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Monday, December 20, 2010

फेसबुक पर चली एक बहस: संदर्भ सचिन और विनोद कांबली

Dilip's Profile • Dilip's Wall

Dilip Mandal
सचिन को बार बार मौका मिला, लेकिन एक खराब फॉर्म और कांबली का खेल खत्म। :

सचिन तेंडुलकर: टेस्ट एवरेज 56.91 (175 टेस्ट, 286 पारी)
फर्स्ट क्लास एवरेज - 59.86 (278 मैच)
विनोद कांबली: टेस्ट एवरेज 54.20 (सिर्फ 17 टेस्ट, 21 पारी)
फर्स्ट क्लास एवरेज - 59.67 (129 मैच)

कुछ लोगों को असफल होने के मौके बार-बार मिले। ऐसा मौका न मिलने से कई लोग इतिहास बनते-बनते रह गए।

Vinod Kambli
www.espncricinfo.com
Vinod Kambli's Cricinfo profile
8 hours ago • Like • Comment • Share
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o Madan Kumar, Vibha Tailang, Sanoj Kumar Choudhary and 56 others like this.
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Om Prakash Pandey eho Dalit tha ka maharaaj !!!!!
7 hours ago • Like • 2 people

Obc Mulnivasi Mission Mulnivasi Cricket ka brahman wad sabko nahi samajhne wala
7 hours ago via Facebook Mobile • Like • 3 people

Arman Neyazi This is what is called luck.Three disciples of one Guru, all better than the other. Only one achieved what all three deserved. Vinod and Manjrekar were much better in many ways but alas, luck had the last laugh.
7 hours ago • Like

Dilip Mandal ‎17 मैच में कांबली ने दो शतक और दो दोहरे शतक (224 और 227) बनाए। सचिन ने पहले 17 मैच में तीन शतक बनाए।
7 hours ago • Like • 3 people

Sanjay Samant भारत मे २ प्रकार के LUCK होते है.. एक है LUCK by CHANCE और दुसरा है LUCK by CASTE..
7 hours ago • Like • 6 people

Dilip Mandal ‎17 टेस्ट मैचों में कांबली के 1084 रन थे। जबकि इतने ही मैचों में सचिन के रन थे 956। लेकिन कांबली आउट हो गया।
7 hours ago • Like • 2 people

Om Prakash Pandey vaise Tendulkar ki CASTE Kya hai???
7 hours ago • Like

Keshav Acharya CASTE..........Tendulkar
7 hours ago • Like

Om Prakash Pandey jab baat caste ki hin nikli hai to soche isi bahane Tendulkar ka bhi maloom kar lein !!! By the way ..the cricket was ruined by lobbing...or iske praneta rahe..Sunil Gawaskar.....pahle saare khiladi maharastra se hin hote the..then kheshtravaaad aya.....ab kamse kam..fair hai..sabko chance milta hai !!!
7 hours ago • Like

Bunty Sood agree sir !!!!!!!!!
7 hours ago • Like

Swatantra Mishra aisa nahi hai..kambli ko bhi mauke mile...kambali bhi pratibhasaali rahe...lekin sachin se unki tulna nahi ho sakti...aisa main hi nahi balki lara..bradman..sahit duniya ka shrasht ballabaaj aur gendbaaj kahta hain...sachin ne bahuton ke carrier banae me madad ki..dhoni..yuvraaj..harbhajan...
7 hours ago • Like • 1 person

Dilip Mandal सचिन ने 15वीं पारी में जाकर पहली सेंचुरी बनाई। इससे पहले 14 पारियों में उनके रन थे- 15, 59, 8, 41, 35, 57, 0, 24, 88, 5, 10, 27, 68
7 hours ago • Like • 3 people

Dilip Mandal कांबली की शुरुआती पारियां इस तरह हैं- 16, 18 (नॉट आउट), 59, 224, 227, 125, 4, 120, 5, 82, 57...इसके बात साट टेस्ट मैच का खराब फॉर्म और जिंदगी भर के लिए आउट
7 hours ago • Like • 2 people

Arvind Soni क्रिकेट की दोड़ में सचिन कछुआ था और काम्बली खरगोश ....शुरुआती दिनों में काम्बली ज़रूर आगे था पर वो आगे जाकर सचिन की तरह अनुशासन व क्रमबधता नहीं रख पाया ... बहुत समय पहले कपिल देव का एक विज्ञापन आता था कावासाकी मोटर साईकल का जिस में वो कहते है " चेम्पियन वही बनता है जो लगातार दोड़े , बिना रुके बिना थके " सचिन व काम्बली ने दोड़ एक साथ शुरू की थी पर काम्बली बिच में थक गये और सचिन आज भी दोड़ रहे है इसीलिए वो चेम्पियन है....
7 hours ago • Like • 5 people

Dilip Mandal अभिषेक बच्चन को पहली हिट फिल्म से पहले 26 फ्लॉप फिल्में में काम करने का मौका मिला। इसे कहते हैं मेरिट।
7 hours ago • Like • 5 people

Kuldeep Wasnik TENDULKAR to 'Brahman' he. Aur rahi baat madat ki usne apne carier ke end me ki. To is se brahmano ko acha kahne ki jarurat nahi . Waise cricket ki history me brahman baniyo ka hi raj raha he eg. Gavaskar-Dev-tendulkar-ganguli- dravid
7 hours ago via Facebook Mobile • Like

Rahul Shinghal Dilip Bhai, What do you think is the probable reason to keep on having faith in sachin inspite of repeated failures?
7 hours ago • Like

Kuldeep Wasnik Brahman to Brahmno ka hi paksh lega
7 hours ago via Facebook Mobile • Like

Dilip Mandal वैसे जिनकी दिलचस्पी है वे यह किताब पढ़ सकते हैं - ब्राह्मण एंड क्रिकेट, लेखक एस आनंद, मूल्य 200 रुपए। पेपरबैक में, पतली सी किताब है, बहुचर्चित भी। नतीजों से आप असहमत हो सकते हैं।http://www.flipkart.com/brahmans-cricket-anand-s-book-8189059033
7 hours ago • Like

Dilip Mandal ‎"How did a priestly class-soft, even effeminate-come to dominate a sport? Why does such dominance not extend to hockey or football?In Brahmans and Cricket, S. Anand seeks answers to unasked questions"
7 hours ago • Like • 2 people

Jayantibhai Manani
मित्रों,उच्च जाति में जन्म ले कर जो क्रिकेटर बनता है उसको जरुर आसानी होती है क्योकि क्रिकेट बोर्ड पूरा ब्राह्मण-बनियों की बपोती बन चूका है.हमारे देश में जातिवाद हर क्षेत्र में हावी है. विनोद काम्बली अगर उच्च जाति में जन्मा होता तो उसको और आगे खेलने मिलने की पूरी संभावना थी. सचिन अगर लोअर कास्ट में जन्मा होता तो उनकी कारकिर्दी इतनी लंबी चलाने की संभावना कम थी.
--------फिर भी मित्रों सचिन के ५०-वे शतक पर हमारी बधाई है, क्योकि हम भी भारतीय है और सचिन भी भारतीय है. और हमें गर्व है की विश्व में हमारा एक भारतीय बेट्समेन न. १ बन चूका है.
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Sameer Yadav
‎@ दिलीप भाई, सचिन के साथ तुलना कर काम्बली के लिए न्याय बिलकुल बेमानी है. किसी और से तुलना करते तब शायद यह विमर्श का विषय बन सकता था. प्रतिभा के स्तर पर काम्बली निर्विवाद थे, यह तो उनके कोच के साथ-साथ सभी जानकार कहते हैं. लेकिन क्रिकेट के खेल में प्रतिभा के साथ जो अनुशासन, समर्पण, एकाग्रता और निष्ठा चाहिए , वह काम्बली में कम रहा. एक बार सफल होने के बाद , तब के आस्ट्रेलिया टूर पर ही वह फिसल गए थे. रही बात मौके की तो उन्हें पर्याप्त मौका मिला था लेकिन वे इसे भुना नहीं सके. प्रतिभा को सही रूप में प्रस्तुत करने हेतु जो प्रतिभा होनी चाहिए, उसका नितांत अभाव रहा काम्बली में...यह उनके जीवन शैली और सोच से स्पष्ट होता है. [ उनके क्रिकेट के अलावा गतिविधि देखिये ]. क्रिकेट में प्रतिभाशाली और अवसर मिलने के बाद भी असफल होने वाले खिलाडियों की सूची लम्बी है.......जो नरेन्द्र हिरवानी, शिवरामकृष्णन से आजकल इरफ़ान पठान तक जारी है. प्रतिभा के बाद भी अपने व्यक्तिगत कारणों से निरंतर नहीं रहने वालों में युवराज प्रमुख हैं.. इसे "जातिवाद" या "लाबिंग" से जोड़कर देखने पर भी काम्बली ..... कहीं से भी एक खिलाडी और इंसान के रूप में सचिन के पासंग भी नहीं है. फिर भी मैं सचिन को इस स्तर के विमर्श से अलग रखना चाहूँगा.
7 hours ago • Like • 4 people

Prashant Priyadarshi
काम्बली ने शुरुवात में जितना अच्छा Avg दिया, मगर उसका Avg लगभग उतना ही है जितना सचिन ने 175 मैच में दिया.. मतलब सीधा सा इतना ही है कि काम्बली से कई गुना अच्छा Avg सचिन ने अपने कैरियर के बीच में दिया होगा..

और हाँ, क्रिकेट को मैं इतना महत्त्व नहीं देता कि दो सौ रूपये बर्बाद करूँ..
7 hours ago • Like • 1 person

Rahul Shinghal So you mean one should belive in jatiwad
6 hours ago • Like

Dhiraj Ambade ye bhi dekhna chahiye ki sachin ke pehle 17 test me kya avrg tha. shayad kambli se kam..
6 hours ago • Like

Dilip Mandal बिल्कुल शुरुआती दौर में सचिन का एवरेज कांबली से कम था।
6 hours ago • Like

Prashant Priyadarshi बिलकुल कम रहा होगा, मगर कभी न कभी उसके कैरियर का Avg 80-90 से ऊपर रहा होगा तभी तो अभी का उसका Avg उसके बराबर है?? मगर वो 1997 में अपनी असफलता देखकर दूसरों पर इल्जाम नहीं लगाया(जैसा कि 1996 विश्व कप के बाद काम्बली ने अनुशासन तोडते हुए किया था).. आप पत्रकार लोग हैं, बेहतर सबूत और आंकड़ा आप ही दे सकते हैं..
6 hours ago • Like • 2 people

Prashant Priyadarshi किसी भी कैरियर में मात्र अच्छा Performance देना ही बहुत नहीं होता है.. उसके साथ प्रतिबद्धता और अनुसाशन भी बेहद जरूरी तत्व होते हैं जिसे आप अभी यहाँ अप्रत्यक्ष रूप से दलित का तमगा देकर छुपाना चाहते हैं!!
6 hours ago • Like • 1 person

Sameer Yadav बहुत कम अवधि, और कम मैचों के आंकड़ों के आधार पर तो काम्बली के अलावा कई ऐसे खिलाड़ी हैं जो सचिन से बीस साबित होंगे लेकिन उसके बाद की सच्चाई तो दुनिया जानती है. सचिन जैसे एक निर्विवाद सच्चे खिलाड़ी को इस तरह के विमर्श का विषय बनाकर आप जानते हैं, आप क्या कर रहे हैं.
6 hours ago • Like • 4 people

Arvind Soni अभिषेक और हिट फ़िल्म !!!... कोनसी फ़िल्म है वो ...
6 hours ago • Like • 3 people

Vijay Rana Sorry Dilip you are wronghere. Pl read the Cricinfo link more carefully: 'He often got himself into a tangle against the short ball, and his flash to gully soon became a trademark. Kambli's problems were compounded by indiscipline... He made as many as nine comebacks into the one-day team.'
6 hours ago • Like • 1 person

Dilip Mandal कांबली को बहुत मौके नहीं मिले। जनवरी 1993 में कैरियर शुरु हुआ। आखिरी टेस्ट नवंबर 1995 में खेला। एक ही खराब फॉर्म और खेल खत्म। बाद में फर्स्ट क्लास क्रिकेट में अच्छे प्रदर्शन के बावजूद उन्हें एक भी और मौका नहीं मिला।
6 hours ago • Like • 2 people

Prashant Priyadarshi पूरा आंकड़ा के आकांक्षी हैं हम.. सचिन के नाम पर ये हवा-हवाई बातें कोई भी भारतीय नहीं मानना चाहेगा..
6 hours ago • Like • 1 person

Dilip Mandal अभिषेक की पहली हिट फिल्म बंटी और बबली। इससे पहले असफल फिल्मों की लंबी कतार। अवसर मिलते गए बाबू फ्लॉप देते रहे।
6 hours ago • Like • 2 people

Prashant Sharma I there there are so many things, so many facts and stories beyond these stats. Sachin has been the most consistent performer of team India since the time I am watching cricket. He has got everything that makes one a great cricketer, and most importantly, a great human being. So please, I'd request you to check your facts before bashing a player like Sachin.
6 hours ago • Like • 2 people

Prashant Priyadarshi शतक ना बनाते हुए भी सचिन ने पहले वर्ल्ड कप में 380(अपनी यादाश्त पर निर्भर हूं) से अधिक रन बनाए थे.. रन बनाने के लिए मात्र शतक ही पर्याप्त नहीं होता है..
6 hours ago • Like • 1 person

Kuldeep Wasnik Ab Brahmno ke pass merit nahi he aisa siddh hone per anushasan ki baat kar rahe ho
6 hours ago via Facebook Mobile • Like • 3 people

Prashant Sharma And I also don't understand what fun some people get in writing off something which has become a great success story. I've seen happening quite a lot these days.
6 hours ago • Like

Sameer Yadav देखिये यह तो खिलाड़ी के attitude पर भी निर्भर करता है, मैंने पहले ही कहा वह आस्ट्रेलिया दौरे से ही अपने व्यवहार की वजह से एक खिलाड़ी के रूप में विश्वास खोने लगे थे. उसके बाद एक खिलाड़ी के रूप में प्रदर्शन निरंतर नहीं रहा था.
6 hours ago • Like

Prashant Priyadarshi दिलीप जी जिस तरह से चम्पत हो गए हैं उससे तो मुझे यही लगता है कि वह गलत विषय पर अपना कलम चला गए हैं.. जिसके बारे में उनके पास कोई अधिक आंकड़ा भी नहीं है और तथ्य भी नहीं है..
6 hours ago • Like • 3 people

Kuldeep Wasnik Eureshian Brahmano ne jab jab humare log aage badhate rahe tab tab sandhi ko hi nasht kiya he.
6 hours ago via Facebook Mobile • Like • 1 person

Prashant Sharma Thanks Prashant for liking my comments. People sometimes write baseless things!
6 hours ago • Like • 1 person

Prashant Priyadarshi यहाँ ब्राह्मण, दलित, सवर्ण.. इन सब कि बातें छोड़ कर सचिन और काम्बली कि बात क्यों ना करें कुलदीप जी? और वो भी तथ्यों के साथ.. हवा-हवाई बातें नहीं.
6 hours ago • Like • 3 people

Sameer Yadav दिलीप जी, आपके तर्कों को आंकड़े और इसके साथ की कोई भी दलील ठीक नहीं कर सकेंगे क्योंकि बात सचिन से तुलना की है.... किसी और से करते तो शायद जातिवाद, लाबिंग या कुछ भी ...चल जाता.
6 hours ago • Like • 2 people

Sameer Yadav सचिन जैसी प्रतिभा....एक खिलाड़ी और इंसान दोनों के रूप में एक सच्चे भारतीय का उदाहरण है. हमें उस पर गर्व है.....वह सभी प्रकार के जाति, धर्म, सम्प्रदाय और भेदभाव से ऊपर है.
6 hours ago • Like • 2 people

Dilip Mandal इन दोनों के सभी आंकड़े सबके लिए उपलब्ध हैं। इसलिए कोई नई चीज लाने का सवाल नहीं है। कांबली के साथ जो हुआ वह मुझे गलत लगता है। इतने प्रतिभाशाली खिलाड़ी का इस तरह खत्म हो जाना दुखद है। खराब पैच तो सचिन के कैरियर में भी आते रहे। जाति का इसमें कोई रोल रहा होगा या नहीं, यह क्रिकेट और सोशियोलॉजी वाले बताए।
6 hours ago • Like • 6 people

Vijay Rana The fact is once his weakness against pace was exposed, he was a sitting duck to most pacers in the world. Read the expert opinion. It's there on the Cricinfo.
6 hours ago • Like

Kuldeep Wasnik Iske liye me apko ek Mahabharat ka example deta hu . Jab DRONACHARYA(BRAHMAN) KO PATA CHALTA HE KI EKLOVYA(SHUDRA) ARJUN SE BHI AAGE BADH SAKTA HE TO DRONACHARYA USKO APNA ANGUTHA MANG LETA HE. Iska matlab usne humari sandhi ko hi nasht karta he. Aisa hi Brahmano ne kambli ke sath kiya
6 hours ago via Facebook Mobile • Like

Prashant Sharma ‎@ Dilip Ji, aap patrkar hain. Ye to aap bhi bata sakte hain ki kya Kambli ki tulna Sachin se ki jaani sahi hai?
6 hours ago • Like

Vijay Rana This debate is a good example of caste communalism. In India we relate communalism to religion only. But in the rest of the world it means mobilisation of any kind of commune - caste, relgion, language, or ideology. So in India caste communalism is growing and growing fast.
6 hours ago • Like

Om Prakash Pandey Dhoni koun see jaati ka bhai....Dileep jee aaap to Jharkhand se hin hain..aaapko to maloom hoga na !!!!
6 hours ago • Like

Prashant Priyadarshi
पिछले सत्रह टेस्ट में सचिन का कितने का Avg और रन रहे हैं?? और कितने डबल सेंच्युरी?
दिलीप जी, मैं फिर से वही कहूँगा कि आपने गलत चीज पर बिना पुरे आंकड़ों के साथ कलम चलाया है.. आपको अगर तुलना करना ही था तो काम्बली और मांजरेकर में करते.. निशाना थोड़ा सही बैठता.. मांजरेकर भी ब्राह्मण ही हैं यह मुझे बताने कि जरूरत नहीं होनी चाहिए..
6 hours ago • Like • 3 people

Sameer Yadav यदि काम्बली के साथ गलत हुआ है तो इसके लिए काम्बली जवाबदेह हैं. उनका एक व्यक्ति और खिलाड़ी के रूप में आचरण, व्यवहार, फार्म भी जवाबदेह है ..... यहाँ सचिन कहाँ से आ गये ? इस तरह के मुद्दे वाल पर लाकर काम्बली या सचिन का तो कुछ नहीं होना, हाँ दिलीप जी की विषय/ मुद्दे के चयन की विश्वसनीयता जरुर कम हुई है.
6 hours ago • Like • 4 people

