कर, इसमे दो राय नही कि सम्यक न्यास की यह पहल स्वागत योग्य है. चूंकि यह पहला कदम है इसीलिए सारे नतीजे इसी के आधार पर नही निकाले जाने चाहिए. अगले कुछ कदम इस पहल की दशा और दिशा निर्धारित करने के लिहाज से निर्णायक हो सकते है.

बहरहाल इस सामयिक, सार्थक और चिर प्रतीक्षित पहल के लिए सम्यक न्यास और इससे जुडे सभी लोगो का अभिनन्दन!

मी लॉर्ड की मनमानी और संसद की काहिली

(सूचना के अधिकार से सबसे ज्यादा भयभीत तीन संस्थाओं - सुप्रीम कोर्ट, यूपीएससी और कार्मिक मंत्रालय ने आरक्षण की ऐसी व्यवस्था बनाई है, जिससे सिविल सर्विस की 50 फीसदी सीटें सवर्णों के लिए रिजर्व हो जाती हैं। इस गड़बड़ी को ठीक करने के मद्रास हाई फैसले को केंद्र सरकार सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देती है। ये वो सरकार है जो खुद को सामाजिक न्याय और इनक्लूसिव ग्रोथ की सरकार बताती है। क्या ये बताने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट से इस बारे में क्या फैसला आया?- दिलीप मंडल)
भारतीय लोकतंत्र को अपने शुरुआती साल में लगभग इसी स्थिति से गुजरना पड़ा था। देश की आजादी के बाद राज्य सरकारों ने जब कृषि भूमि की सीमा तय कर अतिरिक्त भूमि को बांटने के लिए कानून बनाए तो जमींदार अदालतो में गए। अदालतों ने उन्हें निराश नहीं किया और हर अदालत से फैसले जमींदारों के पक्ष में आए। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने भूमि सुधार कानूनों के प्रति अदालतों के रवैए को देखते हुए संविधान में संशोधन किया। इसके तहत संविधान में नवीं अनुसूचि जोड़ी गई। इस अनुसूचि में डाले गए कानून न्यायिक समीक्षा से परे हो गए। ये संविधान का पहला संशोधन था। जिस कैबिनेट ने ये संशोधन किया उसमें डॉ. भीमराव आंबेडकर कानून मंत्री थे। 10 मई 1951 को इसे पेश करते हुए जवाहरलाल नेहरू की दृष्ठि साफ थी-
"संविधान के अमल में आने के पहले 15 महीने में मौलिक अधिकारों से जुड़े कुछ अदालती फैसलों की वजह से परेशानियां खड़ी हो रही है। ...पिछले तीन साल में राज्य सरकारों ने भूमि सुधार के जो कानून पास किए हैं, वो अदालतों की लंबी प्रक्रिया में उलझ गए हैं। इस वजह से ये महत्वपूर्ण कानून लागू नहीं हो पा रहे हैं, जिसका असर ढेर सारे लोगों पर पड़ रहा है।"
पहले संविधान संशोधन में ये बात जोड़ी गई-
"Validation of certain Acts and Regulations.-Without prejudice to the generality of the provisions contained in article 31A, none of the Acts and Regulations specified in the Ninth Schedule nor any of the provisions thereof shall be deemed to be void, or ever to have become void, on the ground that such Act, Regulation or provision is inconsistent with, or takes away or abridges any of the rights conferred by, any provisions of this Part, and notwithstanding any judgment, decree or order of any court or tribunal to the contrary, each of the said Acts and Regulations shall, subject to the power of any competent Legislature to repeal or amend it, continue in force."
तब से लेकर अब तक 57 साल बीत गए हैं। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही केंद्र सरकार और संसद की काहिली की वजह से पिछले ही साल सुप्रीम कोर्ट ने नवीं अनुसूचि को फिर से न्यायिक समीक्षा के तहत कर दिया। " हम भारत के लोग" का प्रतिनिधित्व करने वाली संसद अब चाहे कोई भी कानून बनाए, अदालत उसे रद्द कर सकती है। और ये अधिकार ऐसी अदालतों को है, जिसमें जजों की नियुक्ति जज आपस में ही कर लेते हैं क्योंकि जजों ने जजेज एक्ट पारित कर कार्यपालिका को जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया से बाहर कर दिया है।

कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने 3 मार्च 2008 को संसद में बताया कि जजों द्वारा जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को बदलने का केंद्र सरकार का कोई इरादा नहीं है।

रामास्वामी केस में हम देख चुके हैं कि जजों को हटाना लगभग नामुमकिन है। भारतीय लोकतंत्र के 61 साल में सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को हटाया नहीं जा सका है। और पिछले चीफ जस्टिस सब्बरवाल के मामले में पूरे देश ने देखा है कि भ्रष्ट जजों के खिलाफ न खबरें छापी जा सकती हैं न उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हो सकती है।

ये बातें आज इसलिए हो रही हैं क्योंकि कल ही सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश के तहत सिविल सर्विस में नियुक्तियों के बारे में एक ऐसा फैसला दिया है जिससे न्यायपालिका पर लगा ये आरोप पुख्ता होता है कि - वहां से सामाजिक न्याय के पक्ष में कोई फैसला नहीं आ सकता।

यूपीएससी अब तक रिजर्वेशन का एक अद्भुत सिस्टम चला रही था। इसके तहत रिजर्व कटेगरी का कोई कैंडिडेट अगर जनरल मेरिट लिस्ट में आ जाता था तो उसे ये विकल्प दिया जाता था कि वो चाहे तो खुद को रिजर्व कटेगरी का घोषित कर दे। मिसाल के तौर पर जनरल मेरिट लिस्ट में 100वें नंबर पर आया दलित कैंडिडेट एससी लिस्ट में पहले या दूसरे नंबर पर है। अगर वो खुद को जनरल कटेगरी का मानता है तो मेरिट लिस्ट में नीचे होने के कारण उसे आईएएस की जगह कोई नीचे की सर्विस मिलेगी। लेकिन वो खुद को दलित कैंडिडेट माने तो एससी लिस्ट में अव्वल होने के कारण वो आईएएस बन जाएगा। लेकिन दलित लिस्ट में उसके आते ही जनरल कटेगरी की खाली हुई सीट पर कोई जनरल कैंडिडेट आ जाएगा।

इस व्यवस्था की वजह से सिविल सर्विस में 50 फीसदी सीटें अब तक सवर्ण कैंडिडेट के लिए रिजर्व थीं। जनरल कटेगरी में किसी और कटेगरी का प्रवेश वर्जित था। इस व्यवस्था को मद्रास हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था।

लेकिन सामाजिक न्याय के प्रति वफादार और प्रतिबद्ध यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी। और सामाजिक न्याय के मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट से क्या फैसला आएगा, इसे लेकर किसी को शक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की आपत्ति को सही मानते हुए मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया।

यानी अदालतें आज भी 1950 के टाइमफ्रेम में फ्रीज हैं। अदालतों का यथास्थितिवाद और जातिवाद मौजूदा समय में लोकतंत्र का एक बड़ा संकट है। अगर ऐसे फैसले आते रहे तो न्यायपालिका की विश्वसनीयता और कम हो जाएगी। केंद्र सरकार की स्थिति ये है कि वो सामाजिक न्याय के नारे तो लगाती है लेकिन कर्मों में वो पूरी तरह यथास्थिति के पक्ष में खड़ी होती है। यूपीएससी में पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे आरक्षण विरोधियों को ही नियुक्त किया जाता है। कार्मिक मंत्रालय में किसी अवर्ण मंत्री की आप कल्पना नहीं कर सकते।

इसके बावजूद अगर समाज बदल रहा है तो इसका श्रेय उत्पादन संबंधों में आ रहे बदलाव को जाता है। सरकार से लेकर अदालतें इस प्रक्रिया में बाधक ही हैं।

Monday, May 19, 2008

बहस जारी है- शाकाहार बनाम मांसाहार: कैंसर के बर-अक्स

इंद्रधनुष कैंसर को समर्पित एक ब्लॉग है। उस पर एक लेख 'शाकाहार बनाम मांसाहार: कैंसर के बर-अक्स' पर अनेक टिप्पणियां आईं, अच्छी बहस चल पड़ी। बहस ब्लॉग के मूल विषय कैंसर से हट कर हो तो भी उसमें रुकावट न आए, इस विचार से मैंने इसे यहां भी चेप दिया है ताकि और लोग भी इसमें शामिल हो सकें। अब तक आई सारी टिप्पणियां नीचे दे रही हूं। अब आप भी अपने विचार बेरोक यहां छापें।


swapandarshi said...
Thanks for information and for taking notice of my comment. Its very useful.

