- दिलीप मंडल
दिसंबर, 2007 मेरे लेखकीय जीवन का शायद पहला महीना है, जब मैंने प्रिंट के लिए कुछ भी नहीं लिखा। नए साल से पहले का रिजोल्यूशन है कि ऐसा महीना फिर कभी नहीं आने दूंगा। बल्कि ऐसा कोई अलिखा हफ्ता भी, उम्मीद है कि फिर कभी नहीं आएगा। अपने आप से मैंने कहा है कि प्रिंट के लिए लिखना बंद तभी होना चाहिए, जब प्रिंट पूरी तरह निरर्थक हो जाएगा। प्रिंट के लिए एक महीने तक न लिख पाना समय की कमी की वजह से नहीं हुआ, बल्कि इसकी वजह था मानसिक आलस्य। इस आलस्य ने मुझे एक महीने तक प्रिंट के लिए मार डाला। इसलिए इस साल मेरी टेबल पर लिखा होगा - आदमी परिश्रम से नहीं मरता, आलस से मरता है।
बहरहाल ये महीना भारतीय समाज के बारे में कुछ रचनाएं पढ़ने, भविष्य के लिए योजनाएं बनाने, ब्लॉग चर्चा में शामिल होने, खास तौर पर अजित वडनेरकर, विजय शंकरऔर आलोक पुराणिक का ब्लॉग पढ़ने और इरफान तथा अशोक पांडे का ब्लॉग सुनने के नाम रहा। ईस्निप्स से बांग्ला के गाने भी खूब सुने। सलिल चौधुरी से लेकर सुमन कबीर तक। दो वार-मूवी देखी। दूसरे विश्वयुद्ध वाली। बंद होने से ठीक पहले चाणक्य सिनेमा की तीर्थयात्रा भी कर आया। वाणी प्रकाशन पहुंचकर तस्लीमा का समर्थन कर आया। नंदीग्राम पीड़ितों से मुलाकात भी हो गई।
इस बीच उत्तर प्रदेश बिहार और झारखंड की राजनीति पर नजर बनी हुई है। दवाओं का देसी-विदेशी खेल, अमेरिका की घरेलू राजनीति और इराक - अफगानस्तान - पाकिस्तान हमेशा की तरह रडार पर रहे। पश्चिम बंगाल के समाज और वहां की राजनीति पर लगभग साल भर से लगा हूं। इस विषय पर भी कुछ महत्वपूर्ण मिला तो आप तक पहुंचाऊंगा।
यहां शायद ये सफाई देने की जरूरत है कि बहुत सारे लोगों की तरह लिखना मेरे लिए हॉबी या लक्जरी नहीं है। मेरा ज्यादातर लेखन मजबूरी का लेखन है। जब लिखने की जरूरत आ जाती है तो न लिखने तक सो नहीं पाता हूं। आस पास कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है या दिख जाता है कि लिखे बगैर नहीं रहा जाता। वही सब आप लोगों को झेलना पड़ता है। आप लोग नहीं पढ़ेंगे तो भी लिखना पड़ेगा।
साल के आखिरी दिनों की तंद्रा हर्षवर्धन की एक पोस्ट और उसपर आई टिप्पणियों ने भगा दी है। इसका नतीजा ये हुआ है कि सेल्फ से कुछ ग्रंथ निकलकर टेबल और बिस्तर पर पहुंच गए हैं। फिर नोट्स बनने लगे हैं। कुछ ऑनलाइन सामग्री मिली है, कुछ की तलाश है। नेशनल आर्काइव से कुछ तथ्य चाहिए। धन्यवाद हर्ष, इस पोस्ट के लिए क्योंकि वो न होता तो ये सब कहां होता!
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2 comments:
दिलीप भाई, क्या साल की आख़िरी पोस्ट रात के ११ बजकर ५९ मिनट पर पोस्ट कराने का इरादा है? हा! हा!! हा!!!
दिलीप भाई की जय हो...
कहीं आपकी तरह भी कुछ लोग सैम्पल सर्वे न कर रहे हों। एक शेर याद आ रहा है।
मोहतसिब तस्बीह के दाने पर गिनता रहा
किनने पी, किनने न पी, किन किन के आगे जाम था
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