Prashant Sharma Kehne mein bada dukh ho raha hai par aaj Dilip Ji ne us din ki yaad dila di jab Bal Thakrey ne Sachin par aarop lagaye the. Khair koi baat nahi, yahan kabhi kabhi log apne prejudices bhi saadh lete hain.
6 hours ago • Like

Dilip Mandal मैंने तो दो खिलाड़ियों को मिले मौकों की बात की थी और आप दोस्त लोग जाति का सवाल ले आए। अब जब बात हो ही रही है तो रामचंद्र गुहा को पढ़ लीजिए- "In a regional sense, it has democratised. But caste-wise, the composition of the team hardly reflects the diversity of our society. After Palwankar Baloo in the early part of the century, we haven't produced a single Dalit cricketer (save Vinod Kambli) at the national level."
6 hours ago • Like • 5 people

Rajendra Jadhao This is because Kambli belongs to Scheduled Caste
6 hours ago • Like

Dilip Mandal और राजदीप सरदेसाई (जो दिलीप सरदेसाई के पुत्र भी हैं ) कहते हैं - "cricket and the values it promoted fitted well with the hierarchies that our feudal and caste society engendered. It did not break them".
6 hours ago • Like

Obc Mulnivasi Mission Mulnivasi Hum jab Brahmno ko gali dete he to Brahman kuch nahi kahta. Per humare hi log hume kahte hai ki aap humesha Brahmno ko hi q jimmewar mante he? Is tar ah se Humare hi lo brahmno ko bachate he. Aur rahi baat kambli ki . To Bharat ke har kshetra me Brahmano ne kabja kar rakha he.
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Ranjit Kumar bat sahee hai...
6 hours ago • Like

Prashant Sharma Caste factor was dominant in the whole Indian society, not only in cricket. But Sachin isn't successful, or got chances as you are trying to say, because of his being Brahmin. It's his sheer brilliance with the bat and commitment towards the team that made him what he is now. You can't bash him just because he belongs to a certain so called upper caste.
6 hours ago • Like • 1 person

Prashant Sharma Arey par aap Rajdeep ki baat kab se maan ne lag gaye?
6 hours ago • Like

Rajendra Jadhao क्रिकेट हमेशा अपने आप को ऊँचे तबके के समझने वाले लोगों का खेल रहा है
6 hours ago • Like

Vinod Bansal दिलीप साहब! आप कैसे पत्रकार हैं ? क्रिकेट में भी जाति- बिरादरी का पेंच डालना चाह रहे हैं.क्रिकेट की थोडी सी भी जानकारि रखने वाला सचिन और कांवली की तुलना करने का दु:साहस नहीं करेगा.
6 hours ago • Like

Dilip Mandal क्रिकेट के इतिहासकार रामचंद्र गुहा यह भी लिखते हैं कि - "Cricket being a non-body contact sport was certainly one attraction for the Brahmin." अगली पंक्ति मुझे नस्लवादी लगी इसलिए यहां नहीं डाल रहा हूं। चाहें तो खुद पढ़ लें। http://www.outlookindia.com/article.aspx?218913
6 hours ago • Like

Prashant Sharma Sir, aap ab poori tarah se mudde se bhatak gaye hain. :)
6 hours ago • Like

Dilip Mandal यही तो मैं कह रह हूं कि इसमें जाति को लाने की जरूरत नहीं है। कांबली को असफल होने के कम मौके मिले। सचिन को ज्यादा। इसमें जाति के अलावा भी तो कुछ हो सकता है।
6 hours ago • Like

Dilip Mandal सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड जब लिखता है कि भारतीय क्रिकेट टीम में एक ही जाति के लोग भरे पड़े हैं, और इस आधार पर जब वे भारतीयों को नस्लवादी बताते हैं, तो देश को प्यार करने वाले किसी भी शख्स को दुख होगा। यह कहने का मौका हम उस देश को दे रहे हैं, जिसने अपने मूलनिवासियों का लगभग पूरी तरह संहार कर दिया है।
6 hours ago • Like • 2 people

Kuldeep Wasnik Mr. Nikhil ye baat bharat me chal rahi vyavastha ke bare me he. Isliye bradmen ko yaha pe mat ghusaiye. Aur ye keval cricket hi nahi balki jivan ke he shetra me brahmno ne hume adhikarose vanchi kiya he.
6 hours ago via Facebook Mobile • Like

Prashant Sharma Kambli ko bharpoor mauke mile, khelne ke bhi aur khel ke baad vigyapan ke through kamai ke bhi. Magar wo apni pratibha aor chhavi ko acche dhang se carry nahi kar sake. Isliye aaj aapko ye dukhad ehsaas ho raha hai. Thoda mujge bhi, ki wo apni pratibha ke saath nyay nahi kar sake.
6 hours ago • Like

Dilip Mandal
आपसे अनुरोध है कि रामचंनद्र गुहा की बातों से सहमत या असहमत होने के बावजूद उनकी बातों को गौर से पढ़ें। क्रिकेट पर उन्होंने काफी काम किया है। क्रिकेट पर उनका कुछ काम इस प्रकार है-

-An Indian Cricket Omnibus (OUP) (Editor, with T.G. Vaidyanathan, 1994)
The Picador Book of Cricket (Picador) (Editor, 2001)
A Corner of a Foreign Field - An Indian history of a British sport (Picador) (2001)
An Indian cricket century (Editor, works of Sujit Mukherjee, 2002)
The States of Indian Cricket (Permanent Black) (2005)
6 hours ago • Like

Dilip Mandal कृपया ऊपर के कमेंट में रामचंनद्र को रामचंद्र पढ़ें।
6 hours ago • Like

Kuldeep Wasnik Dilip ji aap Brahmno se itna q ghabrate ho . Usme sirf aur sirf Jatiwad hi he.
6 hours ago via Facebook Mobile • Like

Prashant Priyadarshi
आपने लिखा "मैंने तो दो खिलाड़ियों को मिले मौकों की बात की थी और आप दोस्त लोग जाति का सवाल ले आए।"
इससे एक बात तो अच्छे से समझ में आ गया कि आप सच में मंझे हुए पत्रकार हैं, जो साफ़ शब्दों में अपनी बात नहीं कहते हैं और सामने वाला अगर आक्रमण कर दे तो आपके पास कहने को ये रहता है कि "भई मैंने ऐसा तो नहीं कहा था.."

अगर यहाँ लोग जाति कि बात नहीं करते तो मुझे आप पर पूर्ण विशवास है(अंध धारणा ही समझ लें, जो आपके लिखे को पढकर ही बना है) कि आप ही जाति कि बात उठाते..
5 hours ago • Like • 3 people

Ranjit Ranjith thst s how 'habitus' nurtures 'merit'..
5 hours ago • Like

Prem Meena fully agree with u dilip ji...Sachin se pahle unhone two double century continue banai thi...lekin yad hai 96 ka world cup semifinal kambli or kumble waiting kar rhe the lekin derskon ki vajah se vo match pura nhi ho paya tha ...vinod Kambli khade-2 bheach ground me ro rhe the...uske bad unko kabhi mauka nhi mila nhi ......talent me kambli sachin se svaser the...
5 hours ago • Like • 2 people

Vinod Bansal माफ करना !आप बिल्कुल जाति -वाद की ही बात कर रहे हैं अन्यथा "ब्राम्हण एन्ड क्रिकेट" पुस्तक का जिक्र नहीं करते. सुब्रण्यम स्वामी ,अरुन्धती राय, के० सुदर्शन जैसे अन्य कई विद्वान हें जिन्होने बहुत बार ऊल- जलूल कहा है या लिखा है. हमें अपने विवेक का भी प्रयोग करना चाहिये.
5 hours ago • Like • 3 people

Ranjit Ranjith caste is inherent in indian cricket..
5 hours ago • Like • 1 person

Girish Bubna I respect all views here. Would like to add only one point, In his first twenty matches Sachin had played all the Test Matches on foreign Soil except one. where Kambli except one Sri Lanka Tour Played all his matches on Indian pitches.
5 hours ago • Like • 1 person

Kuldeep Wasnik Cricke per jyada paisa aur woqt kharch karne ke piche bhi Brahmno ka shadyantra he. Sadharan admi apni saari samasyao ko bhulke cricket ke piche lag jaata he. Us samasyagrast admi ko ye bhi nahi samajhta ki wo samsyagrast he to samasya kisne nirman ki he use kese pata chalega . Is tarah Brahman samasya nirman karke bhi bacha rahta he.
5 hours ago via Facebook Mobile • Like

Ranjit Ranjith and it shws how a talented person can be made to sit out thanks to his/her caste.. that s wht indian society does to 'talent'..such an undemocratic and brahmanically ruined society..
5 hours ago • Like • 1 person

Gaurav Tiwari दिलीप जी, आपसे यही उम्मीद है। आप इसी तरह के सवाल उठाते रहिए। .....खूब उठाइये
4 hours ago • Like

Asrar Khan कितने ताज्जुब की बात है की जिसने १७ टेस्ट मैचों में ५४ से ऊपर की औसत से २ साल में ही १००० से ज्यादा रन बना लिया और उसे दुबारा मौका ही नहीं दिया गया . इतने ही टेस्ट मैचों में तेंदुलकर का औसत काम्बली से बहुत कम रहा होगा मुझे पूरा विश्वास है ...काम्बली के साथ बहुत बड़ा अन्याय हुआ है . ...
3 hours ago • Unlike • 1 person

Awadhesh Pandey मन्डल जी, आप एक पत्रकार है, आपकी इज़्ज़त है, मान मर्यादा है. लेकिन आसमान पर थूकेन्गे तो पलट के थूक आपही के मुख पर गिरेगा. क्षमा करे.
3 hours ago • Like

Asrar Khan यदि मेरे याददास्त ठीक है तो तेंदुलकर ने पहली डबल सेंचुरी बंगलादेश के खिलाफ मरी थी और वही उनका आज भी उच्चतम स्कोर है..और उसमी तेंदुलकर के कुल सात कैच छूते थे ...
3 hours ago • Like

Baljeet Madaan SACHIN SON OF MOTHER INDIA
2 hours ago • Like

Madhur Kalra Dileep sir, don't agree with you. Kambli got plenty of opportunities but he did not capitalise on them.
2 hours ago • Like • 1 person

Amiteshwar Anand hahaha..that's funny
2 hours ago • Like

Rakesh Sammauria Forget abt kambali and sachin. everywhere in INdia sportspersons are selected on the basis of caste at the very entry levles and in schools. And the sports in which baniya brahmin and rajputs are not intrested 'others' are given chance. isiliye 120 crore ka ye desh ek bronze medal ko bhi tadpata tha ab tak.
about an hour ago • Like

Praveen Raj Singh
मंडल साहब कुछ शख्सियतें ऐसी होती हैं जो किसी भी तरह के वाद विवाद से ऊपर होती हैं. हिंदुस्तान एक बहुत बड़ा देश है लाखों नौजवानों की ख्वाहिश होती है की वो राष्ट्रीय टीम का हिस्सा बनें
लेकिन चंद ही ऐसे खुशनसीब होते हैं जिन्हे ये मौक़ा नसीब होता है .एक ग़रीब घर में पैदा होने वाले विनोद काम्बली आज ना सिर्फ पूरे देश में मशहूर हैं बल्कि करोडपति भी हैं . सबसे बड़ी बात हैं की वो इस देश के सबसे अज़ीज़ के अज़ीज़ हैं
आलोक मजुमदार, मिथुन मिन्हास ,आशीष जैदी ना जाने कितने और ताउम्र नेशनल टीम में खेलने का सपना देखते रह गये. राहुल द्रविड़ से ज्यादा काबिल होने के बावजूद विक्रम राठौर गुमनामी के अंधेरे में खो गए संजय मांजरेकर वक़्त से पहले रिटायर होने को मजबूर हो गए कपिल देव भी ज़िल्लत सहते हुए भी हैडली का रिकोर्ड तोडने के लिए टीम में बने रहे . हर चीज़ में सामाजिक न्याय ढूड़ना मुनासिब नहीं है सियासत का क्षेत्र इसके लिए बहुत है.
about an hour ago • Like • 3 people

Nitin Divekar
Tendular was on 326 and Kambli was on 349 when they made record break parternarship.Kambali scored 2 double centuries in his 17 test he played. Its true that Kambali is resopnsible for his deterioration but we must note that there was no support system for him to come out of his bad patch and the MCC and BCC was dominated by the Brahmins. It is rumoured that he hat to convert to christianity to get his place in Indian team. But his conversion also did not worked in his favour. Kambali is an excellent example of a potential a dalit can have and if nurtured properely can really acheive its due place.
41 minutes ago • Like • 1 person

Sameer Yadav वैसे यह बहस केवल दो खिलाड़ियों की प्रतिभा, और उन्हें मिले मौके की तुलना का है तो निरर्थक है और यदि दोनों के जाति पर है तब तो सर्वथा निरर्थक है. दोनों में से जिस बात पर आप हामी भरे या इंगित करें....आपके लिए निराशाजनक होगा....क्योंकि कम से कम सचिन इस तरह के बहस से बहुत ऊपर हैं. नाहक के उद्धरण से सचिन की श्रेष्ठता को कमतर नहीं किया जा सकेगा.
39 minutes ago • Like

Dilip Mandal समीर जी, आप तो भक्त की तरह व्यवहार कर रहे हैं, जिसके लिए भगवान तर्को से परे हैं। आप ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं। हम तो संदेह करने के धंधे में हैं।
37 minutes ago • Like • 1 person

Sameer Yadav
दिलीप जी, बहुत सही इंगित किया आपने... मैंने आपके सही मुद्दों पर हमेशा आपके विचारों का सम्मान किया है....लेकिन यहाँ बात सचिन और काम्बली की योग्यता और उन्हें मिले अवसर की हो रही है...तो सच्चाई से कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है. सचिन को मैंने कहीं पर भगवान् तो कहा नहीं..लेकिन खेल में उसकी श्रेष्ठता को कैसे नकार सकते हैं. और हाँ काम्बली की तुलना के लिए मैंने पहले के कमेन्ट में कई उदाहरण दिए हैं. उनके साथ तुलना से आप मुद्दे तक पहुँच सकते थे. लेकिन जैसा आप ने स्वयं कहा ऐसे बहस से कोई चीज साफ़ करना उद्येश्य थोड़े ही है.....यहाँ तो "संदेह" ही पैदा करना है. आप उसमें सफल हैं. पर जो जगजाहिर है उसे "भक्त-भगवान्" के तमगों से भी छुपाया नहीं जा सकता.
28 minutes ago • Unlike • 1 person

Panjab Rao Meshram
प्रतिभा क्या किसी जाति की मोहताज होती है ? यदि नहीं तो फिर एक ही जाति के लोगों में ऐसी इतनी -कितनी प्रतिभा है कि चारों तरफ वे ही वे दिखते हैं ? यह तो सिलेक्शन कमिटी का कमाल है जिसमे एक ही जाति के लोगों की भरमार है .और ये लोग कभी भी न तो निष्पक्ष थे और न ही हो सकते हैं .इतिहास भी गवाह है और वर्तमान भी .मेरा मानना है यदि भारत के टुकड़े नहीं हुए होते तब भी अविभाजित -भारत की क्रिकेट टीम में ब्राह्मणों की ही भरमार होती .और यही बात हर क्षेत्र में लागु होती जिसे गुलाम भारत के मुसलमानों ने महसूस कर लिया था और उन्हें यह कतई मंजूर नहीं था.मान लो यदि भारत के 3 टुकड़े हुए होते तो तीसरा टुकड़ा क्या किसी भी मायने में 2 टुकड़ों से कम होता ? क्या उनकी कोई टीम नहीं होती ? क्या वे लोग सारे मैच हारते ? क्या उनकी आर्मी नहीं होती ? क्या उनकी न्यायपालिका नहीं होती ? क्या उनके प्रधानमंत्री नहीं होते ?
17 minutes ago • Unlike • 1 person

Anil Kumar
Sir, Jharkhand ki girls world hocky jit kar ati hai aur unhe thik se khana tak nahi milata. Football teamme adhiktar North East ke log hai to (lagbhag) koi Govt support nahi.
Yahi bat Sachin & Vinod me hai.
Had to tab ho jati hai jab yahi deprived log bhi cricket ke liye TV se chipke rahate hai.
11 minutes ago • Like

Anil Kumar I would lik to request new reader of this post that please real all comments above. Picture will be Cristal Clear like 3D HD Movie.
4 minutes ago • Unlike • 1 person

Dilip Mandal Yes anil sahab,I agree.
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Friday, November 26, 2010

