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Wednesday, July 16, 2008

गंगा तट पर परंपरा से टकराती/जुगलबंदी करती आधुनिकता और कुछ अबूझ पहेली

पहाड़ों से दोस्ती है और गंगा से अपनापा है, सो साल में एक से ज्यादा बार गंगा दर्शन करने जरूर जाता हूं। पिछले दिनों भी गया था। हरिद्वार के पास राजाजी नेशनल पार्क के चिल्ला जीएमवीएन गेस्ट हाउस में एक बार फिर ठहरना हुआ। भीमागौड़ा बराज से इन दिनों पानी उफन रहा है, मानो गंगा को किसी बात से शिकायत है या फिर नाराजगी! कौन बताएगा? गंगा के गुस्से में शोर है, पर उसे शब्द कौन देगा। भाई राजेन टोडरिया जी का टिहरी विस्थापन पर उपन्यास जब आए, तो सबको पढना चाहिए।

बहरहाल इस बार की गंगा यात्रा में बाकी सबकुछ तो सामान्य ही था। गंगा का शीतल पानी, देश भर के लोगों को अद्भुत जमावड़ा। कहीं कहीं परंपरा से टकराती आधुनिकता और ज्यादातर मामलों में परंपरा और आधुनिकता की जुगलबंदी। गलबहियां डाले घूमती आधुनिकता और पंरपरा और हर बाबा के हाथ में मोबाइल। वक्त बदल रहा है और बहुत तेजी से बदल रहा है। कुछ तो समझ में आता है और बहुत सारा अबूझ रह जाता है। ऐसी ही एक अबूझ बात के बारे में आप सबका मार्गदर्शन चाहिए।

उस दिन (रविवार) हर की पैड़ी (पौड़ी कहने वाले कम नहीं हैं) में स्नान कर रहे हजारों पुरुषों के खाली बदन में से सिर्फ एक जनेऊधारी मुझे क्यों दिखा? कई घंटे तक वहां रहने के बाद में मुझे साफ दिख रहा था स्नान करने वालों में जनेऊ धारण करने वाले लोग नदारद हैं।

इसकी क्या व्याख्याएं हो सकती हैं।
क्या अवर्ण लोगों में आस्था के प्रति रुझान बढ़ा है?
क्या इस युग में आस्था और परंपरा के वाहक सवर्ण नहीं बल्कि अवर्ण हैं?
क्या आस्था का सवर्ण प्रभुत्व वाला व्यवसाय अवर्ण जनसमुदाय के बूते चल रहा है?
क्या अवर्ण लोगों के लिए ये समृद्धि का दौर है और तीर्थ यात्रा या तफरीह के लिए वो ज्यादा संख्या में घरों से बाहर निकल रहे हैं?
क्या आधुनिकता को अपनाने में सवर्ण आगे हैं और पुरानी परंपराओं का ढोने का जिम्मा अब अवर्णों का है।

सबसे पहले तो हरिद्वार का कोई पत्रकार/ब्लॉगर/साहित्यकार/फोटोग्राफर ये बताए कि जो मुझे दिखा वो तथ्य है या नजरों का फेर या वो है जो मैं देखना चाहता था। अगर तथ्य वो नहीं हैं जो उस खास दिन और खास घंटों में मुझे दिखा, तो फिर इस प्रकरण को बंद समझा जा सकता है। लेकिन अगर वो सच है तो समाज में कुछ तो बदल गया है और कुछ और है जो बदल रहा है। - दिलीप मंडल

6 comments:

Anonymous said...

ज्यादातर सवर्णों ने जनेऊ पहनना छोड़ दिया है। जनेऊ को पिछड़ेपन की निशानी माना जा रहा है। किसी एमएनसी के दफ्तर में एक युवा प्रोफेशनल की कल्पना कीजिए जो टॉयलेट में कान पर जनेऊ बांध रहा हो। नहीं कर पाएंगे न ऐसी कल्पना। गंगा तट पर आपने जो देखा उसका एक पहलू ये भी है।

Anonymous said...

मण्डल भाई वर्ण व्यवस्था विरोधी हो यह तो बिलाग के लिखा-पढ़ी से पहिलन समझ मा आवत रहा,मुला सैडिस्ट भी हो यह आज ही न पता लगा.तोहरा आदर्श लालू यादव पहिले बता हि न चुके हैं कि उइ और उनकी परंपरा के लोगन बा बिना जनेऊ के ही न थुल-थुल मूत लेवते हैं तो एहमा कॊनॊं अचम्भा आप का नाहीं न लगना चाही. वैसन यू बतावा जाए कि मूतत भये ल्वागन का दिखबे का यो नवा सौक तोहरन का कब से लागल बा?