However, iron uptake is a major concern with veg diet, specially in women and also in the indian population which has problem of anemia. A large percentage of Anemia is caused by thalesemia.

Often the cause of anemia is never sorted out and the iron pill do more harm than good, and veg diet is not sufficient to provide iron uptake.

Secondly, veg diet is very high in carbohydrate and has less proteins, which leads to metabolic syndrome and insulin resistance. There are lots of studies in this respect as well.

What I get after listening to various opinions that,
a diet has to be diverse, and should not be limited on few things, it needs to be balanced. and the old pyramid of lots of carbohydrate base is completely out dated in the light of new findings.

There are fans f Atkins diet and south beach diet as well, which are leaned more on the nonveg side.

Anyway, all of us have to die some way or the other,
haa...haa
so one should also eat for the taste and to fulfill the desire as well.
not simple answers...
May 16, 2008 9:30 AM

आर. अनुराधा said...
स्वप्नदर्शी, जवाब सचमुच आसान नहीं है। और 'मरना सभी को है एक दिन...' वाली थ्योरी स्वीकार कर लेना भी सबसे आसान रास्ता है। लेकिन क्या जीवन सिर्फ यही है? आपने शाकाहार पर कुछ और दिलचस्प सवाल भी उठाए हैं। इन पर मुझे और पढ़ने की जरूरत है। चर्चा जारी रहे।
May 16, 2008 9:48 AM

Ugh-Non-Vegetarian-Meat-Eater-Flesh-Eater-Yuck! said...
स्वप्न दर्शी for lunch? क्योंकि मरना सभी को है?

No, it doesn't work the way Swapnadarshi presents it.

"A large percentage of Anemia is caused by thalesemia."

Thalassemia is an autosomal recessive genetic disorder. I.e. it is expressed in people when both parents have the recessive gene. It cannot be prevented by meat-eating, neither is it promoted by eating vegetables.

Meat is not a rich source of iron. Green vegetables like Spinach, Methi, etc., are a much richer source of iron. So if you're afraid of iron deficiency, eat more green veggies.

Per se a vegeterian diet is deficient in nothing. It depends on what you eat. If you eat more of wheat and potatoes you're taking a lot of carbohydrates.

A balanced meal has nothing to do with meat. You can include a little of pulses, fruits, and still have a diet that's cheaper than non-veg, healthier, and kinder.

And if you still think everyone has to die anyway... Think about my proposal of Swapnadarshi for lunch, and I am not talking about taking Swapnadarshi to lunch.

Ha! Ha! Indeed.
May 16, 2008 9:59 AM
Rajesh Roshan said...

It's nice to read Anuradha and Swapandarshi too. Go ahead. Inforamtive :)
May 16, 2008 10:11 AM

नितिन बागला said...
अच्छी चर्चा। वास्तव में शाकाहार में वे सभी तत्त्व मौजूद होते हैं जो हमारे शरीर को चाहिये, मसलन हरी सब्जियों में लौह तत्त्व तो मूंगफली और सोयाबीन में प्रोटीन प्रचुर मात्रा में होता है। इसके अलावा मांसाहार पर होने वाल खर्च और उसके दुष्प्रभाव कहीं ज्यादा हैं।

शाकाहार पर यह लेख भी देखें

http://dr-mahesh-parimal.blogspot.com/2008/05/blog-post_15.html
May 16, 2008 11:16 AM
Ghost Buster said...

Go Veg! Be Human!
May 16, 2008 11:51 AM

दुष्यंत said...
great, salaam to ur sprit
May 16, 2008 1:12 PM

Anonymous said...
@ swapndarshi
ur profile says u r in biotech field pl read smtg about human nutrition. esp pulses vs meat in terms of protein content and quality.
when it comes to understanding of nutrition and ecology a background in biology is very handy. maybe the fallowing Mayo Clinic's small webpage can be of help:
http://www.mayoclinic.com/print/vegetarian-diet/HQ01596/METHOD=print
May 16, 2008 5:44 PM