कौन है संसद से शक्तिशाली

(मेरा यह आलेख 26 नवंबर, 2010 के जनसत्ता में छपा है)
-दिलीप मंडल
आजादी के बाद भारत ने राजकाज के लिए संसदीय लोकतंत्र प्रणाली को चुना और इस नाते देश के लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का सबसे प्रमुख मंच हमारे देश की संसद है। जनता द्वारा सीधे चुने प्रतिनिधियों की संस्था होने के नाते लोकसभा को संसद के दोनों सदनों में ऊंचा दर्जा हासिल है। इस देश पर वही सरकार राज करती है, जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन हासिल हो। ऐसे देश में पिछले बजट सत्र में जनता के प्रतिनिधियों ने आम राय से जिस बात का समर्थन किया था, उसे शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले पलट दिया जाए, तो इस पर चिंता होनी चाहिए।
संसद के बजट सत्र में लोकसभा में इस बात पर आम सहमित बनी थी कि 2011 में होने वाली जनगणना में जाति को शामिल किया जाए। लोकसभा में ऐसे विरल मौके आते हैं जब पक्ष और विपक्ष का भेद मिट जाता है। जनगणना में जाति को शामिल करने को लेकर लोकसभा में हुई बहस में यही हुआ। कांग्रेस और बीजेपी के साथ ही वामपंथी दलों और तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों ने इस बात का समर्थन किया कि जनगणना में जाति को शामिल करना अब जरूरी हो गया है और मौजूदा जनगणना में जाति को शामिल कर लिया जाए। संसद में हुई बहस के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि लोकसभा की भावना के मुताबिक कैबिनेट फैसला करेगी। उनकी इस घोषणा का लोकसभा में जोरदार स्वागत हुआ और इसे सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़े कदम के रूप में देखा गया। इस घोषणा के लिए तमाम दलों के सांसदों ने प्रधानमंत्री और यूपीए यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्षा सोनिया गांधी की जमकर वाहवाही की।
लेकिन बजट सत्र के बाद और शीतकालीन सत्र से पहले ऐसा कुछ हुआ कि 2011 की जनगणना से जाति को बाहर कर दिया गया। यह शायद हम कभी नहीं जान पाएंगे कि लोकसभा में बनी आम राय को बदलने के लिए परदे के पीछे क्या कुछ हुआ होगा। प्रधानमंत्री की लोकसभा में घोषणा के बाद इस मामले पर विचार करने के लिए कैबिनेट मंत्रियों की एक समिति गठित की गई, जिसके अध्यक्ष वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी बनाए गए। जिस सवाल पर लोकसभा में आम सहमति हो और प्रधानमंत्री जिसके लिए सदन में आश्वासन दे चुके हों, उस पर पुनर्विचार के लिए मंत्रियों की समिति गठित करने का निर्णय आश्चर्यजनक है। इस समिति की सिफारिशों के बाद कैबिनेट ने यह फैसला किया कि फरवरी, 2011 से शुरू होने वाली जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा बल्कि उसी वर्ष जून से सितंबर के बीच जाति की अलग से गिनती कर ली जाएगी।
इस फैसले में सबसे बड़ी प्रक्रियागत खामी यह है कि जिस बात को लेकर चर्चा संसद में हुई हो और जिस तरह की सहमति बनी हो, उसे पलटने का फैसला कैबिनेट ने उस दौरान किया, जब संसद का सत्र नहीं चल रहा था। अगर यही फैसला करना था कि जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा, तो फिर इसके लिए किसी भी तरह की जल्दबाजी नहीं थी। आजादी के बाद से ही भारत में जाति का प्रश्न जोड़े बगैर जनगणना होती रही है और जनगणना के मामले में यथास्थिति को बनाए रखने यानी जैसी जनगणना होती रही है, उसे जारी रखने की घोषणा करने के लिए संसद के दो सत्रों के बीच का समय किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। अगर यह घोषणा संसद के बजट या शीतकालीन सत्र के दौरान होती तो सांसदों के पास यह मौका होता कि वे इस पर फिर से विचार करते। अगर कैबिनेट की यही राय थी कि जनगणना के बारे में फैसले को तत्काल घोषित करना आवश्यक है तो इसके लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने का विकल्प भी था।
संसद में इस फैसले की घोषणा न करने से यह संदेह पैदा होता कि है कि इस सवाल पर कुछ पर्दादारी थी। जनगणना से जाति को अलग करने का फैसला 9 सितंबर, 2010 को घोषित किया गया। ठीक इसके बाद देश के उन इलाकों में जनगणना शुरू हो गई, जहां सर्दियों में बर्फ गिरती है। मिसाल के तौर पर हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले में जनगणना सितंबर महीने में कर ली गई। यानी कैबिनेट ने जनगणना के बारे में फैसला इस तरह किया गया कि संसद को इस फैसले को सुधारने या फिर से विचार करने का मौका न मिले। शीतकालीन सत्र में अगर कैबिनेट के फैसले को बदलने पर विचार होता भी है तो यह एक विचित्र स्थिति होगी क्योंकि उस समय तक कई जिलों में जनगणना संपन्न हो चुकी होगी। सरकार के सामने यह विकल्प था कि वह बर्फबारी वाले जिलों में जनगणना का काम बर्फ पिघलने के बाद कराती। यह इसलिए भी सही होता क्योंकि जाति आधारित जनगणना पर विवाद चल रहा है और इस सवाल पर लोकसभा एक अलग नतीजे पर पहुंची थी।
जाति जनगणना के प्रश्न पर सरकार जिस तरह से लगातार व्यवहार करती रही है, उसकी वजह से संदेह का वातावरण बन गया है। मई महीने में केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने जाति आधारित जनगणना के खिलाफ यह तर्क दिया था कि जनगणना की शुचिता को बनाए रखना आवश्यक है। इस बाद संसद में चर्चा के दौरान उन्होंने जनगणना महानिदेशक के हवाले से कहा कि सभी जातियों की गिनती में कितनी जटिलताएं हैं। जबकि जनगणना महानिदेशक पहले ही कह चुके हैं कि अगर सरकार इस बारे में फैसला करती है तो उनका कार्यालय जाति आधारित जनगणना करा सकता है। वैसे भी 1941 तक देश में सभी जातियों की गिनती होती रही है और अब तो आधुनिक तकनीक और कंप्यूटर का जमाना है। लोकसभा में आम राय बनने और प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद मंत्रियों का समूह यह सुझाव देता है कि जातियों की गिनती बायोमैट्रिक डाटा संकलन के दौरान करा ली जाएगी। जब संसद में इस बात पर हंगामा मचता है कि इस तरह जाति के आंकड़े आने में कम से कम 20 साल लगेंगे तो सरकार इस प्रस्ताव को वापस ले लेती है। और आखिरकार कैबिनेट यह तय करती है कि जनगणना से जाति को बाहर रखा जाएगा और जनगणना खत्म होने के तीन महीने बाद जातियों की अलग से गिनती करा ली जाएगी।
बायोमैट्रिक जाति गणना की तरह ही अलग से जाति गणना का फैसला भी निरर्थक है। अलग से जाति गिनने पर सरकार लगभग 2,000 करोड़ रुपए खर्च करने वाली है। इस फैसले की सबसे बड़ी खामी यह यह कि अलग से जातियों की गिनती करने से सिर्फ यह जानकारी मिलेगी कि इस देश में किस जाति के कितने लोग हैं। यह आंकड़ा राजनीति करने वालों के अलावा किसी के लिए भी उपयोगी नहीं है। जनगणना से दरअसल यह आंकड़ा सामने आना चाहिए कि किस जाति की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति क्या है। इस जानकारी के बगैर सिर्फ यह जानकर कोई क्या करेगा कि विभिन्न जातियों की संख्या कितनी है। आर्थिक-शैक्षणिक स्तर की जानकारी देश में विकास योजनाओं को बनाने का महत्वपूर्ण आधार साबित होगी। इससे यह पता चलेगा कि आजादी के 63 साल बाद किस जाति और जाति समूह ने विकास का सफर तय किया है और कौन से समूह और जातियां पीछे रह गई हैं। इस तरह मिले आंकड़ों के आधार पर खास जातियों और समूहों के लिए विकास और शिक्षा के कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं। आरक्षण प्राप्त करने के लिए अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्ग में शामिल होने या किसी समुदाय को आरक्षित समूह की सूची से बाहर करने की मांग को लेकर हुए आंदोलनों की वजह से इस देश में काफी खून बहा है। जनगणना में जाति को शामिल करने से जो आंकड़े सामने आएंगे, उससे इस तरह के सवालों को हल किया जा सकेगा। इस मायने में जनगणना से बाहर जाति की किसी भी तरह की गिनती बेमानी है।
अलग से जाति गणना में कई और खामियां भी हैं। मिसाल के तौर पर, इस वजह से देश के राजकोष पर 2,000 करोड़ रुपए का बोझ पड़ेगा। देश में जनगणना के लिए अलग से कानून है। अलग से जाति की गणना के लिए कानूनी प्रक्रिया तय करनी पड़ेगी। जनगणना कानून की वजह से लोग बिना किसी हिचक के जानकारियां देते हैं, क्योंकि जनगणना अधिकारी को दी गई निजी सूचनाओं को सार्वजनिक करने पर रोक है। कानूनी तौर पर ऐसी पाबंदी के बिना जाति की गिनती कराने पर सही जानकारी देने में लोग हिचक सकते हैं। जनगणना में देश के लगभग 25 लाख सरकारी शिक्षक शामिल होगें और इस प्रक्रिया में तीन हफ्ते से ज्यादा समय लगेगा। जनगणना खत्म होने के तीन महीने बाद जाति गणना के लिए शिक्षकों को इससे भी ज्यादा समय के लिए स्कूलों से दूर रहना होगा। सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की शिक्षा पर इसका बुरा असर पड़ेगा। और फिर सवाल उठता है कि अलग से जाति गणना क्यों। इस तरह अलग से गिनती कराने से जातियों से जुड़े आर्थिक और शैक्षणिक आंकड़े नहीं आएंगे। स्पष्ट है कि अलग से जाति की गणना कुछ जानने के लिए नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण आंकड़ों को छिपाने के लिए की जाएगी। 2,000 करोड़ रुपए का खर्च इसलिए होगा ताकि जातियों से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां छिपी रहें जबकि उद्देश्य अगर सूचनाएं जुटाना है, तो इसके लिए कोई खर्च नहीं करना होगा। 2011 के जनगणना फॉर्म में जाति का एक कॉलम जोड़ देने से जातियों की संख्या भी सामने आ जाती और उनकी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति भी।
लेकिन सरकार नहीं चाहती कि ये आंकड़े सामने आएं। इसलिए जनगणना में जाति को शामिल करने की जगह जनगणना से जाति को अलग कर दिया गया। यह सब लोकसभा में बनी सहमति का निरादर करके किया जा रहा है। प्रश्न यह है कि इस देश में आखिर वह कौन सी सत्ता है जो देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा की अनदेखी कर सकती है। कहीं यह भारतीय समाज की वर्चस्ववादी व्यवस्था तो नहीं, जिसके आगे संसद की भी नहीं चलती?

Thursday, September 30, 2010

खबरों को सांप्रदायिक बनने से रोकें, प्रेस कौंसिल के दिशा-निर्देश

20) Covering communal disputes/clashes

i) News, views or comments relating to communal or religious
disputes/clashes shall be published after proper verification of facts and
presented with due caution and restraint in a manner which is conducive to
the creation of an atmosphere congenial to communal harmony, amity and
peace. Sensational, provocative and alarming headlines are to be avoided.
Acts of communal violence or vandalism shall be reported in a manner as
may not undermine the people's confidence in the law and order machinery of
the State. Giving community-wise figures of the victims of communal riot, or
writing about the incident in a style which is likely to inflame passions,
aggravate the tension, or accentuate the strained relations between the
communities/religious groups concerned, or which has a potential to
exacerbate the trouble, shall be avoided.

ii) Journalists and columnists owe a very special responsibility to their
country in promoting communal peace and amity. Their writings are not a
mere reflection of their own feelings but help to large extent in moulding the
feelings and sentiments of the society at large. It is, therefore, of utmost
importance that they use their pen with circumspection and restrain.

iii) The role of media in such situations (Gujarat Carnage/Crisis) is to be
peacemakers and not abettors, to be troubleshooters and not troublemakers.
Let the media play their noble role of promoting peace and harmony among
the people in the present crisis in Gujarat. Any trend to disrupt the same
either directly or indirectly would be an anti-national act. There is a greater
moral responsibility on the media to do their best to build up the national
solidarity and to re-cement the communal harmony at all levels remembering
the noble role they had played during the pre-independence days.

iv) The media, as a chronicle of tomorrow’s history, owes an undeniable duty
to the future to record events as simple untailored facts. The analysis of the
events and opinion thereon are a different genre altogether. The treatment of
the two also thus has necessarily to be different. In times of crisis, facts
unadorned and simply put, with due care and restraint, cannot be reasonably
objected to in a democracy. However, a heavy responsibility devolves on the
author of opinion articles. The author has to ensure that not only are his or
her analysis free from any personal preferences, prejudices or notions, but
also they are based on verified, accurate and established facts and do not tend
to foment disharmony or enmity between castes, communities and races.

v) While the role and responsibility of the media in breaking down
communal fences and promoting harmony and national interest should not be
undermined it is also essential to allow the citizens their freedom of speech.
The press of India has necessarily to judge and balance the two.

21. Headings not to be sensational/provocative and must justify the
matter printed under them

i) In general and particularly in the context of communal disputes or clashes
a. Provocative and sensational headlines are to be avoided;
b. Headings must reflect and justify the matter printed under them;
c. Headings containing allegations made in statements should either identify
the body or the source making it or at least carry quotation marks.

22. Caste, religion or community references

i) In general, the caste identification of a person or a particular class
should be avoided, particularly when in the context it conveys a sense or
attributes a conduct or practice derogatory to that caste.

ii) Newspapers are advised against the use of word 'Scheduled Caste' or
'Harijan' which has been objected to by some.

iii) An accused or a victim shall not be described by his caste or
community when the same does not have anything to do with the offence or
the crime and plays no part either in the identification of any accused or
proceeding, if there be any.

iv) Newspaper should not publish any fictional literature distorting and
portraying the religious or well known characters in an adverse light
offending the susceptibilities of large sections of society who hold those
characters in high esteem, invested with attributes of the virtuous and lofty.

(v) Commercial exploitation of the name of prophets, seers or deities is
repugnant to journalistic ethics and good taste.

vi) It is the duty of the newspaper to ensure that the tone, spirit and
language of a write up is not objectionable, provocative, against the unity and
integrity of the country, spirit of the constitution seditious and inflammatory
in nature or designed to promote communal disharmony. It should also not
attempt to promote balkanisation of the country.

vii) One of the jobs of the journalists is also to bring forth to the public
notice the plight of the weaker sections of society. They are the watchdogs
on behalf of the society of its weaker sections.

Thursday, September 23, 2010

सामाजिक न्याय के मुकाबले फिर मंदिर

दिलीप मंडल

अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनाने के मुद्दे को फिर से झाड़-पोंछकर खड़ा किया जा रहा है। विश्व हिंदू परिषद के महासचिव प्रवीण तोगड़िया ने कहा है कि अयोध्या में मंदिर निर्माण का काम दिसंबर तक पूरा कर लिया जाएगा। मंदिर निर्माण के लिए लोगों को आंदोलित करने का विश्व हिंदू परिषद ने व्यापक कार्यक्रम बनाया है। जोधपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय बैठक में इस कार्यक्रम को स्वीकृत किया गया है। विहिप 16 अगस्त से अयोध्या से हनुमान शक्ति जागरण अभियान छेड़ चुकी है। इस कार्यक्रम में देश के दो लाख गांवों में ले जाया जाएगा। देश भर में हिंदू भक्त कार्यकर्ताओं की भर्ती का काम चल रहा है। राम रथ यात्रा और राम शिला पूजन के बाद यह विश्व हिंदू परिषद के सबसे व्यापक कार्यक्रमों में से एक है।

ये राजनीतिक गतिविधियां ऐसे समय में हो रही हैं, जब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का फैसला आने वाला है। इस संभावित फैसले को लेकर उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के कई हिस्सों में तनाव बढ़ाने की कोशिशें चल रही हैं। ऐसे नाजुक समय में मीडिया इस बात को लेकर सर्वे कर रहा है कि हिंदू मकान मालिक मुसलमानों को किराए पर अपना मकान नहीं देते हैं (गोया यह कोई नई बात हो)। मंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं के बयान एक बार फिर से प्रमुखता से आने लगे हैं। सरकार बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान चलाकर लोगों से शांति बनाए रखने की अपील कर रही है। शहरों में शांति बनाए रखने के लिए पुलिस की चौकसी बढ़ा दी गई है और उत्तर प्रदेश के कई शहरों में अर्धसैनिक बल तैनात किए गए हैं। पूरा माहौल ऐसा है मानो तूफान से पहले की शांति हो।

विश्व हिंदू परिषद ने राममंदिर आंदोलन का यह चरण इसलिए शुरू किया है ताकि “विराट हिंदू समाज” को एकजुट किया जा सके। सवाल उठता है कि क्या हिंदू समाज की एकता खतरे में है। और अगर हिंदू एकता को सचमुच खतरा है तो वह खतरा किस वजह से है? हिंदू समाज अपनी संरचना और अंतर्वस्तु में एक विभाजित समाज है। यह विभाजन किसी बाहरी षड्यंत्र की वजह से नहीं है। जिसे हम हम हिंदू समाज कहते हैं, वह दरअसल ऊंचे और निचले स्तरों पर मौजूद अलग-अलग समुदायों का गठबंधन है। हिंदुओं के सभी धार्मिक ग्रंथ निर्विवाद रूप से ऊंच और नीच के इस विभाजन को स्थापित और स्वीकार करते हैं। यह विभाजन अंग्रेजों की साजिश नहीं है, जैसा कि कुछ लोग बताने की कोशिश करते हैं। अंग्रेजों के आने से बहुत पहले इस देश में ऋग्वेद, श्रीमद्भाग्वतगीता और तमाम स्मृतियां लिखी जा चुकी थीं।

भारत का संविधान भी जातिभेद का अंत करने की घोषणा नहीं करता। जाति के आधार पर भेदभाव कानूनी अपराध भी नहीं है। हर हिंदू कम से कम दो पहचान रखता है। एक उसी धार्मिक पहचान है और दूसरी उसकी जातीय पहचान है। विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस जैसी संस्थाओं को इस बात से ऐतराज नहीं है कि हर हिंदू की दो पहचान है। वर्ण और जाति की विभेदकारी व्यवस्था से इन संस्थाओं को शिकायत नहीं है। इन्हें शिकायत सिर्फ तभी होती है जब वर्णक्रम में नीचे के स्तरों पर मौजूद समुदाय अपनी जातीय पहचान को आर्थिक और शैक्षणिक अंतर्संबंधों के साथ जोड़ते हैं। मिसाल के तौर पर कोई मझौली या दलित जाति अगर यह मांग उठाती है कि देश के संसाधनों और अवसरों में उसे पूरा हिस्सा नहीं मिल रहा है, तो यह विश्व हिंदू परिषद या आरएसएस के लिए एक असहज स्थिति है, लेकिन किसी जाति का दलित या पिछड़ा होना इन संगठनों के लिए चिंता का कारण नहीं है। जब एक साथ कई पिछड़े या दलित समुदाय अपनी हिस्सेदारी की बात करते हैं तो इन संगठनों को हिंदू एकता खतरे में जान पड़ती है।

जातीय भेदभाव दूर करने या जाति विभाजनों को कमजोर करने के लिए कोई भी कोशिश न करने वाली विहिप और आरएसएस जैसी संस्थाओं को नीचे से होने वाला हर जातीय उभार चिंतित करता है। देश के सभी मंदिरों के पुजारी एक विशेष जाति के हों, यह बात विहिप और आरएसएस को सहज लगती है, लेकिन इस देश में ओबीसी जातियों को आरक्षण दिया जाए, तो उसे दिक्कत होने लगती है। ये संगठन आरक्षण को एक विभेदकारी तत्व मानते हैं और हमेशा इसका विरोध करते हैं।

राममंदिर आंदोलन के पहले दौर को देखें तो वह देश में पिछड़ा उभार का भी समय था। मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की मांग जिस दौर में तेज हो रही थी, उसी दौर में विश्व हिंदू परिषद ने राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू किया। उत्तर भारत में पिछड़ा उभार और रामजन्मभूमि आंदोलन साथ साथ चले। जब 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा की, तो उसके फौरन बाद लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा निकाली। यह रथयात्रा हिंदुओं को एकजुट करने और जातीय पहचान के सवालों को कमजोर करने में सफल रही क्योंकि इस आंदोलन में पिछड़ी जाति के लोग बड़ी तादाद में शामिल हुए। पिछड़ों को सबल बनाने के सवाल को हिंदू बनाम मुसलमान के ज्यादा उग्र और हिंसक आंदोलन के भार तले दबा दिया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि मंदिर आंदोलन के कई नेता जैसे उमा भारती, कल्याण सिंह, नरेंद्र मोदी, विनय कटियार, सुंदरलाल पटवा, सुशील मोदी, शिवराज सिंह चौहान, साक्षी महाराज आदि पिछड़ी जातियों के हैं।

