प्रणव प्रियदर्शी
मोहल्ला वाले अविनाश और रेजेक्ट्माल तथा सभी उपलब्ध ब्लोगों (व अन्य मंचों) से अपनी बात कहने वाले दिलीप मंडल बहुतों की आँख की किरकिरी बन चुके हैं. इन 'किरकिरियों' को शुरू मे नज़रअंदाज करने की कोशिश इन लोगों ने की थी. जैसा कि ऐसे मामलों मे ये अमूमन करते हैं. जब बात नही बनी, तो दूसरा रास्ता अपनाया गया. कथित सम्मानपूर्ण व्यवहार के जरिये इन्हें भी साध लेने की कोशिश हुयी. जब उससे भी बात नही बनी, इन दोनों ने पूरी शिद्दत से अपना काम जारी रखा तब खीझ उतारने का सिलसिला शुरू हुआ. 'शालीनतापूर्ण' असहमति से आरंभ हुआ यह सफर जल्द ही आरोप-प्रत्यारोप और गाली गलौज तक पहुंच गया.
चूंकि शब्दों के चयन और भाषाई तहजीब पर पहले ही काफी कुछ कहा जा चुका है, इसीलिए उसे न दोहराते हुए पहले सराय वाली ब्लोग संगत पर. मोहल्ला जिन मुद्दों को छेड़ता रहा है, जिन पर बहस करवाता रहा है उस पर बात करें, अपना पक्ष रखें यह तो ठीक है लेकिन ब्लोग संगत का निमंत्रण सबसे पहले मोहल्ले पर पोस्ट हुआ इस आधार पर किसी के पीछे पड़ जाने का क्या मतलब? मोहल्ले का अगर अपना कोई वैचारिक आग्रह है तो इसमे गलत क्या है? और उस आधार पर ब्लोग संगत के लिए मोहल्ले को गाली देने का भला क्या तुक? इसे ही कहते हैं 'मरे कोई जलाऊं अपने उसी दुश्मन को'.
यों भी दिल्ली मे कौन सा सभा भवन है जहा बडे पैसे से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप मे जुडी कोई संस्था न काबिज हो? तो फिर विचार - विमर्श या स्नेह मिलन के कार्यक्रमों के लिए 'वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध' लोग क्या दूसरे ग्रह पर जाएं?
किसी के साथ मिल कर उसकी लाइन को स्वीकार लेना और उसके अनुरूप काम करना एक बात है. अगर मोहल्ला ने ऐसा कुछ किया होता तो वह उसका औचित्य बताता. लेकिन ऐसा उस पर आरोप भी नही है. हल्ला इस बात पर मचाया जा रहा है कि ब्लोग संगत सराय मे क्यों बुलाई गयी.
ऐसा ही मामला दिलीप मंडल का है. उनके खिलाफ सारा गुस्सा इसी वजह से है कि वे कभी जाति का सवाल उठाते हैं तो कभी महिलाओं का. जिन शरीफ लोगों को यह बुरा लग रहा है वे अलग-अलग बहानो से उन पर लाल-पीले हो रहे हैं. हालांकि ऐसा नही कि सभी आलोचनाएं ऐसी ही हैं. भाई दिनेश राय द्विद्वेदी ने बेहद तार्किक ढंग से और गंभीर मुद्दे उठाये हैं. उन पर बहस आगे बढाई जानी चाहिए. लेकिन ज्यादातर लोग जो यह कहते हुए नाक-भौंह सिकोड़ रहे हैं कि दिलीप मंडल न्यूज़ रूम का माहौल खराब करना चाहते हैं, दरअसल वे अपनी असुविधा को छिपाने के लिए इस बहस को दफनाना चाहते हैं.
इस बहस पर पवित्रतावादी स्टैंड लेने वाले अजित वड्नेरकर यह दावा करते हैं कि वे अपने आसपास किसी व्यक्ति की जाति नही देखते.चलिए मान लिया. लेकिन, अपने एक पोस्ट मे वे पत्रकारिता और क्लर्की का सवाल उठाते हैं. पत्रकार बंधुओं के मुंह से यह डायलॉग आम है कि हम पत्रकारिता करते हैं क्लर्की नही. वैसे भाई अजित जी ने काफी संयत शब्दों का प्रयोग किया है पत्रकारिता और क्लर्की का अंतर बताने मे, लेकिन यह भाव उस पोस्ट मे भी मजबूती से मौजूद है कि क्लर्की पत्रकारिता के मुकाबले हीन काम है.निस्संदेह ऐसा मानने वाले वे एकमात्र पत्रकार नही हैं, लेकिन इसमे भी संदेह नही कि ऐसे पत्रकार कम से कम समता मूलक दृष्टि का दावा नही कर सकते.
खुद ही सोचिये कि जो इस बात से गौरव लेता हो कि वह क्लर्क नही है, उसके पास क्लर्कों के लिए क्या होगा? आप क्लर्क नही हैं तो बडे महान हैं, लेकिन मैं क्लर्क हूँ तो मुझे इज्जत से जीने का हक़ है या नही? अगर है तो किस बिना पर? क्योंकि क्लर्की तो नाज करने वाली चीज है नही.
फिर यह बात भी है कि जो इस बात पर खुश हैं कि वे क्लर्क नही वे इस बात पर खुश क्यों नही हो सकते कि वे चमार नहीं या महार नही या अन्य कोई छोटी जात नही?
साफ है, अजित वड्नेरकर जी अगर सच्चाई तक पहुँचना चाहते हैं तो अपने वर्ल्डव्यू पर दुबारा विचार करें.
बहस मे शामिल अन्य साथियों से शायद इतना कहने की भी जरूरत नही.
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1 comment:
सार्थक कार्य करिए, बहस में पड़ने से क्या फायदा। जीवन छोटा है ओर कार्य ज्यादा। सो मजे लीजिए कार्य के। उसने यह कहा, मैंने यह कहा...क्या फायदा इसका। जीवन के लक्ष्य पाने के लिए समय कम है,सो कहासुनी में न पड़ें।
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