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Wednesday, February 6, 2008

गुलशन गंगाधरसिंह सुखलाल की कविताएँ

कुछ दिन पहले एक मित्र ने ई मेल के जरिए कुछ कविताएं फॉरवर्ड कीं। पढ़ना शुरू की तो सचमुच इंप्रेस हो गई उस कलम से और आपका उससे परिचय कराने से खुद को रोक नहीं पाई। कविताओं से पहले कवि का एक छोटा सा परिचय -
शिक्षा : बी. ए. एम. ए, हंसराज कॉलिज, दिल्ली विश्वविध्यालय, भारत 1995-2000, फ़ुलब्राईट स्कॉलर, 2005, पी-एच. डी. पर शोध जारी

नौकरी : वरिष्ठ व्याख्याता, हिंदी विभाग, महात्मा गांधी संस्थान, मोका मॉरिशस

यह परिचय एक वेब साइट http://www.anubhuti-hindi.org/dishantar/g/gulshan/index.htm से उठाया और फिर देखा ये कविताएं तो इस वेब साइट ' अनुभूति' पर भी उपलब्ध हैं। बहरहाल, ये रहीं मॉरीशस में रह रहे गुलशन गंगाधरसिंह सुखलाल की तीन कविताएं-


प्रतिनिधि

अब पहचानने लगा हूँ तुमको

पिछले कई वर्षों से
साल में एक दो बार
तुम्हारी कुछ झलकियाँ देखता आया हूँ।

तुम वही हो न
जो राष्ट्रीय स्तर के
हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में
पहली पंक्ति के एकदम बाद
कैमरे के फ़्रेम में एकदम फ़िट
दिख ही जाते हो?

और तुम वही हो शायद
जो ग़ज़ल से लेकर भजन तक
शास्त्रीय नृत्य से लेकर गायन तक के
हर बड़े कारयक्रम में
‘आर्ट’ कही जाने वाली फ़िलमों के प्रीमियर में
दिखने से बचते हो नहीं
चमकते हैं तुम्हारे डिज़ाईनर कपड़े
सूट, टाई, शेरवानी, स्लीवलैस ब्लाउज़
शाल...
भाता है तुम्हारे बैठने का अन्दाज़

शुरू में लगा मुझे कि
तुम्हें इन सब का बड़ा ज्ञान है
रूचि है शायद तुम्हारी

... और जिस अन्दाज़ में तुम
ग़ज़ल की मेहफ़िल में
सीर्फ़ ओठ हिलाकर वाह-वाह करते
या भजन सन्ध्या में
एक ऊँगली पर टेककर माथा
ध्यान मग्न रहते
ऐसा लगना था ही मुझे

लेकिन...
अब पहचानने लगा हूँ तुमको

तुम वही हो न
जिसके बच्चे विदेश से
यहाँ सीर्फ़ छुट्टियाँ मनाने आते हैं?
वही हो न तुम
जिसे रोमन लिपि में हनुमान चालीसा चाहिए
जिसके यहाँ परम्पराएँ
सीखीं जाती हैं
टी.वी पर देखकर
सिरियल...

हाँ तुम वही हो
जो चुनावों से साल भर पहले
कुछ ज़्यादा ही नज़र आते हो
ऐसी जगहों पर जहाँ तुम
हमारे लिए उनके
और उनके लिए हमारे
प्रतिनिधि की तरह दिख सको।

हमारे लिए तुम
हमारे जैसों के लिए तुम
महफ़िलों, सन्ध्याओं, पर्फ़ोमैंसज़ में
रूचि के लिए
वो बन जाते हो
जिसके पीछे हम
भागा करते हैं।
और इसी लिए शायद
उनके लिए तुम
हमारे प्रतिनिधि बन जाते हो
...उनका एक ऐसा चेहरा
जिसमें हम अपना चेहरा देखने का
शौक रखते हों।


फ़र्क इतना होता है
कि हमारी ताप,
हमारी चोट,
हमारी टीस
और हमारी खीस की तुममें
सीर्फ़ छाया होती है
जबकि वास्तव में होते हो तुम
इन सब से रिक्त,
नपुंसक !

अब पहचानने लगा हूँ तुमको
भाषा,
धर्म,
संस्कृति
सभ्य-ता
बौद्धिकता के नाम पर
मुझे उसको
और उसे मुझको
बेचने वाले
दलाल हो तुम।

पासवर्ड

सुबह जब जागा
तो मोबाईल को चार्ज पर से निकाला और
ऑन करने के लिए कोड डाला
तैयार होकर ऑफ़िस पहुँचा
वहाँ दरवाज़े का कोड डालकर लाल बत्ति हरी की
फिर कंप्यूटर ने माँगा अपना पासवर्ड
और जब पैसे निकालने ए.टी.एम. तक पहुँचा
तो एक और…
कोड...

दिन भर के कामों को अनलॉक करता हुआ
जब शाम को घर पहुँचा
तो सीधे बिस्तर पर क्रैश हो गया
पड़ोसी, दोस्त और रिश्तेदार तो एंटर कर नहीं पाए
बीवी, बच्चों, माता पिता को भी मेरी दुनिया में
एक्सैस मिला नहीं...

ज़िंदगी में बेमानी हो चली
कुछ भावनाओं, नर्मियों को
दिल के जिस फोलडर में रखा था
उसका पासवर्ड...
मैं कहीं भूल गया।

समय का दाम

पच्चीस रुपए घड़ी!
घड़ी पच्चीस रुपए!
राजधानी की गलियों में
मैंने समय को सस्ते दामों में बिकते देखा है

तुम वहाँ नहीं जाते
तुम्हारी एयर कंडीशन गाड़ी के शीशे
वहाँ नहीं खुलते
वह तुम्हारी घड़ी नहीं है
वह तुम्हारा समय नहीं है

समय वो मेरा हैं
सस्ता और टिकाऊ
इसीलिए तुम हर पाँच साल
कुछ वादों का चिल्लर देकर
मेरे पाँच साल खरीद जाते हो
सस्ते में...

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