1996 के बाद से अब लंबा समय बीत चुका है। क्या हालात बदले हैं? यकीन है आपको? जूनियर लेवल पर कुछ दलितों की एंट्री का तो मै कारण भी रहा हूं और साक्षी भी। लेकिन क्या भारतीय पत्रकारिता में समाज की विविधता दिखने लगी है? अभी भी ऐसा क्यों हैं कि जब मैं पत्रकारिता के किसी सवर्ण छात्र को नौकरी के लिए रिकमेंड करके कहीं भेजता हूं तो उसे कामयाबी मिलने के चांस ज्यादा होते हैं। दलित और पिछड़े छात्रों को बेहतर प्रतिभा के बावजूद नौकरी ढूंढने में अक्सर निराशा क्यों हाथ लगती है? क्या जातिवाद की बीमारी मीडिया के बोनमैरो में घुसी हुई है। क्या हम इसके लिए शर्मिंदा है? क्या हम इस पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए तैयार हैं?
नस्लवाद की आदिभूमि अमेरिका के फॉक्स और सीएनएन में आपको ब्लैक, हिस्पैनिक और जैना विरजी, अंजली राव और मोनिता राजपाल जैसे भारतीय दिख जाएंगे। ये चेहरे वहां इसलिए नहीं है कि वो अनिवार्य रूप से सबसे टैलेंटेड हैं। दरअसल नस्लभेदी अतीत को लेकर अब वहां पश्चाताप है। इसलिए अब सचेत ढंग से ये कोशिश हो रही है कि अमेरिकी समाज के अलग अलग तरह के चेहरे सभी क्षेत्रों में दिखें। वहां के बड़े कॉरपोरेट गर्व के साथ कहते हैं कि उसके स्टाफ में ब्लैक की संख्या उनकी आबादी से ज्यादा है। अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए एक मिली जुली नस्ल का शख्स आगे बढ़ रहा है और उसे श्वेतों का भी समर्थन है।
ऐसे में सवाल है कि भारत कब बदलेगा? और क्या आपका भी इसमें कोई योगदान होगा? ये मत भूलिए कि दलितों को किसी की दया की जरूरत नहीं है। वो समानता का अधिकार चाहते हैं और वो किसी से कम योग्य नहीं हैं। बल्कि खुद की साबित करने की जरूरत उन्हें ज्यादा जीवट वाला बना देती है।
-दिलीप मंडल
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