प्रणव प्रियदर्शी
(अनुराधा की बेहतरीन श्रृंखला 'टुकड़े ज़िंदगी के' इसी ब्लौग पर चल रही है. दिलीप के विचारोत्तेजक लेखों की श्रृंखला भी जाति और महिला के सवाल पर चल रही है. इसी दौरान मुझे एक अनुभव हुआ, जो आप सबकी दृष्टि मे ला रहा हूँ. शीर्षक अनुराधा की श्रृंखला से प्रेरित है. आप चाहें तो शीर्षक की सार्थकता या निरर्थकता पर भी अपनी राय जाहिर करें.)
दक्षिण दिल्ली के एक पौश इलाके मे स्थित एक बैंक की शाखा. कैश काउंटर पर भीड़ ज्यादा नही. छः-सात लोग होंगे कतार मे. काउंटर पर एक महिला कर्मचारी थीं जो काफी संभ्रांत दिख रही थीं. कतार मे सबसे आगे खडी एक महिला जो अपेक्षाकृत कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि की प्रतीत होती थी, के फॉर्म मे कुछ गलती रह गयी थी, जिस पर बैंक कर्मचारी ने उसे झिड़क दिया. कतार मे तीसरे नंबर पर एक बुजुर्ग थे.
उन्होने बैंककर्मी महिला को समझाया, ' वह जैसी भी है आपके बैंक की कस्टमर है. उसके साथ आपको अच्छा व्यवहार करना चाहिए था.' उस महिला बैंक कर्मी ने बिना कोई जवाब दिए उस बुजुर्ग की नसीहत सुन ली.
लेकिन तुरंत ही उस बुजुर्ग की बारी आयी जिन्हें पैसा जमा करना था. जैसे ही उन्होने नोट काउंटर मे बढाए, महिला बैंक कर्मी ने यह कहते हुए नोट लौटा दिए कि ये टेढे-सीधे हैं. इन्हें सीधे कर के लाइये. अब वे बुजुर्ग बेचारे एक तरफ होकर नोट सीधा करने लगे. मगर यह सब देख रहे एक अन्य प्रौढ़
कस्टमर से नही रहा गया.
उन्होने टिप्पणी की, 'आपने उन्हें टोका था ना, इसीलिए देखिये उन्होने आपको काम पर लगा दिया. आप उन्हें सीधा करना चाहते थे, उन्होने आपको नोट सीधा करने को कह दिया.' महिला बैंक कर्मी इस टिप्पणी को सुन रही थी. उसने बुदबुदा कर इतना ही कहा, 'ऐसा नही है.'
खैर काम आगे बढा और अब उन प्रौढ़ सज्जन की बारी थी. उनके फॉर्म मे भी कोई गड़बड निकल गयी. लिहाजा महिला बैंक कर्मी ने उन्हें निस्संकोच एक अन्य काउंटर पर भेज दिया. उनके जाने के बाद जैसे महिला बैंक कर्मी के चेहरे पर पुरानी निश्चिन्तता लौट आयी. उसने धीमी, लेकिन आसपास के लोगों के सुनने लायक आवाज मे कहा, ' हुंह, मुझे सीधा करने आये थे.'
यह आधिकारिक तौर पर इस बात की घोषणा थी कि बुजुर्ग सज्जन को उस महिला ने उनकी नसीहत के जवाब मे 'दण्डित' किया था. उस दंड को समझने और दूसरों को समझाने की सजा मिली थी प्रौढ़ कस्टमर को.
मित्रो, यह सच्चा वाकया पिछले दिनो मेरी आंखों के सामने घटित हुआ.
आप से निवेदन है कि इस घटना का क्या मतलब है और इसे किस रूप मे लेना चाहिए, इस पर कृपया अपनी ईमानदार राय भेजें.
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6 comments:
प्रियदर्शी जी। यह एक उदाहरण मात्र है। ऐसा सभी स्थानों पर हो रहा है। इस घटना का पूर्ण विश्लेषण कर पाना टिप्पणी में संभव नहीं है। शायद पूरी पोस्ट लिखनी पड़े। लेकिन इतना तय है कि इस घटना में गैर बराबरी वाली मानसिकता का कोई रोल नहीं है और अगर है भी तो उस का बहुत ही मामूली असर है।
बैंकों की कमी नहीं है । इस बैंक से अपना हिसाब किताब बन्द करवा लेना चाहिये ।
घुघूती बासूती
मुझे लगता है कि ये अनुभव महिलाओं से जुड़ा कम और अधिकारियों से जुड़ा ज़्यादा है। वहाँ उस कुर्सी पर अगर महिला के बजाय कोई पुरूष होता, तब भी ऐसा ही कुछ हो सकता था। हम इंसान कुछ ऐसे होते है कि जहाँ मौका मिला दूसरों को दबाने लगते हैं। ऐसा ही कुछ यहाँ भी हुआ लगता है। कोई बड़ी बात नहीं अगर वो प्रौढ़े सज्जन कोई नगर निगम कर्मचारी या बिजली विभाग के अधिकारी निकले। और वो भी अपने कार्यालय में आने वालो से वही व्यवहार करते हो जो बैंक अधिकारी ने किया।
-दीप्ति।
तो फिर देर किस बात की द्विवेदीजी? पोस्ट लिख भेजिए. और कहीं नही तो मेरे मेल पर भेज दीजिए. पता है ppriyadarshee@gmail.com
घुघुती जी, सवाल बैंक का नही मानसिकता का है. दीप्तिजी की बात गौर करने लायक है. वहाँ महिला की जगह पुरुष कर्मचारी होता तो संभवतः उसका व्यवहार भी वैसा ही होता. यह भी बहुत संभव है कि वे बुजुर्ग तथा प्रौढ़ सज्जन किसी अन्य ऑफिस मे काम करते हों और वहाँ काउंटर पर आने वालों के साथ उनका व्यवहार वैसा ही हो जैसा इस महिला का था. यानी क्या कोई ऐसा बिंदु भी है जहाँ महिला या पुरुष, बुजुर्ग या प्रौढ़, सवर्ण या दलित होना खास मायने नही रखता? जो भी व्यक्ति वहाँ आता है खास तरह से व्यवहार करने लगता है?
