प्रणव प्रियदर्शी
कुछ लोगों को नरेन्द्र मोदी की जीत पर पुलकित होने वालो की बुद्धि पर तरस आता है तो कुछ अन्य को इस बात पर हैरत होती है कि कोई मोदी जैसे व्यक्ति की निंदा भी कर सकता है, वह भी उसकी जीत के वक़्त. दिलीप मंडल ने बिलकुल ठीक लिखा कि चुनाव जीतना और सही या गलत होना - दोनों दो अलग बातें हैं.
मगर इस बात मे भी दो राय नही कि लोकतंत्र मे किसी भी फैसले या नीति के लिए अन्तिम कसौटी जनता की अदालत को माना जाता है. ऐसे मे अगर आज मोदी समर्थक हालिया जनादेश को अपने सही होने का प्रमाण बताना चाहें तो उसे सीधे खारिज नही किया जा सकता. हाँ लोकतंत्र ही हम सबको बहुमत से असहमत होने का अधिकार और असहमति का आदर करने की तमीज भी देता है. (यह अलग बात है कि मोदी लोकतंत्र की इसी खूबी को सबसे ज्यादा खतरनाक मानते हैं और इसे ही नष्ट करने पर आमादा हैं). इसीलिए दिलीप ने कहा है कि जिन आधारों पर वे मोदी को गलत मानते हैं वे आधार मोदी की चुनावी जीत के बावजूद कायम हैं, और यह कि इसीलिए वे अपनी इस राय पर कायम रहेंगे भले मोदी दसियों चुनाव जीत जाएं.
मगर यहाँ सवाल सिर्फ एक दिलीप मंडल का या कुछ दिलीप मंडलों का नही है. दिलीप मंडल जिन्दगी भर मोदी से असहमत रह सकते हैं और उनकी इस पूरी जिन्दगी के दौरान नरेन्द्र मोदी गोधरा के सहारे दंगे करवाने का सिलसिला लगातार जारी भी रख सकते हैं. सवाल यह है कि दिलीप मंडल जैसे लोगों की बातें क्यों असरहीन साबित हो रही हैं और क्यों मोदी जैसे लोगों की बातें गुजरात के मतदाता के एक बडे हिस्से को प्रभावित करती दिख रही हैं?
जवाब शायद यह है कि जिसे हम धर्मनिरपेक्ष राजनीति कहते हैं वह भी आज अपने तर्क उसी साम्प्रदायिक राजनीति से ग्रहण करती है. ऊपरी तौर पर ऐसा न भी दिखे तो मूलतः दोनों के तर्कों मे अंतर नही है. अगर पेड़ के उदाहरण से समझा जाये तो राजनीति की उक्त दोनों धाराओं के लोग एक ही पेड़ की अलग-अलग डालो पर बैठे हैं. वे अपनी डाल को काटने की 'मूर्खता' नही करते, दूसरे की डाल काटने की कोशिश करते हैं, लेकिन इस क्रम मे पेड़ की जड़ तक पहुंच कर उस पर वार करने का उनका दावा खोखला साबित हो जाता है.
इतना ही नही चूँकि दोनों राजनीति मूलतः एक ही है तो जो उसे ज्यादा साफ शब्दों मे प्रकट करे वही ज्यादा प्रामाणिक माना जायेगा. नतीजा यह होता है कि कथित साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली भाजपा और उसमे भी कट्टर हिंदुत्व की बात करने वाले मोदी ज्यादा प्रमाणिकता प्राप्त कर लेते हैं. शंकर सिंह वाघेला जैसे लोग न इधर के रहते हैं न उधर के.
लेकिन बात सिर्फ वाघेला की नही कथित छद्म धर्मनिरपेक्ष राजनीति की वकालत करने वाले पूरे समूह की है. हम बुद्धिजीवी भी इससे बाहर नही हैं.