Udan Tashtari said...
जी, अच्छा विमर्श है. आभार.
May 16, 2008 5:54 PM

आर. अनुराधा said...
मुद्दा यह था कि खान-पान का कैंसर से क्या संबंध है। और वैज्ञानिक बार-बार साबित कर रहे हैं कि मांसाहार कैंसर के लिए मुफीद माहौल बनाने में सक्रिय भूमिका निभाता है। दूसरी तरफ घास-पात में बहुत कुछ है जो कैंसर को रोकता है। और फिर, मांसाहार में कुछ भी अतिरिक्त अच्छा नहीं है (शायद स्वाद के अलावा) जो शाकाहार में नहीं मिल सकता। वैसे ब्रिटेन के भौतिकविज्ञानी ऐलन कालवर्ट मांसाहार से नुकसान का एक और ऐंगल सुझाते हैं- ग्लोबल वार्मिंग! दिलचस्पी हो तो देखें- http://www.treehugger.com/files/2005/07/cut_global_warm.php
May 17, 2008 7:41 PM

swapandarshi said...
This post has been removed by the author.
May 18, 2008 12:55 AM

swapandarshi said...
This post has been removed by the author.
May 18, 2008 1:26 AM

swapandarshi said...

I hope we are not discussing personal eating habbits here and taking sides becoz of our narrow personal perspectives.
I am here, to understand and contribute about the various aspects associated with the diets. Most creative people do experiments with Dietetics,
including Gandhiji, who spent a significant part of his autobiography and life doing this. I appreciate very much that Anuradha is doing a good job from the perspective of cancer.


In the first comment, I expressed a casual opinion (that we have ti die one or the other way)becoz as a person I can not determine absolutely what to eat, it depends on my pocket and availability of the desired product in the market, my genetic disposition and taste which was more or less got established when I was a child myself.

I can only carefully choose what is available. It does not mean that we behave in irresponsible manner. But rather, we as a individual , live in a society and are bound by the larger frame.


With that respect, when I am in india, I can not enjoy, fresh salad. the reason for that is often "sewage or human-animal waste" is not separated from the fields and harbors nematode cysts.

so the thing is that "ek museebat se bacho to doosaree aa gheratee hai". so koee ek museebat to chunanee hee hai.

So as a human being, not as a scientist, I have a philosophy, that if any human being can eat a particular food, it is good enough for me too, if I can not change possibility
for others.

The second thing is, if somebody has invested love and efforts for preparing a food for me, then also I will eat and sometimes, my health/preference is less important than a good friendship, or human relation.

The most important is, I will never show disgust for any food,



As per iron and veg diet......


There are two issues with iron,
1- availability of iron
2-bioavailability of iron, means that body can absorb iron from the diet.

although veg do have iron but solely, veg diet does not help iron absorption, its a known fact.
second the pulses rich in protein have something called "phytase" which reduces ability of our body to absorb iron.

see http://jn.nutrition.org/cgi/content/abstract/123/5/940

Among dietary factors, only ascorbic acid (Carlson
and Miller 1983, Gillooly et al. 1984, Hallberg and
Rossander 1982, Morck et al. 1982, Rossander et al. 1979) and meat (Björn-Rassmussen and Hallberg 1979, Cook and Monsen 1976, Gordon and Godber 1989, Hurrell et al. 1988, Layrisse et al. 1969) consistently enhance iron bioavailability.


Meat is both a source of highly bioavailable iron (heme) and has the ability to enhance both heme and nonheme iron absorption
(Kane and Miller 1984).

Recent survey also show that the 56-60% of women and children are anemic and have iron deficiency in india, including the middle class. I believe that apart from the economic factors,
-food habbit, specially the veg habbit
-thalessemia
are culprit.

When I see the demographic chart of thalessimia, it is prevalent in India, and yet most doctors hardly do anything to test if the anemia is due to the thalesemia or just becoz of the diet. So most people end with iron tabs.

Lets go back to thalesemia, yes it is a recessive genetic allelic condition, but even heterozygous parents who are not anemic, can have a thelesemic child suffering from major thalesemia, or a person with heterozygous condition can have minor thalasemia. AND A GOOD FRACTION OF INDIAN SOCIETY IS THALESEMIC.
This condition, the genetic mutations in beta globulin chain is indeed has evolved in areas which have high maleria.
And with this respect, one has to think about the iron absorption and the bioavailability of iron. Iron tabs here are not solution.

meat will not cure thalessemia, but it may help higher absorbtion of iron, which can be advantageous in such condition, and the from a meat diet, the iron is in heame form and will have longer availability within the body.