सवाल उठता है कि मंडल आयोग लागू होने के 20 साल बाद अब जबकि जाति जनगणना के सवाल पर एक बार फिर से राजकाज से लेकर आर्थिक गतिविधियों में विभिन्न समुदायों की हिस्सेदारी के सवाल पर चर्चा शुरू हो गई है तो क्या एक बार फिर से मंदिर आंदोलन के जरिए इन सवालों को दबाने और हिंदू समाज को सांप्रदायिक आधार पर एकजुट करने की कोशिश की जाएगी? क्या पिछड़ी जातियां एक बार फिर से अपने तबकाई सवालों को पीछे छोड़कर धार्मिक मुद्दे पर व्यापक हिंदू पहचान के तहत एकजुट हो जाएंगी? हनुमान शक्ति जागरण अभियान के जरिए विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस इसकी कोशिश जरूर करेंगे। जाति जनगणना के सवाल पर आरएसएस कितना गंभीर है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि संसद में इस सवाल पर चर्चा के फौरन बाद आए आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने विरोध में संपादकीय लिखा। अगस्त महीने में ऑर्गनाइनजर का एक ऐसा अंक आया जिसमें जाति जनगणना के खिलाफ पांच आलेख आए। इस सवाल पर आरएसएस के सरसंघचालक से लेकर विहिप के प्रमुख नेता अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया तक के बयान आ चुके हैं।

विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस को जाति जनगणना के विरोध के सवाल पर अगड़े मुस्लिमों का भी समर्थन मिल रहा है। आरिफ मुहम्मद खान जाति जनगणना के विरोधियों में अग्रणी हैं। मुसलमानों की अगड़ी बिरादरी के नेता नहीं चाहेंगे कि पसमंदा (पीछे छूट गए) मुसलमानों के सवाल सामने आएं। विहिप जिस तरह चाहता है कि हिंदू अपनी जातीय पहचान के साथ आर्थिक और शैक्षणिक सवालों को न जोड़ें, वही मंशा मुसलमानों की अगड़ी बिरादरी वालों की भी है। मंदिर के आंदोलन के विरोध में होने वाली प्रतिक्रिया मुसलमानों को भी जातीय पहचान भूलने को मजबूर कर सकती है। लिहाजा आने वाले दिनों में दोनों ओर से तीखी और भड़काने वाली बयानबाजी सुनने को मिल सकती है। तमाम भेदभाव के साथ हिंदू सिर्फ हिंदू और मुसलमान सिर्फ मुसलमान रहें और आर्थिक, शैक्षणिक और अवसर संबंधी भेदभाव के सवाल न उठाएं, यह दोनों ही धर्मों के प्रभुत्वशाली समुदायों के हितों में है। इस पृष्ठभूमि में आने वाले दिनों में हमें रामजन्मभूमि आंदोलन में नई तेजी दिख सकती है।

कांग्रेस के लिए भी यह अच्छी स्थिति है। पिछड़ा उभार और पिछड़ा-मुस्लिम एकता कांग्रेस के लिए ऐतिहासिक रूप से खतरनाक साबित हुई है। इस वजह से हिंदी प्रदेश के दो प्रमुख राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में वह लगभग दो दशक से सत्ता से बाहर है। हिंदू-मुस्लिम टकराव उसके लिए अपेक्षाकृत छोटी समस्या है। जिन राज्यों में पिछड़ा उभार नहीं है वहां घूम-फिरकर सत्ता में उसकी वापसी होती रही है। ऐसे राज्यों में राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा आदि शामिल हैं। इसलिए कांग्रेस हर कीमत पर चाहेगी कि पिछड़ी जाति के लोग अपनी पहचान को राजनीतिक रूप से अभिव्यक्त न करें। पिछड़ा उभार होने की स्थिति में कांग्रेस के लिए महिला आरक्षण विधेयक को लागू करना भी मुश्किल हो जाएगा। इस विधेयक के जरिए कांग्रेस संसद और विधानसभाओं की सामाजिक संरचना को बदलना चाहती है।

यहां यह सवाल उठता है कि क्या इस देश के वंचित तबके एक बार फिर से अपने हितों के खिलाफ मंदिर मुद्दे को लेकर सांप्रदायिक पहचान के साथ खड़े हो जाएंगे। सांप्रदायिक दंगों में दंगों में पिछड़ी और दलित जातियों को हमेशा आगे किया जाता है। राम जन्मभूमि आंदोलन में पिछड़ों ने अपनी जातीय पहचान के मुकाबले धार्मिक पहचान को ज्यादा महत्व दिया। इस वजह से मंडल आयोग से मिलने वाले लाभ को पिछड़ी जाति के लोग काफी हद तक गंवा चुके हैं। अदालतों से लेकर नौकरशाही के रुख के कारण मंडल आयोग की रिपोर्ट ढंग से लागू नहीं हो पाई। केंद्र सरकार की नौकरशाही में पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी आज भी 7 फीसदी है। देश की आधी से अधिक आबादी होने के बावजूद ऊंचे पदों पर पिछड़े लगभग नदारद हैं। पिछड़ा आरक्षण लागू होने के 17 साल बाद यह स्थिति है। जाहिर है मंडल कमीशन को विफल बना दिया गया है।

अब जबकि जाति जनगणना के आधार पर यह जानने की मांग हो रही है कि देश के संसाधनों और अवसरों पर किसकी कितनी हिस्सेदारी है तो सरकार ने जनगणना से जाति को बाहर कर दिया है। अलग से जाति गिनने का केंद्र सरकार का फैसला जातियों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति को छिपाने के लिए है, जिसपर 2000 करोड़ रुपए फूंक दिए जाएंगे। जनगणना से अलग जाति की गणना एक निरर्थक कवायद है। एक तरफ तो केंद्र सरकार ने जाति जनगणना की मांग ठुकरा दी है, वहीं अयोध्या आंदोलन के बहाने हिंदू और मुसलमान पिछड़ों को सांप्रदायिक आधार पर गोलबंद करने के लिए कोशिशें तेज हो गई हैं। मंडल-एक को नाकाम करने के लिए शुरू किया गया मंदिर-एक आंदोलन कामयाब हो गया था। मंदिर-एक के आंदोलन को पिछड़ों ने अपने कंधों पर ढोया था। क्या इस बार भी इतिहास खुद को दोहराएगा?

(यह आलेख संपादन के बाद दैनिक जनसत्ता के संपादकीय पेज पर 23 सितंबर, 2010 को छपा है)

Tuesday, September 21, 2010

कॉमनवेल्थ, मीडिया और एक पहेली

दिलीप मंडल
यह आलेख 16 अगस्त को लिखा गया था, जब मीडिया में कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर पर्दाफाश पर पर्दाफाश हो रहे थे। कथादेश के कॉलम अखबारनामा में यह छपा है। उस समय यह अंदाजा लगाने की कोशिश की गयी थी कि जब खेल करीब होंगे तो देश का प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किस तरह से एक्ट करेगा। आप ही बताएं कि क्या इस आलेख में जतायी गयी चिंताएं आपको अब वास्तविकता के करीब लगती हैं?

कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने में अब चंद रोज बचे हैं और जब कथादेश का यह अंक आप पढ़ रहे होंगे तो मीडिया के बड़े हिस्से में कॉमनवेल्थ गेम्स के कवरेज का रंग-ढंग बदल चुका होगा। मेरा अनुमान है (जिसके गलत होने पर मुझे बेहद खुशी होगी) कि कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर नकारात्मक या आलोचनात्मक खबरें कम होती चली जाएंगी। कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार की खबरें शायद न छपें। हालांकि तैयारियां न होने या स्टेडियम की दीवार गिर जाने जैसी घटनाओं-दुर्घटनाओं को दर्ज करने की मजबूरी मीडिया के सामने जरूर होगी। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे एक दुक्का बड़े समूह, जिनकी विज्ञापनों से आमदनी अरबों रुपये में है, कॉमनवेल्थ के विज्ञापनों की अनदेखी कर सकते हैं। लेकिन ऐसे समूह अपवाद ही होंगे।

वर्ष 2010 की पूरी जुलाई और अगस्त के पहले पखवाड़े तक देश के राष्ट्रीय कहे जाने वाले ज्यादातर समाचार पत्रों में कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर नकारात्मक खबरें प्रमुखता से छपीं। कॉमनवेल्थ खेलों के कवरेज में मुख्य रूप से दो बातों को प्रमुखता मिली। एक, कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और दो कॉमनवेल्थ गेम्स की अधूरी तैयारियां और दिल्ली शहर में टूट-फूट को समेट पाने में सरकारी एजेंसियों की नाकामी। इन खेलों के आयोजन में सरकारी पैसे की लूट और सरकारी मशीनरी की अक्षमता को लेकर समाचार पत्रों ने जमकर लिखा। कॉमनवेल्थ खेलों के कवरेज में तस्वीरों का खूब इस्तेमाल किया गया और इनके जरिए यह बताया गया कि किस तरह से न स्टेडियम तैयार हैं, न शहर दिल्ली।

अगर मैं यह अनुमान लगा रहा हूं कि आने वाले दिनों में कॉमनवेल्थ को लेकर मीडिया कवरेज की दिशा बदल जाएगी, तो इसका आधार यह है कि आयोजन समिति इस बीच अपना विज्ञापन अभियान शुरू कर चुकी होगी। छवि निर्माण की बड़े अभियानों के अब तक अनुभवों के आधार पर कहा जा जा सकता है कि मीडिया या इसके बड़े हिस्से का प्रबंधन मुमकिन है। सरकार में पत्र सूचना कार्यालय यानी पीआईबी से लेकर डीएवीपी, जनसंपर्क विभाग यह काम करते हैं। निजी कंपनियों में भी मीडिया रिलेशन, कॉरपोरेट कम्युनिकेशन के विभाग होते हैं। सैकड़ों की संख्या में मीडिया मैनेजमेंट और पब्लिक रिलेशन कंपनियां देश और विदेश में मीडिया का प्रबंधन करती हैं। यानी क्या छपेगा और क्या नहीं छपेगा का निर्धारण अक्सर समाचार कक्ष से बाहर तय होता है।

कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन और इसके लिए दिल्ली को संवारने पर अलग अलग अनुमानों के मुताबिक 35,000 करोड़ से लेकर 85,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। कुछ लोग तो इस रकम को एक लाख करोड़ के ऊपर तक बता रहे हैं। इस रकम का एक हिस्सा मीडिया प्रबंधन पर खर्च होना है। मीडिया में छोटे पैमाने पर कॉमनवेल्थ का प्रचार अभियान शुरू भी हो चुका है। क्वींस बैटन रिले की शुरुआत के दौरान छिटपुट विज्ञापन मीडिया में आए। लेकिन उसके बाद यह विज्ञापन अभियान रोक दिया गया। मीडिया में कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर नकारात्मक खबरों को आप एक हद तक आयोजन समिति के मीडिया कुप्रबंधन या मिसमैनेजमेंट का नतीजा मान सकते हैं। यह बात पूरी तरह से सही न हो, लेकिन इसमें एक सीमा तक सच्चाई है कि अगर आयोजन समिति ने मीडिया प्रबंधन को गंभीरता से लिया होता और अरबों की लूट का एक हिस्सा मीडिया पर भी लुटाया होता तो कॉमनवेल्थ खेलों की इतनी बुरी छवि न बनती। कल्पना कीजिए कि पांच अधबने स्टेडियम की जगह पांच तैयार स्टेडियम या अधबने स्टेडियम के तैयार हिस्सों की चमचमाती तस्वीर हर दिन अखबारों में छपती, तो कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर लोगों के मन में क्या छवि बनती! कॉमनवेल्थ आयोजन समिति मीडिया को इसके लिए तैयार न कर सकी, यह आयोजन समिति के मीडिया प्रबंधन विभाग की बड़ी नाकामी है।

इस देश में किसी भी बड़े विज्ञापनदाता के खिलाफ मीडिया में आम तौर पर कुछ नहीं छपता। मिसाल के तौर पर हिंदुस्तान लीवर, मारुति-सुजूकी, प्रोक्टर एंड गैंबल, टाटा, रिलायंस इंडस्ट्रीज, हीरो होंडा, एयरटेल, बिगबाजार-पेंटालून आदि के खिलाफ शायद ही आपने कभी कोई खबर देखी होगी। कोला कंपनियां इस देश के बच्चों और नौजवानों की सेहत बिगाड़ रही हैं और उन्हें मोटा बना रही हैं, लेकिन सेहत के किसी टीवी कार्यक्रम या किसी अखबारी पन्ने पर कोला ड्रिंक्स के खिलाफ पढ़ने को शायद ही मिलेगा। पिज्जा –बर्गर बेचने वाली कंपनियों के खिलाफ भी शायद ही कुछ छपता है क्योंकि वे बड़ी विज्ञापनादाता कंपनियां हैं। कुछ साल पहले जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने यह बताया कि कोला ड्रिंक्स में पेस्टिसाइड हैं तो कोला कंपनियों ने अपने बचाव में लगभग 40 करोड़ रुपये का विज्ञापन अभियान शुरू कर दिया और मीडिया में कोला ड्रिंक्स के खिलाफ खबरें बंद हो गईं। हाल ही में जब छत्तीसगढ़ में आदिवासी बहुल इलाके में खनन को लेकर विवाद तेज हुआ तो दुनिया की सबसे बड़ी माइनिंग कंपनियों में से एक वेदांता ने अखबारों में पूरे पन्ने के कई विज्ञापन दिये। अब अखबारों में आपको खनन को लेकर विरोध की खबरें पढ़ने को शायद ही मिलेंगी।

पिछले लोकसभा चुनाव से पहले 2008-2009 में केंद्र सरकार ने अपना विज्ञापन बजट दो गुना बढ़ा दिया था। मीडिया प्रबंधन का यह सरकारी तरीका था। भारत सरकार के दृश्य और श्रव्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) से जारी होने वाले विज्ञापन के लिए किया गया भुगतान 2007-8 में 246.5 करोड़ रु था जो 2008-9 में 472.1 करोड़ हो गया।(1) इसी तरह रेल मंत्रालय का प्रिंट माध्यमों को दिए गये विज्ञापनों पर खर्च 2007-8 में 159.1 करोड़ रु था जो 2008-9 में बढ़कर 208 करोड़ रु हो गया। (2) बाकी सरकारी विभागों और सरकारी कंपनियों का विज्ञापन खर्च भी चुनावी साल में अचानक काफी तेजी से बढ़ गया। डीएवीपी से विज्ञापनों के लिए ज्यादा भुगतान किए जाने के बारे में पूछे गये सवाल के जवाब में सरकार ने संसद को जानकारी दी कि ऐसा विज्ञापनों की दर बढ़ाए जाने और मंत्रालयों और विभागों द्वारा ज्यादा विज्ञापन जारी किए जाने की वजह से हुआ। सरकार चुनाव से ठीक पहले मीडिया संस्थानों पर विज्ञापन की शक्ल में पैसों की बारिश करके क्या हासिल करना चाहती है, इसे समझना कठिन नहीं है।

कॉमनवेल्थ खेलों की आयोजन समिति से गलती यह हुई है कि उससे समय पर अपना विज्ञापन अभियान शुरू नहीं किया। अगर वह 400 से 500 करोड़ का विज्ञापन अभियान चला रही होती तो मीडिया को नियंत्रित करना उसके लिए मुश्किल नहीं होता। इस समय जबकि अखबार जिंदा रहने से लेकर मुनाफे के लिए विज्ञापनों पर पूरी तरह निर्भर हैं, विज्ञापन बंद करने की धमकी से बड़ा सेंसरशिप कुछ भी नहीं है। इससे न बचा जा सका है न ही इसके विरोध की कोई परंपरा बन पायी है।

बाजार के दबावों की वजह से मीडिया का निष्पक्ष और निरपेक्ष रह पाना अब मुमकिन नहीं है। मीडिया का कारोबार लगभग पूरी तरह विज्ञापनों पर निर्भर है। मीडिया विश्लेषक परंजय गुहाठाकुरता की राय में खास मीडिया संगठनों के कुल राजस्व का 90 फीसदी तक विज्ञापनों से आ रहा है। (3) इस वजह से कंटेंट तैयार करने की उसकी स्वायत्तता पर पाबंदियां लग जाती है। कई बार विज्ञापनदाता मामूली सी आलोचना से नाराज होकर तमाम विज्ञापन रोक लेते हैं। जरूरी नहीं है कि ऐसा सिर्फ आलोचनात्मक खबरें छापने या दिखाने के लिए किया गया हो। कई बार किसी कंपनी के वित्तीय नतीजे और बाजार में कंपनी के कामकाज को कमजोर माने जाने की खबर पर भी ऐसी कार्रवाई की जाती है।(4)

कई विश्लेषक ये कहने लगे हैं कि खबरों में की जा रही इस तरह की मिलावट मीडिया इंडस्ट्री के लिए ठीक है और लंबी अवधि में ये विज्ञापनदाताओं के लिए भी फायदेमंद नहीं रहेगा। ये सोने के अंडे के लालच में मुर्गी को मारने वाली हरकत है। कोई भी उद्योग थोड़े समय के फायदे के लिए अपने उत्पाद को खराब नहीं करता। खासकर अपने किसी ऐसे उत्पाद के साथ कोई कंपनी छेड़छाड़ नहीं करती, या क्वालिटी के साथ समझौता नहीं करती, जो ग्राहक की आदत में शामिल हो। अखबार, पत्रिकाएं, चैनल ये सब लोग आदत के मुताबिक देखते हैं। पत्रकारिता के लिए समाचार और विज्ञापन का घालमेल किस हद तक खतरनाक हो सकता है इस बारे में पत्रकार सुरेंद्र किशोर की टिप्पणी गौरतलब है। हालांकि ये टिप्पणी लोकसभा चुनाव 2009 के दौरान कुछ अखबारों द्वारा समाचार के स्पेस को विज्ञापनों से भरने यानी पेड न्यूज के संदर्भ में है:

“यदि मीडिया की ताकत ही नहीं रहेगी तो कोई अखबार मालिक किसी सरकार को किसी तरह प्रभावित नहीं कर सकेगा। फिर उसे अखबार निकालने का क्या फायदा मिलेगा। यदि साख नष्ट हो गयी तो कौन सा सत्ताधारी नेता, अफसर या फिर व्यापारी मीडिया की परवाह करेगा। इसलिए व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो यह अखबार के संचालकों के हक में है कि छोटे-मोटे आर्थिक लाभ के लिए पैकेज पत्रकारिता को बढ़ावा न दें।” (5)

