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Friday, January 4, 2008

आज मैं आज़ाद हूं दुनिया के चमन में (भाग-1)

आर. अनुराधा

फिल्म चोरी-चोरी में हम इस गाने पंछी बनूं उड़ती फिरूं... के जरिए दर्शक को नरगिस की आजादी का अहसास होता है। लेकिन अपने जीवन में आप कब, किन मौकों पर खुद को आज़ाद महसूस कर पाते हैं? मैं अपने बारे में बताती हूं। किशोर वय में जब माता-पिता दोनों एक साथ घर पर नहीं होते थे तो बड़ी राहत महसूस होती थी। उनके घर के गेट से बाहर निकलते ही आजादी की लंबी सांस भरने जैसा सुख भुलाने लायक नहीं है। हालांकि ऐसे मौके कभी-कभार ही आते थे, और शायद इनकी दुर्लभता ही इन्हें हमारे लिए मूल्यवान बना देती थी।

मेरी तरह मध्य वय, मध्य वर्ग की कामकाजी महिलाओं को ऐसी आजादी महसूस करने के मौके कम ही मिलते हैं। एक मनपसंद किताब पढ़ने, बुनाई-सिलाई, या कोई और शौक पूरा करने के लिए थोड़ी-थोड़ी आजादी कई किश्तों में चुरानी पड़ती है। रविवार को जब आम तौर पर घर के सभी लोग छुट्टी मना रहे होते हैं, गृहणी को सबकी छुट्टी अच्छी तरह मन जाना सुनश्चित करने के लिए इंतजामात करने में व्यस्त रहना पड़ता है।

रसोई में पति-बच्चों का फर्माइशी कार्यक्रम, आने वाले हफ्ते के लिए खुद अपने और सभी के लिए रसोई से लेकर दफ्तर तक की तैयारी और सामाजिकता निबाहने का जिम्मा उसी के कंधों पर होता है। यह ब्यौरा अगर जिंदगी का एक टुकड़ा नहीं तो कई टुकड़ों का सच्चा कोलाज जरूर है।

त्यौहार के दिन घर में भारी माहौल है। गृहस्वामिनी नहा-धो कर धार्मिक नियमों का पालन करते हुए उपवास रख कर सुबह से त्यौहार के मुताबिक तरह-तरह के पकवान बना रही है, पूजा की तैयारी कर रही है, पूजा कर रही है, घर सजा रही है, संभाल कर रखे गए नए बर्तन निकाल रही है, सबकी सुविधाओं का ख्याल रख रही है, वगैरह-वगैरह। मेहमानों, मिलने-जुलने वालों की खातिर में कोई कसर न रह जाए। घर के बाकी सब लोग सज-धज कर घूम रहे हैं, फोन पर शुभकामनाओं का लेन-देन कर रहे हैं, आस पड़ोस में मिल-जुल रहे हैं।

दोपहर तक त्यौहारी भोजन अनुष्ठान के बाद वह निढाल हो चुकी है। फिर भी उसे उठना है। रात को पति के मित्र का परिवार खाने पर आ रहा है। उनसे 'अपने हाथों का लज़ीज़ खाना' खिलाने की चिरौरी और फोन पर मेहमानों से उनकी पाक कला का बखान भी पति कर चुके हैं। अब कोई सुनवाई नहीं, बचाव का कोई रास्ता नहीं। बात रख कर पति का सम्मान बढ़ाने का दारोमदार भी तो उसी पर है।

आखिर डिनर भी बीता, भले ही आधी रात हो गई। और इस तरह त्यौहार और छुट्टी का एक और दिन तमाम हुआ। अगले दन सुबह की रोजाना वाली भागमभाग के बाद आखिर दफ्तर में लंच ब्रेक में ही उसे राहत के दो पल मिल पाए, जिसकी तलाश उसे पिछले पूरे दिन रही थी। अगर वह ये परंपराएं छोड़ कर फुर्सत काटने की सोचे तो किसी के कहने के पहले खुद ही अपराध बोध महसूस करने लगेगी। उसकी ग्रूमिंग इसी तरह हुई है।