I agree that food chain is very much contaminated and animals will have more concentration in their bodies than the vegies.

However, fruits and vegies are also not safe from chemical. They are full of pesticides as well and often its not possible to eat without peeling, the part which has good anti-oxidants.
Couple of years ago I was talking to a apple grower and he told me that with the advent of new "water-resistant" pesticides, they save money and time to spray pesticide again and again.
vegies and fruits are so full of these chemicals that even if you wash with the water several time, its difficult to get rid of them.

In America, you get a special soap to wash fruits and vegies.

Well, organic food is the best option, the meat can be free of hormones and antibiotics and veg free of chemicals.
but it is limited and it is not possible to feed the world population with organic food either.

Apart from the scientific reasons there are several issues associated with food safety and food choice.

Most people prefer veg meal in India because of religious reason than scientific ones. And in most veg household, men are free to eat outside and do so.
so the women are left veg.

The second aspect is about the public education, and law and order system, and adulteration so prevalent in indian market. Do we really have a choice if bazaar is not forced to label things honestly. Where do we have such possibilities in India?
Where are active consumer forums? we are just a dump site?

We have pesticides in the market. any body can purchase, but where is the infra-structure or support which can give the farmer training for pesticide application? Ideally, the pesticide applicator needs training, equippments, and special costume. and the area under pesticide application should not have people marching unwarranted.

But Indian farmers only know that pesticide works, they do not know how much is enough? how to use?

these pesticides have great potential to cause cancer and other diseases.
May 18, 2008 7:48 AM

आर. अनुराधा said...
Sathiyo, yah bahas to dilchasp hai aur lambi chalane ki kuvvat rakhatee hai. To kyon na ise reject maal(rejectmaal.blogspot.com) par jaari rakhen? Main ise wahaan post kar rahee hun. AAp sab wahan amantrit hain.
May 19, 2008 10:52 AM

Friday, May 16, 2008

कोर्ट का हर आदेश मानना जरूरी नहीं होता..

... हर अदालती आदेश की अवहेलना मानहानि नहीं है... न ही सरकार के लिए हर वादा पूरा करने की मजबूरी है... संसदीय कमेटी की रिपोर्ट को मानने के लिए सरकार बाध्य नहीं है... लेफ्ट पार्टियां जनहित के सारे मुद्दे नहीं उठाती... न ही आपकी सेहत विपक्ष के एजेंडे पर है। क्योंकि इन सबसे बड़ा है बड़े कॉरपोरेट का हित। कॉरपोरेट सेक्टर और राजनीति के लगभग खुल्लमखुल्ला रिश्तों और इस पर कोर्ट की चुप्पी की कहानी पढ़िए, आज के नवभारत टाइम्स में। शीर्षक है - सस्ती दवा, खोजते रह जाओगे

Monday, May 12, 2008

मिलिंद खांडेकर के पिता का निधन

इस समय स्टार न्यूज से और उससे पहले आज तक , नवभारत टाइम्स , जनसत्ता और मुंबई से छपने वाले दोपहर से जुडे मिलिंद दक्षिण दिल्ली के सफदरजंग डेवलपमेंट एरिया में रहते हैं। उनके माता-पिता इंदौर से दो दिन पहले ही आए थे। वो इंदौर में मिलिंद के छोटे भाई के साथ रहते थे।

मिलिंद के पिता कल शाम हमेशा की तरह टहलने निकलने। लेकिन इंदौर में टहलने और दिल्ली की इंसानों को निगलने वाली सड़कों पर टहलने में फर्क है, जिसे सत्तर साल के बाबूजी शायद समझ न सके। किसी तेज रफ्तार मोटरसाइकिल ने उन्हें टक्कर मारी और दिल्ली के हिट एंड रन केस में एक और नंबर जुड़ गया। पुलिस कंट्रोल रूम की गाड़ी उन्हें एम्स के ट्रॉमा सेंटर (ये सेंटर इस तरह के गंभीर मामलों से निबटने के लिए अभी तैयार नहीं है) लेकर आई, जहां आज दोपहर बाद 2 बजकर 40 मिनट पर उनका देहांत हो गया।

उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के लोधी रोड शवदाह गृह मे हुआ, जहां मिलिंद के सहयोगी, मित्र और पत्रकारिता जगत से जुड़े लोग बड़ी संख्या में मौजूद थे।

Sunday, May 11, 2008

सस्ती दवा के लिए यूपीए सरकार की ओर मत देखिए!

