Custom Search

Friday, February 22, 2008

एड्स : बरस रहे पैसे का सच

-दिलीप मंडल

पांच साल में 11,585 करोड़ रुपए। आपको एड्स न हो जाए, इसके लिए ये रकम पांच साल में खर्च की जाएगी। पैसा सरकार भी खर्च कर रही है और दुनिया भर से बरस भी रहा है। और देश में मची है इस पैसे की लूट। इस लूट में कई हिस्सेदार हैं। लूट तो देश-दुनिया में और भी कई किस्म की हो रही है, लेकिन भारत जैसे गरीब देश में जहां 30-40 रुपए के आयरन टैबलेट न मिलने के कारण न जाने कितनी गर्भवती महिलाएं और नवजात बच्चे दम तोड़ देते हैं, वहां ये लूट मानवता के खिलाफ अपराध है।

देखिए एड्स के लिए आ रहे पैसे का ऑफिशियल लेखाजोखा :

बिल और मिलेंडा गेट्स फाउंडेशन से आएंगे 1425 करोड़ रुपए।

ग्लोबल फंड टू फाइड एड्स, ट्यूबरकलोसिस एंड मलेरिया से मिलेंगे 1787 करोड़ रुपए।

वर्ल्ड बैंक देगा 1125 करोड़ रुपए।

डीएफआईडी से आएंगे 862 करोड़ रुपए।

क्लिंटन फाउंडेशन ज्यादा पैसे नहीं दे रहा है, वहां से आएंगे 113 करोड़ रुपए।

यूएसएड से 675 करोड़ रुपए आ रहे हैं।

यूरोपियन यूनियन को भी भारत के एड्स पीड़तों से हमदर्दी है और वो 77 करोड़ रुपए दे रहा है।

संयुक्त राष्ट्र की अलग अलग एजेंसियों 323 करोड़ रुपए दे रही हैं।

दूसरे विदेशी स्रोतों से 741 करोड़ रुपए आ रहे हैं, जिसमें अमेरिकी सरकार से मिलने वाले 450 करोड़ रुपए शामिल हैं।

भारत सरकार के बजटीय आवंटन को जोड़ दें तो ये रकम हो जाती है 11,585 करोड़ रुपए।

ये वो रकम है जो पांच साल के राष्ट्रीय एड्स कंट्रोल प्रोग्राम फेज-3 पर खर्च होनी है। प्रधानमंत्री की सलाहकार समिति के एक प्रेजेंटेशन के पेज 44-45 पर आप पूरा हिसाब देख सकते हैं। संसद की साइट पर भी विदेश से आने वाले पैसे का हिसाब किताब आपको इस लिंक पर दिखेगा। वैसे ये तो सीधा साधा हिसाब हैं वरना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसे कार्यक्रम में भी फोकस एड्स पर ही कर दिया गया है।

पांच साल में 11,585 करोड़ रुपए यानी साल में 2,317 करोड़ रुपए हर साल एक ऐसी बीमारी से लड़ने के नाम पर खर्च होंगे जिससे साल में 2000 से कम लोग मरते हैं और जिस रोग से मरने वालों की संख्या बढ़ भी नहीं रही है। देखिए पिछली पोस्ट - एड्स का अर्थशास्त्र और राजनीति।
इसके मुकाबले नेशनल कैंसर कंट्रोल प्रोग्राम पर 2006-2007 में 42 करोड़ रुपए खर्च किए गए। मौजूदा साल में इसे बढ़ाकर 140 करोड़ रुपए कर दिया गया है। मत भूलिए कि कैंसर वो बीमारी है जिससे हर साल 4 लाख 40 हजार लोग मरते हैं। देखिए इस जानकारी का स्रोत

और टीबी की बात करें तो तेजी से फैलती इस बीमारी के लड़ने के लिए सरकार ने 2006-2007 में 226 करोड़ रुपए खर्च किए। टीबी से हर साल 3 लाख 70 हजार लोग मरते हैं। देखिए इस जानकारी का स्रोत

तो ये हिसाब रहा -

बीमारी का नाम- एड्स। सालाना मौतें- 1786। नियंत्रण पर खर्च- 2,317 करोड़ रुपए।

बीमारी का नाम- कैंसर। सालाना मौतें- 4.40 लाख। नियंत्रण पर खर्च- 140 करोड़ रुपए।

बीमारी का नाम- टीबी। सालाना मौतें- 3.70 लाख। नियंत्रण पर खर्च- 226 करोड़ रुपए।

यानी एड्स से होने वाली एक मौत को टालने का बजट है एक करोड़ 29 लाख रुपए। जबकि कैंसर के लिए यही आंकड़ा 3,181 रुपए का है। लेकिन क्या एड्स पर खर्च का मकसद वही है जो कि बताया जा रहा है?

(जारी ... लेकिन एड्स से लड़ने में किसका फायदा है)

5 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अच्छा है, ब्लॉगवालों के लिए ये ताज़ा आंकडे हैं. वैसे मुझे याद है मुम्बई (तब का बंबई) में आई एस गिलाडा वगैरह को लेकर ऐसी ही बातें उठी थीं जनसत्ता में. १९९५ की बात है.

Anonymous said...

