अनिल सिन्हा
वे जो ख़ामोशी से जीते रहे हजारों साल की लीक पर
पूजते रहे कभी न दिखाई पड़ने वाले देवताओं को
पुरखों की याद में दीप जलाते रहे
खेत, जंगल जिन्हें पहचानते थे
हवाएं कभी थरथराई नहीं जिनके आने पर
या वे ?
जिन्होंने कभी शंकाओं को छिपाया नहीं
देवताओं से भी सवाल करते रहे
जिनकी बैचैन नज़रों से हवाएं भी कांप जाती
हर शै में जिनके सवाल तैरते हैं
जिन्होंने शंकाओं की पोटली थमा दी अपनी संतति को
और विदा लेते समय भी जिनकी आँखें उत्तर मांग रही थीं
इसका जवाब इतिहास पर छोड़ता हूँ
शंका ने ही हमें देवताओं के ह्रदय में जब्त रहस्यों को जानने के लिए उकसाया
हमें ले गए नदियों के पार, गुफाओं में
पहुंचा दिया हवाओं के ऊपर
कोई बुद्ध किसी निरंजना नदी के तट पर बैठा सुजाता के कटोरे में रखी आस्था की खीर की प्रतीक्षा कर रहा होगा
आस्था के जल से सिंचित शंका के पेड़
सभ्यता के इस खूबसूरत बगीचे में खड़ा मैं चकित!
2 comments:
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
sundar
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