दवा नीति बनाने में नाकामी के चार साल

जब आप दवा लेने जाते हैं तो यह संभव है कि आपको एक ब्रांड दस रुपये का और दूसरा ब्रांड 200 रुपये का मिले। दोनों दवाएं नामी कंपनियों की होंगी। आप इनमें से कौन सी दवा खरीदेंगे? 10 रुपए वाली? नहीं, आप वही दवा खरीदेंगे जो आपका डाक्टर पर्ची पर लिखकर देगा। दरअसल यह मामला 55 हजार करोड़ रुपये की भारतीय दवा इंडस्ट्री की दिशा तय करता है।

पूरा लेख पढ़िए जागरण के ई-पेपर में।

Thursday, May 8, 2008

अदालत की भी जाति होती है

जानने के लिए वेणुगोपाल बनाम भारत सरकार मुकदमे पर सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला देखें। इस मुकदमे के बारे में जिन्हें एक शब्द भी नहीं मालूम, क्या वो भी इस मामले में किसी और फैसले की उम्मीद कर सकते थे। ऐसे फैसले तो उस दिन ही लिख जाते हैं, जिस दिन ऐसे मुकदमे दायर होते हैं। वेणुगोपाल को तो इस कानूनी लड़ाई में जीतना ही था। एम्स के हड़ताली डॉक्टरों पर नो वर्क नो पे के विपरीत जाकर सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी साफ कर दिया था कि वो पक्षपात से परे नहीं है और जज भी समाज का ही सदस्य होता है।

सुप्रीम कोर्ट शायद अदालतों की उसी ऐतिहासिक भूमिका को निभा रहा है, जिसकी उससे दुनिया भर में अपेक्षा होती है। अदालतों का काम कानून की व्याख्या करना और तय परंपराओं और मान्यताओं, कुल मिलाकर यथास्थिति को बनाए रखना है।

भारतीय लोकतंत्र के सस्थापकों को संविधान लागू करने के पहले साल में ही इसका एहसास हो गया था कि अदालतें यथास्थिति तोड़ने में बाधक बनेंगी। भूमि सुधार के हर कानून पर जब अदालतों ने अड़गा लगाना शुरू किया तो, जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने ( डॉ आंबेडकर इस सरकार में कानून मंत्री थे) संविधान में नवीं अनुसूचि जोड़कर संसद की श्रेष्ठता स्थापित की। इसके पीछे सोच ये थी कि लोकतंत्र में लोक की इच्छा की सबसे सटीक अभिव्यक्ति संसद में ही हो सकती है। इस अनुसूचि में डालने पर कानून न्यायिक समीक्षा से परे हो जाता था।

लेकिन मनमोहन सरकार की काहिली देखिए कि सुप्रीम कोर्ट ने नवीं अनुसूची के कानूनों को न्यायिक समीक्षा के दायरे में लाने का फैसला दे दिया और सरकार में एक पत्ता भी नहीं हिला। देखें संविधान पीठ का पूरा फैसला। सरकार के पास ये विकल्प था कि वो संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर इस फैसले को पलटने पर आम सहमति बनाती।

लेकिन जिस सरकार में सामाजिक न्याय के लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, शरद पवार, रामदॉस, डीएमके जैसे चैंपियन शामिल है और भूमि सुधार की सबसे बड़े समर्थक लेफ्ट पार्टियां जिस सरकार को टिकाए हुए है, वो सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खामोश रह गई। ये सरकार संसद की सर्वोच्चता को नष्ट करने के लिए लंबे समय तक पापी मानी जाएगी। कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज की भूमिका हमेशा शक के दायरे में रहेगी।

अब इस देश में कौन सा कानून लागू होगा ये जजों का एक क्लब तय करेगा, क्योंकि जजेज एक्ट के तहत जजों की नियुक्ति का अधिकार जजों को है। और इस बारे में आप कुछ नहीं पूछ सकते, क्योंकि सूचना के अधिकार से वो परे हैं। ये नियुक्ति यूपीएससी से परे है, संसद से परे है, कानून मंत्रालय से परे है और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में ये नहीं आता। जजों की नियुक्ति रिजर्वेशन के संवैधानिक प्रावधानों से परे है। देश के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों में 90 फीसदी से ज्यादा सवर्ण पुरुष हैं।

गलत आचरण के बावजूद जजों को हटाया जाना लगभग असंभव है, ये पूरे देश ने रामास्वामी केस में देखा है। उनके भ्रष्टाचार के बारे में बात नहीं हो सकती, क्योंकि ये अदालत की मानहानि है। -दिलीप मंडल

Tuesday, May 6, 2008

हम सारी दुनिया मांगेंगे...

