- दिलीप मंडल
मैकाले पर फिर से बात करनी है। एक इनविटेशन से ट्रिगर मिला था। फिर मैकाले के बारे में जानने समझने की कोशिश की। कुछ लिखा भी । उस पर एक लेख आया चंद्रभूषण जी का। चंद्रभूषण या अपनों के लिए चंदू, उन लोगों में हैं जो बोलते/लिखते हैं, तो गंभीरता से सुनना/पढ़ना पड़ता है। उनके कहे में सार होता है। हल्की बातें वो नहीं करते।
इसलिए मैकाले को पिछली कुछ रातों में जग-जगकर एक बार फिर पढ़ा। अनिल सिंह यानी रघुराज जी कहेंगे कि पोथी के पढ़वैया को फिर से कोई दोष होने वाला है। लेकिन अनिल जी, हम भी क्या करें। हमें पढ़ने का मौका हजारों साल के इंतजार के बाद मिला है। नए मुल्ला की तरह अब हम ज्यादा प्याज खा रहे हैं। किसी भूखे इंसान को भकोस-भकोस कर खाते देखा है आपने? अभी तो हम बहुत पढ़ेंगे और बहुत लिखेंगे। झेलिए, उपाय क्या है?
लेकिन बात शुरू हो उससे पहले एक टुकड़ा मैकाले के बारे में, जो हर्ष के ब्लॉग में है, संजय तिवारी जी के ब्लॉग में था और आजादी एक्सप्रेस में लगा है। आप भी पढ़िए।
लार्ड मैकाले की योजना
मैं भारत के कोने-कोने में घूमा हूं और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया जो चोर हो, भिखारी हो. इस देश में मैंने इतनी धन-दौलत देखी है, इतने ऊंचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी भी इस देश को जीत पायेंगे. जब तक उसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो है उसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत.और इसलिए मैं प्रस्ताव रखता हूं कि हम उसकी पुरातन शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को बदल डालें. यदि भारतीय सोचने लगे कि जो भी विदेशी और अंग्रेजी में है वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं.
(2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में मैकाले द्वारा प्रस्तुत प्रारूप)
अब मुझे ये जानना है कि मैकाले को आखिर किस स्रोत से कोट किया गया है। मैंने इसे तलाशने के लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट की साइट और उसकी बताई साइट, ऑनलाइन किताबों की साइट, विकीपीडिया, नेशनल आर्काइव का संदर्भ, मिसौरी सदर्न स्टेट यूनिवर्सिटी, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी और कोलंबिया यूनिवर्सिटी की साइट जैसे उपलब्ध स्रोत छान लिए हैं। हो सकता है कहीं कुछ छूट रहा हो। भाषण तो दर्जनों जगह है। लेकिन वो अंश नहीं हैं जो ऊपर लिखे हैं। उसका स्रोत आपको दिखे तो जरूर बताइएगा। इससे मैकाले के बारे में कुछ बदल नहीं जाएगा। लेकिन न्याय की इमारत सच की बुनियाद पर खड़ी हो तो बेहतर।
दरअसल इतिहास जब लिखा जाता है तो मुख्यधारा का स्वार्थ सबसे अहम पहलू बन जाता है। इसलिए इतिहास का कोई अंतिम सच या निर्णायक पाठ नहीं होता। इतिहास लेखन अनिवार्यत: इस बात से तय होता है कि उसे कौन और किस समय लिख रहा है। आतंकवादी भगत सिहं एक समय के बाद क्रांतिकारी बन जाते हैं। पाकिस्तान की किताबों के नायक जिन्ना भारत के टेक्सट बुक में विलेन बन जाते हैं और भारत की किताबों के नायक जवाहरलाल पाकिस्तान में खलनायक। ऐसे सैकड़ों-हजारों उदाहरण इतिहास में बिखरे पड़े हैं।
मैकाले के बारे में बात करने से पहले ऊपर के लिए कोटेशन के बारे में पक्का जान लेना चाहता हूं क्योंकि कई बारबात बार-बार बोली जाती है तो सच्ची लगाने लगती है। किसने कहा था ये- गोएबल्स ने? कहीं ऐसा तो नहीं कि लोग भोलेपन में कट-पेस्ट कर रहे हैं और उसे ही इतिहास समझ रहे हैं। वैसे, अगर ऊपर मैकाले को उद्धृत की गई बातों का प्रमाण मिल गया तो अपनी कही बातें वापस ले लूंगा।
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4 comments:
....आत्मगौरव, संस्कृति आदि-आदि
...गोएबल्स की जगह गोलवलकर लिखने से काम चल सकता है क्या?
बहुत सही! मैंने भी मान ही लिया था कि कहा होगा.. पर अब उसे शंका के दायरे में डाल दिया है.. पड़ा रहेगा वहीं जब तक सत्यापित नहीं होता..
बहुत पढ़ना और बहुत लिखना बहुत-बहुत जरूरी है; और जो बातें मान्यताएं बनकर रूढ़ हो चुकी हैं, उन्हें तो तोड़ना बहुत ही ज़रूरी है। मेरा तो कहना है कि मैकाले की नहीं, गांधी जैसी शख्सियत की भी चीड़फाड़ होनी चाहिए। दिलीप जी, जो पढ़ाई उलझाने के लिए नहीं, सुलझाने के लिए हो, उसमें तो मेरा भी भला है। फिर मैं ऐसा 'कालिदास' नहीं हूं कि अपनी ही भलाई का विरोध करने लगूं।
मैकाले का उक्त वक्तव्य वर्षों से मुझे संदिग्ध लगता रहा है। आपने सही कहा है। तलाश जारी रखिये। मैकाले के जितने भी उद्धरण मैने देखे हैं उनमें ये नहीं है और अधिकांश उद्धरणों में ( भारत संबंधी, शिक्षा माध्यम संबंधी) में संस्कृत हिन्दी को कोसा गया है , भारतीय ज्ञान को अपूर्ण बताया गया है।
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