बचपन से यही संस्कार उसमें भरे गए हैं। इनसे अलग कोई भी व्यवहार उसे गलत लगता है। आखिर उसके जीवन का मकसद ही है परिवार को संभालना ताकि सब आगे बढ़ें और वह स्थिर रहे चट्टान की तरह। पर कभी किन्हीं कमजोर पलों में उसे लगता है कि न तो वह पत्थर की तरह मजबूत है और न ही निर्जीव। वह भी जीती-जागती इंसान है। लेकिन अपने संस्कारों के घेरे से बाहर उसकी सोच भी जवाब दे जाती है।

3 comments:

स्वप्नदर्शी said...

मुझे यही समझ नही आता कि क्यो पढी-लिखी आत्म-निर्भर महिलाये इस लीक पर चलती है ?
कई दूसरे तरीके भी है, समजिकता के.
उपवास क्यो रखना है? घर के बच्चो व पुरुषो को घर के कामो मे क्यो न लगाया जाय? मेहमान और घर के दूसरे लोग खाने के बाद अपनी थालिया खुद दो सकते है.
अगर दो तीन परिवार मिलकर खाना खाने का कार्यकर्म बनाते है तो हर कोई कुछ न कुछ पका कर ला सकता है. मुख्य बात है साथ मे हंसी-खुशी समय बिताना.

मीनाक्षी said...

अक्सर पढ़ना तो होता है लेकिन आज की पोस्ट ने रोक लिया. बहुत बारीकी से नारी जीवन का चित्रण किया है...
सच ही है जब अपने घर में ही आज़ादी को टुकड़ों टुकड़ों में चुराना पड़ेगा तो कैसे आत्मविश्वास जागेगा कि भीड़ में अपने आप को बचा लें. साबुत आज़ादी घर में मिलेगी तो ही एक शक्ति बन कर वह अपनी रक्षा कर सकेगी.

Anonymous said...

माफ़ कीजियेगा पर मैं इस बारे मे आपसे सहमत नहीं हूँ।

पर पहले... धन्यवाद हिन्दी मे लिखने के लिए... अन्यथा मैं Google से आपके blog पर नहीं आ पता।

एक गृहणी का जीवन आख़िर यही तो है... असल मे, आख़िर यही तो जीवन है! आज़ादी के पल व्यस्क होने के बाद किसी को नहीं मिलते... निकलने ही पड़ते हैं। हो सकता है कि गृहणी को लगता हो कि पुरुष (पति/बच्चे) को अधिक स्वतंत्रता का जीवन नसीब है, पर ऐसा नहीं है! गृहणी होना भी एक काम है, जो हो सकता है professional भले ना हो, उतना ही कठिन और नीरस है।

अन्तिम सत्य तो यही है कि ये पुरुष प्रधान समाज है। कहीं न कहीं तो भेद है ही। हल सिर्फ एक ही है: समानता। जब तक काम कि समानता नहीं है तब तक और किसी तरह कि समानता नहीं आएगी। पश्चिम मे इस समस्या को हल कर लिया गया है, सभी लोग अपना लाते, अपना खाते हैं। इसके अतिरिक्त कोई और हल हो ही नहीं सकता है। हाँ, यदि समस्या को और बिगाड़ना है तो वही सब कीजिए जो ऊपर लिखा हुआ है: मेहमानों से बर्तन साफ करवाना।

ये काल बदलाव का है, इसमे योगदान कीजिए। यदि आत्मनिर्भर हो सकती हैं तो आत्मनिर्भर हो ही जाइये। नहीं तो मेरी मानिये, आपकी कोई नहीं सुनने वाला। कोशिश कर के देख लीजिये! यदि पति और बच्चे सही मे मदद करते हैं तो आप अतिभाग्यशाली हैं! यदि आत्मनिर्भर होने के बाद भी मदद नहीं करते तो फिर... ये तो आपको ही देखना पड़ेगा.

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