16 जून 1997। सुबह का समय। सुरेंद्र प्रताप सिंह अचानक घर पर गिर पड़े। दोपहर होते होते पता चला कि ये साधारण बेहोशी नहीं थी। कोमा में थे एसपी। ब्रेन हेमरेज हो गया था। एसपी अपने जीवन के चौथे दशक में ही थे। 27 जून को अपोलो अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। लोदी रोड शवदाह गृह में उनके भतीजे और पत्रकार चंदन प्रताप सिंह ने शव को मुखाग्नि दी।
ग्यारह साल बाद आज पत्रकारिता, खासकर हिंदी टीवी न्यूज पत्रकारिता एक रोचक दौर में है। भारत में टीवी पत्रकारिता में मॉडर्निटी की शुरूआत आप एसपी के आज तक से मान सकते हैं। जिन लोगों ने एसपी का काम देखा है, या सुना है, या उनसे जुड़ी किसी चर्चा में शामिल हुए हैं, या उनके बारे में कोई राय रखते हैं, उनकी और बाकी सभी की प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।
ये एसपी को श्रद्धांजलि देने का समय नहीं है। इसकी जरूरत भी नहीं है। एसपी मठ तोड़ने के हिमायती थे। ये क्या कम आश्चर्य की बात है कि एसपी के लगभग पांच सौ या उससे भी ज्यादा लेख और इंटरव्यू यहां-वहां बिखरे हैं, लेकिन उनका संकलन अब तक नहीं छप पाया है। एसपी कहते थे - जो घर फूंके आपनो, चले हमारे साथ। एसपी कोई चेला मंडली नहीं छोड़ गए। एसपी किसी चेलामंडली के बिना ही कल्ट बन गए। भारत में पत्रकारिता के अकेले कल्ट फिगर।
ऐसे एसपी की याद में आप स्मारक नहीं बना सकते, लेकिन मौजूदा पत्रकारिता पर बात जरूर रख सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी टीवी पत्रकारिता में ये घटाटोप अंधकार का दौर है और कि ये घनघोर पतन का दशक साबित हो रहा है।
आपके पास शायद रोशनी की कोई किरण हो।
7 comments:
आजतक तब शुरुआती दौर में था...मेट्रो पर आधे घंटे गूंजने वाली आवाज़ हमारे कानों में दिन भर गूंजती थी...ये थी खबरें आज तक इंतजार करिए कल तक...तब हम बड़े हो रहे थे...उन्हें जितना भी देखने का मौका मिला... वो काफी तो नहीं था...लेकिन संतोष इस बात का है कि टीवी पर देखकर हमने अपने लिए एक राह चुनी..आज उनकी कमी अखरती है...उन्हें तो और भी अखरती होगी जिन्होने उनके साथ काम किया है...
अब ज़्यादा याद आती है
एस पी सिंह चाहे मठ विरोधी रहे, लेकिन उनके चेलों ने मठ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आज उनकी याद ज़्यादा आती है. कई एस पी का नाम ही लेकर बोलते हैं कि आज की टीवी पत्रकारिता देख कर वो बहुत खुश होते. मुझे एस पी को जितना जानने पहचाने का मौका मिला, मुझे ऐसा नहीं लगता कि इस तरह की कीचड़ पत्रकारिता देख कर एस पी खुश होते.
एस पी आगे की सोचते थे. अगर वो दस साल बाद के हिंदी टीवी के बारे में सोचते तो शायद आज तक में दस साल पहले ही खली, नाग-नागिन, भूत प्रेत चुडैल दिखाई दिए होते.
आज जबकि हिंदी न्यूज़ के सामने पहचान का संकट है. विश्वसनीयता पर आंच है. ऐसे में एस पी की याद ज़्यादा आती है. चर्चा इस बात पर हो कि एस पी होते तो आज क्या होता. पिछले दस साल में वो हिंदी टीवी पत्रकारिता को कहां से कहां पहुंचाते. क्या वो आज के छिछोरे चैनल्स को अप्रूव करते या फिर उन्हें लतियाते.
अखिलेश भाई, आपका सवाल महत्वपूर्ण है। क्या एसपी सिंह खली, राखी सावंत, भूत-पिशाच, नाग-नागिन, यू ट्यूब का आश्चर्यलोक, शनि चर्चा आदि उसी तरह दिखा पाते, जैसा आज दिखाया जा रहा है। या फिर संन्यास लेकर वाराणसी के अपने प्रिय गंगा तट पर कबीर की साधना कर रहे होते।
या कोई और मॉडल होता उनके पास, जो पॉपुलर भी होता और सार्थक भी?
दिलीप भाई, एसपी सिंह की टीवी पत्रकारिता पर कुछ भी कह पाने में समर्थ नहीं हूँ. लेकिन मुझे जो एक बात उनकी अनोखी लगती थी वह यह कि एसपी बाईट के लिए नेताओं के पीछे नहीं भागते थे, बल्कि समाचार की आत्मा पहचान कर उसे सार्थकता दे देते थे, बिना किसी तामझाम के.
मुझे याद है कि मुम्बई प्रेस क्लब में हम लोग आज तक का आधे घंटे का बुलेटिन देखना लक्ष्य बना कर चलते थे. कभी-कभी मिलिंद खांडेकर भी साथ होता था जो कोई रपट दिल्ली भेज कर आ बैठता था यह देखने के लिए कि टीवी पर रपट कैसी दिख रही है. वह एक किस्म की कोचिंग भी होती थी हमारी. उस समय प्रेस क्लब में जुटे अंगरेजी के पत्रकार मिलिंद की इन्ट्री होते ही सरगोशियाँ करने लगते थे- 'स्टार पत्रकार आ गया.' और हम गर्व से भर जाते थे.
एसपी पर एक पूरी किताब है मेरे पास, किसी की संपादित की हुई. उसमें से कुछ अच्छा छांट कर मैं लगाना चाहूंगा.
सच एस पी याद आते है आजकल कुछ ज्यादा ही। जब समाचार की जगह मनोरंजन दिखाया जाने लगा।
सच कह रहे हो दोस्त , बड़ी कमी खलती है एस ई जी की . उनकी आदर्श पत्रकारिता भी उनके साथ ही रुक्सत हो गई .
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