कई असुविधाजनक सवालों के जवाब हमे भी देने होंगे. हमे यह बताना होगा कि हिन्दू के रूप मे कोई सवाल उठाना अगर साम्प्रदायिक सोच का प्रतीक है तो मुस्लिम सवाल को उठाना प्रगतिशीलता का प्रमाण क्यों मान लिया जाता है? अगर सवर्ण दृष्टि दोषपूर्ण है तो दलित दृष्टि प्रगतिशील कैसे हो सकती है? अगर राजनीति या समाज को धर्म के चश्मे से देखना हानिकारक है तो जाति के चश्मे से देखना लाभदायक कैसे हो सकता है?
क्या ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं हैं? हिदू दृष्टि और मुस्लिम दृष्टि मे मूलतः क्या अंतर हो सकता है? (कृपया हिन्दू या मुस्लिम के रूप मे इसका उत्तर न ढूंढें). इसी प्रकार सवर्ण और दलित सोच भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
चूंकि हमारी मूल आपत्ति इस बात पर है कि भावनाओं के सहारे लोगों को हांकने की कोशिश नही होनी चाहिए और उपरोक्त सभी मुद्दे हमारी भावनात्मक पहचानो से जुडे हैं, इसीलिए इन पर आधारित बहस हमे किसी सर्वथा अलग निष्कर्ष की ओर नही ले जायेगी. वैसे ही जैसे इन पर आधारित राजनीति किसी बुनियादी तौर पर अलग, बेहतर समाज की नींव नही रख पायेगी.
और आज की तारीख मे हम न तो बुनियादी तौर पर अलग बहस शुरू कर पा रहे हैं, ना ही ऐसी राजनीति की जमीन बना पा रहे हैं. इसीलिए नरेन्द्र मोदियों के मुकाबले हमारी-आपकी आवाज नक्कारखाने मे तूती की आवाज ही साबित होनी है.
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3 comments:
अभी और मंथन की आवश्यकता है.
दोस्त बातो के अलावा कुछ करने की जरूरत भी है जहा मे..और शायद मोदी ने इन सारी चिझो से अलग रह कर बिना अपने पथ से विचलित हुये कुछ किया भी होगा गुजरात मे गुजरातियो के लिये.कभी वहा भी जाये और उसको भी देखे बताये..:)
संजयजी और अरुणजी टिप्पणी के लिए धन्यवाद. संजयजी, अगर दो-तीन वाक्य मे भी यह बताते कि और मंथन की आवश्यकता आपको किन बिन्दुओं पर और क्यो महसूस हुयी तो बेहतर होता. अरुणजी, इस बात पर तो बहस है ही नही कि मोदी ने काम किया है. तभी तो गुजरात के मतदाताओं के एक बडे हिस्से ने उन्हें पसंद किया. बात यह है कि इन कार्यो के जरिये वे जिस तरह का ध्रुवीकरण गुजरात मे कर रहे हैं वह भविष्य के लिए, गुजरातियों के भी भविष्य के लिए बेहद खतरनाक है. यह खतरा खुद मोदी या उनके अनुयायी तो बताएँगे नही लोगों को. यह काम उन लोगों को करना है जो इस खतरे को देख, सुन और महसूस कर रहे हैं. अपनी टिप्पणी मे मैंने उन बातों को स्पष्ट करने की कोशिश की है जिनकी वजह से यह काम प्रभावी नही हो रहा. अगर आपको लगता है कि मेरी यह कोशिश सफल नही हुयी यानी वे बातें स्पष्ट नही हो पायी तो बताएं मैं दोबारा प्रयास करूंगा, लेकिन कृपया बात और काम का घालमेल न करें. बहस और काम एक दूसरे के विरोधी नही हैं. अगर हमे या आपको काम भी करना है तो बहस से उसमे मदद ही मिलती है. हाँ अगर हमे कुछ करना नही है तो बहस न करके भी हम बैठे रह सकते हैं.
प्रणव
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