विजयशंकर चतुर्वेदी
(यह टिप्पणी 'अब यहाँ से कहाँ जाएं हम' शीर्षक पोस्ट पर आयी थी. किसी वजह से यह मोडरेट होने की प्रतीक्षा करती रह गयी. बहरहाल, टिप्पणी गंभीर है और पाठकों का ध्यान चाहती है. विलम्ब के लिए क्षमा याचना सहित पेश है विचारशील पत्रकार विजय शंकर की यह टिप्पणी)
मुझे कई बार ऐसा लगता है कि भारत में असली साम्यवादी विचारधारा को फैलाने के लिए भारतीय तरीकों का उपयोग करना चाहिए. समाजवादियों और साम्यवादियों ने विदेशी तरीके अपना कर सारा गुड़ गोबर कर दिया है. समाजवादियों और कम्युनिस्टों में ऐसे अनेक मनीषी और विचारक रहे हैं जिन्होंने अपने जीवन से कई भारतीय संतों और साधकों को पसीने छुड़ा दिए. लेकिन उनकी सारी साधना एक ईश्वर विरोध के प्रचार के सामने धूल में मिल गयी.
भारती कम्युनिस्टों को भी गेरुआ धारण करके अपनी बात रखनी चाहिए. पाखंडी गेरुआधारी नहीं! कम्युनिस्ट बाबाओं के ऐसे हज़ारों दल बनाने चाहिए जो जनता के बीच लोकायत, चारवाक तथा सांख्य दर्शन के राजदूत बन सकें. तभी दक्षिणा और दक्षिणपंथी अमानवीय विचारधारा को हटाने में सफलता मिल सकती है. वरना आपका सारा प्रयास आपके ख़िलाफ़ विदेशी विचारधारा ओर तथाकथित अभारतीयता के दुष्प्रचार के अस्त्र से मिट्टी में मिलाया जाता रहेगा.
दक्षिणपंथियों ने ऐसा माहौल बना दिया है कि वे ही सच्चे भारतीय हैं ओर उनकी बेईमानियों पर जो चोट करे, वह अभारतीय! ऐसे में जनता आपकी बात सुनने से पहले ही उसे खारिज कर देती है या प्रतिरोधी मूड में आकर सुनती है.
अगर हमने अपनी बात समझाने के भारतीय तरीके अपनाए तो यह सच्ची भारतीय जनता के साथ हमारी ईमानदारी होगी. इसके लिए बहस के उन तरीकों को अपनाना होगा जिसकी एक झलक राहुल सांकृत्यायन ने 'वोल्गा से गंगा' के एक अध्याय में दिखाई है. अब तो बहस के वे आदाब भी नहीं रहे.
...और मार्क्सवाद को विदेशी विचार समझने-समझाने की प्रवृत्ति पर भी चोट करनी होगी. इसकी जड़ें भारतीय वैदिक संस्कृति में मौजूद हैं. प्रतिरोध की धारा का वह स्रोत ढूंढ़ना होगा; तब अपनी बात बनेगी. वह स्रोत किस तरह बाधित और मूँद दिया गया इसका पर्दाफाश करना होगा. बौद्ध धर्म को भारत से नेस्तनाबूद करने की कोशिशों का अमानवीय इतिहास रहा है.
इस देश में कबीर जैसे साधनहीन समाज सुधारक कवि ने प्रचार-प्रसार विहीन काल में भी उत्तर ही नहीं दक्षिण में भी अपनी चौपालें और दल तैयार कर लिए थे. ये दल आज भी अपनी-अपनी शक्तियों के साथ भारत भर में नए-नए स्वरूपों में उपस्थित हैं. यह नेटवर्क आज भी हमारे बड़े काम आ सकता है.
यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि आज देश में जो अखंडता है वह समाजवादियों या कम्युनिस्टों की वजह से है, वह इन्हीं शक्तियों की वजह से बरकरार है. दक्षिणपंथियों की चोट वही परम्परा झेल रही है और बहाल है. ऐसे ही नहीं सदियों से इस परम्परा के वाहकों को जाहिल, असभ्य, दलित करार देकर मुख्यधारा से अलग-थलग रखा गया है. यही लोकायत की परम्परा के वाहक हैं. लेकिन इस परम्परा के साथ भी जब हम 'धर्म अफ़ीम है' से शुरुआत करते हैं तो वह बिदक कर दूर जा खड़ी होती है. क्या इससे लगता नहीं कि हमने शुरुआत ही ग़लत ढंग से की है. अगर लगता है तो अब उस भूल सुधार का समय आ गया है.
यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह भूल सुधार सत्ता के मद में चूर और चुनाव जीतने को अपना एकमात्र लक्ष्य बना चुके तथाकथित वामपंथियों की न तो जरूरत है न ही उनके वश की बात. यह सुधार वही करेंगे जो जनता के सच्चे संघर्षों में जनता के सच्चे हितैषी बनकर काम कर रहे हैं या करना चाहते हैं. अपनी सीमाओं में ही सही, कहीं न कहीं से इसकी शुरुआत तो करनी ही होगी. गोली-बंदूक की रणनीति बेहतर मानव-इकाई बनाने की दिशा में स्थायी बदलाव नहीं ला सकती.
यह सारी बातें मैनें 'पार्वत्याचार्य' पीठ स्थापित करने वाला लेख पढ़ने के बाद ही लिखीं हैं. स्पष्ट है की पुरूषवादी धर्मसत्ता के ख़िलाफ़ एक कदम उठाने मात्र से कैसी-कैसी प्रतिक्रियाएं हो रही हैं. इससे अन्दाजा लगाना मुश्किल नहीं कि पुराने समय में इस सर्वेसर्वा धर्म-व्यवस्था में स्त्रियों की क्या स्थिति रही होगी. उन लोगों को शर्म आनी चाहिए जो गोपा, लोपमुद्रा, कात्यायिनी जैसी कुछ विदुषियों का उदाहरण देकर प्राचीन परम्परा को बहुत उज्जवल बताया करते हैं. लेकिन चाचा गालिब ने कहा ही है- 'शर्म तुमको मगर नहीं आती.'
Custom Search
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Custom Search
2 comments:
मैं आप की बात से सहमत हूँ। आगे बढ़ने का यह तरीका सही है। हम अपने परिवेश को न त्यागें और न ही अपनी पारंपरिक जीवनचर्या ही। फिर जो दर्शन प्रारंभ में भौतिकवादी थे, बाद में इन्हें संशोधित कर भाववाद प्रयोग में लेने लगा। इन की मार्क्सवादी दृ्ष्टिकोण से पुनर्व्याख्य़ा कर लोगों तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण काम करना है वह इस मार्ग के बिना संभव ही नहीं है। चलो सोच आई है तो काम भी शुरू होगा ही। बल्कि समझिए शुरु हो चुका है।
मेरे पिताजी की खगेन्द्र ठाकुर जी से चर्चा हो रही थी... बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी की हार के बारे में विशेषकर और उत्तर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी क्यों नहीं अपनी शक्ति बना पाती है. पूरी बात तो ज्यों की त्यों याद नहीं है - पर सार यह था - भारत में अगर किसी भी विचारधारा को चलना होगा तो गंगा को माँ कहना ही होगा...
Post a Comment