मालंच
पहले एक सूचना जो आप तक नही पहुँची होगी। उम्मीदवारों की भीड़ के बीच दिल्ली में दो ऐसे उम्मीदवार हैं जो सबसे अलग हैं। तुगलकाबाद निर्वाचन क्षेत्र से एक नौजवान बिरजू नायक और ओखला निर्वाचन क्षेत्र से संतोष कुमार चुनाव लड़ रहे हैं। यों तो ऐसी बातों की सूची बहुत लम्बी है जिन वजहों से ये दोनों बाकी उम्मीदवारों से अलग हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि दोनों लोकराज समिति की तरफ़ से चुने गए जन उम्मीदवार हैं। जन उम्मीदवार का मतलब यह कि लोकराज समिति की तरफ़ से आयोजित जनसभाओं के बीच से उनका नाम सामने आया। यह उम्मीदवार चुनने की एकदम नयी पद्धति है जो लोकराज समिति ने शुरू की है। ये दोनों उम्मीदवार जनता की उम्मीदों पर खरे न उतरने की स्थिति में जनता द्वारा वापस बुला लिए जाने के लिए ख़ुद तो तैयार हैं ही पूरे देश के स्तर पर जनता को यह अधिकार देने की भी वकालत कर रहे हैं।
बहरहाल, उम्मीदवारों की कमी नही है। सभी उम्मीदवार हमारे दरवाजे तक पहुँच भी रहे हैं।वे सब हमारा होने का दावा करते हैं और हमारे ही लिए जीने-मरने की क़समें भी खा रहे हैं। ऐसे में हम लोगों के सामने यह समस्या खड़ी हो गयी है कि हम कैसे तय करें कि इनमे कौन हमारा सच्चा हितैषी है। इनमे से कोई है भी या नही। ख़ास तौर पर रिजेक्ट समूह के सामने उलझन कुछ ज्यादा बड़ी है, क्योंकि आजादी के बाद से हर चुनाव के बाद वह छला गया महसूस करता रहा है। इसीलिये हम यहाँ इसी सवाल पर विचार कर रहे हैं कि हम रिजेक्ट समूह के लोग कैसे तय करें कि तमाम प्रत्याशियों में हमारी बात करने वाला, हमारे मुद्दे उठाने वाला कौन है। इसके लिए जरूरी है कि हम यह देखें कि आज के हालात में हमारे मुद्दे क्या हैं, हमारी ज़रूरतें क्या हैं। डालते हैं एक नज़र उन प्रमुख मुद्दों पर :
छंटनी के प्रावधान पर रोक लगे: मंदी के मौजूदा माहौल में देश की मेहनतकश आबादी के सर पर जो सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है, जिसकी वजह से उसकी रातों की नींद हराम हो गयी है, वह है छंटनी का डर। तमाम कंपनियों के मालिकान घाटे का रोना रोते हुए मनचाहे ढंग से कर्मचारियों की संख्या कम करने पर तुले हैं। सरकार भी कर्मचारियों की ज़िन्दगी और उनके भविष्य से अधिक महत्व कंपनियों के प्रॉफिट को दे रही है। ऐसे में साफ़ है कि चुनाव तक तो सरकार छंटनी न करने के 'अनुरोध' का दिखावा करती रहेगी, पर उसके बाद कर्मचारियों को उनके भाग्य पर छोड़ कर सरकार उद्योगपतियों के साथ खड़ी हो जायेगी। ऐसे में रिजेक्ट समूह की ज़रूरत यह है कि छंटनी के प्रावधानों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी जाए।
ठेका नौकरी पर पाबन्दी लगे: ठेका नौकरी का चलन बहुत तेजी से बढाया जा रहा है। स्थाई नौकरी वालों को भी ठेके पर लाया जा रहा है। कारण यह है कि कंपनियों के लिए यह अच्छा है। लेकिन कर्मचारियों के बड़े हिस्से का जीवन ठेका नौकरी के कारण अनिश्चितताओं से घिर जाता है। वे कभी भी नौकरी छूटने के डर से आशंकित रहते हैं। इसीलिये रिजेक्ट समूह की जरूरत यह है कि देश में ठेका नौकरी पर पूरी तरह रोक लगाते हुए सभी कर्मचारियों को स्थाई किया जाए।
