- दिलीप मंडल
पहले मोहल्ला पर दीपू राय और अब एक हिंदुस्तानी की डायरी नाम के ब्लॉग पर अनिल रघुराज। खेमे कितने होंगे, इस पर दोनों की राय अलग है, लेकिन दोनों चाहते हैं कि खेमे बना दिए जाएं। बल्कि दोनों कहते हैं कि खेमे हैं। अब सबके हिस्से बांट दिए जाएं। कृपया मुझे असहमत होने की इजाजत दीजिए। और इस्तेमाल कीजिए इस लक्जरी का तब तक, जब कि हम गिने-चुने हैं।
उस दिन की कल्पना कीजिए, और वो दिन दूर नहीं, जब हम कई हजार होंगे, लाख होंगे। हर सेकेंड पर कोई न कोई इंग्लिश ब्लॉग अपडेट होता है न, वैसा ही तो हमारे यहां भी होने वाला है। फिर कैसे बांटेंगे? रेसिपी बताने वाले ब्लॉग, ट्यूशन देने वाले व्लॉग, अपार्टमेंट के ब्लॉग, शारीरिक रूप से अक्षम करार दिए गए लागों के ब्लॉग, एफएम श्रोताओं के ब्लॉग, बाढ़ पीड़ितों के ब्लॉग, थैलिसीमिया पीड़ितों के ब्लॉग, कैंसर के लिए सलाह देने वाले ब्लॉग, बच्चों के ब्लॉग बूढ़ों के ब्लॉग....... अपनी-अपनी पसंद जोड़ लीजए। ये अंतहीन सूची बनने वाली है दोस्तो। राजनीतिक ब्लॉग, सामाजिक ब्लॉग, संगीत के ब्लॉग, फोटोग्राफर के ब्लॉग और हां किताब से कोट करने वाले ब्लॉग और किताब से कोट न करने वाले ब्लॉग...। और भी पता नहीं कैसे कैसे ब्लॉग।
तो मैं ब्लॉग के किसी भी खेमे में शामिल होने से इनकार करता हूं। लेकिन अगर आप मुझे किसी खेमे में डालेंगे, या ऐसा करने की जिद ठानेंगे, तो ऐसा करने के आपके अधिकार का पूरा सम्मान है।
चंद्रभूषण जी की इस बात से सहमति है कि हिंदी के ब्लॉग में किताब का स्पेस कम है। कबीर जब किताबी ज्ञान का विरोध कर रहे थे, तब वो किसके खिलाफ खड़े थे, क्या ये बताने की जरूरत है? इसे जानने के लिए क्या तरीका अपनाना चाहिए? ऐसे मामलों में संदर्भ दिया जाए या छोड़ दिया जाए?
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4 comments:
thik socha hai aapne
दिलीप जी, मेरे विचार में रघुराज जी ने तो आज की बात की थी--निःसंदेह आने वाले समय में तो यह ब्लागिंग विधा किसी श्रेणी की मोहताज नहीं रहेगी, न ही खेमेबाजी होगी---ऐसा लगता है। मैं तो इतना ही समझ पाया हूं।
हम तो मस्त बिरागी। अपना मन-मत जहां समाना, वहीं धुनि रमाना...
सही है दिलीप जी।
खेमा नहीं होगा तो मनमुताबिक पढ़ने के लिए ढ़ूंढते रह जाओगे!
हर बात का सकारात्मक पक्ष भी होता है।
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