सुरेंद्र किशोर दरअसल भारतीय पत्रकारिता को एक नयी बीमारी पैकेज पत्रकारिता या पेड न्यूज से बचने की नसीहत देते हुए अखबार निकालने के पीछे भारतीय मीडिया उद्योग के व्यवसाय के अलावा बाकी हितों और स्वार्थों की चर्चा भी वे यहां कर रहे हैं। वे यह नहीं चाहते कि मीडिया अपनी साख इस हद तक गंवा दे कि उसकी हैसियत की खत्म हो जाए क्योंकि अगर मीडिया की साख ही नहीं बचेगी, तो मीडिया के जरिए वे स्वार्थ पूरे नहीं पाएंगे, जिसके लिए कोई व्यवसायी मीडिया कारोबार शुरू करता है। अखबार मालिकों द्वारा सरकार को प्रभावित करने वाली उनकी बात के मायने गंभीर हैं। सुरेंद्र किशोर पेड न्यूज का विरोध इस आधार पर नहीं कर रहे हैं कि ये अनैतिक है या पत्रकारिता और लोकतंत्र को इससे कोई नुकसान होगा, वे एक व्यावहारिक पक्ष लेते हैं और बताते है कि ऐसा करना मीडिया मालिकों के हित में भी नहीं होगा।

विज्ञापन में बसी है मीडिया की जान

भारत में मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय के विकास के पीछे मुख्य ताकत विज्ञापनों से मिले पैसे की ही है। 2006-2008 के बीच का समय भारतीय विज्ञापन बाजार में तेज विकास का दौर रहा। इस दौरान विज्ञापनों से होने वाली आमदनी में हर साल औसतन 17.1 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई। (6) 2009 में भारतीय विज्ञापन कारोबार 22,000 करोड़ रुपये का हो गया। वैश्विक मंदी और भारत पर उसके असर की वजह से 2008 के मुकाबले 2009 में विज्ञापन कारोबार में मामूली (0.4%) की गिरावट आई। लेकिन 2009-2014 के दौरान विज्ञापन कारोबार की औसत सालाना विकास दर 14 फीसदी से ज्यादा होने का अनुमान है। आर्थिक माहौल के बदलने से विज्ञापनों से होने वाली आमदनी पर असर जरूर पड़ा है लेकिन विज्ञापन कारोबार के बढ़ने की दर जीडीपी विकास दर के किसी भी अनुमान से ज्यादा है।

मीडिया के अलग अलग माध्यमों की बात करें तो प्रिंट माध्यम के विज्ञापन का बाजार 2009 में 10,300 करोड़ रुपये का था जिसके 2014 में बढ़कर 17,640 करोड़ रुपये हो जाने का अनुमान है। यानी अगले कुछ वर्षों में प्रिंट के विज्ञापनों का कारोबार सालाना 11.4 फीसदी की औसत रफ्तार से बढ़ेगा। वहीं, टीवी विज्ञापनों का बाजार 2009 में 8,800 करोड़ रुपये था जिसके 2014 में बढ़कर 18,150 करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है। प्रतिशत के हिसाब से सालाना बढ़ोतरी का आंकड़ा 15.6 फीसदी का रहेगा। (7) बढ़ोतरी का ये सिलसिला वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण विज्ञापन बाजार में आयी शिथिलता के बावजूद है।

ऐडेक्स इंडिया की रिपोर्ट के एक्सचेंज फॉर मीडिया में छपे विश्लेषण के मुताबिक 2009 में प्रिंट को सबसे ज्यादा विज्ञापन शिक्षा क्षेत्र से मिले। इसके बाद सेवा क्षेत्र और बैंकिग फाइनैंस सेक्टर का नंबर है। वैसे किसी एक कंपनी की बात करें तो सबसे ज्यादा विज्ञापन टाटा मोटर्स ने दिए। इसके बाद एलजी, मारुति सुजूकी, प्लानमैन कंसल्टेंट, स्टेट बैंक, सैमसंग, बीएसएनएल, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और जनरल मोटर्स ने दिए। इसी दौरान ऑटो कंपनियों का विज्ञापन 7 परसेंट बढ़ गया। कुल विज्ञापनों में 95 फीसदी अखबारों के हिस्से आए, जबकि 5 फीसदी विज्ञापन पत्रिकाओं को मिले। (8)

विज्ञापन है असली किंग

अखबारों में विज्ञापनों के बढ़ते महत्व और कंटेंट पर उसके असर के बारे में प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस जी एन रे ने भी चिंता जताई है। उन्होंने कहा है कि प्रेस के लिए विज्ञापन आमदनी का मुख्य स्रोत बन गये हैं। महानगरों में तो प्रेस की कुल आमदनी का 70 से 80 फीसदी विज्ञापनों से आ रहा है। इस वजह से अखबारों में विज्ञापन ज्यादा ही जगह घेरने लगे हैं। समाचार और विज्ञापन का अनुपात लगातार विज्ञापनों के पक्ष में झुक रहा है। समाचार पत्रों की नीति और विचारों पर विज्ञापनों का दखल, जितना लगता है, उससे ज्यादा हो चुका है। कॉरपोरेट कम्यूनिकेशंस और ग्राहकों को लुभाने के लिए दिए जा रहे विज्ञापनों में तेजी से बढ़ोतरी के साथ अखबारों की आमदनी जोरदार होती है। इस वजह से अखबारों में पन्ने बढ़े हैं, दूसरी ओर अखबारो की कीमत घटी है। (9)

ऐसे समय में जब अखबारों और चैनलों की जान विज्ञापन नाम के तोते में बसी हो तब, कॉमनवेल्थ आयोजन समिति ने इस तोते को दाना खिलाने में देर करने की गलती की। इस गलती का सुधार करते ही कॉमनवेल्थ गेम्स की इमेज बदल सकती है। कॉमनवेल्थ खेलों की खबर को इस नजरिए से भी देखने-पढ़ने की जरूरत है।

संदर्भ:

(1) लोकसभा, अतारांकित प्रश्न संख्या-4014, जवाब की तारीख-15 दिसंबर, 2009
(2) लोकसभा में तारांकित प्रश्न संख्या-472, जवाब की तारीख-6 अगस्त, 2009
(3) मीडिया एथिक्स: ट्रूथ, फेयरनेस एंड ऑब्जेक्टिविटी, ऑक्सफोर्ड, 2009
(4) इंडियन मीडिया बिजनेस, विनीता कोहली, 2003, पेज-33
(5) पत्रकार प्रमोद रंजन का पैकेज पत्रकारिता पर आलेख, www.janatantra.com
(6) पीडब्ल्यूसी इंडियन एंटरटेनमेंट ऐंड मीडिया आउटलुक 2009, पेज-16
(7) फिक्की-केपीएमजी इंडियन मीडिया ऐंड एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री रिपोर्ट, 2010, पेज-150
(8) www.exchange4media.com
(9) 16 नवंबर 2009 को नेशनल प्रेस डे पर प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस जी एन रे का हैदराबाद में भाषण

Wednesday, August 18, 2010

बायोमैट्रिक फेज में जाति गणना का मतलब

बायोमैट्रिक क्या है: बायोमैट्रिक का मतलब शरीर के खास अंगों के जरिए किसी इंसान की पहचान करना है। केंद्र सरकार ने देश के लोगों को विशिष्ट पहचान नंबर यानी यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर देने की योजना बनाई है। सरकार का इरादा देश के नागरिकों की पहरेदारी करने का है। बायोमैट्रिक आंकड़े इसी नंबर के लिए जुटाए जाएंगे। इसके तहत आपके हाथ की सभी उंगलियों और आंख की पुतलियों के निशान लिए जाएंगे। ठीक उसी तरह जैसा कि अपराधियों के साथ किया जाता है।
बायोमैट्रिक आंकड़े के साथ जाति गणना को जोड़ने के साजिश यह है कि जाति की गिनती न हो पाए। इसमें मुख्य रूप से ये दिक्कतें हैं:

 जाति की गिनती में कम से कम पांच साल लगेंगे क्योंकि सरकार कह रही है कि बायोमैट्रिक डाटा कलेक्शन का काम पांच साल में पूरा होगा। बायोमैट्रिक डाटा इकट्ठा करने वाली एजेंसी यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी की सरकारी वेबसाइट - http://uidai.gov.in/ में बायोमैट्रिक डाटा कलेक्शन की यही टाइम लाइन है। इस सरकारी वेबसाइट के होम पेज पर लिखा है कि पांच साल में 60 करोड़ लोगों का बायोमैट्रिक डाटा इकट्ठा कर लिया जाएगा। (Over five years, the Authority plans to issue 600 million UIDs. The numbers will be issued through various ‘registrar’ agencies across the country.) हालांकि मतदाता पहचान पत्र का काम 25 साल में पूरा नहीं हो पाया है, जिसे देखते हुए बायोमैट्रिक जैसे जटिल काम के पूरा होने में सौ साल भी लग सकते हैं।

 जाति गणना ऑप्शनल यानी लोगों के चाहने या न चाहने पर निर्भर हो जाएगी क्योंकि बायोमैट्रिक डाटा ( उंगलियों और आंख की पुतली के निशान) देना ऑप्शनल है। यानी आप चाहें तो डाटा देंगे, नहीं चाहेंगे तो नहीं देंगे। (देखिए यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी की सरकारी वेबसाइट का अंश - Will getting a UID be compulsory? No, it will not be compulsory to get a UID, it is voluntary. However in time, certain service providers may require a person to have a UID to deliver services.) यानी जो लोग बायोमैट्रिक डाटा देने के लिए डाटा सेंटर तक नहीं पहुंचेंगे/ नहीं पहुंच पाएंगे, उनकी जाति नहीं गिनी जाएगी।

 सेंसस एक्ट 1948 के तहत आप सेंसस अधिकारी को जानकारी देने से इनकार नहीं कर सकते और गलत जानकारी देने पर जुर्माने की सजा है।

 15 साल से छोटी उम्र वालों का बायोमैट्रिक डाटा भी इकट्ठा नहीं किया जाएगा।

 जाति की गिनती का काम प्राइवेट कंपनियों को – बायोमैट्रिक डाटाकलेक्शन का इंस्टिट्यूशनल फ्रेमवर्क ऐसा ही है। जिन्हें रजिस्ट्रार एजेंसी बनाया गया है उनमें सरकारी और निजी दोनों तरह की कंपनियां हैं। ( देखिए यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी की सरकारी वेबसाइट का अंश - The Registrars would include both Government and Private Sector Agencies which already have the infrastructure in place to interface with the public to provide specified services for e.g. Insurance companies, LPG marketing companies, RSBY, NREGA etc.) आप अंदाजा लगा सकते हैं कि निजी कंपनियों और एनजीओ के जुटाए आंकड़ें कितने भरोसेमंद माने जाएंगे।

 बायोमैट्रिक फॉर्म में जो जानकारियां ली जाएंगी वे इस प्रकार हैं – नाम, जन्म की तारीख, लिंग, पिता/माता, पति/पत्नी या अभिभावक का नाम, पता, आपकी तस्वीर, दसों अंगुलियों के निशान और आंख की पुतली का डिजिटल ब्यौरा। यानी न आपको जातियों की शिक्षा के स्तर का पता चलेगा न आर्थिक स्तर का। किसी समूह की किसी और समूह से तुलना नहीं हो पाएगी।

 जिस यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ने अभी अपना काम ठीक से शुरू नहीं किया है और जिसके क्षेत्रीय दफ्तर अभी तक बने नहीं हैं, बैंगलोर दफ्तर का डिजाइन बनाने के लिए आर्किटेक्ट ढूंढने का टेंडर अभी-अभी आया है, उसे जाति गणना का काम सौंपा जा रहा है। इसका दिल्ली का डाटा सेंटर तक अभी तैयार नहीं है।

 यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी न तो संवैधानिक संस्था है न ही इसे संसद के एक्ट के जरिए बनाया गया है। इसका अपना भविष्य ही संदिग्ध है और इस पर कभी भी ताला लग सकता है। इस अथॉरिटी को इतने बड़े पैमाने पर लोगों की गिनती का अनुभव भी नहीं है, जबकि जनगणना विभाग यह काम करता रहा है।

-दिलीप मंडल

Thursday, July 22, 2010

राजेंद्र यादव ने विश्वरंजन को नहीं बुलाया था...

(संदर्भः ‘हंस’ की सालाना गोष्ठी में विश्व रंजन को बुलाने की खबर पर अरुंधति रॉय का आने से इनकार...)

हंस पत्रिका की सालाना गोष्ठी में आई पी एस विश्वरंजन को वक्ता के तौर पर बुलाए जाने पर अरुंधती द्वारा विरोध में इस गोष्ठी में शामिल न होने से उपजे विवाद से हिंदी साहित्य और सरोकार की दुनिया में 'चंडूखाना' प्रवृत्ति बहुत ठीक से उजागर हो गयी है. एक ने कहा कि 'कौवा कान ले गया, और सब हो-हो कर दौड़ पड़े कौवे के पीछे!

लेकिन राजेंद्र यादव से मिलते ही पूरी परिस्थिति साफ़ हो गयी.

लगभग एक सप्ताह से चल रहे घनघोर सरोकारी समाज के एकतरफ़ा युद्ध में वैसे तो तभी दाल में काला नज़र आने लगा था जब मामले में स्वयंभू तरीके से पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों राजेंद्र यादव को उदधृत किये बिना ही सारा मामला तय किये दे रहे थे और सज़ा भी सुनाई जा चुकी थी. कुछ एक लोगों से बात हुई तो लगा कि राजेंद्र यादव जी को उनके इस फ़ैसले पर दोबारा विचार करने के लिए कहा जाए। वे यदि नहीं माने तो हमारी ओर से भी सक्रिय विरोध होगा. राजेंद्र जी से समय मांगा तो उन्होंने अगले दिन यानी रविवार 18 जुलाई शाम 5 बजे का समय दे दिया. तय समय पर हम सब (दिलीप मंडल, रजनीश, अरविन्द शेष, शीबा असलम फ़हमी और पूनम तुषामड़) वहां पहुंचे. अनीता भारती भी आना चाहती थीं पर दिल्ली से बाहर होने की वजह से उन्होंने संदेश भेजा कि मुझे भी अपने दल में शामिल समझिये.

जाते ही सबसे पहले हमने अपना अपना परिचय दिया और उन्हें बताया कि हम यहां उनके इस फ़ैसले पर पुनर्विचार का आग्रह करने आए हैं कि 'हंस' जैसे जनवादी मंच पर विश्वरंजन जैसे पुलिस वाले को सफाई का मौक़ा दिया जा रहा है. राजेन्द्र जी ने पूरी सहजता से कहा कि ऐसा फ़ैसला कभी लिया ही नहीं गया. हां, ‘हंस’ की गोष्ठी में तय विषय के संदर्भ में विश्व रंजन का नाम आया जरूर था. उनके मुताबिक ‘हंस' के दफ़्तर में वक्ताओं की सूची अभी परसों फाइनल की गयी.

लेकिन ब्लॉग पढ़ने वालों से लेकर अब बहुत सारे लोग जानते हैं कि ये विवाद पिछले एक हफ्ते से चल रहा था. हम सभी एक दूसरे का मुंह देख रहे थे कि ब्लॉगों पर तो पक्ष और प्रतिपक्ष जिस अंदाज़ में भिड़े पड़े है उससे ये लग रहा है कि विश्वरंजन का आना तय है और अरुंधती ने इसी वजह से नहीं आने का फ़ैसला किया है.

राजेंद्र यादव से जब ‘मोहल्लालाइव’ और ‘जनतंत्र’ पर अविनाश और समरेंद्र के लेख के बारे में बताया कि वे आपके चेहरे और उस पर छाई उदासी से समझ गए कि इसका कारण विश्व रंजन विवाद है तो राजेंद्र जी बोले- "जिस दिन अविनाश और समरेन्द्र जी आए थे उसी दिन मैं अपने पेट के ऑपरेशन के टांके कटवा कर अस्पताल से सीधा दफ़्तर आया था. मुझे कुर्सी पर बैठने में असुविधा भी थी और दर्द भी महसूस हो रहा था, लेकिन एक हफ्ते से चूंकि दफ़्तर नहीं आ पाया था और अंक जाना था, तो मजबूरन आना पड़ा. (इसके अलावा भी उन्होंने कुछ स्वास्थ्य सम्बन्धी जटिलताएं बताईं जो ऑपरेशन के कारण बढ़ गयी थीं.) उस स्थिति में कोई कैसे तारोताज़ा और ऊर्जावान और सहज दिख सकता है?"

हम सभी असमंजस में थे कि अब बात क्या करें? इसके बाद राजेंद्र जी ने कहा कि विश्व रंजन को बुलाने की खबर पूरी तरह बेबुनियाद और झूठी है. लेकिन मुझे आप लोग ये बताइए कि किसी मसले पर अगर सभी एक ही तरह की बात करने वालों को बुलाया जाए तो बहस कैसे होगी? क्या वह महज कीर्तन बन कर नहीं रह जाएगा. एक लोकतांत्रिक तकाजा भी है या नहीं कि पक्ष-विपक्ष दोनों की बातें भी सुनी जाएं.

इस पर अरविन्द शेष और शीबा असलम दोनों ही बोल पड़े. अरविन्द शेष का कहना था कि लेकिन क्या हमारा यह लोकतंत्र सेलेक्टिव होगा. अगर हम विश्व रंजन को बुलाते हैं तो अटल बिहारी वाजपेयी, नरेंद्र मोदी या तोगड़िया को क्यों नहीं? क्या सिर्फ इसलिए विश्व रंजन से हत्याओं के औचित्य का भाषण सुना जाए क्योंकि वे कवि हैं? कल को अगर नरेंद्र मोदी अपनी कुछ सांप्रदायिकता विरोधी और बेहद मानवीय कविताएं या रचनाओं के साथ सामने आ जाएं तो क्या उन्हें भी स्वीकृति नहीं देना चाहिए? अटल बिहारी तो पहले ही कवि हैं.

शीबा का कहना था कि विश्व रंजन सही पात्र नहीं हैं. वो तो पूरी मशीनरी का सिर्फ एक पुर्ज़ा हैं, एक “कांट्रेक्ट-किलर” की तरह का. कल यदि माओवादी सत्ता में आ जाएं तो विश्व रंजन चिदंबरम समर्थकों पर भी बन्दूक तान सकते हैं. आप मंत्रालय के किसी सम्बंधित अधिकारी या बुद्धिजीवी माने जाने वाले चिदंबरम समर्थकों को क्यों नहीं बुलाते?

रजनीश ने कहा कि हम लोकतंत्र और विरोधी मतों को भी सुनने के नाम पर उन्हें बुलाना चाहते हैं। लेकिन सवाल है कि क्या हम वास्तविक लोकतंत्र में जी रहे हैं? क्या हमारा यह लोकतंत्र मैनुफक्चर्ड और मैनीपुलेटेड नहीं है? फिर आखिर हम किस लोकतंत्र के नाम पर विश्व रंजन को बुलाने की सोच रहे हैं?