नवंबर 1996 में बना महिला आरक्षण बिल आखिरकार राज्यसभा में

"लंबे समय से टल रहे महिला आरक्षण विधेयक को सरकार मंगलवार को राज्यसभा में पेश करने जा रही है. हालाँकि कई दल इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं.

सोमवार को देर रात केंद्रीय मंत्रिमंडल को बैठक में ये तय हुआ है कि विधेयक को पहले राज्यसभा में पेश किया जाए.

नियमों के अनुसार इसके बाद इस विधेयक को संसद की स्थाई समिति के सामने रखा जाएगा और सांसद समिति की बैठकों में विधेयक पर अपने सुझाव दे सकेंगे.

विधेयक इस सत्र में लोक सभा में पेश हो नहीं पाएगा क्योंकि लोकसभा का सत्र सोमवार को ही ख़त्म हो गया."

-बीबीसी हिन्दी.कॉम


हिंदुस्तान की राजनीतिक संस्थाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण के मुद्दे में दिलचस्पी है तो इस तसवीर पर गौर कीजिए। हाल में चर्चित हुई यह तसवीर आपने जरूर देखी होगी। यह हैं, स्पेन की नई रक्षा मंत्री कारमे चाकोन। पूरा नाम है कारमे चाकोन पीकेर्रास जो वहां हाल ही में प्रधानमंत्री जोस लुईस रॉड्रिग्ज़ ज़पातेरो के नेतृत्व में गठित नई सरकार में शामिल हैं। स्पैनिश सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी के ज़पातेरो दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं। उनके इस नए मंत्रिमंडल की कुछ खास बातें--
--17 सदस्यों के मंत्रीदल में नौ महिलाएं और आठ पुरुष हैं।
--देश की पहली महिला रक्षा मंत्री 37 वर्षीया कारमे चाकोन बनी हैं। पिछले मंत्रिमंडल में वे हाउसिंग मिनिस्टर थीं।
--कारमे चाकोन ने जब अप्रैल में कार्यभार संभाला तब वे सात माह की गर्भवती थीं।
--सबसे सक्रिय मंत्रियों में शुमार चाकोन ने इसी हालत में मज़े से सैनिक परेड का निरीक्षण भी किया।
--10 साल पहले तक यहां महिलाओं के लिए सेना के दरवाज़े बंद थे। आज स्पेन की सेना में शामिल 1.30 लाख सैनिकों में 15 फीसदी महिलाएं हैं।
--पुरुष प्रधान देश में लैंगिक समानता लाना सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है।
--स्त्री-पुरुष समानता के लिए नया समानता मंत्रालय बनाया गया है जिसकी पहली मंत्री एक महिला- 31 वर्षीय विवियाना आइदो हैं। स्पेन के इतिहास में उनका नाम सबसे कम उम्र मंत्री के तौर पर दर्ज हो गया है।
--मारिया तेरेसा फर्नांडेज़ दे ला वेगा 2004 में स्पेन की पहली उप-प्रधानमंत्री बनी थीं। वे नई सरकार में फिर उप-प्रधानमंत्री बनी हैं।
--मॉलिक्युलर बायलोजी की विशेषज्ञ क्रिस्टीना गारमेन्दिया एक और नए मत्रालय- विज्ञान और खोज का काम देख रही हैं।
--सरकार ने तलाक की प्रक्रिया सरल बनाने, नौकरियों में औरतों की संख्या बढ़ाने के लिए कानून बनाए और कंपनियों के बोर्डरूम और चुनावी मैदान में ज्यादा औरतों को जगह देने की जोरदार वकालत की है।
--इस देश में 36 साल तक तानाशाही रही। यहां का लोकतंत्र अभी महज 30 साल पुराना है।

* और बीबीसी हिंदी की वेबसाइट पर एक और दिलचस्प खबर है, इस लिंक पर गौर कीजिए।
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