Custom Search

Friday, November 26, 2010

कौन है संसद से शक्तिशाली

(मेरा यह आलेख 26 नवंबर, 2010 के जनसत्ता में छपा है)
-दिलीप मंडल
आजादी के बाद भारत ने राजकाज के लिए संसदीय लोकतंत्र प्रणाली को चुना और इस नाते देश के लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का सबसे प्रमुख मंच हमारे देश की संसद है। जनता द्वारा सीधे चुने प्रतिनिधियों की संस्था होने के नाते लोकसभा को संसद के दोनों सदनों में ऊंचा दर्जा हासिल है। इस देश पर वही सरकार राज करती है, जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन हासिल हो। ऐसे देश में पिछले बजट सत्र में जनता के प्रतिनिधियों ने आम राय से जिस बात का समर्थन किया था, उसे शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले पलट दिया जाए, तो इस पर चिंता होनी चाहिए।
संसद के बजट सत्र में लोकसभा में इस बात पर आम सहमित बनी थी कि 2011 में होने वाली जनगणना में जाति को शामिल किया जाए। लोकसभा में ऐसे विरल मौके आते हैं जब पक्ष और विपक्ष का भेद मिट जाता है। जनगणना में जाति को शामिल करने को लेकर लोकसभा में हुई बहस में यही हुआ। कांग्रेस और बीजेपी के साथ ही वामपंथी दलों और तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों ने इस बात का समर्थन किया कि जनगणना में जाति को शामिल करना अब जरूरी हो गया है और मौजूदा जनगणना में जाति को शामिल कर लिया जाए। संसद में हुई बहस के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि लोकसभा की भावना के मुताबिक कैबिनेट फैसला करेगी। उनकी इस घोषणा का लोकसभा में जोरदार स्वागत हुआ और इसे सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़े कदम के रूप में देखा गया। इस घोषणा के लिए तमाम दलों के सांसदों ने प्रधानमंत्री और यूपीए यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्षा सोनिया गांधी की जमकर वाहवाही की।
लेकिन बजट सत्र के बाद और शीतकालीन सत्र से पहले ऐसा कुछ हुआ कि 2011 की जनगणना से जाति को बाहर कर दिया गया। यह शायद हम कभी नहीं जान पाएंगे कि लोकसभा में बनी आम राय को बदलने के लिए परदे के पीछे क्या कुछ हुआ होगा। प्रधानमंत्री की लोकसभा में घोषणा के बाद इस मामले पर विचार करने के लिए कैबिनेट मंत्रियों की एक समिति गठित की गई, जिसके अध्यक्ष वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी बनाए गए। जिस सवाल पर लोकसभा में आम सहमति हो और प्रधानमंत्री जिसके लिए सदन में आश्वासन दे चुके हों, उस पर पुनर्विचार के लिए मंत्रियों की समिति गठित करने का निर्णय आश्चर्यजनक है। इस समिति की सिफारिशों के बाद कैबिनेट ने यह फैसला किया कि फरवरी, 2011 से शुरू होने वाली जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा बल्कि उसी वर्ष जून से सितंबर के बीच जाति की अलग से गिनती कर ली जाएगी।
इस फैसले में सबसे बड़ी प्रक्रियागत खामी यह है कि जिस बात को लेकर चर्चा संसद में हुई हो और जिस तरह की सहमति बनी हो, उसे पलटने का फैसला कैबिनेट ने उस दौरान किया, जब संसद का सत्र नहीं चल रहा था। अगर यही फैसला करना था कि जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा, तो फिर इसके लिए किसी भी तरह की जल्दबाजी नहीं थी। आजादी के बाद से ही भारत में जाति का प्रश्न जोड़े बगैर जनगणना होती रही है और जनगणना के मामले में यथास्थिति को बनाए रखने यानी जैसी जनगणना होती रही है, उसे जारी रखने की घोषणा करने के लिए संसद के दो सत्रों के बीच का समय किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। अगर यह घोषणा संसद के बजट या शीतकालीन सत्र के दौरान होती तो सांसदों के पास यह मौका होता कि वे इस पर फिर से विचार करते। अगर कैबिनेट की यही राय थी कि जनगणना के बारे में फैसले को तत्काल घोषित करना आवश्यक है तो इसके लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने का विकल्प भी था।
संसद में इस फैसले की घोषणा न करने से यह संदेह पैदा होता कि है कि इस सवाल पर कुछ पर्दादारी थी। जनगणना से जाति को अलग करने का फैसला 9 सितंबर, 2010 को घोषित किया गया। ठीक इसके बाद देश के उन इलाकों में जनगणना शुरू हो गई, जहां सर्दियों में बर्फ गिरती है। मिसाल के तौर पर हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले में जनगणना सितंबर महीने में कर ली गई। यानी कैबिनेट ने जनगणना के बारे में फैसला इस तरह किया गया कि संसद को इस फैसले को सुधारने या फिर से विचार करने का मौका न मिले। शीतकालीन सत्र में अगर कैबिनेट के फैसले को बदलने पर विचार होता भी है तो यह एक विचित्र स्थिति होगी क्योंकि उस समय तक कई जिलों में जनगणना संपन्न हो चुकी होगी। सरकार के सामने यह विकल्प था कि वह बर्फबारी वाले जिलों में जनगणना का काम बर्फ पिघलने के बाद कराती। यह इसलिए भी सही होता क्योंकि जाति आधारित जनगणना पर विवाद चल रहा है और इस सवाल पर लोकसभा एक अलग नतीजे पर पहुंची थी।
