(ये लेख ई-मेल से आया है। पिछले दिनों रिजेक्ट माल और कबाड़खाना में भाषा पर चली चर्चा में आप शामिल हो चुके हैं। बातचीत नुक्ते के इस्तेमाल को लेकर छिड़ी थी। अभय तिवारी, उदयप्रकाश से लेकर किसी जनसेवक जी महाराज तक के विचार आप जान चुके हैं । अब पढ़िए विजयशंकर जी को।)
मेरी जानकारी में हिन्दुस्तानी अमीर खुसरो के समय उन सिपाहियों के बीच से उभरी है जो मुग़ल सेना में साथ-साथ रहते थे. इनमें कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तथा अधिकांश ईरान, खुरासान, तुर्की और आज के अफगानिस्तान तथा उज़बेकिस्तान के जवान हुआ करते थे. इनकी आपसी बोल-चाल के मिश्रण से जो भाषा उभरी वह उत्तर भारत में पसरती गयी. यही रोजमर्रा के कामकाज में इस्तेमाल होने लगी और आगे चलकर इसी में व्यापार होने लगा, नौकरियाँ मिलने लगीं. आम सैनिक कार्रवाइयों तथा जनता के बीच अहम ऐलानों की भाषा भी यही बनती गयी. इसे ही उर्दू कहा जाता है. तत्कालीन शासकों को भी अरबी-फारसी की दुरूहता के आगे जनता की इस बोली-ठोली को तसलीम करना पड़ा.
उत्तर और पूर्वी भारत के जिस इलाके में जिस बोली का असर था, उसने उर्दू को अपना लहजा, अपना तेवर दिया. जैसे पछांही, अवधी, ब्रज, मगही, बघेली, बुन्देली, बांग्ला, उड़िया, इत्यादि.
वो कहते हैं न कि जिस भाषा में धंधा हो सकता है वही भाषा जिंदा बचती है. यह बात आज भी सच है. इसलिए मैं इसे हिन्दी-उर्दू या हिन्दी-अंग्रेजी के झगड़े से जोड़ कर नहीं देख पाता क्योकि इबारत स्पष्ट है. जो लोग इसे हिन्दू-मुस्लिम की भाषा या भारतीय-विदेशी का संघर्ष बताते हैं, उनका ऐसा करना समझ में आता है.
और अब तो हिन्दी-उर्दू के नाम पर कई सफ़ेद हाथी पल रहे हैं. ये कैसे मूल बात समझने देंगे?
मेरे जानते फारसी या संस्कृत आमजन की भाषा कभी नहीं रही. भारतेंदु हरिश्चन्द्र के ज़माने में जब हिन्दी पद्य से भाषा का गद्य में संक्रमण हुआ तब भाषा कुछ वैसी होती थी जैसी कि आज भी कर्मकांडी पंडित सत्यनारायण की कथा सुनते हुए उपयोग में लाते हैं-- (एक नमूना)-- 'तो सुकदेव जी महराज नारद जी से कहते भये.'
हिन्दी की शुरुआती कहानियों में (रानी केतकी की कहानी) यही हिन्दी आपको मिलेगी. इसे हिन्दी या उर्दू न कहकर खड़ी बोली कहा गया. यानी पद्यात्मक और घुमावदार न होकर जो थोड़े प्रयत्न से सीधे-सीधे बोली और लिखी जा सके. अगर हिन्दी की यात्रा इसी रास्ते चलती तो आज हिन्दी-उर्दू का झगड़ा शुरू न होता, न ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का पचड़ा सामने आता. क्योकि उस भाषा में अद्भुत प्रवाह था और वह भाषा के संक्रमण की स्वाभाविक प्रक्रिया थी.. उसे काशी के पंडित नहीं आगे बढ़ा रहे थे. वह सदल मिश्र, लल्लूलाल और इंशा अल्लाह खान तथा भारतेंदु जैसे जनता के लोगों के हाथ में थी.