दिलीप मंडल ने कहा कि लोकतंत्र और किसी का पक्ष सुनने के नाम पर क्या निठारी काण्ड के पंधेर और श्रीलंका से राजपक्षे को भी नहीं बुलाना चाहिए? उन्होंने जो किया, उसे सही ठहराने के लिए तो उनके पास भी तर्क होंगे? विकास के नाम पर जंगल की जमीन का उपयोग करने या आदिवासियों को उजाड़ने की वकालत करने वाले स्वामीनाथन अंकलेसरैया अय्यर जैसे कई आर्थिक सिद्धांतकार हैं जो माओवाद के विरोध के नाम पर तमाम तरह की हिंसा को सही ठहराते हैं; बहस के लिए उन्हें बुलाया जा सकता था.

कुल मिला कर, राजेंद्र जी की बातों से जो हम समझ पाए, वे इस प्रकार हैं-

Ø राजेंद्र यादव ने 'हंस' की सालाना गोष्ठी के लिए विश्व रंजन को बिल्कुल नहीं बुलाया. हां, इस विषय पर प्रतिपक्ष से कौन हो, पर विमर्श करते समय उनका नाम चर्चा में एक बार आया था.

Ø इस जलसे में किस-किस को बुलाया जाए यह तय होने से पहले ही विवाद खड़ा हो गया. 'हंस' के दफ़्तर में ऐसी चर्चाएं खुलेआम होती रहती हैं, और हर विषय और सुझाव पर एक खुले अंदाज़ में बात होती रहती है। हवा में हुई ऐसी ही एक बात को वहां मौजूद किसी व्यक्ति ने विवाद का रूप दे दिया.

Ø जिस समय ब्लॉग की दुनिया में ये विवाद चरम पर था, और पक्ष-प्रतिपक्ष एक दूसरे से भिड़े हुए थे, उस समय तक ख़ुद 'हंस' में ये तय नहीं हो पाया था कि किसे बुलाया जाए और किसे नहीं.

Ø अरुंधती ने 'हंस' के जलसे में न जाने का फ़ैसला सार्वजनिक करने से पहले राजेंद्र यादव से किसी तरह की पुष्टि नहीं की. अगर उन्होंने ये फ़ैसला करने से पहले राजेंद्र यादव से एक बार बात कर ली होती या यह पता लगा लिया होता कि क्या विश्वरंजन को भी बुलाया गया है, तो उनका भ्रम तभी दूर हो जाता.

Ø इस संवादहीनता ने दो जनपक्षधर व्यक्तित्वों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा की. अरुंधती और राजेंद्र यादव की जनपक्षधरता असंदिग्ध रही है. भ्रम की ये स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है.

Ø अरुंधति राय का जो कद है और जो विश्वसनीयता है, उसमें उन्हें सुनी-सुनाई बातों के आधार पर इस तरह का कोई फैसला सार्वजनिक करने से बचना चाहिए।

Ø राजेंद्र यादव का कहना है कि वे अब भी चाहते हैं कि अरुंधती इस कार्यक्रम में शामिल हों. उनका स्वागत है.

(पूनम तुषामड़, शीबा असलम फ़हमी, रजनीश, दिलीप मंडल और अरविन्द शेष )

Tuesday, June 1, 2010

जनगणना: ओबीसी की गिनती से असहमति

दिलीप मंडल

हर दशक
में एक बार होने वाली जनगणना के लेकर इस समय देश में भारी विवाद चल रहा है। विवाद के मूल में है जाति का प्रश्न। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही इस बात की मांग उठने लगी थी कि देश में जाति आधारित जनगणना कराई जाए, ताकि किसी समुदाय के लिए विशेष अवसर और योजनाओं को लागू करने का वस्तुगत आधार और आंकड़े मौजूद हों। इसके बावजूद 2001 की जनगणना बिना इस प्रश्न को हल किए संपन्न हो गई। लेकिन इस बार यानी 2011 की जनगणना में जाति की गिनती को लेकर राजनीतिक हलके में भारी दबाव बन गया है और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की बातों को सरकार का पक्ष मानें तो सरकार इस बार जाति आधारित जनगणना कराएगी।

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी और प्रतिनिधि संस्था लोकसभा में जातीय जनगणना के पक्ष में विशाल बहुमत है और इसे लगभग आम राय कहा जा सकता है। कांग्रेस, बीजेपी, वामपंथी दल और ज्यादातर क्षेत्रीय दलों ने जाति आधारित जनगणना का समर्थन किया है। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सदन को बताया कि सरकार सदन की भावना से अवगत है और जल्द ही इस बारे में फैसला किया जाएगा और फैसला करते समय सदन की भावना का ध्यान रखा जाए। प्रणव मुखर्जी का बयान इसके बाद 8 मई को आया। लोकसभा में बहुमत की भावना और मनमोहन सिंह तथा प्रणव मुखर्जी की इन घोषणाओं के बाद इस मसले पर संशय खत्म हो जाना चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एक ओर तो जातिगत जनगणना के विरोधी अपने तर्कों के साथ मैदान में डटे हुए हैं तो दूसरी ओर एक पक्ष ऐसा भी है, जो जातिगत जनगणना की जगह सिर्फ ओबीसी की गणना का छोटा रास्ता अपनाने की वकालत कर रहा है।
सबसे पहले तो इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या ओबीसी गणना, जाति आधारित व्यापक जनगणना का विकल्प है। ओबीसी गणना के पक्षधरों की ओर से जो तर्क दिए जा रहे हैं, उनमें कोई भी ये नहीं कह रहा है कि जाति आधारित जनगणना की तुलना में ओबीसी की गणना बेहतर विकल्प है। ओबीसी गणना के समर्थकों का तर्क है कि इस समय सरकार ओबीसी गणना से ज्यादा कुछ कराने को तैयार नहीं होगी और जातिगत जनगणना की मांग करने से ओबीसी गणना का काम भी फंस जाएगा। ये तर्क अपने आप में बेहद खोखला है। सरकार ने अब तक कहीं नहीं कहा है कि वह ओबीसी गणना कराना चाहती है। उस पर जो दबाव बना है, वह जाति आधारित जनगणना के लिए है न कि ओबीसी गणना के लिए। ओबीसी गणना सरकारी तंत्र में एक विचार के तौर पर किसी स्तर पर मौजूद हो सकती है, लेकिन इसकी कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है।

ओबीसी गणना के समर्थकों का दूसरा तर्क यह है कि इस गिनती से भी वह लक्ष्य हासिल हो जाएगा, जिसे जाति आधारित जनगणना से हासिल करने की कोशिश की जा रही है। उनका तर्क है कि कुल आबादी से दलित, आदिवासी और ओबीसी आबादी के आंकड़ों को निकाल दें तो इस देश में “हिंदू अन्य” यानी सवर्णों की आबादी का पता चल जाएगा। साथ ही ये तर्क भी दिया जा रहा है कि सवर्णों के लिए तो इस देश में सरकारें किसी तरह का विशेष अवसर नहीं देतीं इसलिए अलग अलग सवर्ण जातियों के आंकड़े इकट्ठा करने से क्या हासिल होगा। इन दोनों तर्कों में दिक्कत ये है कि इसमें वास्तविकता का अनदेखी की जा रही है। इस देश में जो भी व्यक्ति जनगणना के दौरान खुद को दलित, आदिवासी या ओबीसी नहीं लिखवाएगा, वे सारे लोग सवर्ण होंगे, यह अपने आप में ही अवैज्ञानिक विचार है। इस आधार पर कोई व्यक्ति अगर खुद को जाति से ऊपर मानता है और जाति नहीं लिखाता, तो भी जनगणना में उसे सवर्ण (हिंदू अन्य) गिना जाएगा।

ऐसा करने से आंकड़ों में वैसी ही गड़बडी़ होगी, जैसे कि इस देश में हिंदुओं की संख्या के मामले में होती है। जनगणना में जो भी व्यक्ति अल्पसंख्यक की श्रेणी में दर्ज छह धर्मों में से किसी एक में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे हिंदू मान लिया जाता है। यानी कोई व्यक्ति अगर आदिवासी है और अल्पसंख्यक श्रेणी के किसी धर्म में अपना नाम नहीं लिखाता, तो जनगणना कर्मचारी उसके आगे "हिंदू" लिख देता है। इस देश के लगभग 8 करोड़ आदिवासी जो न वर्ण व्यवस्था मानते हैं, न पुनर्जन्म और न हिंदू देवी-देवता, उन्हें इसी तरह हिंदू गिना जाता रहा है। उसी तरह अगर कोई व्यक्ति किसी भी धर्म को नहीं मानता, तो भी जनगणना की दृष्टि में वह हिंदू है। अगर जातिगत जनगणना की जगह दलित, आदिवासी और ओबीसी की ही गणना हुई तो किसी भी वजह से जो "हिंदू" व्यक्ति इन तीन श्रेणियों में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे जनसंख्या फॉर्म के हिसाब से "हिंदू अन्य" की श्रेणी में डाल दिया जाएगा। इसका नतीजा हमें "हिंदू अन्य" श्रेणी की बढ़ी हुई संख्या की शक्ल में देखने को मिल सकता है। अगर "हिंदू अन्य" का मतलब सवर्ण लगाया जाए तो पूरी जनगणना का आधार ही गलत हो जाएगा।

साथ ही अगर जनगणना फॉर्म में तीन श्रेणियों आदिवासी, दलित और ओबीसी और अन्य की श्रेणी रखी जाती है, तो चौथी श्रेणी सवर्ण रखने में क्या समस्या है? अमेरिकी जनगणना में भी तमाम श्रेणियों की गिनती के साथ श्वेत लोगों की भी गिनती की जाती है। प्रश्न ये है कि भारत में कुछ लोग इस बात से क्यों भयभीत हैं कि सवर्णों की गिनती हो जाएगी? तमाम बौद्धिक आवरण के बावजूद जनगणना में ओबीसी गणना का विचार भारतीय समाज में वर्चस्ववादी मॉडल को बनाए रखने की इच्छा से संचालित है।

अब बात करते हैं उनकी जो जातिगत जनगणना के हर रूप का विरोध करते हैं और चाहते हैं कि आजादी के बाद जिस तरह से जनगणना होती आई है, उसी रूप में ये आगे भी जारी रहे। इस विचार के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह है कि जातिगत जनगणना कराने से समाज में जातिवाद बढ़ेगा। यह एक विचित्र तर्क है। इस तर्क का विस्तार यह होगा कि धर्मों के आधार पर लोगों की गिनती करने से सांप्रदायिकता बढ़ेगी। या फिर अमेरिका या यूरोपीय देशों में नस्ल के आधार पर जनगणना कराने से नस्लवाद बढ़ेगा।

जाति और जाति भेद भारतीय सामाजिक जीवन की सच्चाई है, इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता। राजनीति से लेकर शादी-ब्याह के फैसलों में जाति अक्सर निर्णायक पहलू के तौर पर मौजूद है। ऐसे समाज में जाति की गिनती को लेकर भय क्यों है? जाति भेद कम करने और आगे चलकर उसे समाप्त करने की पहली शर्त यही है कि इसकी हकीकत को स्वीकार किया जाए और जातीय विषमता कम करने के उपाय किए जाएं। जातिगत जनगणना जाति भेद के पहलुओं को समझने का प्रामाणिक उपकरण साबित हो सकती है। इस वजह से भी आवश्यक है कि जाति के आधार पर जनगणना कराई जाए।

जातीय जनगणना और ओबीसी की गिनती का विरोध करने वालों का दूसरा तर्क है कि इस मांग के पीछे राजनीति है और ओबीसी नेता संख्या बल के आधार पर अपनी राजनीति मजबूत करना चाहते हैं। इस आधार पर जातिगत आरक्षण का विरोध करना अलोकतांत्रिक है। लोकतंत्र में राजनीति करना कोई अपराध नहीं है और संख्या बल के आधार पर कोई अगर राजनीति में आगे बढ़ता है या ऐसा करने की कोशिश करता है, तो इस पर किसी को एतराज क्यों होना चाहिए? लोकतंत्र में फैसले अगर संख्या के आधार पर नहीं होंगे, तो फिर किस आधार पर होंगे?

जनगणना प्रक्रिया में यथास्थिति के समर्थकों का एक तर्क ये भी है कि ओबीसी जाति के लोगों को अपनी संख्या गिनवाकर क्या मिलने वाला है। उनके मुताबिक ओबीसी की राजनीति के क्षेत्र में बिना आरक्षण के ही अच्छी स्थिति है। मंडल कमीशन के बाद सरकारी नौकरियों में उन्हें 27 फीसदी आरक्षण हासिल है और अर्जुन सिंह की पहल के बाद केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में भी उन्हें आरक्षण मिल गया है। अब वे आखिर और क्या हासिल करना चाहते हैं, जिसके लिए जातीय जनगणना की जाए? उनकी तो ये भी सलाह है कि ऐसा न करें, क्योंकि हो सकता है कि ओबीसी की वास्तविक संख्या उतनी न हो, जितनी अब तक सभी मानते आए हैं।

ये तर्क को सिर के बल खड़ा करने का मामला है। अगर ओबीसी की संख्या अब तक की मान्यताओं से कम हो सकती है, तो ये अपने आप में पर्याप्त वजह है जिसके आधार पर जातिगत जनगणना की जानी चाहिए। अगर देश की कुल आबादी में ओबसी की संख्या 27 फीसदी से कम है, तो उन्हें नौकरियों और शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण क्यों दिया जाना चाहिए? यूथ फॉर इक्वैलिटी जैसे संगठनों और समर्थक बुद्धिजीवियों को तो इस आधार पर जाति आधारित जनगणना का समर्थन करना चाहिए!

वैसे यह रोचक है कि जातिगत जनगणना का विरोध करने वाले वही लोग हैं जो पहले नौकरियों में आरक्षण का विरोध कर रहे थे, बाद में जिन्होंने शिक्षा में आरक्षण का विरोध किया। ये विचारक इसी निरंतरता में महिला आरक्षण का समर्थन करते हैं। जाति के प्रश्न ने राजनीतिक विचारधारा के बंधनों को लांघ लिया है। जाति के सवाल पर वंचितों के हितों के खिलाफ खड़े होने वाले कुछ भी हो सकते हैं, वे घनघोर सांप्रदायिक से लेकर घनघोर वामपंथी और समाजवादी हो सकते हैं। जाति संस्था की रक्षा का वृहत्तर दायित्व इनके बीच एकता का बिंदु है। लोकतंत्र की बात करने के बावजूद ये समूह संख्या बल से घबराता है।

लेकिन लोकतंत्र की ताकत के आगे बौद्धिक विमर्श का जोर नहीं चलता। अगर बौद्धिक विमर्श से देश चल रहा होता तो नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण कभी लागू नहीं होता। बौद्धिक चर्चाओं से राजनीति चल रही होती तो महिला आरक्षण विधेयक कब का पास हो चुका होता। जाहिर है लोकतंत्र में जनता की और संख्या की ताकत के आगे किसी का जोर नहीं चलता। इस देश में अगर जातीय जनगणना हुई तो वह भी राजनीतिक दबाव में ही कराई जाएगी। बौद्धिकों के हिस्से घटित होने वाले और घटित हो गए घटनाक्रम के विश्लेषण का ही काम आएगा। इस देश में जातीय जनगणना के पक्ष में माहौल बन चुका है। किसी में ये साहस नहीं है कि इस सवाल पर देश में जनमत सर्वेक्षण करा ले। वैसे भी संसदीय लोकतंत्र में लोकसभा की भावना को देश की भावना माना गया है। यह साबित हो चुका है कि इस देश की लोकसभा में बहुमत जाति आधारित जनगणना के पक्ष में है। ये एकमात्र तथ्य जातीय जनगणना के तमाम तर्कों को खारिज करता है।
(यह आलेख 1 जून के जनसत्ता में छपा है।)

Tuesday, May 25, 2010

जाति, जनगणना और आरक्षण: सही बहस की जरूरत

निखिल आनंद

जाति भारतीय समाज की जड़ - जमीन से जुडी एक बड़ी हकीकत है। पर अफ़सोस कि आज के बौद्धिक बहस में सबसे कम शामिल है। पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवियों, जिनमें समाजशास्त्री और राजनीतिक विद्वान भी शामिल हैं, इस मसले पर बहस करने से कतराते नजर आते हैं - मानो उन्हें जातिवादी करार दिया जायेगा। इस कारण जाति के सवाल पर अधिकतर लोग विनम्र दिखने की कोशिश में चुप रहते हैं। लेकिन बात वही है कि मर्ज छुपाने से बढ़ता है तो फिर उसपर बातचीत कर हल ढूंढने की कोशिश क्यों न करें?

