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Tuesday, January 1, 2008

क्यों न मनाएं नया साल?

आर. अनुराधा

आज
, सन 2008 के पहले दिन दुनिया के ज्यादातर लोग अपने-अपने तरीके से, अपनी-अपनी भाषा में अपने करीबियों को नए साल के आगमन पर शुभकामनाएं दे रहे हैंलेकिन हमारे बीच कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि इसमें समारोह जैसी कोई बात नहीं, बल्कि अफसोस होना चाहए कि जिंदगी का एक और साल खत्म हो गयाकुछ और इसे विदेशी संस्कृति का हमला बता सकते हैं तो कुछ युवाओं का फितूर भी मान रहे होंगेलेकिन साल का कोई भी दिन मनाना अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का मौका देता हैचाहे ये त्यौहार अमरीका या इंगलैंड से आए हों, लेकिन इनका मकसद रिश्तों और उन रिश्तों में शामिल लोगों को थोड़ा ज्यादा महत्व देना भर हैइसमें गलत क्या है? इस बारे में मेरा एक लेख नवभारत टाइम्स में आज ही छपा है। उसे इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।

3 comments:

संजय बेंगाणी said...

ईशा का नया साल आपको भी मुबारक. ढ़ेरों शुभकामनाएँ.

अजित वडनेरकर said...

सहमत हैं।
नया साल मंगलमय हो ...

pranava priyadarshee said...

अनुराधा के लेख (नवभारत टाइम्स) के मूल भाव से असहमत होना कठिन है. अपनी भावनाए व्यक्त करने के चलन को पश्चिम का प्रभाव बता कर हम खारिज तो कर देते हैं लेकिन यह भूल जाते है कि 'छोटी- छोटी बातें' कह कर हम आस पास के लोगों को बिना किसी विशेष प्रयास के खुशियों के अनमोल पल दे सकते हैं . इसके अभाव मे हमारे रिश्तो मे बेवजह उलझने आती हैं. हम सामने वाले की भावनाओं को नही समझते और यह शिकायत रखते हैं कि वह हमे या हमारी भावनाओं को नही समझता.

बहरहाल, इस पहलू पर अनुराधा रौशनी डाल चुकी हैं और काफी अच्छे ढंग से डाल चुकी हैं.

मैं दूसरे पहलू की तरफ ध्यान खींचना चाहता हूँ . इस स्थिति को या पश्चिमी जीवन शैली के प्रति जन्मे हमारे मोह को आधार बनाते हुए बाजार की शक्तियों ने हमारे सांस्कृतिक जीवन मे सक्रिय हस्तक्षेप इस रूप मे किया कि हम अब तरह-तरह की 'डे' मनाने को मजबूर से हो गए हैं. जो डे हम जानते भी नही थे, वह मनाते हैं और जो डे जानते या हलके-फुल्के ढंग से मनाते थे, वे अब इतनी धूमधाम से मनाते हैं कि हमारे खुद के त्यौहार भी फीके पड़ जाएं .

कायदे से इस पर भी ऐतराज नही होना चाहिए . उत्सवधर्मिता हमारी विशेषता शुरू से रही है . लेकिन हमारे त्योहारों मे और बाजार के लाये इन विभिन्न डे मे एक अंतर यह है कि हमारे उत्सव स्थानीय स्तर पर ही सही हमे एक- दूसरे से जोड़ते हैं, मगर व्यापक रूप मे देखें तो व्यावसायिकता के गहन प्रभाव के वशीभूत ये डे हमे हमारे अपने घेरों तक सीमित करते हैं. अगर कल ही मनाये गए हैप्पी न्यू ईयर को देखें तो देश भर मे जिस रूप मे यह मनाया गया , उससे सामाजिकता की भावना को बढावा मिलता नही दिखता. हाँ यह कथित जश्न हमे खाओ-पियो खुश रहो के मूड मे जरूर लाता है. तो जिनके पास खाने-पीने को बहुत है वे अपने दोस्तों के साथ ऐश करते रहें और जिनके पास नही है उनकी चिंता करने की इन्हें क्या ज़रूरत है? वैसे भी उनके पास वक्त कहाँ बचता है इन लोगों के बारे मे सोचने का? पैसे कमाने के बाद जो वक्त बचता है वह तो जश्न मे खर्च हो जाता है . इससे दूसरा फायदा यह होता है कि जिनके पास पैसे नही हैं वे भी इन्ही लोगों से प्रेरणा लेकर सिर्फ 'अपने' लोगों के लिए बेहतर ज़िंदगी की जुगाड़ मे लगे रहते हैं. और कोई भी जुगाड़ लगते ही अपने जैसों को भूल जश्न मे डूबने को बेकरार हो जाते हैं.

आप कल्पना कीजिए अगर नंदीग्राम के मसले पर देशव्यापी आन्दोलन का माहौल बनता हो और बीच मे यह 'हैप्पी न्यू ईयर' का पर्व या ट्वेंटी -२० की कोई जोरदार सीरीज आ जाये तो मीडिया के सहयोग से उस आन्दोलन के माहौल को 'जश्न ' के माहौल मे बदल देने मे कितना वक्त लगेगा? ऐसा भारत मे ही नही दुनिया भर मे होता रहा है. लातिन अमेरिकी देशों मे वर्ल्ड कप फुटबॉल के मैच ऐसा ही असर दिखाते रहे हैं.

मेरा यह मतलब नही कि जब तक नया समाज नही बन जाता और एक -एक व्यक्ति के जीवन की बुनियादी समस्याएं दूर नही हो जातीं तब तक कोई उत्सव नही होना चाहिए. लेकिन इसे लेकर सचेत तो हमे होना ही चाहिए कि कौन सी बातें समाज को सार्थक बदलाव के रास्ते पर आगे बढाती हैं और कौन सी बातें अवरोध बनती हैं.

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