Custom Search

Wednesday, January 30, 2008

भाषा क्या सिर्फ बात है?

...अगर ऐसा होता तो शुद्धता और अशुद्धता की बहस का कोई मतलब नहीं होता। संवाद के माध्यम के रूप में भाषाई शुद्धता की अपेक्षा कम लोग ही करते हैं। संवाद के माध्यम के रूप में ब्लॉग में भी भाषा की शुद्धता की जरूरत मुझे तो नहीं लगती। बात है, की गई, समझ में आ गई। बात खत्म। या बात शुरू। लेकिन भाषा का सिर्फ यही एक काम तो नहीं है। भाषा तो शक्ति और प्रभुत्व और दबदबा कायम करने का औजार भी है।

भारतीय समाज का आज का ये सबसे बड़े डिफ्रेंशिएटर भी है। अंग्रेजी बोलने वाले भारतीय भाषाएं बोलने वालों से बड़े। अच्छी अंग्रेजी बोलने वाले टूटीफूटी अंग्रेजी बोलने वालों से बड़े। शुद्ध हिंदी बोलने वाले अशुद्ध हिंदी बोलने वालों से बड़े। नुक्ते लगाना वाले नुक्ते न लगाने वालों से बड़े। संस्कृतनिष्ठ बोलने वाले देसी भाषा बोलने वालों से बड़े। बांग्ला का रवींद्र संगीत वहां की पल्लीगीती से महान। पुणे की मराठी मालवण की मराठी से भली। मेरठ-आगरा की हिंदी झंझारपुर-पूर्णिया की हिंदी से बेहतर।

भाषा, साहित्य, संस्कृति, कला सभी जगहों पर तो आपको ये दिख जाएगा। दरअसल हमारा इस यथास्थिति को एक हद तक चुनौती दे रहा है (लेकिन साथ में भेदभाव के नए प्रतिमान भी गढ़े जा रहे हैं)। घरानों के संगीतकारों को अब लोकमाध्यमों में (दूरदर्शन को छोड़कर) धेले भर को कोई नहीं पूछता (उनके शो अब विदेशों में ज्यादा होते हैं, जहां के एनआऱआई अपनी जड़ों की तलाश में बेचैन हैं) और आए दिन कोई अनगढ़ संगीतकार-गीतकार शास्त्रीय सुर-ताल की ऐसी की तैसी करके महफिल लूट ले जा रहा है।

भाषा में भी तो कहीं ऐसा ही नहीं हो रहा है और जो शुद्धता के उपासक हैं उन्हें इस बात का भय तो नहीं कि उनकी टेरिटरी में कोई ऐसे ही कैसे घुसा चला आ रहा है? शास्त्रीय हिंदी साहित्य की आज दो कौड़ी की भी औकात नहीं है। रचनाएं दूसरे प्रिट ऑर्डर के लिए तरस रही हैं और पहला प्रिंट ऑर्डर 500 से ऊपर कभी कभार ही जाता है। हिंदी का साहित्य तो आज पाठकों से आजाद है। लेकिन मास मीडिया के सेठ को तो पैसे चाहिए। वो दर्शकों और पाठकों से आजाद क्योंकर होना चाहेगा।

और फिर अखबार और टीवी में भाषा कहीं इसलिए तो नहीं बदल गई है कि उनके पाठक और दर्शक बदल गए हैं। अंग्रेजी में तो अशुद्ध के लिए जगह नहीं होती। वहां मिलावट की भाषा लिखने का अधिकारी भी वही है जिसका अंग्रेजी पर अच्छा अधिकार है। वहां भाषा के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ एम जे अकबर जैसे लोग करते हैं। लेकिन हिंदी में मिलावट का स्पेस बनता चला जा रहा है। अशुद्ध के लिए भी अब काफी जगह है। और ऐसा लिखने वाले कई लोग ऐसे हैं जिन्हें दरअसल ढंग की हिंदी नहीं आती। पढ़ने वालों को भी नहीं आती। क्या ये जश्न मनाने का समय है? या रोने-धोने का? पता नहीं? आपकी समझ में आ रहा है, तो बताइए।