हाल ही में सरकार ने जाति आधारित जनगणना कराने पर सहमति व्यक्त की है। पर वस्तुस्थिति अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाई है कि ये जनगणना पूरी तौर पर जाति आधारित होगी या सिर्फ ओ.बी.सी. की। आश्चर्य है कि एक ओर जनगणना की प्रक्रिया शुरू की जा चुकी है और दूसरी ओर सरकार संसद में बहस कराने और आश्वासन देने के बाद भी निर्णय में देरी कर रही है, जिससे पूरी प्रक्रिया बाधित होगी। सरकार के मंशा ज़ाहिर करने के बाद अब कई बुद्धिजीवी भी सरकार के पक्ष और विपक्ष में अपने - अपने तर्क और पूर्वाग्रहों के साथ खड़े दिखाई देते हैं। कुछ लोगो का समर्थन सिर्फ ओ.बी.सी. की गिनती करने के पक्ष में दिखता है। सवाल ये उठता है कि क्या करोड़ों रुपये खर्च कर कराये जा रहे इस जनगणना का सन्दर्भ सिर्फ आरक्षण से है ? या फिर इसका सामाजिक, राजनितिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और विकास से जुड़ा सन्दर्भ भी है।

अगर सिर्फ ओ.बी.सी. आधारित जनगणना होती है तो ये मंडल के नाम पर चल रही राजनीति को आगे खीचने की तुच्छ कोशिश होगी। जनगणना में देश के हर नागरिक की सामाजिक (जाति ) और आर्थिक जानकारी का आंकड़ा होना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं कि सब पर जाति थोपी जाये। जिनको जाति में विश्वास नहीं है या फिर 'इन सबसे ऊपर उठ चुके है' उनके लिए 'भारतीय' या फिर 'अन्य' का आप्शन भी दिया जाये। जाति जनगणना के बाद सरकार मंडल लिस्ट के आधार पर ओ.बी.सी. की संख्या जान सकती है और एस.सी.-एस.टी. की संख्या भी। देश में कई ऐसे जनजातीय समुदाय और भाषाएँ हैं जो विलुप्त होने के कगार पर हैं, इनकी जनसंख्या का पता लगे और सरकार उनकी हिफाजत के लिए काम करे। कई समुदाय अब भी सरकार की लिस्ट में नहीं है या फिर घुमंतू जातियां हैं, इनकी सामूहिक आबादी करोड़ों में है, इनकी संख्या का भी पता लगे और योजनाओं में उन्हें शामिल किया जाये। किन्नरों को अभी तक पुरुष की श्रेणी में गिना जाता है, उनकी पहचान भी अलग होनी चाहिए। हम इस तरह के आंकड़ो को समस्या समझना छोड़ दे क्योंकि इन्ही की बुनियाद पर देश के सामाजिक- सांस्कृतिक - आर्थिक विकास की सही पृष्ठभूमि तैयार हो सकती है।

देश में जाति का जन्म आधारित सिद्धांत है, जो भी जिस जाति में पैदा लेता है उसी में मर जाता है। ये एक जड़वादी व्यवस्था है और समाज में सब कुछ बदल सकते हैं, यहाँ तक की धर्म भी, पर जाति नहीं बदल सकते हैं। समाज में आत्म स्वाभिमान और सम्मान जाति के आधार पर है और इसका एक उच्च जातिगत रुझान है। कई बुद्धिजीवी खासकर नई आर्थिक व्यवस्था के आने के बाद जोर शोर से वर्गवाद के सिद्धांत को भारतीय समाज पर थोपने में लगे है। देश में अगर क्लास सोसाइटी का उभार हो रहा है तो भी उसका जातिगत सन्दर्भ मौजूद है। जाति के सन्दर्भ में वर्गवाद की चर्चा अवश्य होनी चाहिए पर वर्ग के नाम पर जाति की समूची अवधारणा को ख़ारिज करने बौद्धिक साजिश भी कम नहीं है। देश के किसी भी अखबार के मेट्रीमोनिअल पेज का आंकड़ा देखे तो पता चल जायेगा। देश में मानवाधिकार का उल्लंघन और बलात्कार के मामलों का अध्ययन करें तो सबसे ज्यादा दलित और उसके बाद पिछड़ी जाति के लोग पीड़ित हैं। मंडल के बाद जो देश के दलित- पिछड़ी जातियों में मोबिलिटी आई है उसपर जातिवाद का लेबल चिपका देना बौद्धिक मठाधीशो एक सहज प्रवृति हो सकती है पर इससे लोकतान्त्रिक व्यवस्था और संस्थाएं मजबूत हुई है ये भी काबिले गौर है। हालाँकि दलित- पिछड़ो नेताओ की पहली जमात बौद्धिक नेतृत्व अभी तक नहीं दे पाई है पर समाज में इन प्रतीकों के महत्व से इनकार नहीं कर सकते। जो भी दलील पेश की जाए जातिगत आरक्षण को ख़त्म करना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है। एक नई बहस इन दिनों शुरू है वो उच्च जाति के गरीबों को अलग आरक्षण देने को लेकर है। अगर कभी भविष्य में इसकी व्यवस्था होती भी है तो क्या सरकार इस बात को रोकने के लिए सक्षम है कि सक्षम सवर्ण इसका दुरुपयोग नहीं करेंगे। इसलिए एक ऐसी जातीय जनगणना होनी चाहिए जिसमें देश के सभी नागरिकों के सामाजिक और आर्थिक पहलू का जिक्र हो ताकि आरक्षण के लाभ के लिए जाति और आर्थिक आधार का दुरुपयोग रोका जा सके। अभी भी दलित और ओ.बी.सी. के आरक्षण के दुरूपयोग के मामले कम नहीं है।

ओ.बी.सी. जनगणना करा देने मात्र से जाति आधारित सारी समस्याएं ख़त्म हो जायें ऐसा भी नहीं है। कई जातियां और उप- जातियों की तरफ से दलित और ओ.बी.सी. में शामिल करने को लेकर मांग और आन्दोलन होते रहते है। सरकार भी मंडल लागू होने के बाद समय- समय पर कई ऐसे समूहों को आरक्षण की लिस्ट में शामिल कर मांग पूरी करती रही है। इस सन्दर्भ में जाति आधारित जनगणना का एक विकल्प नजर आता है। सारी पार्टियां आरक्षण की अवधारणा को स्वीकार करती हंक लेकिन ये स्वीकार कोई भी नहीं कर सकता कि आरक्षण देश की जातिगत समस्याओं का एक स्थाई समाधान है। लिहाजा इस पॉजिटिव डिस्क्रिमिनेशन पालिसी को तात्कालिक जरूरत समझते हुए भविष्य में इसके स्थाई समाधान पर काम करना होगा। दूरगामी भविष्य में आरक्षण से परे किसी भी नई नीति पर काम करने के लिए, अथवा पालिसी और प्लानिंग के लिए जातीय जनगणना के रिकॉर्ड एक महत्वपूर्ण आधार होंगे।

एक बड़ा तबका ये प्रचारित करने में लगा है कि जातीय जनगणना से देश में जातिवाद बढ़ जायेगा। इस प्रकार की डाइवर्सिटी पश्चिमी देशों सहित दुनिया भर में है। अमरीका, ब्रिटेन में भी इस प्रकार की जनगणना होती है जहाँ सभी रेस के लोगो ब्लैक, व्हाइट, हिस्पैनिक, एशियन सभी के आंकड़े इक्कट्ठे किये जाते है। क्या इस देशो में लोकतंत्र ख़त्म हो गया है ? भारत में भी धर्म के आधार पर जनगणना होती रही है और हाल ही में एक सर्वे ये जानने के लिए सरकार की ओर से हुआ की देश की नौकरियों में अल्पसंख्यकों की संख्या कितनी है। तो क्या धर्मान्धता लोकतंत्र पर हावी हो गयी है ? हर जनगणना में हिन्दुओं की आबादी देश में सबसे ज्यादा दिखाई जाती है, इस सन्दर्भ में भारत एक हिन्दू राष्ट्र हो महज एक अवधारणा हो सकती है पर सबको मालूम है कि ये संभव नहीं और ये विचार हर चुनाव में मात खाती है। जो लोग धर्मनिरपेक्षता के समर्थक है उन्हें सामाजिक न्याय और समानता का तत्व स्वीकार करने में क्या दिक्कत हो सकती है? अगर देश में जाति आधारित जनगणना गलत है तो धर्म आधारित जनगणना के पक्ष में क्या अलग बौद्धिक दलील है ?

हाल ही में राजेंद्र सच्चर और रंगनाथ मिश्र ने अल्पसंख्यकों के कल्याण से संबंधित दो अलग- अलग रिपोर्ट पेश की है इसके बाद से देश भर में माइनोरिटी आरक्षण को लेकर राजनrतिक बहस छिड़ी है। कई प्रोग्रेसिव और सोसलिस्ट इस मुहिम में शामिल है। बहुत ही कम लोगो को याद होगा की पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने मंडल के बाद के दौर में इस मुस्लिम आरक्षण की बात को कई मर्तबा उठाया था। तब समाजवादी नेता मधु लिमये ने फोन कर और पत्र लिखकर केसरीजी की इस बात का विरोध किया था की धर्म आधारित आरक्षण संविधान सम्मत नहीं है और अगर वे इतने ही चिंतित है तो सभी अल्पसंख्यक समुदाय के दलित और ओ.बी.सी. को उनके हिन्दू भाइयों की तरह बराबरी का दर्जा क्यों नहीं दिला देते। मधु लिमये का मानना था की धर्म एक ग्लोबल फेनोमेना है वहीँ जाति एक स्थानीय फेनोमेना, इस नाते धर्मान्धता हमेशा जातिवाद से ज्यादा खरतनाक है। भारतीय समाज के हर जानकार को पता है कि यहाँ हर धर्म जाति विभक्त है और उनमें दलित पिछड़े है चाहे इस्लाम हो, क्रिस्चियन हो, सिख या बौद्ध- जैन। भारत के किसी भी धर्म में शामिल ये तत्व उसे दुनिया के किसी भी सामान धर्म से अलग करते हैं। हालाँकि अल्पसंख्यक पिछड़ो को मंडल कमीशन के तहत आरक्षण मिला है पर उनके दलित अभी भी वंचित हैं। देश के बुद्धिजीवी क्यों नहीं माइनोरिटी समुदाय के बृहत् हित में उनके दलित - पिछड़ो को हिन्दुओ के बराबर अधिकार की बात करते है। इस परिप्रेक्ष्य में भी जाति आधारित जनगणना एक बेहतर आंकड़ा देगी जिससे अल्पसंख्यक समाज में जाति और उसके डेप्रिवेशन का अध्ययन किया जा सकता है।

किसी भी राजनितिक दल के लिए धर्म और जाति के नाम पर खेल करना आसान है लेकिन जातिगत आंकड़े इस पूरे खेल को ख़त्म कर देंगे। तब कोई भी दल और सरकार हाशिये के लोगो के हक़ में नीतिगत और विकास से जुड़ा फैसला लेने को बाध्य होगी। नई आर्थिक नीति और सूचना क्रांति के बाद हर समाज की उत्सुकता राजनितिक भागेदारी को लेकर जितनी है उससे ज्यादा अर्थव्यवस्था में भागेदारी को लेकर है। ऐसे में क्या गलत है कि हर समाज खासकर दलित- पिछड़ो को उनका सामाजिक - राजनितिक और आर्थिक बराबरी मिले। इन्हें वंचित रखने की कोई भी दलील शर्मनाक है और एक्सक्लुसिविटी एवं सुपिरिअरिटी के सिद्धांत पर आधारित है।
जाति कोई शिव का धनुष नहीं जो कोई राम आएगा और एक बार में तोड़ डालेगा। जाति कोई देवी- देवताओ की कहानियों की तरह कोई मिथ्या नहीं है बल्कि समाज की क्रूर हकीकत है। जाति समाज में बहुसंख्यक तबके की निजी पहचान से जुड़ा मसला है फिर सीधे तौर पर इसे ख़ारिज करना आगे बढ़ रहे दलित- वंचित समाज के खिलाफ एक बौद्धिक साजिश है- पहचान से वंचित रखने की, डी- पोलिटिसाइज करने की और अंततः हाशिये पर बनाये रखने की। लोकतंत्र के किसी भी स्तम्भ का अध्ययन करें तो एक ख़ास तबके का वर्चश्व साफ़ नजर आता है, जो अपने आप ही नहीं बनी है बल्कि एक प्लानिंग के तहत बनाया गया सिस्टम लगता है। ओपिनियन मेकर की भूमिका निभाने का दावा करने वाली मिडिया भी इस जातिगत पूर्वाग्रह से वंचित नहीं है। जाति बहस और विमर्श से टूटेगी, ज़ाहिर है बहुत लम्बा वक़्त लगेगा। लेकिन इस मुहीम में वास्तविक प्रोग्रेसिव की बड़ी भूमिका होगी- जिनके चेहरे पर मुखौटा नहीं हो और जिनके नीति व नियति में फर्क नहीं हो।

देश के सामाजिक विकास और उसमें दलित- पिछड़ो- वंचितों की भागीदारी का सही आइना जातिगत जनगणना के माध्यम से ही सकेगी। इससे ही देश में जाति के नाम पर चल रही अन्यथा राजनीति और गैर जरूरी जातिगत मांगो पर रोक लगेगी। इस प्रकार की जनगणना से मिले आंकड़े का प्रयोग समाजशास्त्रियों, विकास नीति के निर्धारको और विभिन्न सरकारों के द्वारा देश के सामाजिक- सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में बेहतर किया जा सकता है। अगर इस बार ये जाति आधारित जनगणना नहीं होती है तो फिर ये बहस दस सालों के लिए पीछे चला जायेगा। आइये निःसंकोच होकर देश के एक बड़े सामाजिक मसले पर चर्चा करें, इसकी पीड़ा और त्रासदी को उजागर करें और दूरगामी भविष्य में इसे ख़त्म करने की नीव डाले। ज़ाहिर है मतभिन्नता होगी पर इससे समाज और लोकतंत्र मजबूत होगा।
@ निखिल आनंद /
Mbl:- 9910112007
Email:- nikhil.anand20@gmail.com

Tuesday, May 18, 2010

कौन बेहतर?

अनिल सिन्हा

वे जो ख़ामोशी से जीते रहे हजारों साल की लीक पर
पूजते रहे कभी न दिखाई पड़ने वाले देवताओं को
पुरखों की याद में दीप जलाते रहे
खेत, जंगल जिन्हें पहचानते थे
हवाएं कभी थरथराई नहीं जिनके आने पर
या वे ?
जिन्होंने कभी शंकाओं को छिपाया नहीं
देवताओं से भी सवाल करते रहे
जिनकी बैचैन नज़रों से हवाएं भी कांप जाती
हर शै में जिनके सवाल तैरते हैं
जिन्होंने शंकाओं की पोटली थमा दी अपनी संतति को
और विदा लेते समय भी जिनकी आँखें उत्तर मांग रही थीं
इसका जवाब इतिहास पर छोड़ता हूँ
शंका ने ही हमें देवताओं के ह्रदय में जब्त रहस्यों को जानने के लिए उकसाया
हमें ले गए नदियों के पार, गुफाओं में
पहुंचा दिया हवाओं के ऊपर
कोई बुद्ध किसी निरंजना नदी के तट पर बैठा सुजाता के कटोरे में रखी आस्था की खीर की प्रतीक्षा कर रहा होगा
आस्था के जल से सिंचित शंका के पेड़
सभ्यता के इस खूबसूरत बगीचे में खड़ा मैं चकित!

Sunday, May 9, 2010

वह मारा जाएगा

(निरुपमा कांड के खिलाफ मशहूर संस्कृतिकर्मी अश्विनी कुमार पंकज की कविता)

देहरी लांघो
लेकिन धर्म नहीं
क्योंकि यही सत्य है

पढ़ो
खूब पढ़ो
लेकिन विवेक को मत जागृत होने दो
क्योंकि यही विष (शिव) है

हँसो
जितना जी चाहे
जिसके साथ जी चाहे
पर उसकी आवाज से
देवालयों की मूर्तियों को खलल ना पड़े
क्योंकि यही सुंदर है

याद रखो
देहरी ही सत्य है
अज्ञान ही शिव है
धर्म ही सुंदर है

सत्यं शिवं सुंदरम का अर्थ
प्रेम नहीं है
जो भी इस महान अर्थ को
बदलना चाहेगा
वह मारा जायेगा
चाहे वह मेरा ही अपना लहू क्यों न हो

(प्रेम (इंसान) की हत्या के खिलाफ हमारा भी प्रतिवाद दर्ज करें
झारखंडी प्रेस एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन, झारखंड)
akpankaj@gmail.com

Sunday, May 2, 2010

निरुपमा पाठक के लिए न्याय

निरुपमा के लिए न्याय पिटीशन पर दस्तखत करें। निरुपमा की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि वह अपनी मर्जी से शादी करना चाहती थी। वर्णव्यवस्था के पुजारियों ने इस अपराध के लिए उसे मौत की सजा दे डाली। पिटीशन पर क्लिक करें।
http://www.petitiononline.com/n1i2r3u4/petition.html

Wednesday, April 28, 2010

श्यामाप्रसाद को हां है तो भीमराव को नहीं क्यों?

दिलीप मंडल

दिल्ली की सबसे ऊंची इमारत का नाम जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम पर रखा गया है। ये इमारत दिल्ली नगर निगम की है और इस समय दिल्ली नगर निगम में भारतीय जनता पार्टी का बहुमत है। इसलिए माना जा सकता है कि बीजेपी जिन लोगों से प्रेरणा लेती है और जिन्हें महान मानती है, उनके नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखने का उसे अधिकार है। इस बात पर न तो कांग्रेस ने सवाल उठाया है न ही वामपंथी दलों ने और न ही सपा, बसपा या राजद ने। सभी राजनीतिक पार्टियां इस राजनीतिक संस्कृति को मानती हैं कि सत्ता में होने के दौरान वे किसी सरकारी योजना या भवन, पार्क, सड़क, हवाई अड्डे या किसी भी संस्थान का नाम अपनी पसंद के किसी शख्स के नाम पर रख सकती हैं। इस मामले में राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति है। इसलिए जिस जनसंघ की विचारधारा और परंपरा से सेकुलर दलों को इतना परहेज है, उसके संस्थापक के नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखे जाने को लेकर कहीं किसी तरह का विवाद नहीं है।

इस मामले में एकमात्र व्यतिक्रम या अपवाद या विवाद आंबेडकर और कांशीराम की स्मृति में बनाए गए पार्क और स्थल हैं। इस देश में हर दिन किसी न किसी नेता की स्मृति में कहीं न कहीं कोई शिलान्यास, कोई उद्घाटन या नामकरण होता है, लेकिन विवाद सिर्फ तभी होता है जब किसी दलित या वंचित नायक के नाम पर कोई काम किया जाता हो। ऐसा भी नहीं है कि विवाद सिर्फ तभी होता है, जब बहुजन समाज पार्टी किसी दलित नायक के नाम पर कोई काम करती है। कांग्रेस के शासनकाल में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम भीमराव आंबेडकर के नाम पर रखे जाने को लेकर कई दशकों तक हंगामा चला और कई बार विरोध ने हिंसा का रूप भी ले लिया। लगभग दो दशक तक नामांतर और नामांतर विरोधी आंदोलन और हिंसा तथा आत्मदाह की घटनाओं के बाद जाकर 1994 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बाबा साहब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय रखा जा सका। नामांतर विरोधी आंदोलन को लगभग सभी बड़े राजनीतिक दलों का खुला या प्रछन्न समर्थन हासिल था।

नामांतर आंदोलन के बाद देश में इस तरह का सबसे बड़ा विवाद उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के शासन काल में बनाए जा रहे स्मारकों को लेकर है। इस विवाद में विरोधियों के पास मुख्य रूप में ये तर्क हैं कि उत्तर प्रदेश जैसे गरीब और पिछड़े राज्य में सरकार इतनी बड़ी रकम स्मारकों पर क्यों खर्च कर रही है। दूसरा तर्क ये दिया जाता है कि बहुजन समाज पार्टी सिर्फ अपनी विचारधारा के नायकों के नाम पर स्मारक क्यों बनवा रही है। यह आरोप भी लगाया जाता है बहुजन समाज पार्टी ये सब राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है। ये सारे तर्क बेहद खोखले हैं। अगर इन्हें दूसरे दलों की सरकारों पर लागू करके देखा जाए, तो इनका खोखलापन साफ नजर आता है। राजघाट, गांधी स्मृति, शांति वन, वीर भूमि, शक्ति स्थल, तीनमूर्ति भवन, इंदिरा गांधी स्मृति, दीन दयाल उपाध्याय पार्क आदि-आदि हजारों स्मारकों पर आने वाले खर्च की अनदेखी करके ही बहुजन समाज पार्टी सरकार पर इस मामले में फिजूलखर्ची का आरोप लगाया जा सकता है।

