आर. अनुराधा
औरत के लिए आजादी के क्या मायने हैं? सवाल कितना सरल और सहज लगता है, पर जवाब भी क्या उतना ही सरल लगता है? मेरी सहेली कामिनी ने अपने पिछले जन्मदिन का दुखड़ा सुनाया। उसकी ससुराल में परंपरा है कि परिवार में किसी का जन्मदिन हो तो घर में खीर बनती है और सबसे पहले ' बर्थडे बेबी' को खिलाई जाती है।
तो, कामिनी के जन्मदिन पर सुबह-सुबह किसी की अपेक्षा नहीं थी कि खीर बने क्योंकि उसे दफ्तर जाना था और उसके अलावा कौन बनाता खीर, अपने व्यस्त जीवन से कुछ कीमती समय निकाल कर। लेकिन उसने अपनी तरफ से इतना किया कि सबके लिए बाजार से खीर की तरह की मिठाई सुबह-सुबह ले आई और सबको दे भी दी।
शाम को दफ्तर से लौटने पर, पर्याप्त लोकतांत्रिक माने जाने वाले उसके ससुर ने खीर परंपरा की याद दिलाई। कमला के इरादे कुछ अलग थे। उसने इस तर्क के सहारे, कि सुबह तो खीर नुमा मिठाई खा कर जन्मदिन मनाया जा चुका है, अपनी अनिच्छा जताई। लेकिन उन्होंने फिर जोर दे कर कहा कि हर एक के जन्मदिन पर खीर बनती रही है तो तुम्हारे जन्म दिन पर क्यों नहीं।
कामिनी ने अपनी थकान का वास्ता दिया तो उपाय सुझाया गया कि महराजिन यानी पार्ट टाइम कुक बना देगी, जबकि वे खुद भी समझते थे कि इतना समय लेने वाला काम हड़बड़िया महराजिन कतई पूरा करके नहीं जाएगी और अंत में कामिनी को ही सब संभालना पड़ेगा। लगातार ध्यान रखना पड़ेगा वरना दूध तली में लग कर जलते देर नहीं लगती। हार कर, बात के मुद्दा बनने से पहले ही कामिनी चुपचाप रसोई में खीर बनाने में जुट गई। उसका जन्मदिन जो था।
वह चाहती थी इस दिन अपने लिए थोड़ा सा समय। उसमें शायद अपनी पसंद की कोई किताब पढ़कर या कंप्यूटर गेम खेलकर या शांति से रेडियो पर अपना पसंदीदा चैनल या कुछ गाने सुन कर उसे ज्यादा खुशी मिलती। अपनी बेबसी पर वह दो आंसू भी रो ली। लेकिन कोई क्यों नहीं समझना चाहता उसके मन को।
दूसरों के जन्मदिन पर तो वह मना नहीं करती, क्योंकि दूसरों की खुशी उस पर निर्भर है और इसमें उसे भी सुख मिलता है। न मिलता हो तो भी उसे मना करने का हक नहीं, खटना ही है क्योंकि वह सबका ख्याल रखने वाली गृहस्वामिनी है, परिवार की परंपरा को निभाना उसका कर्तव्य है। और इसी कारण अपने जन्मदिन पर भी राहत पाने का कामिनी को कोई हक नहीं मिला।
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4 comments:
हम्म , क्या कहा जाए ? यदि सबको खुश करने में लगी रहोगी तो वह दिन दूर नहीं जब आपको इन सबसे चिढ़ हो जाए ।
घुघूती बासूती
..sabse chid hone ke baad fir dheere dheere apne 'kuch na kar pane'ki aadat se bhi chid ho jaegi..
बुरा मानिएगा क्योंकि मेरी जहाँ तक समझ है, यह लेख अच्छी तरह से नहीं लिखा गया है. पहले तो आपने कहा कि 'किसी की अपेक्षा नहीं थी कि खीर बने'. इससे शुरुआत में ही पाठक के मन में आप यह भर देती हैं कि परिवार बड़ा लोकतांत्रिक और आधुनिक है. फ़िर ससुर खीर परम्परा की याद दिलाता है. तो क्या ग़लत करता है वह?
लेख के लोच से यह सामने आता है कि ससुर इतना समझदार है कि सुबह उसने कुछ नहीं कहा लेकिन अब उसे बहू से इतना स्नेह है कि वह परम्परा का बहाना लेकर कहता है कि जब हर किसी के जन्मदिन पर खीर बनती है तो बहू के जन्मदिन पर क्यों न बने? आख़िर वह कोई पराई तो नहीं!
'बहू के इरादे अलग थे' लिखकर आप यह संकेत देती हैं कि बहू वैम्प है. गृहस्वामिनी जैसा शब्द इस्तेमाल करके आप उसे सचमुच बड़ा रुतबा भी दे रहीं हैं यानी उसे इस घर में वह सब मिला हुआ है जिसकी वह तमन्ना करती है या करती थी.
आपके लेख से यह संदेश जाता है कि बहू ग़लत कर रही है जबकि आपका मक़सद हरगिज़ ऐसा नहीं था. क्या मैं ठीक समझा? अगर हाँ, तो लिखने की शैली में ही कहीं कोई त्रुटि है. वैसे मैं लेखन के बारे में ज्यादा नहीं जानता.
अर्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र!!! 'बुरा मत मानिएगा' की जगह, 'बुरा मानिएगा' चला गया. अब जाकर देखा तो भूल का अहसास हुआ. क्षमाप्रार्थी!
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