जाति जनगणना के प्रश्न पर सरकार जिस तरह से लगातार व्यवहार करती रही है, उसकी वजह से संदेह का वातावरण बन गया है। मई महीने में केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने जाति आधारित जनगणना के खिलाफ यह तर्क दिया था कि जनगणना की शुचिता को बनाए रखना आवश्यक है। इस बाद संसद में चर्चा के दौरान उन्होंने जनगणना महानिदेशक के हवाले से कहा कि सभी जातियों की गिनती में कितनी जटिलताएं हैं। जबकि जनगणना महानिदेशक पहले ही कह चुके हैं कि अगर सरकार इस बारे में फैसला करती है तो उनका कार्यालय जाति आधारित जनगणना करा सकता है। वैसे भी 1941 तक देश में सभी जातियों की गिनती होती रही है और अब तो आधुनिक तकनीक और कंप्यूटर का जमाना है। लोकसभा में आम राय बनने और प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद मंत्रियों का समूह यह सुझाव देता है कि जातियों की गिनती बायोमैट्रिक डाटा संकलन के दौरान करा ली जाएगी। जब संसद में इस बात पर हंगामा मचता है कि इस तरह जाति के आंकड़े आने में कम से कम 20 साल लगेंगे तो सरकार इस प्रस्ताव को वापस ले लेती है। और आखिरकार कैबिनेट यह तय करती है कि जनगणना से जाति को बाहर रखा जाएगा और जनगणना खत्म होने के तीन महीने बाद जातियों की अलग से गिनती करा ली जाएगी।
बायोमैट्रिक जाति गणना की तरह ही अलग से जाति गणना का फैसला भी निरर्थक है। अलग से जाति गिनने पर सरकार लगभग 2,000 करोड़ रुपए खर्च करने वाली है। इस फैसले की सबसे बड़ी खामी यह यह कि अलग से जातियों की गिनती करने से सिर्फ यह जानकारी मिलेगी कि इस देश में किस जाति के कितने लोग हैं। यह आंकड़ा राजनीति करने वालों के अलावा किसी के लिए भी उपयोगी नहीं है। जनगणना से दरअसल यह आंकड़ा सामने आना चाहिए कि किस जाति की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति क्या है। इस जानकारी के बगैर सिर्फ यह जानकर कोई क्या करेगा कि विभिन्न जातियों की संख्या कितनी है। आर्थिक-शैक्षणिक स्तर की जानकारी देश में विकास योजनाओं को बनाने का महत्वपूर्ण आधार साबित होगी। इससे यह पता चलेगा कि आजादी के 63 साल बाद किस जाति और जाति समूह ने विकास का सफर तय किया है और कौन से समूह और जातियां पीछे रह गई हैं। इस तरह मिले आंकड़ों के आधार पर खास जातियों और समूहों के लिए विकास और शिक्षा के कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं। आरक्षण प्राप्त करने के लिए अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्ग में शामिल होने या किसी समुदाय को आरक्षित समूह की सूची से बाहर करने की मांग को लेकर हुए आंदोलनों की वजह से इस देश में काफी खून बहा है। जनगणना में जाति को शामिल करने से जो आंकड़े सामने आएंगे, उससे इस तरह के सवालों को हल किया जा सकेगा। इस मायने में जनगणना से बाहर जाति की किसी भी तरह की गिनती बेमानी है।
अलग से जाति गणना में कई और खामियां भी हैं। मिसाल के तौर पर, इस वजह से देश के राजकोष पर 2,000 करोड़ रुपए का बोझ पड़ेगा। देश में जनगणना के लिए अलग से कानून है। अलग से जाति की गणना के लिए कानूनी प्रक्रिया तय करनी पड़ेगी। जनगणना कानून की वजह से लोग बिना किसी हिचक के जानकारियां देते हैं, क्योंकि जनगणना अधिकारी को दी गई निजी सूचनाओं को सार्वजनिक करने पर रोक है। कानूनी तौर पर ऐसी पाबंदी के बिना जाति की गिनती कराने पर सही जानकारी देने में लोग हिचक सकते हैं। जनगणना में देश के लगभग 25 लाख सरकारी शिक्षक शामिल होगें और इस प्रक्रिया में तीन हफ्ते से ज्यादा समय लगेगा। जनगणना खत्म होने के तीन महीने बाद जाति गणना के लिए शिक्षकों को इससे भी ज्यादा समय के लिए स्कूलों से दूर रहना होगा। सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की शिक्षा पर इसका बुरा असर पड़ेगा। और फिर सवाल उठता है कि अलग से जाति गणना क्यों। इस तरह अलग से गिनती कराने से जातियों से जुड़े आर्थिक और शैक्षणिक आंकड़े नहीं आएंगे। स्पष्ट है कि अलग से जाति की गणना कुछ जानने के लिए नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण आंकड़ों को छिपाने के लिए की जाएगी। 2,000 करोड़ रुपए का खर्च इसलिए होगा ताकि जातियों से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां छिपी रहें जबकि उद्देश्य अगर सूचनाएं जुटाना है, तो इसके लिए कोई खर्च नहीं करना होगा। 2011 के जनगणना फॉर्म में जाति का एक कॉलम जोड़ देने से जातियों की संख्या भी सामने आ जाती और उनकी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति भी।
लेकिन सरकार नहीं चाहती कि ये आंकड़े सामने आएं। इसलिए जनगणना में जाति को शामिल करने की जगह जनगणना से जाति को अलग कर दिया गया। यह सब लोकसभा में बनी सहमति का निरादर करके किया जा रहा है। प्रश्न यह है कि इस देश में आखिर वह कौन सी सत्ता है जो देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा की अनदेखी कर सकती है। कहीं यह भारतीय समाज की वर्चस्ववादी व्यवस्था तो नहीं, जिसके आगे संसद की भी नहीं चलती?
Custom Search