बात क्योंकि नुक्ते से शुरू हुई है, इसलिए अब तक की बहस के बाद मुझे ऐसा लगता है कि जिन्हें नुक्ता लगाने की तमीज है वो नुक्ता जरूर लगाएं। क्योंकि इसके बिना भाषा से कुछ ध्वनियों का लोप हो जाएगा। और इससे भला कोई कैसे खुश हो सकता है। रेडियो के लिए तो ये बुरी बात ही कही जाएगी। इसलिए इरफान भाई से हमें लगातार नुक्ते वाली हिंदी सुनने को मिले, यही कामना है। लेकिन जिन्हें नुक्ते लगाना नहीं आता वो इसे छोड़ ही दें तो बेहतर या फिर अच्छी तरह से सीख लें और फिर इसका इस्तेमाल करें।

यहां पर आपको अपना निजी अनुभव बताता हूं। जब मैं पत्रकारिता सीखने देश की सबसे प्रतिष्ठित पाठशाला में पहुंचा तो बैच के बाकी लोग राजेद्र माथुर, एसपी सिंह, बाल मुकुंद जैसों से पत्रकारिता सीख रहे थे और मैं अशुद्ध लिखे शब्दों और वाक्यों को रात-रात जगकर दस-दस, बीस-बीस बार लिखकर ऐसी भाषा को साधने की कोशिश कर रहा था, जिससे मुझे रोजगार हासिल करना था। यहां ये बताना जरूरी है कि हिंदी मेरे घर में नहीं बोली जाती। और जिस हिंदी को लिखने की चुनौती थी, वो मेरे शहर में नहीं बोली जाती है। बहरहाल, टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज का जब कन्वोकेशन हुआ तो "कमजोर लिंग" वाले प्रदेश झारखंड के इस लड़के को सर्वश्रेष्ट संपादन का नवभारत टाइम्स अवार्ड मिला। यानी खेल उतना मुश्किल भी नहीं है। इसलिए जब कुछ लोग कहते हैं कि जिस भाषा को बरतना है उसकी तमीज होनी चाहिए, तो उसका मतलब समझ में आता है। लेकिन किस भाषा को बरतना है ये तो तय करना होगा।

2 comments:

Srijan Shilpi said...

लोग हर उस चीज को पदानुक्रम (हायरेरकी) में अपना और दूसरा का स्तर तय करने का आधार बना देते हैं जो उसे दूसरों से श्रेष्ठ या विशेष साबित कर सकती हो। भाषा भी एक ऐसा ही आधार है। हमेशा से ही भाषा लोगों के बीच हायरेरकी तय किए जाने का एक आधार रही है और यह रहेगी, क्योंकि हायरेरकी की अवधारणा मनुष्य की चेतना में गहरी बसी है। मुझे आज तक एक भी व्यक्ति नहीं मिला जिसकी बुद्धि हायरेरकी के इस मकड़जाल से मुक्त हो।

azdak said...

सही बातें हैं, बंधु.. हम ऐसे समाज में रहते हैं जहां हमारी इच्‍छा के विपरीत भाषा की चार-चार परतें यूं भी जीनी पड़ती हैं. तो क्‍या बरता जायेगा और उसमें हमारी क्‍या भूमिका होगी, वह हमीं नहीं हमारा परिवेश भी डिसाईट करवाता चलता है. ऐसे छप्‍पनभोगी छितराये समाज में शुद्धता का आग्रह थोड़ा भावुकतापूर्ण ही है. आदमी क्‍या करेगा अलबलाया यह भी सही वह भी सही के बीच ही तो झूलता रहेगा. कवि होगा तो इस ज़बान में कविताएं घिसेगा कि उसके घरवाले तक न बूझ पाएंगे. धन्‍य है हिन्‍दी- नुक़्तेवाली और बिना नुक़्तेवाली भी..

Custom Search