कांग्रेस ने अपने पार्टी से जुड़े नायकों के नाम पर जो कुछ किया है, उस पर आए खर्च की बराबरी बहुजन समाज पार्टी शायद कभी नहीं कर पाएगी। इस देश में जितने गांधी पार्क और नेहरू पार्क हैं, उतने फुले, आंबेडकर और कांशीराम पार्क बीएसपी अगले कई दशक में नहीं बना पाएगी। ये बराबरी का मुकाबला नहीं है। बीजेपी भी अपने नायकों की प्रतिमाएं और स्मारक खड़े करने में पीछे नहीं है और ये सब सरकारी खर्च पर ही होता है। हेडगेवार, गोलवलकर, विनायक दामोदर सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम को चिरस्थायी बनाने की बीजेपी ने भी कम कोशिश नहीं की है। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर केंद्र सरकार का एक सूचना प्राद्योगिकी संस्थान ग्वालियर में है और हिमाचल प्रदेश में भी वाजपेयी के नाम पर एक माउंटेनियरिंग इंस्टिट्यूट है। अपने नायकों को स्थापित करने में कांग्रेस और बीजेपी की तुलना में समाजवादी पार्टी, आरजेडी, बीएसपी जैसी पार्टियां काफी पीछे हैं। देश के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों, पार्कों, सड़कों, शिक्षा संस्थानों, पुलों, संग्रहालयों, चिड़ियाघरों पर कांग्रेस के नेताओं के नाम हैं और इस गढ़ में बीजेपी ने थोड़ी-बहुत सेंधमारी की है। ये संयोग हो सकता है कांग्रेस और बीजेपी जिन नायकों के नामों को चिरस्थायी बनाने के लिए उनके नाम पर कुछ करती है, उनमें लगभग सभी सवर्ण जातियों के हैं। जबकि बीएसपी ने जिन महापुरुषों के नाम पर स्मारक बनाए हैं, वे सभी अवर्ण हैं। सिर्फ इस एक बात को छोड़ दें तो कांग्रेस, बीजेपी और बीएसपी में कोई फर्क नहीं है।

कुछ लोगों को इस बात पर एतराज हो सकता है कि गांधी और नेहरू जैसे नेताओं को खास जाति या पार्टी से जोड़कर बताया जा रहा है। यहां सवाल उठता है कि आंबेडकर जैसे विद्वान और संविधान निर्माता को दलित नेता के खांचे में फिट किया जाता है और उनके स्मारकों की अनदेखी की जाती है(दिल्ली में जिस मकान में रहने के दौरान उनका देहांत हुआ, उसके बारे में कितने लोग जानते हैं और इसकी तुलना गांधी स्मृति या तीन मूर्ति भवन से करके देखें) तो जाति के प्रश्न की अनदेखी कैसे की जा सकती है। एक विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के सरकार के फैसले को अगर दो दशक तक इसलिए लंबित रखा जाता हो कि कुछ लोग इसके खिलाफ हैं, तो इसकी जाति के अलावा और किस आधार पर व्याख्या हो सकती है? जाति भारतीय समाज की एक हकीकत है और जिसने जाति की प्रताड़ना या भेदभाव नहीं झेला है, वही कह सकता है कि भारत में जाति का असर नहीं है। जाति का अस्तित्व और उसके प्रभाव को संविधान भी मानता है और कानून भी। जो जाति को नहीं मानते, उन्हें भी कोई न कोई जाति अपना मानती है।

ऐसे में सवाल सिर्फ इतना है कि गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी, हेडगेवार और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की स्मृति को जिंदा रखने में अगर कोई बुराई नहीं है तो फुले, शाहूजी महाराज, आंबेडकर, कांशीराम की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए प्रयास करने में कोई दोष कैसे निकाला जा सकता है? पिछड़ी और दलित जातियों के मुसलमानों के नायकों की भी स्थापना होनी चाहिए। बल्कि ये वे काम हैं, जो स्थगित थे और उन्हें अब पूरा किया जाना चाहिए। आखिर हर किसी को अपने नायक चाहिए। महाविमर्श के अंत के बाद अब कोई नायक हर किसी का नायक नहीं है। आज दलित और वंचित अपने नायकों की स्थापना कर रहे हैं। देश के लिए ये शुभ है। इससे घबराना नहीं चाहिए।

(यह लेख 28 अप्रैल को नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर छपा है)

Friday, March 26, 2010

मायावती की माला आपको बुरी क्यों लगती है?

दिलीप मंडल

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष कुमारी मायावती की माला को लेकर राजनीति और भद्र समाज में मचा शोर अकारण है। मायावती ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो वर्तमान राजनीतिक संस्कृति और परंपराओं के विपरीत है। नेताओं को सोने चांदी से तौलने और रुपयों का हार पहनाने को लेकर ऐसा शोर पहले कभी नहीं मचा। नेताओं की आर्थिक हैसियत के खुलेआम प्रदर्शन का ये कोई अकेला मामला नहीं हैं। सड़क मार्ग से दो घंटे में पहुचना संभव होने के बावजूद जब बड़े नेता हेलिकॉप्टर से सभा के लिए पहुंचते हैं, तो इससे किसी को शिकायत नहीं होती। करोड़ों रुपए से लड़े जा रहे चुनाव के बारे में देश और समाज अभ्यस्त हो चुका है। मायावती प्रकरण में अलग यह है कि वर्तमान राजनीतिक संस्कृति का अब दलित क्षेत्र में विस्तार हो गया है। धन पर बुरी तरह निर्भर हो गए भारतीय लोकतंत्र का यह दलित आख्यान है जो दलित पुट की वजह से कम अभिजात्य है और कदाचित इस वजह से कई लोगों को अरुचिकर लग रहा है। साठ करोड़ रू का चारा घोटाला लगभग 30,000 करोड़ रू के टेलिकॉम घोटाले या ऐसे ही बड़े दूसरे कॉरपोरेट घोटालों की तुलना में लोकस्मृति में ज्यादा असर पैदा करता है, तो इसकी वजह घोटाले का भोंडापन ही है। मधु कोड़ा इस देश के सबसे भ्रष्ट नेताओं की लिस्ट में बहुत पीछे होने के बावजूद अपने भ्रष्टाचार के भोंडेपन की वजह से मध्यवर्ग की घृणा के पात्र बनते हैं, जो उन्हें बनना भी चाहिए, लेकिन हर तरह का भ्रष्टाचार समान स्तर की घृणा पैदा नहीं करता।

मायावती की माला को लेकर छिड़े विवाद से भारतीय राजनीति में धन के सवाल पर बहस शुरू होने की संभावना है और इसलिए आवश्यक है कि इस प्रकरण की गहराई तक जाकर पड़ताल की जाए। इस पड़ताल के दायरे में ये सवाल हो सकते हैं- क्या मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों और भारतीय मध्यवर्ग को माला प्रकरण को लेकर मायावती की निंदा करने का अधिकार है, क्या मायावती का वोट बैंक इस विवाद की वजह से नाराज होकर उनसे दूर जा सकता है, राजनीति और चुनाव में धन की संस्कृति का स्रोत क्या है और क्या उत्तर प्रदेश में मायावती की राजनीति का कोई दलित-वंचित विकल्प हो सकता है।

सबसे पहले तो इस बात की मीमांसा जरूरी है कि क्या मायावती कुछ ऐसा कर रही हैं, जो अनूठा है और इस वजह से चौंकानेवाला है। अगर मायावती के जन्मदिन पर हुए समारोह की इस आधार पर आलोचना की जाए कि राजनीति में ये धनबल का प्रदर्शन है, तो सिर्फ मायावती या बसपा ही इसके लिए दोषी कैसे हैं? धनबल भारतीय राजनीति की अस्थिमज्जा में इतने गहरे समा चुका है कि लगभग अथाह रुपयों के बिना संसदीय राजनीति करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिन लोगों को मायावती को पहनाई गई नोटों की माला को देखकर उबकाई आ रही है, उन्हें दरअसल उबकाई उस दिन भी आनी चाहिए थी जब ये पता चला था कि दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक, भारत की लोकसभा में 2009 के आम चुनाव के बाद 300 से ज्यादा करोड़पति (करोड़पति यानी वे, जिन्होंने चुनाव आयोग को दिए हलफनामे में अपनी जायदाद एक करोड़ रुपए से ज्यादा घोषित की है। उनकी वास्तविक हैसियत और अधिक हो सकती है) सांसद पहुंचे हैं। ये संख्या पिछली लोकसभा से दोगुनी है। लोकसभा के एक सांसद की औसत घोषित जायदाद 5 करोड़ रुपए से ज्यादा है और लोकसभा के सभी एमपी की सम्मिलित जायदाद 2,800 करोड़ रुपए से ज्यादा है।

राजनीति में धन के संक्रमण की बीमारी राष्ट्रव्यापी हो चली है। महाराष्ट्र में अक्टूबर 2009 के विधानसभा चुनाव में 184 करोड़पति विधायक चुनकर आए। महाराष्ट्र विधानसभा में कुल 288 सीटें हैं। हरियाणा में हर चार में से तीन विधायक करोड़पति है। हरियाणा में भी महाराष्ट्र के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए। साथ ही ये बात भी साबित हो गई है कि जिस उम्मीदवार के पास ज्यादा पैसे हैं, उसके जीतने के मौके ज्यादा हैं। मिसाल के तौर पर, नेशनल इलेक्शन वाच ने आंकड़ों का अध्ययन करके बताया है कि महाराष्ट्र में अगर किसी के पास एक करोड़ रुपए से ज्यादा की जायदाद है तो 10 लाख रुपए या उससे कम जायदाद वाले के मुकाबले उसके जीतने के मौके 48 गुना ज्यादा हैं।

इस संदर्भ में भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की पहल पर किए गए चुनाव सुधारों की चर्चा की जानी चाहिए। शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त रहने के दौरान उम्मीदवारों पर, चुनाव खर्च की सीमा के अंदर चुनाव लड़ते हुए दिखने का दबाव पहली बार बना। वे आर्थिक उदारीकरण (बाजार अर्थव्यवस्था) के भी शुरुआती वर्ष थे। शेषन से पहले भी चुनाव खर्च की सीमा तो थी, लेकिन इसे एक औपचारिकता माना जाता था। उम्मीदवार मनमाना खर्च करते थे और अपना खर्च तय सीमा के अंदर दिखा देते थे। इस समय तक चुनावों में तड़क-भड़क खूब होती थी। पोस्टरों और झंडों से गलियां पट जाती थीँ। लगभग हर दीवार पर किसी न किसी उम्मीदवार या पार्टी के नारे लिखे होते थे। झंडे-बैनर से लेकर जुलूसों में गाड़ियों और मोटरसाइकिलों की संख्या आदि से किसी उम्मीदवार को मिल रहे समर्थन का एक हद तक अंदाज लग जाता था। बसों में भरकर लोग आते और खूब बड़ी-बड़ी रैलियां हुआ करती थीं।

लेकिन चुनावी खर्च की सीमा को सख्ती से लागू किए जाने के बाद चुनाव में माहौल बनाने के ये तरीके बेअसर हो गए। मतदाताओं में संवाद कायम करने, उन तक पहुंचने के पुराने तरीके अब किसी काम के नहीं थे क्योंकि तय सीमा से ज्यादा गाड़ियां चुनाव प्रचार में शामिल नहीं हो सकती थीं, पोस्टर कहां लगाया जा सकता है और कहां नहीं और किसी की दीवार पर नारे लिखने से किसी उम्मीदवार को दिक्कत हो सकती है, जैसे नियमों ने चुनाव लड़ने के तरीके को निर्णायक रूप से बदल दिया। शेषन से पहले के दौर वाले चुनाव प्रचार के परंपरागत तरीकों में ऐसा लग सकता है कि काफी तड़क-भड़क होती होगी, लेकिन ये तरीके काफी हद तक सभी उम्मीदवारों की पहुंच के अंदर थे। अगर किसी उम्मीदवार को कार्यकर्ताओं का समर्थन हासिल होता था, तो उसके लिए दीवार लेखन करना, पोस्टर छापना, झंडे लगाना, बैनर टांगना, साइकिल-मोटरसाइकिल या गाड़ियों का जुलूस निकालना बहुत मुश्किल काम नहीं होता था और न ही इन कामों में करोड़ों रुपए खर्च होते थे।

परंपरागत तरीके के चुनाव प्रचार में उम्मीदवार समान धरातल पर होते थे और किसी उम्मीदवार के झंडे किसी की छत पर लगे रहें या पोस्टर किसी के घर की दीवार पर चिपके रहें, ये पैसे से ज्यादा उसे हासिल समर्थन से तय होता था। इन सब तरीकों को मुश्किल बना दिए जाने के बाद पैसे के कुछ नए खेल शुरू हो गए, जिनसे चुनावी खर्च कई गुना बढ़ गया। मिसाल के तौर पर, किसी इलाके के प्रभावशाली व्यक्ति को अपने पक्ष में करने के लिए किए गए खर्च का हिसाब न देने का रास्ता अब भी खुला है। चुनाव से पहले प्रशासन के सहयोग से मतदाताओं के बीच शराब पहले भी बांटी जाती थी और अब भी बांटी जाती है। चुनाव में खुद खर्च न कर किसी समाजसेवी या स्वंयसेवी संगठन के माध्यम से किसी विरोधी उम्मीदवार के खिलाफ अभियान चलाया जा सकता है, जिसका खर्च उम्मीदवार के चुनाव खर्च में शामिल नहीं होता। चुनाव पर खर्च करना नेताओं के लिए किसी निवेश की तरह है क्योंकि नेता बनना आमदनी के अनेकों नए रास्ते खोलता है। सांसदों और विधायकों के चुनाव आयोग में जमा आमदनी के हलफनामों का अध्ययन करके साबित किया जा चुका है कि जीते हुए उम्मीदवार अगले चुनाव तक काफी अमीर हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर, उम्मीदवारों के हलफनामों के अध्ययन से पाया गया कि महाराष्ट्र में 2004 के विधानसभा चुनाव जीतने वाले एक औसत उम्मीदवार ने 2009 के चुनाव तक अपनी जायदाद में 3.5 करोड़ रुपए जोड़ लिए थे।

चुनाव जीतना जब इस कदर फायदे का सौदा हो तो जिताऊ पार्टियों के चुनावी टिकट पाने के लिए खर्च करने वालों की कमी कैसे हो सकती है। फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस-बीजेपी आदि में पैसे का ये खेल अभिजात्य सफाई के साथ किया जाता है जबकि बाकी पार्टियों में उपयुक्त राजनीतिक संस्कार न होने के कारण खेल खुल जाता है। साथ ही मुख्यधारा में बीएसपी, आरजेडी, जेएमएम जैसी कुछेक पार्टियां ऐसी बच गई हैं, जिनके आर्थिक स्रोतों में कॉरपोरेट पैसे की हिस्सेदारी काफी कम है। मायावती की माला की आलोचना में मुखर तीनों राजनीतिक पार्टियों, कांग्रेस, बीजेपी और सपा के कॉरपोरेट संबंध जगजाहिर हैं। कॉरपोरेट रिश्तों को निभाने में बड़ी पार्टियां ज्यादा विश्वसनीय मानी जाती हैं, इसलिए कंपनियों के रास्ते से आने वाले धन पर उनकी ही हिस्सेदारी होती है। दक्षिण भारत की राज्यस्तरीय कई पार्टियों ने भी कॉरपोरेट जगत के साथ अपने रिश्ते जोड़ लिए हैं। कॉरपोरेट संबंधों के बगैर जब कोई दल पैसे जुटाता है या पैसे जुटाने की कोशिश करता है, तो उसमें उसी तरह का भोंडापन नजर आता है, जिसके लिए बीएसपी, आरजेडी या झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टियां बदनाम मानी जाती हैं।

वामपंथी दलों के अपवाद को छोड़कर ढेर सारे पैसे के बगैर राजनीति में सफल होने का कोई महत्वपूर्ण मॉडल इस समय मौजूद नहीं है, इसलिए जो नेता पैसे जुटा सकता/सकती है, उसी की राजनीति चल सकती है। इस तंत्र को समझे बगैर ये अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि मायावती पैसे जुटाने पर इतना जोर क्यों देती हैं और लालू प्रसाद या शिबू सोरेन पैसे के लिए इतने बेताब क्यों नजर आते हैं। जिन दलों को कंपनियों से पैसे मिलते हैं, वो इन सब गंदे दिखने वाले कामों से परे रहकर राजनीतिक कदाचार और सदाचार की बात कर सकते हैं। राजनीति के लिए धन जुटाने के कॉरपोरेट और गैर-कॉरपोरेट दोनों ही खेल में विजेता नेता और हारने वाली जनता होती है। वैसे तुलना करके देखें तो राजनीति और कॉरपोरेट का संबंध जनता के लिए ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि इसका असर नीतियों पर होता है। निजी भ्रष्टाचार की तुलना में नीतियों में भ्रष्टाचार कई गुणा ज्यादा लोगों को प्रभावित करने में सक्षम होता है।

एक सवाल ये भी है कि क्या मायावती की समर्थक जनता को इस तरह के विवाद से कोई फर्क पड़ता है? शायद नहीं। दलितों में इस समय पहचान की जिस तरह की राजनीति चल रही है, उसमें नेताओं की समृद्धि कोई शिकायती मुद्दा नहीं है। मुमकिन है कि अपने नेता को इतना समृद्ध देख कर गरीब दलित भी खुश होते हों कि उनका नेता भी कम हैसियत वाला नहीं है। दलित नेताओं के पहनावे और तामझाम पर जोर को और गांधी और अंबेडकर के पहनावे में फर्क को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। दलितों को अपना नेता फकीर नहीं चाहिए क्योंकि ये तो उनके जीवन की असलियत है। वे तो इस स्थिति से उबरना चाहते हैं। खुद न भी सही तो प्रतीकों के जरिए ही वे अपना सशक्तिकरण देखते हैं और महसूस करते हैं। यहीं एक सवाल ये भी उठता है कि क्या दलित राजनीति किसी बेहतर राजनीतिक संस्कृति को सामने ला सकती है। इस सवाल के जवाब में यही कहा जा सकता है कि वर्तमान संसदीय राजनीति के दायरे में, जहां पैसे की खनक राजनीति की दिशा को निर्णायक रूप से तय करने लगी है, दलित राजनीति का कोई अलग रास्ता संभव नहीं है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में संसदीय राजनीति के दायरे से बाहर वामपंथियों के कुछ समूह अलग तरह के राजनीतिक प्रयोग कर रहे हैं, जिनमें दलितों और आदिवासियों की अच्छी-खासी हिस्सेदारी है। लेकिन इनसे कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादी पार्टी ही नहीं, बीएसपी को भी डर लगता है। इनका दमन माओवादी बताकर किया जा रहा है। ( ये लेख संपादन के बाद जनसत्ता के संपादकीय पेज पर छपा है।)
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