Ek ziddi dhun said...

आप जो हरिद्वार जाकर सोचते हैं, वो मैं एक कारपोरेट ऑफिस के हाजतघर में जाकर अक्सर सोचता हूँ. नौकरी, कपड़ो और लटको-झटको से अल्ट्रा माडर्न दिखने वाले एक शख्स कान पर जनेऊ रखकर मूतते हैं. व्याख्या आप करें, मैं सिर्फ़ ये महसूस करता हूँ कि जो जनेऊ कान पे धरे बिना मूत रहे हैं, वो भी दलितों के लिए आग ही मूत रहे हैं. एन डी टी वी के महान बुद्धिजीवी आरक्षण मसले पर अपनी असलियत दिखा ही चुके हैं

Satyendra PS said...

भाई साहब, ये तो आप अपने हाफपैंटी साथियों से पूछ सकते हैं। आपके बारे में समझ में नहीं आता कि विचारों से तो आप वामपंथी और प्रगतिवादी लगते हैं, लोग आपको जातिवादी समझते हैं, और पता नहीं क्या क्या आपके ब्लॉग पर (और व्यक्तिगत बातचीत में भी) आरोप लगाते रहते हैं। मुझे तो लगता है कि आपके पहले पक्ति वाले साथी ही सही ढंग से बताएंगे।
रही बात दलित-पिछड़ों की। वे तो शुरू से ही धर्म को ढोते हैं। सवर्ण कहे जाने वाले लोग तो इसे अपने पक्ष में केवल प्रयोग ही करते हैं। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।
व्यावसायिक समाज में भी तो लोग इसे अच्छी तरह समझते हैं। आप हिंदी मीडिया में रहे हैं, प्रसार के बावजूद इन्हें विग्यापन क्यों नहीं मिलता? कंपनियां जानती हैं कि अगर बड़े लोग (अंग्रेजी दां) इसे अपना लेंगे, तो निम्न मध्यम और उससे नीचे का तबका तो खुद-ब-खुद उसे स्वीकार कर लेगा। उसके बीच प्रचार में धन अपव्यय की जरूरत ही नहीं है।
ऐसा ही कुछ धर्म या अन्य मामलों में भी है। जातीय रूप से उच्च कहे जाने वाले लोग जो करते हैं, निम्न कहे जाने वाले उसे अपनाते हैं। अगर उच्च कहे जाने वाले जनेऊधारी धर्म नहीं मानेंगे तो निम्न भी धीरे-धीरे उसे छोड़ेंगे। समय का इंतजार करिए, गंगा मइया की जै कहने वाले लोग नजर नहीं आएंगे। यूरोपीय या अमेरिकी देशों की तरह वह नदी मात्र रह जाएगी।

आर. अनुराधा said...

दिलीप जी, एक बड़ी संभावना की तरफ तो आपका ध्यान ही नहीं गया जो कि आम जीवन की बड़ी सच्चाई है। अब से कम से कम 20 साल पहले से (मैं गलत भी हो सकती हूं, आंकड़ों से मेरा बैर जो रहता है)ये चल रहा है कि बामन के जनेऊधारी होने की अनिवार्यता में वो कड़ाई नहीं रह गई है। संभव है उस गंगा धाट पर कई बामन थे जिन्होंने जनेऊ तज दिया है। अब तो उन्हें सिर्फ ऐसे गिने-चुने मौकों पर ही जनेऊ की जररत पड़ती है जहां उन्हें अपने समाज के लोगों के सामने कमर से ऊपर के कपड़े उतारने पड़ते हैं। क्या आपने कभी इस तरफ गौर किया?

स्वप्नदर्शी said...

क्या अवर्ण लोगों में आस्था के प्रति रुझान बढ़ा है?
क्या इस युग में आस्था और परंपरा के वाहक सवर्ण नहीं बल्कि अवर्ण हैं?
क्या आस्था का सवर्ण प्रभुत्व वाला व्यवसाय अवर्ण जनसमुदाय के बूते चल रहा है?
क्या अवर्ण लोगों के लिए ये समृद्धि का दौर है और तीर्थ यात्रा या तफरीह के लिए वो ज्यादा संख्या में घरों से बाहर निकल रहे हैं?
क्या आधुनिकता को अपनाने में सवर्ण आगे हैं और पुरानी परंपराओं का ढोने का जिम्मा अब अवर्णों का है
I think all of these are contributing factors and eventually Janeu is out of fashion

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