बिहारियों का लिंग कमजोर होता है (ये बात अक्सर मजाक के नाम पर किसी को अपमानित करने के लिए कही जाती है)।
नुक्ते की तमीज नहीं, और लेखक-पत्रकार बनने की जिद।
स और श का फर्क नहीं जानते, चले आए हैं साहित्य झाड़ने।
रफी साहेब को हैप्पी बर्थडे कहते शर्म नहीं आती।
एक मीडिया समूह ने हिंदी का सत्यानाश कर दिया है।
टीवी वालों को भाषा की समझ ही नहीं है।
गालियों का भी कहीं समाजशास्त्र होता है। गालियों पर बात करने वाले गंदे हैं।
ये सब किसी ऐसे आदमी के सामने बोलिए, जिसके स्कूल में अंग्रेजी हिंदी में और हिंदी स्थानीय बोली में पढ़ाई गई हो। नुक्ते से जिसका परिचय न हो। बड़ी ई और छो़टी इ या बड़ा ऊ या छोटा उ लिखने के लिए जिसके स्कूल और कॉलेज में नंबर कभी न कटे हों, तो उस पर क्या बीत रही होगी? जिनके लिए स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का भाषाई कॉन्सेप्ट धुंधला हो, उसे हिंदी समाज में जीने का हक है या नहीं? या सीधे फांसी पर लटका देंगे या हिंदी से जाति निकाला दे देंगे। और अगर आप ऐसा करेंगे तो आप हिंदी के दोस्त हुए या दुश्मन?
भाषा का जनपक्ष
एक सवाल कई बार मन में आता है कि भारत की राजधानी का नाम अगर पटना या रांची या दरभंगा या चित्रकूट या बांदा या गोपेश्वर या कोपरगांव होता और हिंदी के अपेक्षाकृत समृद्ध प्रदेशों के नाम झारखंड, मिथिलांचल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड या छत्तीसगढ़ होता तो भी क्या हिंदी का शास्त्रीय स्वरूप ऐसा ही बनता, जैसा आज है।
हिंदी का जो शास्त्रीय रूप हम लिख पढ़ रहे हैं ये कुछ सौ साल से पुराना तो नहीं है। यही तो वो समय है जब उन मुस्लिम/अंग्रेज/हिंदुस्तानी शासकों का दबदबा रहा, जिनकी सत्ता का केंद्र दिल्ली और आगरा जैसे शहर रहे।। यही तो वो इलाका है, जिसकी हिंदी आज सबकी हिंदी है। खड़ी बोली हिंदी की जिस शुद्धता का अहंकार कुछ लोग कर रहे हैं वो इसी इलाके की भाषिक परंपरा की बात कर रहे हैं। साहित्य की भाषा के बारे में अक्सर आग्रह होता है कि वो अभिजन की भाषा हो। लेकिन साहित्य सिर्फ अभिजन की भाषा में ही लिखा जाए तो सूर, तुलसी, कबीर, नानक सबको भुलाना होगा। और ऐसी है सैकड़ों, हजारों नामों के बगैर साहित्य भी कितना गरीब हो जाएगा। नायक क्या वही होंगे जो अभिजन की भाषा बोलेंगे, लिखेंगे?