बयान की गई घटना कोई नई नहीं है बल्कि आम होने वाली घटनाओं में से है। प्रणव ज्यादा संवेदनशील और बुजुर्गों-महिलाओं के प्रति गहरे आदर भाव से भरे हैं। बैंक के काउंटर पर बैठी महिला भी जरूर बड़ों का आदर करना जानती होगी। फिर उसने एक महिला और उन दो बुजुर्गों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया? सरसरी तौर पर देखें तो बस यही लगता है कि उस कुर्सी पर बैठने के दंभ में महिला (अगर उसकी जगह पुरुष होता तो शायद वह भी) ने ऐसा बर्ताव किया। लेकिन (अब जबकि प्रणव ने कहानी का आखिरी सिरा खुला छोड़ कर पूरी छूट दे रखी है इसे अपने मुताबिक तोड़ने-मरोड़ने की तो मैं भी मौका क्यों चूकूं!) थोड़ा गहराई में जाएं और उस महिला की उस समय की मानसिकता का अंदाज़ा लगाएं तो कुछ पहलू समझ में आते हैं-
1. उस समय महिला लंबी कतार में खड़े कई तरह के कस्टमर्स से एक के बाद एक, बिना रुके डील कर रही है। और कई लोगों के फॉर्म ठीक नहीं भरे गए हैं या दूसरी समस्याएं हैं जिन्हें उसे ही सुलझाना है। वह चाहती है कि लोगों के हिस्से आया यह काम ठीक से हो ताकि वह अपने जिम्मे का काम सहजता से और जल्दी कर पाए। आप खुद को उसकी जगह रख कर सोचिए। वह उसकी रोज की नौकरी है। मुझे पता है, मेरे जैसे कई लोग, समूह में लोगों से या बिना रोचक विषय के किसी से भी देर तक बात करने में रुचि नहीं रखते। हो सकता है उस महिला के साथ ऐसी कोई दिक्कत हो, जो खीझ के रूप में जाहिर हो रही हो। अब आप यह न कहिए कि फिर वह महिला ऐसी नौकरी छोड़ क्यों नहीं देती। यह सवाल खुद से पूछ देखिए, जवाब मिल जाएगा।
2. वह महिला एक परिवार का, समाज का हिस्सा है। हो सकता है घर-समाज में सुबह-सुबह ऐसा कुछ कटु अनुभव उसे हुआ हो, जिसकी झल्लाहट वहां कतार में खड़े कमजोर (जो शायद अपने व्यवहार की परिपक्वता, सहनशीलता या अनुभवजन्य धैर्य की असीमता के कारण प्रतिक्रिया में तेजी नहीं दिखाते इसलिए किसी को कमजोर दिखते हैं और इस वजह से उनसे दुर्व्यवहार निरापद लगता है) व्यक्तियों पर निकाल रही हो। यह ठीक नहीं है, लेकिन फिर भी मानव व्यवहार का हिस्सा तो है।
3. महिलाएं दुखी रहती हैं कि पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा होने के बावजूद घर के पुरुष उन्हें पर्याप्त तवज्जो नहीं देते, अपनी ही चलाते हैं, अपनी ही मनवाते हैं और हर समय नसीहतें देते रहते हैं। ऐसे में पुरुष समाज का एक और जाना-अनजाना व्यक्ति उनके काम के सिलसिले में उन्हें बिन मांगे नसीहतें देता लगता है तो वे विफर उठती हैं और शिकार वह भी हो सकता है जो भलमनसाहत में सुझाव-सलाह दे रहा हो। ( संदर्भ: ' हुंह, मुझे सीधा करने आये थे.')
4.'ऐसा नही है.' कह कर महिला ने अपना इरादा जताया तो, पर उसे गंभीरता से नहीं लिया गया। इसका मतलब, हो सकता है उस दुर्व्यवहार के बाद उस महिला को अपने किए पर अफसोस हुआ हो। लेकिन फिर अपने से कमजोर (उस समय तो कम-से कम, जबकि वही उस कतार की तारणहार बनी हुई थी।) से माफी मांगना किसी के अहम को आसानी से गवारा होता है क्या? ऐसे में अपने ही अफसोस से आंख चुराने के लिए, छिपने के लिए उसका व्यवहार असंतुलित हो गया।
इस मीमांसा को पाठक जो भी समझें, मैंने अपने मन का काम पूरा मन लगा कर किया है। वैसे मन तो अब भी भरा नहीं है, पर आज के लिए इतना ही।
-अनुराधा
सारा खेल कुर्सी/पावर का है.
पावर मिलते ही पैसा, लिंग, जाति का भेद ख़त्म हो जाता है शायद.
बचते हैं केवल दो वर्ग.
शोषक एवं शोषित.
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