काम के घंटे कम किए जाएँ: देश की मेहनतकश आबादी और बेरोजगार आबादी की ज़रूरत यह है कि काम के घंटे कम किए जाएँ ताकि पूरे देश में श्रम करने लायक सभी लोगों को काम मिले और जिन्हें काम मिला हुआ है उन्हें सुकून का जीवन मिले। तकनीकी विकास की मौजूदा अवस्था को देखते हुए चार घंटे का कार्य दिवस पूरे देश में लागू करने की जरूरत है।
वेतन निर्धारण पारिवारिक ज़रूरत के अनुरूप हो: संगठित क्षेत्र हो या असंगठित, मजदूरों का वेतन और अन्य सुविधाएं एक पूरे परिवार की ज़रूरतों और सामाजिक विकास की मौजूदा अवस्था के अनुरूप आवश्यक सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए तय किए जाएँ। आज न्यूनतम वेतन सिर्फ़ एक व्यक्ति की ज़रूरत भी ढंग से पूरी नही कर सकता। लिहाजा मजदूर की पत्नी को और उसके बच्चों को भी श्रम के बाजार में खड़ा होना पड़ता है।
एकाधिकारी दाम पर प्रतिबन्ध लगे: महंगाई की मार से परेशान लोगों के लिए जरूरी है कि एकाधिकारी दाम पर तत्काल प्रभाव से रोक लगे।
निजी स्कूलों पर रोक लगे: रिजेक्ट समूह के लिए जरूरी है देश में तरह-तरह के स्कूलों पर रोक लगे। आज देश में हर तरह के स्कूल मौजूद हैं। जितना पैसा दो वैसा स्कूल लो। लगता है जैसे यह स्कूल देश की भावी पीढी तैयार करने के बदले 'बड़े' और 'प्रभावशाली' लोगों के बच्चों की नेटवर्किंग का केन्द्र बन गए हैं। इन पर पूरी तरह रोक लगा कर पूरे देश में एक ही तरह के स्कूल कायम करने की ज़रूरत है, ताकि बच्चों में बचपन से भेदभाव के बीज न पड़ जाएँ।
खेती को कम खर्चीला बनाएं: छोटे और मझोले किसानों के सभी कर्ज माफ कर के उन्हें बिजली, पानी, बीज, खाद आदि मुफ्त में मुहैया कराया जाए ताकि वे अपने पारिवारिक श्रम के जरिये खेती करके अपना पालन-पोषण कर सकें।
ऐसे और भी अनेक मुद्दे हैं। लेकिन फिलहाल इतना ही। हम रिजेक्ट समूह के लोग देख सकते हैं कि जो प्रत्याशी हमारे पास पहुँच रहे हैं उनमे से कितने ऐसे हैं जो इन सवालों को उठा रहे हैं। जो उठाते हैं उनका इन मुद्दों पर क्या कहना है। जो हमारी जरूरत के मुताबिक इन मांगों का समर्थन करते हैं और इन्हे पूरा करने की बात करते हैं उनसे हम पूछ सकते हैं, बल्कि हमें पूछना चाहिए कि अगर इन मुद्दों पर उन्होंने सोचा है तो वे बताये कि ये मांगें वे कैसे पूरी करेंगे। इन मांगों को पूरा करने में कैसी बाधाएं आएंगी और वे उन बाधाओं को कैसे पार करेंगे। जो इन सवालों के जवाब से हमे संतुष्ट कर दे वही हमारा यानी रिजेक्ट समूह का असली हितैषी है। जो नहीं करता...उसके बारे में कुछ कहना जरूरी नहीं।
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1 comment:
मै राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक नहीं हूं, फिर भी देख रही हूं कि इनमें से एक भी मुद्दा ऐसा नहीं लगता जो आज की किसी भी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण हो। और जो इनको उठा रहे हैं, उनके प्रत्याशी हर/कई क्षेत्र में खड़े हों, इसकी कोई उम्मीद नहीं है। ऐसे में एक पुराना मुद्दा फिर उठा रही हूं कि क्या सकारात्मक लोकतंत्र में हमें प्रत्याशियों को रिजेक्ट करने का भी हक नहीं मिलना चाहिए?
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