पत्रकारिता के सोशल-जेंडर प्रोफाइल की इस समय बात क्यों हो रही है? क्या ये बेसुरा-असमय का राग है। अब इस बारे में स्पष्टीकरण देने के जरूरत है। इसलिए क्योंकि इस बहस से कुछ लोगों में एक भय का वातावरण बना है। कुछ भद्र लोग गाली गलौज पर उतारू हैं। वैसे गालियों के समाजशास्त्र पर मेरी एक पोस्ट है। देखिए।
दरअसल आने वाले महीनों में आपको भारत में एक नई चीज नजर आएगी। उसका नाम तय होना है पर वो बनेगा पश्चिमी देशों के इक्वल ऑपुर्चुनिटी कमीशन की तर्ज पर। ये कमीशन इस बात का अध्ययन कर सरकार को नियमित अपनी रिपोर्ट देगा कि लोकजीवन के अलग अलग अंगों खासकर रोजगार में अलग अलग मजहबी, जातीय समूहों और महिलाओं की क्या स्थिति है। अभी इस कमीशन के गठन के बारे में विचार-विमर्श जारी है। लेकिन ये तय है कि कमीशन इस साल के अंत तक बन जाएगा।
भारत जैसे विविधता वाले देश में, जहां सामाजिक असमानता का इतिहास रहा है, इक्वल ऑपुर्चुनिटी कमीशन का न होना अपने आप में आश्चर्य की बात है। देर से ही सही, लेकिन सरकार इस बात के लिए तैयार हो गई है कि ऐसा एक कमीशन होगा। इस कमीशन को किसी भी सरकारी विभाग या निजी कंपनी से कर्मचारियों के सोशल-जेंडर प्रोफाइल की जानकारी मांगने का अधिकार होगा। कमीशन जिनके पास भी जानकारी मांगने जाएगा, उन्हें मांगा गया ब्यौरा देना होगा।
इस कमीशन के दायरे में न्यायपालिका और मीडिया होंगे या नहीं, इसे लेकर बातचीत चल रही है। आप जो भी लोग ब्लॉग पर चली इस चर्चा में शरीक हुए हैं वो खुद को उस बड़ी चर्चा का हिस्सा मानें। इस बहस में जो भी शरीक हुए उन्हें धन्यवाद। आपको एतराज न हो तो इस बहस को मैं उन लोगों तक पहुंचा दूंगा जो कमीशन बनाने की चर्चा से जुड़े हैं।
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