एड्स के नाम पर लूट तो है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता। अफ्रीकी देशों में तो कंपनियों इस बीमारी से लड़ने के नाम पर किसी तस्कर की तरह पैसा बटोर रही हैं। लेकिन किसी बीमारी से लड़ने और उसके लिए बजट बनाने का आधार केवल मौत के मौजूदा आंकड़े नहीं होते। बीमारियों के चरित्र पर भी ये निर्भर करता है जैसे भविष्य में हमें इस बात का डर हो कि कोई बीमारी अगर महामारी का रूप ले सकती है तो उस पर ज्यादा खर्च किया जा सकता है। क्योंकि समय रहते उसे निपटना ठीक होगा। ऐसा दौर रहा है जब कैंसर के मुकाबले टीबी पर खर्च ज्यादा हुआ हो।ऐसा संभव है कि अगले कुछ सालों में हम एड्स से ज्यादा मौत देखें और उस वक्त ज्यादा खर्च हो रहा हो बर्डफ्लू या किसी और नई संक्रामक बीमारी पर। संक्रामक बीमारियों पर ऐहतियात जरूरी होता है इसे हम प्री-एंपटिव एक्सन के रूप में देख सकते हैं। लेकिन बात तो 'इरादे' पर आकर ठहर जाती है जब इस तरह की नीति महज दिखावा साबित होती है। हमारे यहां इरादा कितना मजबूत है यह तो स्वास्थ्य सुविधाओं को देखकर आसानी से लगाया जा सकता है। एक गुजारिश है कि स्वास्थ्य नीतियों पर बहस की शुरुआत बड़े दायरे पर चलाई जाय। जहां तक पैसों की बरसात का सवाल है तो उसके पीछे दो तर्क काम करते हैं एक तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से कोई कंपनी या संस्था उस बीमारी के लिए दवा बना रही हो या फिर इस बीमारी से लड़ने के लिए किए गए खर्च के नाम पर अपने देश में भारी भरकम टैक्स बचा रही हो। जिन देशों ने राज्य नियंत्रित स्वास्थ्य सुविधाओं का विकास नहीं किया वहां ये दोनों कारक मजबूती के साथ काम करते हैं।

Dipti said...

क्या ऐसे भी कुछ आंकड़े जो ये बता सके कि ये राशि किस तरह से उपयोग में लाई जा रही है? कैसे ये पहुंचती है ज़रूरतमंदों तक। कितनी ख़र्च होती है बिमारों पर और कितनी ख़र्च होती है सुरक्षा उपायों पर?
-दीप्ति।

राजीव रंजन श्रीवास्‍तव said...

अभी हाल ही में एक किताब पढी थी "मोर्टल क्योर" (मारक इलाज) जिसे लिखा है डॉक्टर सुनील वैद्य ने. उस किताब की थीम यही थी की जिन बीमारियों के इलाज हेतु शोध पर ज़्यादा पैसे लगने चाहिए, वास्तव में उन पर उतना खर्च नहीं किया जा रहा क्योंकि उससे बड़ी कंपनियों को अपेक्षित मुनाफा नहीं होने वाला है. मिलियन डॉलर का रिसर्च उन्हीं रोगों के लिए हो रहा है जिनसे बिलियन डॉलर का मुनाफा कमाया जा सके. आज भारत और पूरी दुनिया में थैलिसिमिया से कितने बच्चे मर रहे हैं, पूर्वी उत्तर परदेश में हर साल कितने बच्चे रहस्यमय बुखार से मर जाते हैं उसकी चिंता न तो यहाँ की सरकार को है न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को. दरअसल, ये सारा खेल लोगों को डरा कर अपना उल्लू सीधा करने का है. एड्स घटक है, संक्रामक है, उससे बचने के लिए जागरूकता ज़रूरी है, इससे किसी को इनकार नही हो सकता, लेकिन दूसरी और भी कई घातक बीमारियाँ हैं जिनके इलाज के लिए जोर शोर और इमानदारी से प्रयास होने चाहिए. झूठे आंकडे दे देने और बेतहाशा पैसा भर खर्च कर देने से कुछ खास लोगों के अलावा और किसी को फायदा नहीं होने वाला.

राजीव रंजन श्रीवास्‍तव said...

अभी हाल ही में एक किताब पढी थी "मोर्टल क्योर" (मारक इलाज) जिसे लिखा है डॉक्टर सुनील वैद्य ने. उस किताब की थीम यही थी की जिन बीमारियों के इलाज हेतु शोध पर ज़्यादा पैसे लगने चाहिए, वास्तव में उन पर उतना खर्च नहीं किया जा रहा क्योंकि उससे बड़ी कंपनियों को अपेक्षित मुनाफा नहीं होने वाला है. मिलियन डॉलर का रिसर्च उन्हीं रोगों के लिए हो रहा है जिनसे बिलियन डॉलर का मुनाफा कमाया जा सके. आज भारत और पूरी दुनिया में थैलिसिमिया से कितने बच्चे मर रहे हैं, पूर्वी उत्तर परदेश में हर साल कितने बच्चे रहस्यमय बुखार से मर जाते हैं उसकी चिंता न तो यहाँ की सरकार को है न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को. दरअसल, ये सारा खेल लोगों को डरा कर अपना उल्लू सीधा करने का है. एड्स घटक है, संक्रामक है, उससे बचने के लिए जागरूकता ज़रूरी है, इससे किसी को इनकार नही हो सकता, लेकिन दूसरी और भी कई घातक बीमारियाँ हैं जिनके इलाज के लिए जोर शोर और इमानदारी से प्रयास होने चाहिए. झूठे आंकडे दे देने और बेतहाशा पैसा भर खर्च कर देने से कुछ खास लोगों के अलावा और किसी को फायदा नहीं होने वाला.

Custom Search