और फिर ब्लॉग तो खुला मंच है। यहां तो आपको इस सोच/जिद के लिए भी स्पेस देना होगा कि मैं अपने तरीके की हिंदी लिखना चाहता/चाहती हूं और कि मैं देवनागरी स्क्रिप्ट में लोकभाषा का ब्लॉग लिख रहा/रही हूं। एसएमएस में, ईमेल में, फिल्मों में, एड में, गानों में और टीवी पर भी भाषायी शुद्धतावादियों को अक्सर हताश होना पड़ता है। रेशमिया जैसे संगीत के चांडाल आज हीरो हैं, जो करते बने कर लीजिए। इन जगहों पर बात को कहने के अंदाज की कीमत है। व्याकरण और वैयाकरणों को यहां विश्राम दिया जा सकता है। इन जगहों पर भाषाई महामंडलेश्वरों के लिए कोई जगह नहीं है। और ब्लॉग में तो गलत भी है तो मेरा है, पढ़ना हो तो पढ़ों वरना आगे बढ़ों बाबा। खाली-पीली टैम खोटा मत करो।
भाषा को अविरल बहने दो
भाषा सिर्फ साहित्व का नहीं संवाद का भी माध्यम है। भाषा जब अभिजन से लोक में जाती है, तो अपना स्वरूप बदलती है। हर भाषा कई फॉर्म में चलती रहती है, बहती रहती है। इस पर दुखी होने का कोई कारण नहीं है। उर्दू के साहित्य में नुक्ता रहे। उर्दू से जुड़े हिंदी के भाषायी फॉर्म में भी उसका अस्तित्व बना रहे। कोई सही जगह नुक्ता लगा सकता है तो जरूर लगाए। कई लोगों को अच्छा लगता है। हिंदी से नुक्ते का गायब होना तो शायह इसलिए हुआ है कि स्कूलों में नुक्ते की पढ़ाई नहीं होती। इसलिए ज्यादातर लोगों को भरोसा नहीं होता कि ये सही जगह लग रहा है या गलत जगह पर। नुक्ते के बगैर शब्दों के अर्थ बेशक बदल जाते हैं, लेकिन हम शब्द नहीं वाक्य बोलते हैं और वो भी अक्सर एक संदर्भ के साथ बोलते हैं। नुक्ता न लगाएं तो कुछ लोग कहते हैं कि कान में खटकता है, लेकिन अर्थ का अनर्थ होते मैंने कम ही सुना है।
उसी तरह संस्कृतनिष्ठ भाषा से किसी को प्रेम है, तो वो वैसी भाषा लिखे। खुश रहे। लेकिन ये जिद नहीं चलेगी कि हिंदी में संस्कृत के ही शब्द चलेंगे। हिंदी में लोकभाषा के शब्द आए, संस्कृत के शब्द आए, विदेशी भाषाओं के शब्द भी आए और इनके आने से भाषा गरीब नहीं हुई। अंग्रेजी अगर इस देश में एलीट की भाषा है तो अंग्रेजी के असर से देश की कोई भाषा सिर्फ इसलिए नहीं बच जाएगी, कि आप ऐसा चाहते हैं।
भाषा अगर अपने लोकपक्ष के बारे में अवमानना का भाव रखेगी तो वो दरिद्र होती चली जाएगी और बाद में शायद मौत का शिकार भी बन जाएगी। भाषा को अलग अलग रूपों और फॉर्म में प्रेम करना सीखिए। कंप्यूटर, मोबाइल, गेमिंग, ई-कॉमर्स, इन सबका असर भाषा पर हो रहा है। छाती मत पीटिए, भाषा बिगड़ नहीं रही है, बदल रही है। अक्सर जिसे हम भाषा की गलती मानते हैं वो अलग तरह से बोली गई या लिखी गई भाषा होती है। भाषा शुद्ध तरीके से लिखी या बोली जाए, इससे शिकायत नहीं है, लेकिन जो शुद्ध नहीं है उसे भी जिंदा रहने का हक मिलना चाहिए।
(ये बातें आपसे एक ऐसा शख्स बोल रहा है जिसका परिचय इसी लेख में ऊपर दिया गया है)
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2 comments:
भाषा की शुद्धता और अशुद्धता से कहीं ज्यादा जरुरी है भाषा मे मिठास होना।
हिन्दी भाषा का कुल इतिहास ही सौ साल का है. इसके पहले का जो हिन्दी साहित्य उपलब्ध है वह हिन्दी का नहीं, हिन्दी की डकैती का है. कबीर-रैदास-गोरख भोजपुरी के हैं, तुलसी-जायसी अवधी के, सूर-मीरा-रसखान आदि ब्रज के और विद्यापति मैथिल के. जब हिन्दी हिन्दी नहीं थी. टैब इन्ही लिंग दोषियों को मिल कर हिन्दी के साहित्य को रीढ़ दी गई और इनमें से कोई नुक्ता-उक्ता भी नहीं जनता था. आज अगर इन्हें हिन्दी से निकाल दें तो हिन्दी की फिर वही दशा होगी. असल में हिन्दी आज तक राजभाषा ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई. इसकी वजह कुछ और नहीं, ऐसे ही सरकारी चमचों का हिन्दी का नीतिनिर्धारक होना है.
एक बात और. जो लोग कहते हैं कि बिहार या यूपी या कहीं और वालों का लिंग कमजोर होता है तो उससे तुरंत यह सवाल करें की उसने इस्तेमाल करके देखा क्या? आखिर ऐसे कोई कुछ कैसे कह सकता है!
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