लेकिन यहीं से उस हिन्दी -उर्दू का दुर्भाग्य शुरू होता है. इसे संस्कृत के पंडों ने झपट लिया. जैसे तुलसी दास को भाषा (अवधी) में रामचरितमानस लिखने पर काशी और अयोध्या के पंडों ने (मानस का हंस) जाति बाहर करने की कोशिशें की थीं, उसी तरह हिन्दी को विद्वज्जनों की भाषा में ढाल दिया गया. उधर उर्दू वालों ने अरबी-फ़ारसी के शब्द और शब्द बन्ध ठूंसने शुरू किए. नतीजा ये हुआ कि यह जनता के लिए दोनों तरफ से एक दुरूह भाषा बनती गयी. आगे चलकर इसे हिन्दुओं और मुसलमानों की भाषा का जामा पहना दिया गया. दोनों तरफ से सियासत शुरू हुई. अंग्रेजों ने इसे हवा दी और आज आज़ाद भारत में जिस तरह मुस्लिम राजनीति पस्त है उसी तरह उर्दू भी.
लेकिन हिन्दी ने इस भाषिक जकडन से मुक्त होने की कोशिश लगातार की है. परीक्षा में पास-फेल होने का झंझट ख़त्म होने के बाद कई लेखकों और अन्य क्षेत्र के जानकारों ने इसी हिन्दी का दामन थामा है. महात्मा गांधी इसी हिन्दी के हिमायती थे और इसे हिन्दुस्तानी कहते थे. मज़े की बात तो यह है कि जनता नेताओं के भाषण इसी हिन्दुस्तानी में समझती थी.
जैसा कि मैंने ऊपर याद दिलाया है कि भाषा वही ज़िंदा रहती है जिसमें धंधा चलता हो. इसमें यह और जोड़ लीजिये कि लोग उसी भाषा की ओर लपकते हैं जिसमें रोज़गार मिलता हो. आज कितने मुसलमान उर्दू पढ़ना चाहते हैं और कितने हिन्दू हिन्दी?
मैं जिस शहर में रहता हूँ, वहाँ शिवसेना मराठी के अलावा और कुछ चलने नहीं देना चाहती. लेकिन लोकल ट्रेन में उसका वश नहीं चलता. शिवसेना के कट्टर से कट्टर आदमी की बगल में मराठी आदमी भी बैठा हो तो वह हिन्दी में ही बात शुरू करता है. फिर यहाँ की हिन्दी का स्वरूप और उसका विकास देखना भी दिलचस्प है.
उलझन यह है कि लिखते समय आप किस तरह की हिन्दी का उपयोग करें? यह लिखने के स्वरूप पर निर्भर करता है. अगर औपचारिक लेखन है तो उसमें भाषा, शब्द-पद, वाक्य और व्याकरण के ख़ास नियमों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. लेखन अगर अनौपचारिक है तो इन सारे बंधनों से छूट मिलनी चाहिए. ब्लॉग लेखन को लोग फिलहाल अनौपचारिक मान रहे हैं. तब इतनी हाय-तौबा क्यों? जो मर्जी लिखिए, हिंग्लिश में लिखिए, मुम्बईया में लिखिए, महमूद की हैदराबादी हिन्दी में लिखिए, या टिपिकल बिहारी में लिखिए.
जहाँ तक नुक्ते की बात है तो मेरा मत यह है कि या तो सही जगह नुक्ता लगाइये, या इसे भूल ही जाइए. ग़लत जगह नुक्ता लगाने से अर्थ का अनर्थ हो सकता है. अगर हम 'ख़ुदा' को 'खुदा' और 'ज़ेब' को 'जेब' लिखेंगे तो वही फ़जीहत होगी जो 'बदन' और 'वदन' का फ़र्क न कर पाने से होती है. यहाँ बता देने में कोई गुरेज नहीं है- ज़ेब का अर्थ है शोभा और अगर कभी आपकी जेब कटी होगी तो जेब का अर्थ आप जानते ही होंगे. बदन का अर्थ है देह, और वदन का अर्थ मुख.
हिन्दी भाषा की प्रकृति अविरल बहने की ही रही है.चाहे इसे विद्वानों ने कितना भी अपने कब्जे में करना चाहा, यह नदी के उद्दाम वेग की तरह आगे बढ़ती रही है. संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्द इसी में आपको मिलेंगे. अंग्रेजी के कितने ही शब्द हिन्दी कुल में शामिल हो चुके हैं. कुछ शब्द तो ऐसे हैं कि आपको सिर्फ इसी हिन्दी में मिलेंगे. जैसे जुगाड़मेंट. इसी हिन्दी में कई शब्द आपको उर्दू के लग सकते हैं लेकिन वे हैं असल में तुर्की, पुर्तगाली या फ्रांसीसी के.
अरबी, फ़ारसी और अग्रेज़ी से आए शब्दों की फेहरिस्त लम्बी है. इसकी वजह यह है कि इन्होंने भारत पर बड़े अरसे तक शासन किया. यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मुग़ल तुर्क थे इसलिए तुर्की के शब्द भी हिन्दी में बहुत मिलेंगे. कुछ उदाहरण पेश करता हूँ-
अंग्रेज़ी शब्द- साकइल, रेल, टिकट, स्टैंप, पुलिस, निब, स्टोव, टेलीफोन, फोटो, सिनेमा आदि.
फ़ारसी शब्द- औरत, खजांची, खुशामद, जमीन, सरकार, सिफारिश, अंगूर, आबाद, आस्तीन, गुलाब, चपाती, जंजीर, दरी, नमक, नाश्ता, परदा, प्याला आदि.
तुर्की शब्द- तोप, तमगा, दारोगा, बारूद, बंदूक, कुली, बेगम, बहादुर, लाश आदि.
फ्रांसीसी- रेस्तरां, कूपन, अंग्रेज़ी, कारतूस, रिपोर्ताज आदि.
जापानी- रिक्शा
पुर्तगाल- गिरजा, पादरी, काजू, चाबी, बिस्किट, कमीज़, तौलिया आदि.
उत्तर तथा पूर्वी भारत की बोलियों के तो हजारों शब्द हिन्दी में घुले-मिले हुए हैं. इन सबके हिन्दी में आने की एक यात्रा रही है. देवभाषा से पाली, प्राकृत और अपभ्रंस होते हुए.
फिर भी अगर कोई जिद करे कि वह तो पूर्वी हिन्दी लिखेगा. तो उसे किसने रोका है? कोई कहे कि वह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी लिखेगा तो उसे कौन मना करता है? लेकिन उससे जब नफ़ा-नुकसान होगा तो वह ख़ुद राह लग जायेगा.
रही बात ज्ञान-विज्ञान की. तो भाई, पहले हिन्दी में आधुनिक ज्ञान के शास्त्र लिखो, नयी-नयी खोजें करो, तब न अपनी शब्दावालियां बनाओगे? या खाली कूदते रहोगे कि कम्यूटर अंग्रेजी में क्यों पढ़ाया जाता है या जीव विज्ञान के शब्द-पद ऐसी अबूझ हिन्दी में क्यों है? समझना चाहिए कि ये शब्द-पद या तो पर्यायवाची हैं या समानार्थी. अगर आपका शोध नहीं है तो आपकी शब्दावली भी नहीं होगी. तब तो ऐसे ही रट्टा मारना पड़ेगा और हिन्दी का रोना उसी तरह रोना पड़ेगा जिस तरह उर्दू वाले रोते हैं.
फिर भी हिन्दी की यह उदारता है कि स्पुतनिक तथा सॉफ्टवेयर जैसे शब्द लगते ही नहीं कि ये रूसी और अंग्रेज़ी के हैं. है न ये अजस्र और अविरल धारा!
2 comments:
साफ-साफ तथ्यों को सरलता से पेश करनेवाला सामयिक और ज़रूरी लेख। असल में हिंदी, उर्दू की यही हकीकत है जिसे सभी को स्वीकार करना चाहिए। अब मुझे यकीन हो गया कि विजयशंकर जी एक समझदार व सुलझे हुए लेखक/ब्लॉगर हैं।
इससे तो बड़ी मेरी ही कविताहै/ padho aaspaas tab dekho.
Post a Comment